राम-रहीम हथकरघा – सुशील स्वतंत्र

सुशील स्वतंत्र

दिल्ली की झुग्गी बस्तियों में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता से साप्ताहिक अखबार का संपादक और फिर लेखक बनें सुशील विभिन्न विधाओं में लेखन करते हैं। 1978 में उनका जन्म हजारीबाग (अविभाजित बिहार) में हुआ। बचपन कोयला खदानों के ऊपर दौड़ते-भागते बीता। दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही वे झुग्गी बस्तियों में सामाजिक कार्य करने लगे थे। उन्हें लम्बे समय तक स्वास्थ्य के क्षेत्र में एच.आई.वी./एड्स जागरूकता के लिए उच्य जोखिम समूहों जैसे महिला यौन कर्मियों व ट्रकर्स के साथ काम करने का अनुभव है। वे कविता, कहानी, आलेख, ऑडियो शो एवं उपन्यास लिखते हैं। वे हिंदी साहित्य की विस्तृत निर्देशिका “हिंदी साहित्यानामा” के संपादक एवं प्रकाशक हैं। असुर गाथा श्रृंखला की रचना के माध्यम से वे साहित्य जगत में उपस्थित हुए हैं। इस श्रृंखला का पहला उपन्यास “त्रिलोकपति रावण” इन दिनों चर्चा में है।
वे ऑडियो शो भी लिखते हैं, जिनका प्रसारण विभिन्न ऑडियो प्लेटफॉर्म्स पर चुका है। उनकी रचनाएँ “संभावनाओं का शहर” कविता संग्रह एवं “ये वो संजना तो नहीं” उपन्यास के रूप में प्रकाशित हुईं हैं। वे हिंदी साहित्य की विस्तृत निर्देशिका “हिंदी साहित्यानामा” के संपादक एवं प्रकाशक हैं।

“हमरे उप्पर डाल दीजिये मिट्टी चच्चा लेकिन हम नहीं हटेंगें।”

बलराम रो रहा था। रोने से ज्यादा वह चिल्ला रहा था। उसके बाबूजी के पाले हुए दस मुस्टंडे उसको घेरकर खड़े थे। अपने-अपने हाथों से कुदाल थामें वे सब बलराम से मिन्नतें कर रहे थे – “बाबू, नींव से बाहर निकल आओ। हमें अपना काम करने दो, नहीं तो रामअवतार बाबू हम सबकी ख़ाल उतार देंगें।”

“जाईये बुला लाईये बाबूजी को लेकिन हम आपलोगों को रहीमुद्दीन चच्चा का नींव नहीं भरने देंगें।” बलराम की आँखों में आँसू भी थे और विरोध की चिंगारी भी।

रहीमुद्दीन अंसारी ने जब ये नज़ारा देखा तो भागते हुए आए और कहा – “बाहर आ जाओ बचवा, तुम अपने बाप-चाचाओं को उनका काम करने दो। तुम्हारी समझ में अभी ई सब न आवेगा। जाओ तुम मुर्तज़ा के साथ खेलो।”

ब्लू चेक वाली लूँगी, कंधे पर हरा गमछा, गले में काले कपड़े में लिपटा हुआ हज़रत ईशा मियाँ की मज़ार पर मिलने वाला ताबीज़, माथे पर सफ़ेद जालीदार गोल ताक़ियाह यानी नमाज़ी टोपी और चौबीसों घंटे मुँह में दबाकर रखी गई पान, यही थी मुर्तज़ा के अब्बू रहीमुद्दीन अंसारी की पहचान। गाँव भर में सभी लोग उनकी इज्ज़त करते थे। वे बुनकरों के अगुआ थे। फ़ितरत से थे तो बहुत दिलेर लेकिन ज़मीनदार से अदावत को ठीक नहीं मानते थे।   बलराम उनका बहुत एहतराम करता लेकिन आज उन्हें महसूस हुआ कि अपनी ज़िद के आगे वह किसी की सुनने वाला नहीं है। उन्हें अपनी बेग़म पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने घर की तरफ देखा और चिल्लाते हुए कहा – “अरे, गाँव के बवाल में बच्चों को किसने बाहर आने दिया? अभी देखते-ही-देखते बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। अगर रामअवतार बाबू अगर यहाँ आ गए तो….”

