सूत की डोरी – योगेश

योगेश

योगेश शर्मा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र के हिंदी विभाग में शोधार्थी हैं। आधुनिक हिंदी कविता को भाषा बोध और दर्शन के परिप्रेक्ष्य में देखने समझने में रूचि है।

बसंत आ गया। इन्टरनेट बंद है। सोचता हूँ कि इन्टरनेट के बिना भला कैसा बसंत! बसंत का मजा तो तब है जब हलकी धूप में आप लेटे हुए हों और हाथ में फोन हो। कभी-कभी ध्यान पेड़ों से गिरते पत्तों पर चला जाए तो प्रकृति-दर्शन भी कुछ हो जाए। खैर!

मामा के एक लड़के की शादी में जाना हुआ तो मामी से मुलाकात हुई। उन्होंने पहली बात यही कही कि किसानों की वजह से बहुत सारे रिश्तेदार शादी में नहीं आ पाए और इन्टरनेट भी उन्हीं की वजह से बंद है। मैं कुछ बोलने को हुआ था इतने में मामी ने ही पूछ लिया कि कुछ खाया भी है या नहीं? मैंने कहा कि अभी पुस्तक मेले में दिल्ली गया था। वहां ना जाने क्या खाया कि तीन दिन से पेट में कुछ गड़बड़ है। मामी ने तुरंत कहा कि कम मसाले की ओरगेनिक सब्जियां बनी हैं, खा ले कुछ नहीं होगा। मैं तो मामी के साथ उसी बहस में पड़ने वाला था जो हम निठल्ले शोध छात्र यूनिवर्सिटी की मार्किट में चाय पीते हुए करते हैं लेकिन मामी तो इतना कहकर इधर उधर हो गई।

ना जाने क्यों मेरे चेहरे पर एक मुस्कान आ गई। मामी को पूरा यकीन है कि अच्छा खाना सिर्फ कम मसाला डालने वाले हलवाई बनाते हैं और सड़कें तो किसानों द्वारा ही बंद की जाती हैं। बात में से बात निकालने वाले हमारे जैसे जीव यह भूल जाते हैं कि हर किसी को इन ऐरे गैरे मसलों से कुछ नहीं लेना देना। इस देश में लोग अपनी घर गृहस्थी भी सँभालते हैं।

मेरी तबियत ख़राब थी तो मैं शादी से लौट आया। आकर एक साथी के घर चला गया। उसके घर में वाई फाई लगा है तो वहां इन्टरनेट भी चलता है। धूप में कुछ देर बैठकर मैंने पूछा कि बेटा कहाँ है ? उसका दस साल का लड़का तीन दिन से इस जद्दोजहद में था कि किसी तरह पतंग उड़े। मैंने कहा कि चलो हम देखते हैं। मैंने मेहनत करके तकरीबन 10 साल बाद पतंग उड़ाया। कच्चे सूत के साथ। पतंग उड़ा खूब ऊपर। लड़का चहक रहा था। साथी जिसको चलने में थोड़ी परेशानी है, पुत्र मोह में भागकर तीन डोरी रील की ले आया। अभी पतंग ऊँचा गया ही था कि किसी पड़ोसी के लड़के ने पतंग काट दी। सूत के धागे की मछली पकड़ने वाली डोर के सामने ना चली। कहाँ 500 रुपये का धागा और कहाँ बेचारा सूत। लड़का उदास हुआ लेकिन उसपर मेरे साथी की पढ़ाई लिखाई का जबरदस्त असर है। पतंग कटते ही वह बचा हुआ धागा समेटने लगा। बच्चे को धागा समेटते देखकर मुझे ना जाने क्यों आजकल पदयात्रा करते एक आदमी का स्मरण हो आया। वह है कि मानता नहीं, उसकी पतंग बार बार काट दी जाती है। पता नहीं क्यों वह कच्चे सूत जैसे लोगों को इकट्ठा करने निकल पड़ता है।

सोचता हूँ वह बूढ़ा आदमी कहीं भी अपनी जगह बना लेता है, इस बच्चे के भीतर से कोई उसको कैसे निकालेगा? वह है कि मारे नहीं मारता। भले ही कोई उसकी पतंग काटता रहे वह है कि बचा हुआ धागा इकट्ठा करने लगता है।

मैं होस्टल के अपने बोरियत भरे कमरे पर वापिस लौट आया। सामने मेज पर एक सेब बची हुई रखी थी। पर्ची वाली सेब का अलग रुतबा है। यह महंगी आती है और अधिक संतुष्टि देती है, इतना ही नहीं इसपर लगी रंग-बिरंगी पर्ची में मेरे कमरे का उदास बल्ब भी चम चम करता है। कुछ वक्त बाद मेरा ध्यान सेब की पर्ची से हट गया लेकिन तब से लगातार यही सोच रहा हूँ कि क्या वाकई मैंने 10 साल बाद पतंग उड़ाई या 10 साल से हमारी पतंग लगातार काटी जा रही है? मेरा मन होता है कि कल हम दोबारा पतंग उडाएँ।

अभी तो मुझे अब पेट की गड़बड़ी की दवाई लेने जाना है और कुछ मन नहीं।

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