विभिन्न क्षेत्रों में लड़कियों की उपलब्धियों और महिला सशक्तिकरण के नारों के बीच हरियाणा का समाज पितृसत्तात्मकता और महिला-पुरूष गैर बराबरी से बुरी तरह त्रस्त है। यहां लोग बेटों की चाह में मरे जा रहे हैं। पुत्र लालसा में क्या कुछ नहीं किया जाता है। तरह-तरह की तिकड़में और अंधविश्वास के कितने ही मामले हैं। कन्या भ्रूण हत्याओं का अनंत सिलसिला। दंडनीय अपराध होने के बावजूद समाज में कन्या भ्रूण हत्या पर आम सहमति है। डॉक्टरों में पैसा कमाने की इच्छा से धड़ल्ले से हत्याओं को अंजाम दे रहे हैं। गांव-गांव में एजेंट बनाए गए हैं, जिनके सहयोग से बड़े पैमाने पर यह गोरखधंधा होता है। मुद्दे को यथार्थपरक ढ़ंग से यदि समझना चाहते हैं तो हमें ब्रह्मदत्त शर्मा के उपन्यास को पढ़ जाना चाहिए। शिवना प्रकाशन, सिहोरी से प्रकाशित उनके हालिया उपन्यास ने हरियाणा के समाज को एक बार फिर से समझने का मौका ही नहीं दिया, बल्कि उसे बदलने की दिशा भी दी है।
इससे पहले उत्तराखंड की प्राकृतिक त्रासदी के खुद के अनुभवों पर आधारित उनका पहला उपन्यास ‘ठहरे हुए पलों में’ पाठकों के बीच खूब चर्चित हुआ था। अब ब्रह्म दत्त शर्मा के दूसरे उपन्यास ने हरियाणा के समाज को आईना दिखाने का काम किया है। उपन्यास के आईने से यदि हम समाज को देखने की कोशिश करेंगे तो हमें बेटियों को बोझ मानने, पुत्र लालसा, पुत्र पैदा होने की खुशियों, बेटी होने पर गमगीन होने, बेटों की चाह में मां की कोख को बेटियों की कब्र बनाने के कलंक साफ दिखाई दे जाएंगे। मनीषा के सहयोग से किरण के संघर्ष से सीखकर इस कलंक को मिटाने की दिशा भी मिल जाएगी।
उपन्यास की शुरूआत अस्पताल से होती है। जहां पर किरण की दूसरी बेटी का जन्म होता है। बेटी के जन्म की खबर पाकर सास सोना और दो ननदों के अरमान ताश के पत्तों की भांति धराशायी हो जाते हैं। किरण एक ही बेटी से खुश थी। लेकिन बेटे की चाह में परिवार की जिद के आगे उसकी एक ना चली और उसने दूसरे बच्चे को जन्म दिया। इससे पहले बेटा होने की दवाई दी गई थी। मन्नतें मांगी गई थी। लेकिन वे किसी काम नहीं आई। इसके साथ ही शुरू होता है कहानी का पिटारा। बहुत ही सुंदर ढ़ंग से पिरोए गए 14 भागों में बंटे कुल 268 पृष्ठ के उपन्यास तक पाठक एक सांस में पढ़ता जाता है। कहीं पर भी पाठक की दिलचस्पी और जिज्ञासा कम नहीं होती है। कभी कहानी आगे बढ़ती है और कभी उसे समझने के लिए फ्लैशबैक तकनीक का सुंदर ढ़ंग से प्रयोग किया जाता है। उपन्यास में हमें पता चलता है कि किरण कॉलेज में बहुत ही होनहार छात्रा थी। उसने कॉलेज टॉप किया और विश्वविद्यालय स्तर पर दूसरा स्थान पाया। कॉलेज में अर्थशास्त्र प्राध्यापिका सुनिधि मैडम के विचारों से किरण खासी प्रभावित होती है। सुनिधि मैडम ने लड़कियों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के लिए नौकरी करने का संदेश दिया। किरण मैडम की तरह ही कॉलेज प्राध्यापिका बनने की इच्छा रखती थी। मैडम ने उसे यूपीएससी की परीक्षा क्वालीफाई करके उच्च प्रशासनिक सेवा में जाने का ऊंचा लक्ष्य निर्धारित करने की प्रेरणा दी। लेकिन सपनों के पंख लेकर ऊंची उड़ान की तैयारी कर रही किरण के पंख परिवार द्वारा उसका रिश्ता तय करके और शादी करके निर्ममता से कुतर दिए जाते हैं। परिवार के निर्णय के आगे बेटी भला अपनी इच्छाएं कैसे पूरी करे?