“तो क्या जान से मार देंगें हमें। जुलाहों को इस गाँव में रहने का कोई हक़ नहीं है का? अपनी ज़मीन पर नींव खोद रहे हैं हम, कउनो उनकी जमींनदारी तो नहीं छीन रहे हैं।” रहीमुद्दीन अंसारी की बात को बीच में काटती हुई उनकी बेग़म जीनत आरा बाहर आईं और अपने शौहर पर चिल्लाने लगी।

वह रुकने का नाम नहीं ले रही थी। उसने नींव को भरने के लिए आये मुस्टंडों से चिल्लाकर कहा – “जाओ, जाकर रामअवतार बाबू से कह दो कि वे जमींनदार होंगें तो अपने घर में रहें। अब लद गये गुलामी के दिन। भाग गए फिरंगी लेकिन ये देसी अंग्रेज चाहते हैं कि अब भी बुनकर लोग इनकी गुलामी करते रहें। इनकी दबंगई कब तक सहें हम? अब हम लड़ेंगें भी और अपना हक़ छींन भी लेंगें। हम जुलाहे हैं जुलाहे, महज़ पगड़ी ही नहीं बुनते हैं हम, कफ़न भी बुनते हैं।”

रहीमुद्दीन की सारी दिलेरी हवा हो गई। वे जो कुछ देर पहले चिल्ला रहे थे, अब जीनत को शांत करने में जुट गए – “अरे-अरे, काहे ऐसी बातें कर रही हो, मैं रामअवतार बाबू से बात करूँगा कि अपनी ही ज़मीन पर नींव खोदना और एक कमरा बनाना कउन सा जुलुम है? इसमें आखिर उनको क्या तकलीफ है? क्यों लें हर काम में उनकी इजाज़त? क्यों भरे उनकों मनमाना टैक्स? तुम शांत हो जाओ, मैं बात करूँगा न।”

जीनत कहाँ शांत होने वाली थी, उसने कहा – “हम शांत हो जाएँ और ऊ ज़मीनदरवा हमरी ज़मीन पर नींव खोदने से हमें ही मना कर दे। हम न मानें तो अपने पाले हुए गुंडे भेजकर हमरी खुदी हुई नींव भरवा दे? अरे चुप करवाना है तो रामअवतार बाबू को चुप करवाओं। उनसे तो अच्छा उनका ये छोटा सा बच्चा है, बलराम, जो अपने बाप को अन्याय करते देखकर विरोध में नींव में उतर गया है। एक तरफ बलराम है, जो अपने दोस्त मुर्तज़ा के लिए खुदी हुई नींव को ही अपनी कबर बनाने को अमादा है और दूसरी तरफ़ उसके वालिद हैं, जो पूरे गाँव को अपने खौफ़ के साये में रखना चाहते हैं। लेकिन अब ये सब नहीं होगा। बुलाओ रामअवतार बाबू को। आज पहले पंचायत होगी, तभी हम अपना घर बनायेंगें।”

नींव को भरने आये मुस्टंडों ने कुदालों को ज़मीन पर रख दिया था। जुलाहाटोली में रहीमुद्दीन अंसारी के घर पर बुनकरों की अच्छी-ख़ासी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। ज़मीनदार रामावतार सिंह के पाले हुए लठैत चुपचाप खड़े थे और उनका इकलौता बेटा नींव में सोकर अपने बाप की ज़मीनदारी को ललकार रहा था। उसका ज़िगरी यार मुर्तज़ा नजदीक खड़े होकर कभी अपने वालिद-वालिदा, तो कभी दोस्त को देख रहा था। देश को आज़ाद हुए पाँच साल बीत चुके थे लेकिन कानपुर के आस-आस के गाँवों के ज़मीनदार, जुलाहों को अभी भी गुलाम बनाये रखने का मंसूबा रखते थे। मगर जहाँ की मिट्टी में शहीदों का खून शामिल हो, वहाँ अब इस तरह की गुलामी कहाँ चलने वाली थी? बलराम जैसे बच्चे और जीनत जैसी औरत की आवाज़ में बदलाव की खनक सुनाई दे रही थी। बारह साल के बलराम ने गाँधी जी के सत्याग्रह और भगत सिंह की शहादत की कहानियाँ सुनी थी और जीनत आरा ने तो विदेशी कपड़ों को जलाने की मुहीम में हिस्सा भी लिया था। हथकरघा चलाने के साथ-साथ वह रोज़ाना चरखा भी चलाती थी।

