1.
मैं समतल धरती का आदमी
गर्दन में लोहे की छड़ी जैसी अकड़ लिए हुए
पहाड़ पर जाता हूँ-
खुद को अदना सा करता हूँ महसूस।
बाबा विशाल हृदययी थे सच
उनका तो कालिदास से संवाद भी था
उन्होंने महसूसा था
बादलों से घिरता हुआ अमल धवल गिरी का शिखर।
पहाड़ तो पहाड़ है फिर
भला अहम से भरे इस छोटे से हृदय में
कहाँ समाने लगी इतनी विशालता;
कैसे लिख सकूँगा मैं
कोई कविता पहाड़ पर?
बिना पहाड़ को आत्मसात किए।
2.
पहाड़ पर आकर भी
मैं देखता हूं
घूमते हुए अकेले आदमी को ही
हर अकेला आदमी लगता है
बिरह का मारा एक बादल
जो बरस पड़ने को है आतुर
जिसको चाहिए एक पहाड़ मुकम्मल।
3.
पहाड़ पर जाकर याद आते हैं
पहाड़ जैसे लोग
मुझे याद आते हैं मेरे पापा
जो बातों बातों में कहते हैं
पहाड़ जैसा होता है जीवन
पानी सा बहते चलो।
2. महमूद
घोड़ा गाड़ियों से उठती
लाल धूल से अंटी उस दुपहरी में
भट्ठे की पक्की ईंटों के कच्चे मकानों से
थोड़ी दूर...
किनारे वाली डेक के नीचे
महमूद ने हरे-नीले चौकोर छापे वाली लूंगी संभाली
और एक कच्ची ईंट निकाली
घुटने फैलाए
और बैठ गया।
गर्दन टेढ़ी करके उसने
अपना सारा तजुर्बा इकट्ठा किया
और क्षणभर को,
मेरा चेहरा परखा
कुछ याद सा करते हुए धीमे स्वर में बोला
बाबूजी...
छोटे से थे हम
जब अपने घर से आए थे, बिहार से
अपने खेत छोड़कर।
मां साथ रखती थी बाबूजी,
गांव जाती सौदा पत्ता लेने तब भी
वो जो वहाँ हैं न; उस पीर पे प्रसाद मांगने जाती तब भी
ईंट पाथती तब भी।
इसी भट्टे पर बढ़ा हुआ बाबूजी
जवानी भी सारी यहीं लुटाया हूं।
कुछ देर रुक कर
उसने मेरा चेहरा फिर जांचा
संतोष और विश्लेषण के मिश्रित भाव से बोला
जब मां के साथ होता था बाबूजी
तो इस नमकीन मिट्टी से मैं खिलौने बनाता था,
एक बार तो
हमने चिड़िया बनाई.... बड़ी चिड़िया
और चूल्हे में डाल दी...
उस चिड़िया के पंख आग में टूट गए बाबूजी।
पिताजी ने जब से ईंट बनाने सिखाए
बस तब से हम माहिर हो गए बाबूजी।
मैंने उसकी सारी कहानी में से
उसके 'हम' को पकड़ा
और आदतानुसार भाषा की भट्ठी में चिपका दिया
मुझे महसूस हुआ
यह शब्द बिल्कुल सटीक प्रयोग हुआ है
कोई व्याकरणिक दोष नहीं
यह महमूद अकेला महमूद थोड़ी है।
इतने में महमूद उठने लगा
उठते उठते थके स्वर में बोला
परिवार के बारे में पूछ रहे थे बाबूजी,
वह हमारी औरत है
पीली साड़ी में
और वह मेरा लड़का है बाबूजी
वह जो खिलौना बना रहा है।
3. नन्हा राजकुमार
कविता लिखने की सोचता हूं
तो याद आता है
'आंतवान' का वह नन्हा राजकुमार;
छठी क्लास में
नवोदय विद्यालय में मेरे प्रवेश के बाद की
पहली सर्दियों में
जबरदस्ती 20–20 रुपए की खरीदवाई गई थी
वह किताब,
अब भी सब दोस्त स्कूल के
याद करके हंसते हैं
इस किताब का नाम "नन्हा राजकुमार"
लेकिन मैंने
शायद पहली बार कोई किताब पूरी पढ़ी थी
यही किताब थी, हां हां शायद!