शादी के बाद एक बेटी के जन्म के बाद उस के ऊपर दूसरे बच्चे का दबाव बनाया जाता है। ससुराल की इच्छा है कि एक बेटा जरूर हो। लेकिन जब दूसरी भी बेटी हो जाती है। तो बेटे की चाह में तीसरे बच्चे के जन्म के लिए उसे मजबूर किया जाता है। लेकिन गर्भ में जब जांच करवाई जाती है तो पता चलता है कि पेट में बेटी है। गांव के अप्रशिक्षित डॉ. धर्मवीर के सहयोग से कन्या भ्रूण हत्या के लिए किरण को ले जाया जाता है। इसके बाद फिर से किरण गर्भधारण करती है और फिर से अबॉर्शन होता है। किरण का पति सुखबीर अपने माता-पिता का एकमात्र बेटा है। सुखबीर के पिता राजकिशन और माता सोना को पोते के बिना अपना जीवन अंधकारमय नजर आता है। ऐसे में सुखबीर शराब पीना शुरू कर देता है। एक बार जब वह किरण पर हाथ उठा देता है तो यह घटना कथा को नया मोड़ देती है। किरण अपने मायके आ जाती है। माता-पिता उसे ससुराल से नाराज होकर आने पर सहज ही स्वीकार नहीं करते। हालांकि माता-पिता की सहानुभूति उसके साथ है। किरण स्कूलों में रोजगार की तलाश करती है, लेकिन उसे नहीं मिलता। आखिर वह अपनी बचपन की दोस्त मनीषा से बात करती है। मनीषा उसे मुंबई में बुला लेती है। यहां पर मनीषा किरण को यूपीएससी परीक्षा के लिए प्रेरित करती है। बाद में किरण की दोनों बेटियों को मायके में छोड़ दिया जाता है। किरण यूपीएससी की तैयारी के लिए मुंबई आ जाती है। मनीषा के सहयोग से किरण ऑनलाइन कोचिंग लेती है। किताबें पढ़ती है।
अनेक प्रकार की बाधाएं मार्ग में आती हैं। किरण के माता-पिता भी इसके पक्ष में नहीं हैं। सुखबीर अपनी बहन सरोज के मनीषा के फ्लैट पर आ धमकते हैं। सुखबीर और किरण की बात होती है। सुखबीर उसे अपने घर आने या फिर तलाक की चेतावनी देता है। इन सब स्थितियों में किरण भावनात्मक रूप से कमजोर दिखाई देती है। अपनी बेटियों से दूर रहने के कारण उसके इरादों में कईं बार उतार-चढ़ाव आता है। इन परस्थितियों में मनीषा उसे संभालती है और उसे आत्मिक बल देती है। मनीषा को शराब पीता देखकर और उसके तलाक की खबर सुनकर भी वह मुंबई रहने का इरादा छोड़ देती है। आखिर मनीषा उसे अपने जीवन की व्यथा सुनाती है। तमाम मुसीबतों के बावजूद किरण यूपीएससी का प्री और मेन्स क्वालीफाई करती है। आखिर इंटरव्यू में सफलता अर्जित करके आठवां रैंक हासिल करती है। प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में खबर बनती है। ससुराल में झगड़ा, बेटे की मांग, अबॉर्शन, पिटाई, ससुराल छोडऩा, मुंबई में बेटियों से अलग रहना, तलाक का मुकदमा, मनीषा द्वारा की गई मदद अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। ससुराल के गांव की पंचायत और सुखबीर के परिजन उनके घर आते हैं और माफी मांगते हैं। आखिर किरण ससुराल जाने को राजी होती है। गांव में पंचायत द्वारा सभा आयोजित करके किरण को सम्मानित किया जाता है। यहां पर सुनिधि मैडम, मनीषा व सभी इक_ा होते हैं। किरण