बलराम और मुर्तज़ा दोनों ज़िगरी यार गाँव के स्कूल में एक ही कक्षा में पढ़ते थे। चाहे स्कूल हो या घर, हरदम बलराम और मुर्तज़ा साथ-साथ ही रहते। स्कूल में एक साथ बैठते और स्कूल के बाद भी दोनों का साथ नहीं छुटता। कभी बलराम मुर्तज़ा के घर, तो कभी मुर्तज़ा बलराम के घर। दोनों की माएँ दोनों बच्चों को बहुत प्यार करतीं। कभी बलराम मुर्तज़ा के घर खाना खाता तो कभी मुर्तज़ा बलराम के घर। दोनों की दोस्ती के बीच धर्म कभी दिवार बनकर खड़ा नहीं हुआ बल्कि वह हमेशा नदारद ही रहा। उनकी नजरों में दिवाली और ईद में कोई फर्क नहीं था। वे त्यौहार का मतलाब मिठाईयाँ और सेवईयां जानते थे बस। पूरा गाँव इनकी दोस्ती की बातें करता था। आज स्कूल के बाद बलराम ने दोपहर का खाना खाया और अपनी किताबें उठाकर मुर्तज़ा के घर पर आ गया। घर पर मुर्तज़ा के अब्बा और अम्मी हथकरघा चलाते थे, जिसकी आवाज़ से दोनों की पढाई में ख़लल पैदा होती थी। इसका उपाय यह निकाला गया था कि दोनों ज़िगरी दोस्त घर के बाहर आम के बगीचे में पेड़ों के नीचे बैठकर अपनी पढाई करने लगे।

आज भी वे दोनों आम के बगीचे में ही पढ़ रहे थे। हिंदी के अध्याय में मास्टर दीनानाथ जी का जिक्र आया। बलराम ने उत्साहित होकर कहा – “मैं तो बड़ा होकर मास्टर बनूँगा। बच्चों को पढ़ाने में मुझे बहुत मज़ा आता है।”

“तू तो ऐसे बोल रहा है जैसे तू रोज़ ही पढ़ाता है बच्चों को।” हँसते हुए मुर्तज़ा ने कहा।

“पढ़ाता हूँ न।” आत्मविश्वास से बलराम बोला।

किसे पढ़ाता है? मुर्तज़ा के चेहरे पर हैरानी थी।

“अरे, तुझे पढ़ाता हूँ, और किसे?” बोलकर बलराम ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।

फिर बलराम ने पूछा – “अच्छा तू बता, बड़ा होकर तू क्या बनेगा रे?”

“मैं? ….. मैं बनूँगा बुनकर। मैं बड़ा होकर बहुत बड़ा करघा घर खोलूँगा। नाम रखूँगा ‘राम-रहीम हथकरघा’।” आसमान की तरफ देखता हुआ मुर्तज़ा बोल रहा था – “तुम्हारे पापा के नाम रामावतार का राम और मेरे अब्बू के नाम रहीमुद्दीन का रहीम, दोनों मिलकर बन जाते हैं “राम-रहीम”। ठीक रहेगा न?”

बलराम ने हाँ की मुद्रा में सिर हिलाया और एक दुसरे की बातों को सुनकर दोनों दोस्तों ने ठहाके लगाकर हँसाना शुरू कर दिया। पढाई के बाद रोज़ाना की तरह आज भी दोनों आम के बगीचे में लूकाछिपी का खेल खेलने लगे। बलराम जब सौ तक गिनती गिन रहा था, इसी बीच मुर्तज़ा ने पेड़ पर चढ़कर पत्तों से खुद को ढँक लिया। गिनती के ख़त्म होते ही बलराम ने चिल्लाकर कहा – “आ रहा हूँ।” पूरे बागीचे में ढूंढने के बाद जब उसे मुर्तज़ा नहीं मिला, तब सबसे मोटे ताने वाले पेड़ के नीचे खड़े होकर वह कुछ सोचने लगा। अचानक उसे ध्यान आया कि मुर्तज़ा पेड़ के ऊपर भी चढ़ सकता है। उसने अपनी नज़र उठाई। उसने देखा पत्तों के बीच कुछ जुम्बिश हुई। उसने चिल्लाकर कहा – “मुर्तज़ा आईस-पाईस। चल अब नीचे आ जा।”

“क्या यार बलराम, मुझे लगा पेड़ पर चढ़ जाउँगा तो तुम मुझे ढूंढ नहीं पाओगे।” मुर्तज़ा ने कहा।

“तू दुनिया में कहीं भी छिप जा, मैं तो तुम्हें धप्पा बोल ही दूँगा, समझे।” बलराम ने मुर्तज़ा की कान पकड़कर हँसते हुए कहा।

