सवालों की मर्यादा से बाहर मत जाओ गार्गी वरना सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा
ऋषि याज्ञवल्क्या ने जनक राजा के दरबार में शास्त्रार्थ के दौरान विदुषी गार्गी को इस तरह धमकी दी थी।
जैसे ही महिला स्वतंत्र की बात शुरू होती है हमे सुनने को मिलता है कि “तुम तो परिवार तोड़ने निकले हो”, अगर “महिला आजाद हुई तो आदमियों का क्या होगा?”, “फिर घर का काम कौन करेगा?”, “इससे तो पूरे समाज में अराजकता फैल जाएगी”। महिलाओं की आजादी व आत्मनिर्भरता के सवाल पर समाज की यही सोच है। जिस समाज में प्राचीन काल से ही प्रचलित हो कि (न स्त्री स्वतंत्रम अर्हति- मनुस्मृति) स्त्री स्वतंत्र के लायक नहीं है, जिस समाज में अकेली घर से बाहर जाने पर महिला को ‘चालू’ और ‘चरित्रहीन’ समझा जाता है, उस समाज से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वहां महिलाओं की ‘आजादी’ तथा ‘स्वतंत्रता’ जैसी शब्दों का स्वागत हो सकता है? जिस महिला को मनु ने ‘ताड़न के अधिकारी’ कहा है, उसकी मुक्ति? तौबा तौबा, घोर कलयुग है! दुनिया किस ओर चल पड़ी है? महिला स्वतंत्रता का सवाल शास्त्रार्थ का विषय नहीं है, वह शास्त्रार्थ की सीमा है।
लेकिन यह भी सच है कि समय बदल गया है। वर्तमान समाज बदलाव के एक दर्दनाक दौर से गुजर रहा है। यह दौर गार्गी और याज्ञवल्क्य का नहीं है। आज ऋषि याज्ञवल्क्य के फतवों को समाज में मान्यता नहीं मिलेगी। महिलाओं की आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता के बारे में अब मनस्मृति के श्लोकों पर आधारित शास्त्रार्थ से निर्णय नहीं होंगे। पुराने जमाने की असमानता और अन्याय पर आधारित व्यवस्था पर आज अनेकों सवाल खड़े हो चुके हैं। महिलाएं भी परंपरागत बंधनों से बाहर आकर अपनी पहचान बना रही हैं। घर की दहलीज पार कर खुली दुनिया में हर तरह का काम वह सफलतापूर्वक करती हैं।
दूसरी तरफ, इस समाज द्वारा इस बदलाव को रोकने के प्रयास जारी हैं। समाज में महिला का स्थान कितना ही ऊँचा हो, जितना भी सम्मान हो लेकिन पारिवारिक ढांचा उसके उस स्थान को स्वीकार नहीं करता। इसके विपरीत उसका घर से निकलकर आत्मनिर्भर होने पर सवाल किया जाता है जैसे कि – अगर वह घर नहीं रहेगी तो घर के कामकाज कौन करेगा? बच्चों को कौन संभालेगा? बाहर अन्य पुरूषों के साथ उठने-बैठने पर उसके चरित्र पर सवाल उठाए जाते हैं आदि। प्रसार माध्यमों द्वारा भी यही दिखाया जाता है कि शादी करना ही महिला की जिदंगी का मकसद है। यह प्रचार किया जाता है कि स्वतंत्र महिला मतलब बेपरवाह और गैर जिम्मेदार, नौकरी करने वाली महिला के पास पति और बच्चे व घर न होने से वह कितनी लाचार और असहाय हैं। इस तरह के प्रचार-प्रसार से पिछड़े व पुराने सामाजिक विचारों को मजबूती मिलती है।
अब समय आ गया है कि महिला स्वतंत्रता तथा स्वायत्तता को गलत व अनैतिक मानने वाली पिछड़ी सोच को और पुराने पारंपरिक मूल्यों को चुनौती दी जाए और अपने पूर्वग्रहों को किनारे कर ऐसी सामाजिक धारणाओं और शंकाओं को तर्क की कसौटी पर परखा जाए। यह एहसास कराना आवश्यक है कि महिला भी एक इंसान है। समाज में अपनी भूमिका तय करने व उसे निभाने का पूर्ण अधिकार उसे है। बदकिस्मती से अपने समाज ने महिलाओं के इस अधिकार को नकार दिया है। महिलाओं में मौजूद गुणों का विकास करने की स्वायत्तता व स्वतंत्रता नहीं देने के कारण समाजिक विकास सिकुड़ गया है, क्योंकि इस समाज ने समाज की आधी आबादी की मौलिक योग्यता और क्षमता का विकास होने ही नहीं दिया, इसका उपयोग करना तो दूर की बात है।