यहां पर सभा को संबोधित करती है। अपने संबोधन में वह अपने या महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय के लिए पितृसत्तात्मक और सामंती सोच को कसूरवार ठहराती है। और इस सोच को बदलने पर बल देती है। वह लड़कियों को मुश्किलों से डरने की बजाय डटकर सामना करने का आह्वान करती है। वह पुरूषों से अपील करती है- ‘‘बहन-बेटियों के जीवन में अवरोधक न बनें, बल्कि इस आधी दुनिया को उडऩे के लिए पंख और पूरा आसमान दें।’’ वह अपनी सफलता के पीछे मनीषा को श्रेय देती हुई कहती है- ‘‘मेरी हालत मुसीबत के मारे सुदामा जैसी थी, जो डरते-डरते कृष्ण के पास गया था और इसने मुझे उनकी तरह ही गले लगाया। देखो, मुझे उदाहरण भी कृष्ण-सुदामा का देना पड़ रहा है, क्योंकि लड़कियों की दोस्ती की शायद इतिहास व पुराणों में मिसाल नहीं है।.. .. सच कहूँ किरण बनना आसान है, लेकिन मनीषा बनना बहुत मुश्किल!’’
चरित्र-चित्रण एवं कथोपकथन-
चरित्र-चित्रण के मामले में ‘आधी दुनिया पूरा आसमान’ एक सफल रचना है। उपन्यास में महिला और पुरूषों का जीवंत और यथार्थपरक चित्रण है। ये चरित्र अलग-अलग आयु वर्ग के हैं। उपन्यास में किरण और मनीषा के बचपन, युवावस्था, शादी से पहले और बाद की दशा को हम देखते हैं। उपन्यास में विविध प्रकार के चरित्र हैं। ऊंचाई से नीचे और नीचे से ऊंची मंजिल पर जाने वाले दोनों तरह के पात्र हैं। पूरे वातावरण में नन्हें बच्चे चीजों को कैसे देखते हैं। कैसे वे बड़े होते हैं। इसका उदाहरण हमें किरण की बेटी तान्या और छोटी बेटी ईशानी के व्यवहार और संवादों से स्पष्ट होता है। भैया दूज के त्योहार पर ईशानी ने शिकायत भरे लहजे में कहा- ‘मम्मा, मैं आज किसे टीका करुंगी?.. संजना, दीप्ति और अंकिता ने अपने-अपने भाइयों को टीके कर दिए हैं। मैं बताओ किसे करुं। उन्हें पैसे भी मिले हैं।’ पात्रों के ऊपरी नैन-नक्श ही नहीं उपन्यास में पात्रों के मन-मस्तिष्क में चलने वाली प्रक्रियाओं और अन्र्तद्वंद्व का भी स्वाभाविक रूप से चित्रण किया गया है। चुटीले संवाद ना केवल चरित्रों की मनोदशा को उजागर करने वाले हैं, बल्कि कहानी को आगे बढ़ाने वाली भी हैं। अर्जुन के रूप में किरण और कृष्ण के रूप में उसकी बड़ी ननद सरोज के बीच संवादों का चुटीलापन देखते ही बनता है। जबकि किरण अपनी ननद से नौकरी करने के मामले में परिजनों को मनाने की अपील कर रही है। उदाहरण देखिए-
‘भक्त के रूप का कुछ ज्यादा ही बखान हो रहा है भगवन!’
‘हीरे की कद्र सिर्फ जौहरी ही जान सकता है।’
‘हे पीतांबर, इन व्यर्थ की बातों की छोडक़र अपने अनुज पर कोई जादू चलाओ।’
‘मैंने प्रयत्न किया था, लेकिन वे अविचल मातृ-भक्त हैं। उनके विरूद्ध कोई कर्म नहीं करते।’
‘मुझे मालूम है, परंतु मेरे तारणहार तो आप ही हो मधुसूदन! आप ही अपनी मायावी ताकत से मेरी सास का हृदय परिवर्तन करके इस नारी का दु:ख हर सकते हो।’
‘यह इतना आसान नहीं है देवी!’
