सांझ हो चली थी। लाइब्रेरी से बाहर निकलते हुए मौसम में कुछ ठंडक महसूस की। मैं होस्टल की तरफ हो लिया। होस्टल तक पहुँचते पहुँचते पानी गिरने लगा था। कमरे की बालकनी में खड़ा मैं बाबा नागार्जुन की कविता पढ़ने लगा। कालिदास सच-सच बतलाना …रोया यक्ष कि तुम रोए थे? अचानक मेरा ध्यान कड़कती हुई बिजली ने खिंच लिया। गहरी काली घटा ही दूर-दूर तक नजर आती थी। ऐसे भयानक अँधेरे में बिजली कड़कर क्षण भर को दीप्तिमान होती थी। ओह! यह क्षण भर का प्रकाश… भीतर एक जानी पहचानी टीस उभर आई।
उधर से कुछ ध्यान हटा तो सोचने लगा कि ‘बाबा’ अगर आज जीवित होते तो मैं उनके पैरों में बैठकर पूछता- बाबा सच सच बतलाना! मन क्या विदुर यक्ष का ही उचटा था? कालिदास के बहाने तुमने किसी और की बात तो नहीं कही? आठ बटा आठ के इस कमरे में, उम्र के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर यह बारिश क्यों मुझ पर श्राप के जैसे पड़ती है? क्यों मन उचट जाता है?
मुझे दूसरी कविता ‘गुलाबी चूड़ियाँ’ का स्मरण हो आया। सोचता हूँ बाबा क्या मुझ जैसों पर कभी कोई कविता लिखते – “दिन भर लाइब्रेरी में किताब पढ़ता है तो क्या हुआ…?” विचार-श्रंखला को तोड़ती हुई बिजली फिर कड़की। ख्यालों ही से दिन भर का सारा पढ़ा हुआ धुल गया। बारिश कुछ थम सी गई। मैं भीतर आ गया। मुझे नमी महसूस हो रही थी।
कमबख्त बारिश!
किताबों से भरे हुए इस कमरे में कोई कोना नहीं जहाँ बैठ जाऊं तो दिल लगे। कोई ऐसी चीज नहीं जिस पर सिर टिका कर चैन मिले। किताबों से भला चैन मिला है किसी को? किताबें बेचैनी के अलावा कुछ नहीं देती। तरह-तरह के कोरे प्रश्न घेरा बना लेंगे। सारी सहूलियतों के बावजूद इस होस्टल के कमरे में सुकून नहीं। सोचता हूँ कि समस्या इस होस्टल के कमरे में है या कुछ और? कालिदास तो होस्टल में नहीं था। वह तो राजा था। धरती के स्वर्ग का राजा। उसको किस बात की कमी थी? यक्ष आखिर किसको सन्देश भेजता होगा, संदेश यक्ष के थे या कालिदास के? बाबा को क्या पड़ी थी यह पूछने कि रति का क्रंदन सुनकर कौन रोया था?
काश के इस मौसम में दिन भर की थकान के बाद एक चाय मिल जाए लेकिन चाय में दो बहुत बड़ी कमियां हैं। पहली बड़ी कमी यह है कि यह अपने आप नहीं बनती। इसे किसी ना किसी को बनाना ही पड़ता है। दूसरा यह कि दिन भर किताबों के साथ गुजारने के बाद अगर आप चाय खुद बनाकर अकेले पीते हैं तो यह भी बारिश की तरह ही आप पर श्राप के जैसे पड़ती है।
कमबख्त चाय!
इतने में एक साथी कमरे में आ गया। वह कुछ खुश प्रतीत हो रहा था। आजकल कबीर को पढ़ रहा है। बहुत उत्साह है। बात बात पर कोई ना कोई दोहा कहता है। मुझे अच्छा लगता है। कुछ साल पहले की अपनी याद आती है। उसने उमंग के साथ फोन निकाल कर कहा देखो इस गायक ने कबीर को कितना बढ़िया गाया है। गीत बजने लगा- “जो बिछड़े हैं पियारे से भटकते दर-ब-दर फिरते… हमारा यार है हम में हमन को इंतिज़ारी क्या” मुझे ना जाने क्यों कबीर से जलन होने लगी। काश मैं कबीर हो सकता। इसी पल में, अभी, तुरंत…वही कबीर जो अभी मैंने सुना। लेकिन मेरी औकात नहीं। बारिश के पड़ने से जिसकी टीस उभर आए वह कबीर के नजदीक भी कभी पहुँच सकेगा?