अब सौ तक गिनती गिनने की बारी मुर्तज़ा की थी। बलराम ने सोचा कि बगीचे में छिपने से मुर्तज़ा उसे आसानी से ढूंढ लेगा, इसीलिए वह घर के पिछुवाडे में छिपने के लिए चला गया। वहाँ जाकर उसने देखा कि मुर्तज़ा के अब्बा उन लोगों के सामने गिड़गिड़ा रहे थे, जो उसके पापा के पाले हुए लठैत थे।

उधर गिनती ख़त्म करने के बाद मुर्तज़ा ने बलराम हो ढूँढना आरम्भ कर दिया। उसने बगीचे में चारों तरफ देखा, जब बलराम नहीं मिला तब वह घर की तरफ जाने लगा। इसी बीच उसने ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुए बलराम की आवाज़ सुनी, मानों वह किसी से लड़ाई कर रहा हो। जब घर के पिछुवाड़े में वह पहुँचा, तब ये देखकर हैरान हो गया कि हथकरघा के लिए नये कमरे के निर्माण के लिए उसके अब्बा ने जो नींव खुदवाई थी, बलराम उसमें लेटा हुआ था और जमींदार के मुस्टंडे हाथों में कुदाल लिये उसके चारों तरफ खड़े थे।

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झारखण्ड के कोयला खदानों पर बसे हाई स्कूल के सभागार में विदाई समारोह की तैयारियाँ चल रहीं थीं। आज कोयला मजदूरों के बच्चों को चालीस सालों तक पढ़ाने वाले प्रिंसिपल साहब के रिटायरमेंट का दिन था। साथी शिक्षक, स्टॉफ़ और विद्यार्थी सभी भावुक थे। समय का पहिया घूमते-घूमते बहुत आगे निकल चुका था। समय और दूरियों का इतना लंबा सफ़र तय हो चुका था, जिसकी कल्पना बलराम और मुर्तज़ा ने कभी नहीं की थी। ये शाम बलराम सिंह के लिए कभी नहीं भूलने वाली शाम थी। पैंतीस बरस इस स्कूल में प्रिंसिपल रहने बाद आज वे रिटायर हो रहे थे। गाँव बहुत पीछे छूट गया था। और मुर्तज़ा …. सालों गुजर गए उससे मिले, उसको देखे, उसके साथ बैठकर बातें किये। बलराम सिंह को वो शाम याद है जब कॉलेज का रिजल्ट आने के बाद वे दोनों कानपुर में मिले थे। बलराम की नौकरी लग गई थी और मुर्तज़ा उन्हें रेलवे स्टेशन तक छोड़ने आया था। उसके बाद तो वक्त की पटरी पर जीवन की गाड़ी ऐसे दौड़ी कि सब कुछ पीछे छूटता चला गया। आज बलराम सिंह को यह भी नहीं मालूम कि कहाँ है उनका ज़िगरी यार मुर्तज़ा? मन ही मन वे खुद से सवाल रहते कि क्या मुर्तज़ा मुझे भूल गया होगा? उसने अपने निक़ाह में क्यों नहीं बुलाया मुझे? पता नहीं उसके कितने बच्चे होंगें? क्या काम करता होगा वह? कहाँ रहता होगा? कैसा दिखता होगा अब चालीस साल बाद? क्या उसने दाढ़ी रख ली होगी? क्या उसके बाल भी बाल मेरी तरह सफ़ेद हो गए होंगें? वगैरह….वगैरह।

चार दशकों में शायद ही ऐसा कोई दिन गुजरा हो, जब बलराम को मुर्तज़ा की याद न आई हो। अपने ज़िगरी यार से बिछड़ने के सालों बाद उसको ढूंढने की उसने बहुत कोशिशें की लेकिन कोई सफलता नहीं मिल पाई। इतना ही पता चला था कि उसके गाँव से जुलाहों का परिवार पलायन करके गंगा पार जाकर कहीं बस गया था। बलराम सिंह ने गाँव में कई लोगों को ख़त लिखकर मुर्तज़ा के बारे में जानना चाहा था। ज्यादातर चिट्ठियां वापस लौट आईं। लगभग दस साल पुरानी बात होगी। अचानक एक दिन गाँव के पोस्टमास्टर के नाम जो उन्होंने ख़त लिखा था, उसका जवाब आया था लेकिन उससे भी मुर्तज़ा के बारे में कोई पुख़्ताजानकारी नहीं मिल पाई थी।