‘जानती हूँ, किंतु अपने भक्तों के लिए आप असंभव को भी संभव कर सकते हैं।’
‘सुंदरी तुम मुझे विवश कर रही हो, इसलिए हम एक और प्रयास अवश्य ही करेंगे।’
डॉ. अनीता अबॉर्शन के लिए डॉ. धर्मवीर को स्पष्ट रूप से मना कर चुकी हैं। लेकिन उनके पति डॉ. मिगलानी इस बात से सहमत नहीं हैं। रूपये कमाने की हवस और जरूरत के बीच द्वंद्व मचा है। पति अपनी पत्नी को कैसे अबॉर्शन के लिए राजी करते हैं। बेहतरीन संवादों का यह नमूना भी दृष्टव्य है-
पति को परेशान देखकर डॉ. अनीता ने पूछा-‘मेरे न करने से क्या हम भूखे मर जाएँगे?’
भूखे तो खैर नहीं मरेंगे, लेकिन शायद रजे हुए भी नहीं रहेंगे।- डॉ. ने आह भरी।
‘क्या मतलब?’ उन्होंने हैरान होकर पूछा।
डॉ. साहब को मानें तरीका मिल गया था- ‘मतलब यह कि बेटे को डॉ. बनाने के लिए एक करोड़ डोनेशन चाहिए। आपका लड़ला इनता इंटेलिजेंट भी नहीं कि सरकारी कॉलेज में दाखिला मिल जाए। फिर बेटी की पढ़ाई के लिए पहले ही लाखों खर्च कर रहे हैं। इतने रूपये कहाँ से आएंगे’
गांव-शहर का जीवंत चित्रण-
उपन्यास ने फतेहगढ़ और महमूदपुर के ग्रामीण परिवेश का जीवंत चित्रण किया गया है। गांवों में कैसे एक परिवार की बातें पूरे गांव में चर्चा का विषय बन जाती हैं। चंपा जैसी महिलाएं एक घर की सूचनाएं पाकर पूरे गांव में फैलाने के लिए जानी जाती हैं। महिलाओं का घर से बाहर जाकर काम करना संकीर्ण दृष्टि से देखा जाता है। पढ़ी-लिखी महिलाओं के लिए आत्मनिर्भरता की बात सोचना भी अपराधा की तरह देखा जाता है। किरण को स्वयं स्कूल में पढ़ाने के लिए घर में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। महिला की सुंदरता कईं बार उसके रास्ते की बेडिय़ां बन जाती हैं। उपन्यासकार कहता है- ‘स्त्रियों की स्वतंत्रता शायद आसमान में उड़त किसी पतंग की भांति होती है। जैसे ही कोई पति या पिता डोर खींच देता है, वे धड़ाम से जमीन पर गिरतीं हैं।.. आखिर क्यों 21वीं सदी में भी औरतों को सिर्फ बच्चों और रसोई तक ही सीमित किया जा रहा था?’ शराबनोशी व नशाखोरी किस तरह से लोगों के घर उजाड़ रही है। सरकार ने गांव-गांव में शराब के ठेके खोल दिए हैं। बिल्ले जैसे कितने ही लोग हैं, जिनकी नशे की लत में जमीन-जायदाद सारी बिक गई है। वे शराब पीने के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। उपन्यास में धार्मिक पाखंडों को भी यथार्थपरक ढ़ंग से चित्रित किया गया है। पाखंडों और अंधविश्वासों में हमारा समाज उलझा हुआ है। ‘अजीब विडंबना है देवी को माँ मानने वाले लोग, माँ से ही देवी अर्थात लडक़ी ना होने की गुहार भी लगाते हैं। देवी को कोख में मारकर अपने लिए बेटे का वरदान भी चाहते हैं।’ उपन्यास में उच्च जातियों के परस्पर संबंधों को दिखाया गया है। दलित और पिछड़ी जातियों के जीवन पर कम ही प्रकाश डाला गया है। गांवों में शादी-समारोह और मृत्यु शोक का उपन्यास में सजीव किया गया है। यूपीएससी की परीक्षा पास करने पर गांव में उत्सव का माहौल भी देखते ही बनता है। हालांकि उपन्यास में सिर्फ गांव ही नहीं है। हरियाणा के गांवों से बिल्कुल भिन्न मुंबई जैसे शहर हैं, जहां पर महिलाएं अधिक स्वतंत्रता के साथ रहती हैं। मनीषा द्वारा शराब पीना किरण को बहुत परेशान कर देता है। समुद्र तट पर महिलाओं का स्वछंदता के साथ घूमना और धूप सेंकने के दृश्य हैं। गांवों में जहां महिलाएं दब कर किसी तरह रह रही हैं, वहीं मुंबई में महिला पात्रों का आत्मविश्वास कमाल का है। एक भारत में ही कईं भारत हैं।
शिक्षा व्यवस्था-
ब्रह्मदत्त शर्मा स्वयं शिक्षक हैं। इसलिए उपन्यास में शिक्षा व्यवस्था का बेहद प्रामाणिक चित्रण किया गया है। सरकारी स्कूलों में अध्यापकों की कमी है। बेरोजगारी की लंबी भीड़ सरकारी सेवाओं में आने को बेताब है। भर्ती निकलते ही एक अनार सौ बीमार वाली कहावत चरितार्थ होती है। अठारह हजार पदों पर की भर्ती के लिए तीन लाख से अधिक आवेदन पहुंच जाते हैं। आवेदनों के साथ लगे प्रमाण-पत्रों से भर्ती बोर्ड का कार्यालय ठसाठस भर जाता है। तब बोर्ड को लगता है कि कागजों का निरीक्षण करने के लिए उनके कार्यालय में कर्मचारियों की कमी है। अधिकारियों के हाथ-पाँव फूल जाते हैं। युवा शिक्षक भर्ती के लिए तैयारियां कर रहे हैं। लाखों उम्मीदवार कैसे हुए इसकी पृष्ठभूमि पर भी लेखक प्रकाश डालते हुए कहता है-‘उदारीकरण का दौर प्रारंभ होते ही सरकार ने विश्वविद्यालयों से स्पष्ट कह दिया वे अपने आय के स्रोत खुद पैदा करें और उन्हें एक सीमा से आगे अनुदान नहीं मिल सकेगा। मरता क्या न करता की कहावत चरितार्थ करते हुए प्रदेश के विश्वविद्यायों ने भी पत्रचार के माध्यम से कोर्स शुरू कर दिए। इन सभी में बीएड सबसे मलाईदार था, क्योंकि वर्षों से घरों मे बेरोजगार बैठी स्नातकों की फौज को सरकारी नौकरी का एक सुनहरा अवसर दिखाई दिया। इस हाथ दे और उस हाथ ले की तर्ज पर थोक के भाव डिग्रियाँ बाँटी जाने लगीं। बेशक प्रदेश में इससे डिग्रीधारियों की बाढ़ आ रही थी, लेकिन विश्वविद्यालयों के खजाने जरूर भर गए थे।’ इसके बाद कोढ़ में खाज की तर्ज पर बीएड, जेबीटी, नर्सिंग, इंजीनियरिंग आदि के निजी कॉलेजों की बाढ़ आई। इन कॉलेजों ने बिना स्टाफ व सुविधाओं के डिग्रियां बांटनी शुरू की। यहां से कहने को तो रेगुलर पढ़ाई होती है, लेकिन यहां पर अधिकतर विद्यार्थी नॉन-अटेंडिंग पढ़ाई कर सकते हैं। डिग्रीधारियों की फौज खड़ी करने के बावजूद सरकारी नियमित भर्ती से बचती रही है। सरकारी सेवाओं में भर्ती के लिए सिफारिश ही काफी नहीं है, रिश्वत भी देनी पड़ती है। किरण के ससुर का राजनैतिक रसूख होने के बावजूद उसे नौकरी इसीलिए ही नहीं मिली, क्योंकि उन्होंने रूपये नहीं दिए। निजी विद्यालयों में बेहद कम वेतन में युवक-युवतियां काम कर रहे हैं। उपन्यास के गांव बहरोट स्थित सरस्वती स्कूल का स्टाफ आए दिन इसी तरह की चर्चाओं में रस लेता है। इस स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या