परिवार एक कैदखाना है
समाज में महिलाओं की भूमिका परिवार तक ही सीमित है। लड़की के बड़े होते ही उसे घर से बाहर जाकर खेलना हो, गाना या नाचना सीखना हो तो डांटकर कहा जाता है कि रसोई में जाकर मदद कर, बाहर जाकर खेलने से ज्यादा यह सीखना ज्यादा जरूरी है। बड़ी होने पर जब उसकी शादी होते ही घर से बाहर के कामकाज की जिम्मेदारी आदमी की होती है और घर के सभी काम- रसोई, झाड़ू-पोछा, कपड़े धोना, बच्चों की देखबाल करना आदि की जिम्मेदारी महिला की होती है। घर के सभी काम करते हुए भी घर से बाहर जाकर नौकरी कर आत्मनिर्भर बनने के लिए सबसे पहले उसे परिवार से ही संघर्ष करना पडता है। “अपने घर में किस चीज की कमी है कि तुम्हें नौकरी करने जरूरत महसूस हो रही है?”, “आदमी के होते महिला कमाने लगेगी क्या”! उसके घर से बाहर जाकर नौकरी करने की बात को परिवार प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर उसे निरुत्साहित करता है।
महिला अपनी स्वतंत्र पहचान नहीं बना पाती। वह किसी की पत्नी, किसी की बेटी, किसी की मां के रूप में ही पहचानी जाती है। सास-ससुर, ननंद, देवर, पति, बच्चे, यही उसकी दुनिया होते हैं और यही उसका अस्तित्व। उसे इस दहलीज को पार करने की इजाजत नहीं है। उसके तमाम सुख-दुःख इसी घेरे में घूमते हैं।
परिवार के इस कैदखाने में महिलाओं पर अनंत अत्याचार होते हैं। महिलाएं अपने पति को मालिक, स्वामी, पति-परमेश्वर आदि नाम से संबोधित करती हैं। जिससे पता चलता है कि घर में उनका स्थान क्या होगा और उनकी वस्तुस्थिति क्या होगी। घर की चार दिवारी में महिला पुरुष की दासी होती है और पुरुष उस पर शासन करने वाला निरंकुश शासक होता है। महिला को अपनी दासी समझ उस के साथ मारपीट करना, बीमारी के समय में भी उसके साथ शारीरिक संबंध बनाना, उस के साथ बलात्कार करना, बिना कारण घर से बाहर निकाल देना, जब मन करे दूसरी शादी रचा लेना आदि जैसे आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार हो। सारे धार्मिक ग्रंथ पुरुषों की इस क्रूर सत्ता को अधिकार देते हैं और घोषित करते हैं कि पति परमेश्वर की सेवा करना ही महिला का धर्म है। भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, मारपीट, अपमान, घर से बाहर निकाल देना आदि तमाम हिंसा को महिला मजबूरी से सहन करती हैं। इस तरह की असंख्या हिंसा परिवार की इज्जत, मर्यादा, घर की प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए उसे विवश करते हैं। यह अत्याचार एक के बाद एक होते दिखाई देते हैं। समाज में भी असमानता, अत्याचार आम बात हो गयी है। ऊपर से यह भी एक पति अपनी पत्नी पर कितने ही अत्याचार व अन्याय करे लेकिन समाज में उसकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आती। इसके कई उदाहरण मिलेंगे जहां एक जवान महिला को दहेज के लिए क्रूरतापूर्वक मार दिया जाता है फिर भी समाज चुपचाप देखता रहता है और उस गुनाह को निर्लज्जता के साथ दबाने की कोशिश करता है।
सामाजिक स्वीकृती से परिवार के पुरुषों ने इसी निरंकुश सत्ता से कितनी ही लड़कियों के सपनों को पाँव तले कुचल दिया है। उन्हें शिक्षा से वंचित किया जाता है, हंसने-खेलने, पढ़ने-लिखने की उम्र में शादी कर दी जाती है और किसी अंजान आदमी के गले में बाँध दिया जाता है। यह निर्णय उसके मां-बाप या भाई लेता है जिसके कारण उसे चुपचाप सहना पड़ता है। अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण फैसले लेने का अधिकार महिला को नहीं होता। क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा ही होता आया है। उसने बचपन से ही यह सब होता हुआ देखा है। परिवार के कैदखाने के अंदर की सुरक्षा का कीमत उसे अपनी स्वतंत्रता की आहुती देकर चुकानी पड़ती है। सामाजिक मान्यताओं के खिलाफ जाकर कोई लड़की अपने पसंद के लड़के से शादी करती है या अंतरजातीय विवाह करती है तो परिवार में ही उसे क्रूरतापूर्वक मार दिया जाता है और पूरा समाज और पंचायत उस परिवार के साथ खड़े होते हैं। जब इस प्रकार के क्रूर अपराधियों को बचाने के लिए समाज को मौन खड़ा देखते हैं तो लगता है कि समाज इन पारिवारिक अधिकारों को बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।
लेकिन क्या मौजूदा परिवार के इस स्वरूप को मान्यता देना उचित है? क्या इसे आदर्श परिवार कहा जा सकता है? इस प्रकार के परिवार को मान्यता देने का मतलब मूलभूत असमानता और निरंकुश सत्ता का समर्थन करना होगा। इतिहास कहता है कि परिवार हमेशा से नहीं था। प्राचीन मानव समाज में, आधुनिक समाज व्यवस्था के अस्तित्व में आने से पहले हजारों साल समाज समतावादी था। महिलाएँ परिवार की मुखिया होती थी, सामुदायिक आर्थिक, सामाजिक जीवन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। जैसे-जैसे संपत्ती और सत्ता पुरुषों के हाथ में आती गयी, वैसे-वैसे महिलाएँ सर्व सामाजिक अधिकारों से वंचित होती गई और घर की चार दिवारी में कैद कर दी गईं। इस प्रकार परिवार के अंतर्गत पितृसत्ता का उदय हुआ जिसमें महिला एक गुलाम की भूमिका में चली गई।
परिवारः समाज का एक महत्वपूर्ण घटक
भारत में परिवार की पुरानी सामंती संरचना आज भी ज्यों की त्यों मौजूद है। परिवार के इस कैदखाने से महिला की मुक्ति होनी ही चाहिए। उसकी जगह एक-दूसरे का आदर, समानता और सच्चे प्यार पर आधारित नए परिवार की स्थापना अनिवार्य है। जब विवाह दो दिलों का मिलन होगा, जब प्यार दो लोगों के आपसी सम्मान और विश्वास पर आधारित एकघनिष्ठ रिश्ता है तो उसमें असमानता और निरंकुशता के लिए स्थान ही नहीं होगा।
महिला-पुरुषों के बीच पूर्ण समानता, दो लोगों के बीच आपसी सम्मान, प्यार और विश्वास पर आधारित परिवार में ही एक अच्छा नागरिक पैदा हो सकता है। परिवार लड़की या लड़के का पहला स्कूल होता है। स्कूल में जाने से पहले बच्चे अपने मां-बाप, रिश्तेदारों से सही-गलत बाते सीखते हैं। वह अच्छे नागरिक बनेंगे या नहीं यह उनके घर का माहौल, मां-बाप की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर, उनके बच्चों की देखभाल का तरीका, बच्चे को बचपन से मिले संस्कारों पर निर्भर होता है। लड़का-लड़की को समानता, न्याय, ईमानदारी, मेहनत, स्वाभिमान, तर्कशीलता, परोपकार और मानवप्रेम के आदर्श सिखाने वाले, उन्हें आत्मविश्वास देकर नेतृत्वकारी गुणों से संपन्न करने वाले, उन्हें स्वतंत्र विचारों वाला एक नागरिक बनने के लिए प्रोत्साहित करने वाले परिवार को ही आदर्श परिवार कहा जा सकता है। परंतु एक गुलाम और अशिक्षित मां से इसकी अपेक्षा कैसे किया जा सकता है? और निरंकुश सत्ता के शासक एक अहंकारी बाप भी यह कर सकता है क्या? निश्चित ही नहीं कर सकता! जिस घर में असमानता और पुरुषप्रधान सत्ता प्रतिष्ठित होगी, उस घर में मां गुलाम होगी, वह परिवार अंधविश्वास और रूढ़ीवादी परंपरा वाला होगा, हर बात में अपने पति पर निर्भर होगी, जिसे खुद के आत्मविश्वास और स्वाभिमान की पहचान नहीं होगी, हर दिन पति से अपमानित होती होगी और बाप अहंकार की साक्षात मूर्ती होगा, जिस घर में समानता और तर्क के लिए कोई जगह नहीं होगी और जहां आदेशों के पालन किए जाते होंगे, ऐसे परिवार में समानता, स्वाभिमान, न्याय और तर्कसंगत विचारों के संस्कार कैसे निर्माण हो सकते हैं? केवल एक सुशिक्षित, स्वतंत्र, आत्मविश्वासपूर्ण, सुसंस्कृत और स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली मां ही अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दे सकती है। एक सुखी और न्यायिक समाज तभी बनेगा जब इस समाज की आधी आबादी मतलब महिलाए स्वतंत्र होंगी।