सभागार में कोलाहल बढ़ने लगा था। बलराम सिंह को मंच पर बैठाया गया था। सामने रखी एक अलमारी को देखकर उन्होंने दिमाग़ पर ज़ोर डाला कि शायद घर में रखी किताबों की अलमारी में वो पोस्टमास्टर का जवाबी ख़त रखा था। रिटायर प्रिंसिपल बलराम सिंह को फूलों का गुलदस्ता भेंट किया गया और एक सूती गमछा देकर उनका सम्मान किया गया। जीवन का एक बड़ा हिस्सा जिन लोगों के साथ बिताया, आज उनके बीच से सेवानिवृत्त होकर घर जाते हुए बलराम सिंह को ऐसा लग रहा था जैसे कुछ मीटरों की दूरी, सदियों की दूरी में बदल गईं हो।

घर पहुंचकर सीधे वे अपने कमरे में गए। फूलों का गुलदस्ता और गमछा मेज़ पर रखा और किताबों की अलमारी में पोस्टमास्टर साहब का भेजा हुआ जवाबी ख़त ढूंढने लगे। एक के बाद एक उन्होंने किताबों के सारे शेल्फ खँगाल डाले लेकिन वो ख़त नहीं मिल पाया। थक कर वे मेज़ के साथ रखी कुर्सी पर बैठ गए। चश्मा उतारा। एक लम्बी साँस ली। मेज़ पर रखे पानी के जग से गिलास में पानी डाला और गटागट पूरा गिलास पानी एक ही साँस में पी गए। इसके बाद उन्होंने अपने चेहरे पर पानी की कुछ छींटें मारी। चेहरा पोंछने के लिए उन्होंने भेंट में मिला नया गमछा उठाया। चेहरे को पोंछते हुए उन्हें गमझे में लगे स्टीकर को हटाने का ख़याल आया। जैसे ही बलराम सिंह की नज़र उस स्टीकर पर पड़ी, वे अपनी कुर्सी से उछलकर खड़े हो गए। ऐसा लगा जैसे वे किसी दरिया में डूब रहे हों और ईश्वर ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया हो। स्टीकर पर लिखा था – “राम-रहीम हथकरघा उद्योग”, गाँव – हैबतपुर, जनपद – उन्नाव, उत्तर प्रदेश। बलराम सिंह अब सीधे बचपन में पहुँच चुके थे। उनके सामने मुर्तज़ा खड़ा था। बलराम उसका हँसता हुआ चेहरा देख रहा था। मुर्तज़ा कह रहा था – “मैं………मैं बनूँगा बुनकर। मैं बड़ा होकर बहुत बड़ा करघा-घर खोलूँगा। नाम रखूँगा ‘राम-रहीम हथकरघा’।” आसमान की तरफ देखता हुआ मुर्तज़ा बोल रहा था – “तुम्हारे पापा के नाम रामअवतार का राम और मेरे अब्बू के नाम रहीमुद्दीन का रहीम, दोनों मिलकर बन जाते हैं “राम-रहीम”। ठीक रहेगा न?”

पसीनें की बूंदों से बलराम सिंह पूरा चेहरा भर गया था। मष्तिष्क में बिजली की तरह मुर्तज़ा का पसंदीदा कबीर का एक दोहा कौंधा। बलराम सिंह बुदबुदाने लगे :

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना । 
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना ।।

भागकर बलराम सिंह कबीर के दोहों की मोटी किताब निकालकर लाए। उन्होंने उस पन्ने को खोला जिसपर ‘हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना’ वाला दोहा लिखा था। किताब के उसी पन्ने में रखा हुआ था पोस्टमास्टर साहब का जवाबी ख़त।   

उन्होंने ख़त को पढ़ना शुरू किया :