दिनों दिन बढ़ती हुई चौदह सौ तक जा पहुँची है। इस कारण शिक्षा की गुणवत्ता नहीं, बल्कि सरकारी स्कूलों के प्रति सरकार की घोर लापरवाही और उदासीनता है। इसलिए लोगों में निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना प्रतिष्ठा का कारण बनती जा रही है। उपन्यास में सरकारी नियमानुसार सुविधाएं नहीं होने के बावजूद निजी स्कूलों को राजनैतिक कारणों से मान्यता मिलती है। इस निजी स्कूल के प्रधानाचार्य मोहन लाल तीसरी श्रेणी में बीए पास थे और प्रिंसिपल नहीं बन सकते थे तो उन्होंने पत्नी के नाम से मान्यता ले ली। पत्नी केवल कागजों में ही प्रिंसिपल थी, बाकी मोहन लाल खुद ही उसके दस्तखत कर लेते हैं।
शिक्षा के प्रति लोगों आ रही चेतना के कारण गांव शहर में ट्यूशन की दुकानें भी खुल रही हैं। पिता की मृत्यु के बाद मनीषा का भाई रवि भी गांव में ट्यूशन पढ़ाने लगता है। पढ़ाई और ट्यूशन के साथ-साथ वह रात-रात भर जागर कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी करता है। जिससे उसे बैंक में नौकरी मिल जाती है। प्रकाश नगर में लड़कियों का कॉलेज है। जिस कारण आस-पास के गांव की लड़कियां शिक्षा प्राप्त कर पा रही हैं। बड़े शहरों में बड़े कॉर्सों की कोचिंग दिलाई जाती है। रवि अपनी बहन मनीषा को चंडीगढ़ में एमबीए की कोचिंग करवाता है। उसका आईआईएम अहमदाबाद में दाखिला हो जाता है। वहां से पढ़ाई करके उसे अच्छी कंपनी में जॉब मिल जाती है। शिक्षा का लगातार आम लोगों की पहुंच से निकलना लेखक की चिंता का विषय है। सरकारी स्कूलों में बेहद कमजोर आर्थिक स्थितियों वाले बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं। प्रकाश नगर के कॉलेज में सभी लड़कियों का पहुंचना आसान नहीं है। यूपीएससी जैसी परीक्षाओं की तैयारी करना भी आसान नहीं है। ऑनलाइन कोर्स की फीस भी बहुत अधिक है, जिसे किरण के लिए चुका पाना आसान नहीं था यदि मनीषा इस मामले में उसकी मदद नहीं करती तो वह इस परीक्षा को क्वालीफाई करने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी।
स्वास्थ्य व्यवस्था का चित्रण-
चिकित्सा शिक्षा की तरह ही समाज की बुनियादी आवश्यकता है। शिक्षा की तरह ही स्वास्थ्य सेवाएं भी सरकारी स्तर पर सहज उपलब्ध नहीं हैं। निजी अस्पतालों का बोलबाला है, जिनका एकमात्र मकसद अधिकाधिक पैसा कमाना है। उपन्यास के गांवों में सरकारी स्वास्थ्य केन्द्र दिखाई नहीं दिए हैं। गांवों में निजी डॉक्टरों का बोलबाला है।
‘12सौ की आबादी वाले गांव महमूदपुर में कहने को दो डॉक्टर थे, किंतु डिग्री एक के पास भी नहीं थी। प्रदेश के गांवों में नब्बे प्रतिशत बिना डिग्री वाले ही डॉक्टर थे, जिन्हें झोला छाप डॉक्टर कहा जाता था। उनके डॉक्टर बनने की कहानी भी बड़ी मजेदार और विचित्र थी। उन्हें किसी कोचिंग, प्रवेश-परीक्षा, मेडिकल कॉलेज, भारी-भरकम डोनेशन, पढ़ाई और डिग्री जैसी किसी भी चीज की जरूरत ही नहीं थी। वे शहर के किसी क्लिनिक