ओच्छी मानसिकता को त्यागो
दुर्भाग्य से हमारे समाज में अंधिकांश लोग परंपरा के नाम पर पुरानी मान्यताओं और मूल्यों से चिपके हुए हैं और असमनता तथा पितृसत्ता का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। मतलब उन्हें पुरानी परिवार व्यवस्था की जगह नई परिवार व्यवस्था का आना स्वीकार नहीं है। किसी भी तरह का बदलाव स्वीकार नहीं है। महिला स्वतंत्रता के नाम पर शोर करने वाले यही लोग, महिलाओं को घर से बाहर काम करना अपनी प्रतिष्ठा का अपमान समझते हैं। वह महिलाओं को परिवार की संपत्ती, घर में सजाकर रखने वाली चीज, खानदान को आगे बढ़ाने वाले वंश को पैदा करने वाली मशीन और केवल आदमी की उपभोग के लिए रखी एक शरीर से ज्यादा कुछ नहीं समझते।
ऐसे लोगों को इस बात का ज्ञान नहीं है कि बदलते दौर और जनवादी समाज में पितृसत्ता और असमानता पर आधारित रिश्ते लम्बे समय तक नहीं टिकते। भारत में भी पितृसत्ता के खिलाफ महिलाएं उठ खड़ी हुई हैं और अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू कर चुकी हैं। महिलाओं ने जब समानता की, समान अधिकार की लड़ाई शुरू की तब इन्हीं रूढ़ीवादियों ने यह शोर मचाकर महिला आंदोलन को बदनाम किया कि परिवार खतरे में है और समाज खराब हो रहा है। वास्तव में यह पूरी तरह झूठ है! आइए उनेक मुख्य आरोपों की जांच करें।
पहला, अगर महिलाएं अपने अधिकारों का दावा करने लगेंगी तो पारिवार टूटने के मामले बढ़ जाएंगे। इसके विपरीत अगर महिला को अपने अस्तित्व की पहचान होने लगती है तो परिवार के अंदर शुरूआत में थोड़ बहुत तनाव होने के बावजूद प्रत्यक्ष रूप से परिवार के रिश्ते-नाते, पति-पत्नी, बाप-बेटी के बीच जनवादी रिश्ते बनेंगे और परिवार अधिक अधिक सुदृढ़ होने लगते हैं।
दूसरा, गहराई से देखा जाए तो समझ आता है कि जो लोग महिलाओं की स्वतंत्रता को परिवार तोड़ने का दोषी मानते हैं वे लोग इस सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते कि अधिकतर परिवार तोड़ने वाले पुरुष ही होते हैं। लड़का पैदा नहीं किया तो महिला का अपमान करना और उसे छोड़कर दूसरी बीवी लेकर आना – क्या इसे घर तोड़ना नहीं मना जाएगा? बांझ या फिर लड़की पैदा करने वाली पत्नी को छोड़कर दूसरी पत्नी लाना – क्या इसे घर तोड़ना नहीं कहा जाएगा? नशेड़ी पति अपने जिम्मेदारियों से भागकर वासना की लत लगाता है, यही नहीं तो दूसरी पत्नी (रखैल) रखता है – क्या इसे घर तोड़ना नहीं कहा जाएगा? अपने बच्चों की देखरेख न करने वाले शराबी पति के अत्याचारों को चुपचाप सहन करने के उपदेश दिए जाते हैं – इन्हें परिवार तोड़ना नहीं कहा जाएगा? यह सब समाज तर्कहीन रूप से पत्नी को टूटे हुए परिवार को बचाने के लिए और एक न एक दिन पति के सुधर जाने के आशा पर जीने की सलाह देता है। महिला जैसे ही अपने पैरों पर खड़े होने और आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने की बात करती है तो उनकी परिवार व्यवस्था की सुरक्षा को खतरा हो जाता है।