“आदरणीय बलराम सिंह साहब,

आदाब।

मेरा नाम अनवर हसन है। मैं जलमऊ गाँव के डाकखाने का पोस्टमास्टर हूँ। डाकघर में रोज़ाना कई ख़त आते हैं लेकिन पोस्टमास्टर के नाम कोई ख़त नहीं आता। सबसे पहले आपका ख़त देखकर मुझे हैरानी हुई कि भला कौन है जो डाकघर के पोस्टमास्टर के नाम ख़त लिख रहा है। जब मैंने ख़त को खोलकर पढ़ा तब मेरी आँखें नम हो गईं। आपके ख़त को पढ़कर जान पाया कि आप कितनी शिद्दत से अपने दोस्त जनाब मुर्तज़ा अंसारी वल्द रहीमुद्दीन अंसारी, निवासी – जुलाहाटोली, की तलाश कर रहे हैं। आपके दिल की तड़प को देखते हुए मैंने और डाकघर के सभी स्टाफ़ ने मुर्तज़ा जी को गाँव में ढूंढने की, जितना मुमकिन हो सका, कोशिश की। हमें ये पता चला कि पिछले कोई चार-पाँच साल पहले ही उनका परिवार गाँव से गंगा पार किसी जुलाहा बस्ती में रहने चला गया है। उस समय बड़ी संख्या में गाँव से बुनकर परिवारों ने गंगा पार पलायन किया था। बस, इतनी मुख़्तसर सी ही जानकारी आपको दे पा रहा हूँ। मैं अल्लाह-ताला से दुआ करूँगा कि आप दोनों दोस्त एक बार फिर मिल सकें।”   

नमस्कार।

अनवर हुसैन

पोस्टमास्टर, जलमऊ पोस्ट ऑफिस,

जनपद-कानपूर, उत्तर प्रदेश

बलराम सिंह धम्म से कुर्सी पर जा गिरे। उन्हें आभास हो रहा था कि राम-रहीम हथकरघा उद्योग वाला स्टीकर लगा यह गमछा मुर्तज़ा के करघा-घर में ही बना होगा। पता भी गंगापार उन्नाव का ही लिखा है। बहुत गौर से देखा उन्होंने लेकिन स्टीकर पर सिर्फ पता ही लिखा था, कोई फोन या मोबाइल नम्बर नहीं था। उन्होंने एक लम्बी साँस ली और काँपते हाथों से मोबाइल फोन उठाया। कानपुर में पढ़ाने वाले अपने दोस्त प्रोफेसर तनवीर हसन को फोन मिलाया। लगातार घंटी बजती रही, फोन रिसीव नहीं हुआ। झट से बलराम सिंह ने मैसेंजर खोला और लिखा – “मैं कल कानपुर आ रहा हूँ। अपने आपको फ्री रखना। शाम को गंगापार जाना है …. उन्नाव की तरफ।”

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सुबह हुई।

यह कोई मामूली सुबह नहीं थी। बलराम सिंह के जीवन की सबसे ख़ास सुबह थी यह। आज उन्हें एक मिशन पर निकलना था। जल्दी-जल्दी भागते-भागते दिल्ली जाने वाली ट्रेन में जा सवार हुए। सोचा एक बार प्रोफेसर तनवीर हसन को फोन लगाकर कह दूँ कि शाम तक पहुँच रहा हूँ। जेब से मोबाइल निकाला तो देखा मैसेंजर का नोटिफिकेशन स्क्रीन पर तैर रहा था। प्रोफेसर साहब ने देर रात को जवाब भेजा था।        

“आदाब बलराम भाई, तरावी चल रही है, इफ़्तार के बाद उसी में मशगूल रहा। अचानक कानपुर आने का प्रोग्राम कैसे बना लिया? कल तो चाँद रात है। शाम के समय सभी लोग चाँद के दीदार में फँसे रहेंगें। ईद के बाद गंगापार वाला प्रोग्राम बनाएँ तो सही रहेगा।”

फटाफट बलराम सिंह ने जवाब टाइप किया और भेज दिया – “इस बार मेरी ईद मुर्तज़ा के साथ ही मनेगी। मैं आ रहा हूँ। शाम हो जाएगी। गंगा की लहरों पर नाव में बैठाकर तुम्हें चाँद का दीदार करवा दूँगा। तुम्हें चलना ही होगा मेरे साथ।” इस मैसेज के साथ बलराम सिंह ने गमछे पर लगे उस स्टीकर की फोटो भी प्रोफ़ेसर साहब को भेज दिया और लिखा – “हमें यहीं जाना है।”

अगले ही पल टिंग की आवाज़ के साथ थम्सअप वाली इमोजी स्क्रीन पर तैर गई। मैसेज देख बलराम सिंह बुदबुदाए – “ये कमबख्त़ नास्तिक प्रोफ़ेसर, आज बड़ा अल्लाह वाला बन रहा है।”

ट्रेन चलने लगी और वे आँखें बंद करके मंद-मंद मुस्कुराने लगे।

सूरज के ढलते-ढलते बलराम सिंह कानपुर पहुँच गये। उन्होंने चारों तरफ देखा। उसी प्लेटफ़ॉर्म पर ट्रेन रुकी थी, जहाँ से चालीस साल पहले उन्होंने ट्रेन पकड़ी थी। एक बेंच पर बैठ कर बलराम सिंह सोचने लगे – “आह, वही कानपुर है ये। बिल्कुल नहीं बदला। शोर-शराबों और मेहनत की रोटी खाने वालों का शहर, मीलों-कारखानों का शहर, मेरी जवानी का शहर। ठीक इसी जगह चालीस साल पहले मेरा दोस्त मुझे छोड़ने आया था। पल दो पल की बात हो तो समझ में आती है लेकिन पलक झपकते ही आधी सदी भला कैसे गुजर सकती है?