घड़ी भर को बात करके वह भी चला गया। मुझे लगा कि कमरा मुझ पर हंस रहा है। उदास पीली रोशनी फेंकता हुआ बल्ब, किताबों का बेमुराद ढेर, टेबल-कुर्सी, चाय पीने की दिली ख्वाइश और दिमाग में रह रह कर बजता कबीर का गीत। कोई शाम कितनी भारी हो सकती है?
बारिश फिर पड़ने लगी। अबके ऐसी है जैसे सारी रात रुकेगी नहीं। कमरे में बारिश की बूंदों की आवाज आएगी। बाहर खड़े अमरूद के पत्तों पर गिरती हुई बारिश की आवाज। अमरूद के फल में मिठास भरने वाली बारिश अमरूद पर गिरेगी… सारी रात!
मुझे अब कल की फिक्र है। कल एक बेहद खूबसूरत सुबह होगी। लेकिन ना जाने क्यों आजकल इतनी मनहूसियत मेरे भीतर पसरी हुई है कि वर्षा की हर सुबह में मुझे सीताकांत महापात्र की एक कविता ‘दिन’ की पंक्तियाँ याद आती हैं –
“ यह खिलखिलाकर हँसता / मुखरित होता सबेरा, यह दिन / अब धीरे-धीरे मुरझा जाएगा, / झर जाएगा अँधेरे की गोद में ”…
पुनःश्च
ऊपर लिखे हुए पर एक विद्वान् और संवेदनशील साथी की टिप्पणी आई। उसने बहुत महत्वपूर्ण बात कही- कि ‘बतौर पाठक मुझे अतृप्ति हुई ।’ मैं तब ही से निरंतर इस विचार में हूँ कि इन्टरनेट और पूर्वाग्रह से घिरे इस समय में कितने लोग हैं जो पाठकीय अतृप्ति को महसूस करते हैं। गहन संवेदना से भरा आदमी जो रचना के साथ द्वैत में नहीं रह पाता वह ही इसे महसूस कर सकता है। ऐसा ही जीवन भी है और ऊपर लिखा हुआ यह लघु निबन्ध भी। तृप्त व्यक्ति पर बारिश भला कभी श्राप के जैसे पड़ेगी?
सोचता हूँ अगर पाठक अतृप्त है तो हो सकता है कि लेखक भी अतृप्त हो। लेखक ही की अतृप्ति से कैसे पूर्णता संभव होगी? हो सकता है लेखक ही इस लायक ना हो कि वह पूर्णता का चित्रण करके तृप्ति को उसका उपादेय बना दे। सच तो यह है कि साधारण आदमी के लिखे भावों को पढ़ने में अतृप्ति ही प्राप्य है। हमारे जीवन में तृप्ति एहसास भर को ही तो आती है; बिजली की तरह क्षण भर को द्युतिमान होती है। फिर … आगे प्रसाद खड़े मिलते हैं, कहते हुए – ‘समझदारी आने पर यौवन चला जाता है।’ मैं प्रसाद के आगे झुककर पूछता हूँ कि हे पूर्वज ! यौवन के चले जाने पर सब में समझदारी क्यों नहीं आती? क्या यौवन के आने पर बचपना चला जाता है? तो फिर युवावस्था और समझदारी में अद्वैत इस समाज को ग्राह्य क्यों नहीं है?
अब कहो साथी इस विचार से कि ‘मुझे दिखता है घोर सुख के क्षणों में भी दुःख दूर क्षितिज पर खड़ा इत्मिनान से अपना समय आने की बाट जोहता है’, मैं कैसे पाठकीय तृप्ति को संभव करूँ। पाठक बड़ा है, उसकी संवेदना विस्तृत है, लेखक तो अपने सूक्ष्म खोल में बैठकर ही लिख सकता है। उसकी दृष्टि संकुचित होती है, निरी अपने भावों पर ही केन्द्रित। उसमें से पाठक कुछ खोजे तो लेखक की गति है।
योगेश शर्मा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र के हिंदी विभाग में शोधार्थी हैं और देस हरियाणा पत्रिका टीम का हिस्सा हैं। नई सदी के पहले दो दशकों की हिंदी कविता को भाषा बोध और दर्शन के परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए शोधरत हैं।