‘सौतन’ या ‘रखैल’ हमारी शब्दावली में पुरुषों के लिए समानार्थी शब्द नहीं हैं; क्योंकि हमारे समाज में पुरुष ही सालों से ऐसे घिनौने काम करते आ रहे हैं और आज भी कर रहे हैं। महिलाओं को जब समाज में समान अधिकार प्राप्त होगा और वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होंगी तब समाज में अराजकता नहीं फैलेगी या परिवार नहीं टूटेंगे; उल्टा, पुरुषों के मनमानी पर अंकुश लगेगा। पुरुषों को अपनी पत्नी के साथ एकनिष्ठा से रहना पड़ेगा, क्योंकि अब अगर वह एकनिष्ठा से नहीं रहेगा तो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिला में छोड़ने की क्षमता व आत्मविश्वास होगा। पति-पत्नी के बीच का रिश्ता, आपस का प्यार, आदर और विश्वास पर टिका होगा। इस तरह धीरे-धीरे ‘सौतन’ या ‘रखैल’ जैसे शब्द समाज से समाप्त होते जाएंगे।
नौकरी करने वाली, स्वतंत्र महिला घर के काम या बच्चों को पालने-पोषने में ध्यान नहीं देती, यह तथ्य भी बेबुनियाद है। प्रत्यक्ष रूप से परिस्थिति इसके बिल्कुल विपरित है। हम प्रत्यक्ष रूप से क्या देखते हैं? आज कोई छात्रा हो या नौकरी करने वाली एक महिला अपनी पढ़ाई या नौकरी के साथ-साथ घर के सभी काम, बच्चों को संभालने की जिम्मादारियां अच्छे से निभाती हैं। पर उसी घर में अगर एक बेरोजगार आदमी होगा तो वह घर के काम में कोई मदद नहीं करता। जो आदमी थोड़ा-बहुत घर के काम करते हैं, उन्हे ‘पत्नी के इशारों पर नाचने वाले पतियों’ के नाम से समाज में मजाक उड़ाया जाता है।
संक्षेप में कहा जाए तो महिलाओं की स्वतंत्रता या आत्मनिर्भरता के बारे में किये जाने वाली संदेह पुरुष-प्रधान मानसिकता से निर्मित है और जीवन की वास्तविकता से इसका कोई मेल नहीं है।
समाज को महिलाओं की स्वतंत्रता के सवाल पर एक संतुलित दृष्टिकोण से विचार करना चाहिए। अगर हमे लगता है कि अपने देश के भावी नागरिक आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और समानता के संस्कार लेकर बड़े हों; हजारों साल से चले आ रहे अंधविश्वासों, पुराने मूल्यों और सड़े-गले विचारों से बाहर निकलकर अपने देश को विकसित और सशक्त बनाना चाहते हैं तो निश्चित रूप ते हमे महिलाओं को स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और मजबूत बनाकर अपनी पारिवारिक व्यवस्था में काफी हद तक सुधार करना पड़ेगा। इसके लिए हर सामाजिक स्तर पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी होगी, महिलाओं को शिक्षित करना होगा, महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा होने और आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए प्रेरित करना होगा, उन्हें शिक्षा व रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने होंगे। वर्तमान में महिलाओं पर लदे गृहकार्य और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारियों को विभाजित किया जा सकता है। पुरुषों को इस काम में समान हिस्सेदारी लेने के लिए प्रेरित करना होगा। साथ ही, नर्सरी, आंगनबाड़ी, खेल के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूल, छात्रावास और छोटे बच्चों के लिए महिलाओं के कार्यस्थलों पर नर्सरी (जहां मांए उनकी देखभाल कर सकती हैं और जरूरत अनुसार उन्हे स्तनपान करा सकती हैं), स्वच्छ और स्वस्थ सामाजिक रसोई का निर्माण कर महिलाओं की दोहरी जिम्मेदारियों का बोझ हल्का किया जा सकता है। इस प्रकार यदि संपूर्ण समाज महिलाओं की स्वतंत्रता, स्वावलंबन के प्रति जागरूक हो जाए तभी महिलाओं को वास्तव में स्वतंत्रता मिल सकती है।
नोट- इस आलेख का अनुवाद सोनिया ने 'लोकायत' द्वारा प्रकाशित मराठी पत्रिका 'अभिव्यक्ति' से किया है.