या अस्पताल में सिर्फ दो या तीन साल कंपाउंडर के रूप में कार्य करते और फिर खुद डॉक्टर साहब बनकर बैठ जाते। जब तक दूसरे नीट परीक्षा की तैयारी हेतु मोटी-मोटी किताबों में दिमाग खपा रहे होते, तब तक उनका क्लिनिक भी खुल चुका होता। उनका डॉक्टर बनना राजमिस्त्री या दर्जी बनने जितना ही आसान था। ग्रामीणों की नजरों में वे किसी डिग्रीधारी डॉक्टर से कम नहीं थे और उन्हें वैसा ही सम्मान और रूतबा भी हासिल था। वैसे भी गाँव वासी शहरी डॉक्टरों की महँगी फीस नहीं दे सकते थे, इसलिए वे उन्हें खूब रास आते। झोलाछाप डॉक्टरों को पकडऩे के नाम पर सरकार पाँच-सात वर्षों में कभी-कभार छापेमारी की खानापूर्ति जरूर कर देती थी।’
महमूदपुर में दो डॉक्टर होने के बावजूद धर्मवीर पर ही अधिकतर लोगों का भरोसा था। उसका क्लिनिक इतना धड़ल्ले से चलता था कि डिग्रीधारी डॉक्टर भी हीनताबोध का शिकार हो सकते थे। बारहवीं करने के बाद वह नजदीकी कस्बे के एक डॉक्टर से काम सीखकर गाँव का प्रतिष्ठित डॉक्टर बन बैठा था। गंभीर बीमारी होने की स्थिति में भी उसे से रैफर होकर मरीज शहर के प्राइवेट अस्पतालों में जाते थे। इसकी ऐवज में धर्मवीर को मोटा कमीशन भी मिल जाता था। छुट्टी मिलने पर अस्पताल पहले से ही बढ़ा दिए गए बिल में कुछ रूपये धर्मवीर के कहने पर छोड़ देते थे, जिससे ग्रामीण उसके अहसानमंद भी हो जाते थे। दवाईयों और अस्पतालों के एजेंट उसे मुफ्त के सैंपल, नकद, तीज-त्योहारों पर तोहफे वगैरह देकर जाते थे। जिससे धर्मवीर का धंधा खूब फल-फूल रहा था। सुखबीर अपने बचपन के दोस्त से मिल कर ही गर्भ में लिंग जांच और बेटी का भ्रूण होने पर अबॉर्शन भी करवाता है। स्वास्थ्य के नाम पर अंधविश्वासों का बोलबाला है। बेटियों से छुटकारा पाने और पुत्र प्राप्ति हेतु तरह-तरह की दवाईयों का प्रयोग किया जा रहा है, जोकि महिलाओं और उनके होने वाले बच्चों दोनों के लिए खतरा है। इसके अलावा पुत्र प्राप्ति अनेक प्रकार के उपाय हैं। बेटियों को बोझ माने जाने की मानसिकता के कारण महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य किस तरह से खराब हो रहा है। इसका चित्रण भी उपन्यास में बखूबी किया गया है।
उपन्यास हमारे समाज की मानसिकता को जाहिर करते हुए एक बेहतर समाज का सपना देखता है, जिसमें महिलाएं भी आगे बढ़ सकें। लैंगिक असमानता का कलंक केवल महिलाओं को ही पीछे नहीं रख रहा, बल्कि हमारे समाज और देश को भी विकास की दौड़ में पीछे धकेल रहा है। समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की मानवता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। ऐसे में एक बेहतरीन, सफल एवं सार्थक रचना के लिए लेखक को पुन: अनंत बधाईयां।
लेखक अरुण कुमार कैहरबा समीक्षक एवं हिंदी प्राध्यापक हैं।
संपर्क - वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
बहुत बहुत धन्यवाद अरुण जी। आपने बड़ी मेहनत, गंभीरता और बारीकी से उपन्यास का विश्लेषण किया है।