उस नन्हें राजकुमार ने बनाया था एक चित्र
अजगर के मुंह में हाथी...!
लेकिन लोगों को हमेशा लगता था वह
एक कैप का चित्र।
मैं सोचता हूं
कविता लिखते वक्त मुझे
नन्हा राजकुमार क्यों याद आता है?
4. संवाद
पहाड़ बहुत बड़े हैं माँ
हां बेटा मगर
पहाड़ों को चीरता हुआ मनुष्य अधिक बड़ा है।
पेड़ बहुत बड़ा है माँ
हां बेटा मगर
पेड़ को उगाने वाली धरती अधिक बड़ी है।
सूरज कितना तपाता है माँ
हाँ बेटा मगर
संघर्ष अधिक तपाता है।
चाँद कितना सुंदर है माँ
हाँ बेटा मगर
तुझपर सौ चाँद न्यौछावर।
आग कितनी गर्म है माँ
हां बेटा मगर
रोटी अधिक गर्म है।
हवा कितनी तेज है माँ
नहीं रे
तेरा मनवा ज्यादा तेज है।
रात बहुत डरावनी है माँ
हाँ बेटा मगर
उम्मीद का मर जाना अधिक डरावना है।
तेरी गोद में सुख है माँ
हाँ बेटा मगर
मेहनत की रोटी तनिक सुख ज्यादा देती है।
धन भी कितना सुख देता है माँ
हां बेटा मगर
बाप का होना अधिक सुख देता है।
हमारे पड़ोसी बहुत बुरे हैं माँ?
हाँ बेटा मगर
उससे भी बुरा है पड़ोसियों का ना होना।
सबसे सस्ता क्या है माँ?
दया सबसे सस्ती है बेटा।
सबसे महंगा क्या है माँ?
आलस सबसे महंगा पड़ता है बेटा।
सबसे बड़ा क्या है माँ?
बखत सबसे बड़ा है बेटा।
सबसे अच्छा क्या है मां?
सबसे अच्छा है
अपने बोए बीज को उगते देखना
अपने लगाए पौधे को बढ़ते हुए देखना।
5. उदास सांझ का क्षितिज
गांव की उदास सांझ का
दूर तक फैला कत्थई क्षितिज
आंखों में गड़ जाता है।
शहर का आदि हो चुका मैं
शहर जिसमें घुन की तरह लग चुका है
अब जब गांव आता हूं
कटे खेतों में खड़ा
कृतज्ञता से भरा हुआ
खुद को धरती के बीचों बीच पाता हूं
-समकालीन हिंदी कविता में योगेश शर्मा की कविताओं का दख़ल कुछ अलग तरह से हुआ है।
-बहुत ही उत्साहित करने वाली ये कविताएं, वर्तमान कविता की भाषा में एक नया मुहावरा गढ़ने में सक्षम हो सकती हैं।
-सहज-पारदर्शी भाव-बोध और भाषा के प्रति संवेदनशीलता का आग्रह इन कविताओं को विशिष्ट बनाता है।
(-जयपाल)
-समकालीन हिंदी कविता में योगेश शर्मा की कविताओं का दख़ल कुछ अलग तरह से हुआ है।
-बहुत ही उत्साहित करने वाली ये कविताएं, वर्तमान कविता की भाषा में एक नया मुहावरा गढ़ने में सक्षम हो सकती हैं।
-सहज-पारदर्शी भाव-बोध और भाषा के प्रति संवेदनशीलता का आग्रह इन कविताओं को विशिष्ट बनाता है।
(-जयपाल)
सहजता और सरलता से लिखी गई शानदार कविताएँ। बधाई योगेश भाई।
राजेश भारती ।
बेहद संजीदा ख्याल
उम्दा रचना