आँखें खुली थीं, वे लम्बी-लम्बी गहरी साँसें ले रहे थे। न जाने कब वे माज़ी की गलियों दाख़िल हो गये। उनको घेरकर खड़े मुस्टंडों के बीच कोलाहल शुरू हो गया था। किसी ने धीरे से कहा जमींदार बाबू आ गये। मुर्तज़ा के अब्बा ने विनम्र भाव से सिर की पगड़ी को उतारकर अपने हाथों में ले लिया। सभी लोग अपनी-अपनी जगह पर खड़े हो गये थे। एक मुर्तज़ा की अम्मी जीनत आरा को छोड़कर सभी के चेहरे पर जमींदार रामअवतार सिंह का खौफ़ नाचने लगा था। पुराने ख़ानदानी ज़मीनदार थे रामअवतार सिंह। मौके पर पहुँचते ही समझ गये कि यहाँ उनका पलड़ा हल्का ही रहने वाला था। मुखालफ़त में जब अपना ही लहू नींव में लेटा हो तो वहाँ उनकी ज़मींनदारी कहाँ चलने वाली थी। ऊपर से जीनत आरा के तेवर को देखकर किसी भी पल सरेबज़ार इज्ज़त के तार-तार हो जाने का खतरा मंडरा रहा था। मुल्क़ में आज़ादी की ताज़ा हवा बह रही थी और इस फिजाँ में अब जमींदारी का रौब और दबंगई कमज़ोर पड़ने लगी थी। अपनी ही ज़मीन पर कमरा बनाने के लिए जबरन टैक्स वसूलना, था तो जुल्म ही, इसलिए मौके की नज़ाकत को भाँपते हुए रामअवतार बाबू ने एक डंडा उठाया और रहीमुद्दीन अंसारी को कुछ कहने के बजाय पहले अपने ही मुस्टंडों की पिटाई की, फिर दे दनादन बलराम की पीठ पर डंडे बरसाने लगे। बलराम को महसूस हुआ कि जैसे कोई अपनी हथेली उसकी पीठ पर रखकर रामअवतार बाबू के ज़ालिम डंडों से उसे बचा रहा है।

कहाँ खो गये बलराम भाई? ये आँखें खोलकर ही ख्व़ाब देखने लगे क्या?”

अरे ये तो प्रोफ़ेसर की आवाज़ है। एक बिजली सी कौंधी। जैसे सिनेमाघर में क्लायमैक्स से ठीक पहले बिजली गुल हो गई हो और पर्दा काला पड़ गया हो। बलराम सिंह भौंचक्का होकर माज़ी की गली से बाहर निकले, देखा प्रोफ़ेसर तनवीर हसन की हथेली उनकी पीठ पर है और वे चेहरे पर अपनी चीरपरिचित मुस्कराहट धारण किए हुए सामने खड़े हैं।

थोड़ी देर बाद दोनों दोस्त मचलती हुई गंगा की लहरों पर एक छोटे से नाव में बैठे हुए थे। प्रोफ़ेसर साहब ने कहा –“हमारे विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के लिए राम-रहीम हथकरघा उद्योग से ही शॉल और गमछे आते हैं। मैं इस हज़रत को निजी तौर पर जानता तो नहीं हूँ लेकिन ये हथकरघा गंगापार हैबतपुर गाँव में है। वहीं चलकर इन्हें ढूंढ निकाला जाएगा, इंशाअल्लाह।”

गंगाघाट से लेकर गंगापार में नाव से उतरने तक बलराम सिंह ने कुछ नहीं बोला। रास्ते भर मन भरा-भरा सा रहा। नाव गंगा की लहरों पर आगे बढ़ रही थी लेकिन बलराम सिंह का मन समंदर हुआ जा रहा था – बाहर से गंभीर और अन्दर से अशांत। रह-रह कर ज्वार-भाटा सी विकराल हो जाती थीं यादें और मन का समंदर तबाह होते-होते बचता।  

गंगा पार करते ही जिला बदल चुका था। नाव से उतर कर पैदल चलते-चलते दोनों अपनी मंज़िल के करीब जा पहुँचे। हैबतपुर गाँव में अन्धेरा पसर चुका था। बल्ब की मरियल रौशनी में बलराम सिंह एक साईन बोर्ड पढ़ रहे थे – “राम-रहीम हथकरघा उद्योग।” ख़ुशी की चाँदनी से उनका चेहरा नुरानी हो गया। मध्धम रौशनी में उन्होंने आगे पढ़ा – गाँव- हैबतपुर, जनपद-उन्नाव, उत्तर प्रदेश।

इसके आगे लिखा था मालिक का नाम – सलीम अंसारी।

बलराम सिंह की सारी ख़ुशी काफ़ूर हो गई। मरियल रौशनी में साईन बोर्ड का कोना-कोना उन्होंने दोबारा पढ़ा। कई बार पढ़ा और फिर उदास होकर पास रखे एक बड़े से पत्थर पर धम्म से जा गिरे। घुटनों पर सिर रखकर सुबकने लगे। मन ही मन कहा – “ये कैसी चाँद रात है, जिसमें मेरी उम्मीद की लौ ही बुझ गई। मैं बेवकूफ था, एक बार भी नहीं सोच पाया कि ‘राम-रहीम हथकरघा’ दुनिया में हजारों हो सकते हैं।” वे इस बात का भी ख़याल रख रहे थे कि कहीं प्रोफ़ेसर उनको रोते हुए न देख लें।

इस बीच प्रोफ़ेसर साहब उस घर के अन्दर दाख़िल हो गये, जिसमें हथकरघा चलता था। अन्दर एक अधेड़ उम्र के आदमी से उन्होंने पूछा – “भाई, इस हथकरघे के मालिक जनाब सलीम अंसारी साहब कहाँ मिलेंगें?”

सामने वाले शख्स़ ने अदब के साथ जवाब दिया – “जी, फरमाईये। मैं ही हूँ सलीम अंसारी।”

अच्छा आप बता सकते हैं कि ये मुर्तज़ा अंसारी कौन हैं? क्या उनका ताल्लुक इस हथकरघे से है?” – प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा।  

सलीम अंसारी ने चारपाई पर बैठे एक बुजुर्ग की तरफ देखा और प्रोफ़ेसर साहब से पूछा – “आप कहाँ से तशरीफ लाए हैं जनाब?”

बहार बलराम सिंह उदासी और हताशा में डूबे बहुत देर तक बैठे रहे। किसी टूटे हुए मर्तबान की मानिंद घुटने पर सिर झुकाकर ऐसे बैठे थे, जैसे अगर किसी ने बस उन्हें छू भर लिया तो भरभराकर हज़ार टुकड़ों में बिखर जाएँगें। तभी अचानक किसी ने उन्हें छुआ। सिर उठाकर देखा तो एक मौलाना सी शक्ल वाले बुजुर्ग सामने खड़े थे। बलराम सिंह खड़े हो गये। उन्होंने देखा कि गंगा की लहरों सा मौलाना की आँखों में आँसू झिलमिला रहे थे। अगले ही पल  मौलाना ने बलराम सिंह को भींचकर गले लगा लिया।

काँपती हुई एक रूहानी-आसमानी सी आवाज़ गूँजी – “बलराम भाई। तुमने धप्पा बोल ही दिया।” बलराम सिंह ने अपनी छाती में भूचाल सा कंपन महसूस किया।”

करघा चलाने वाले बूढ़ी बाँहों ने बलराम को कस कर जकड़ लिया था। वे सिर्फ इतना ही बोल पाए – “यार मुर्तज़ा।”  

प्रोफ़ेसर साहब और मुर्तज़ा अंसारी के साहबजादे सलीम की आँखें भी नम हो गईं।

भागता हुआ सलीम का बेटा कबीर आया और मुर्तज़ा का कुर्ता खींचते हुए कहने लगा – “दादाजान-दादाजान, आज चाँद नहीं दिखा। अब ईद परसों होगी।”

 “मेरा चाँद तो चालीस साल बाद दिखा है रे। मेरी ईद तो हो गई कबीर।” मुर्तज़ा की आवाज़ काँप रही थी।

संपर्क : गीता सदन, राँची रोड़, अपूर्वा हॉस्पिटल के पीछे, पोस्ट – मरार, जिला - रामगढ़, झारखंड, पिन - 829117
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