हिंदी कथा साहित्य के आईने में विकलांग विमर्श- डॉ. सुनील कुमार

डॉ. सुनील कुमार

साहित्य व समाजशास्स्त्री ,दलित और जनजाति विमर्श के बाद 21वीं सदी के प्रथम दशक की दस्तक के रूप में विकलांग विमर्श स्थापित हो रहा है । वैश्विक स्तर पर आज पूंजीवाद, बाजारवाद, भूमंडलीकरण का गहरा  प्रभाव  है।समय के साथ हिंदी साहित्य बहुकेंद्रित एवं बहुआयामी होता गया और उत्तराधुनिक विमर्श तथा दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, सत्ता विमर्श, आदिवासी विमर्श, बाजार विमर्श विकलांग विमर्श आदि के परिपेक्ष्य में साहित्यकार, समीक्षक अपने समय की नई सूचना और अवधारणाओं द्वारा अपनी अपनी टिप्पणी करने लगे, जाति और लिंग से रहित शुद्ध मानवतावादी दृष्टि पर आधारित यह सब अभिनव विमर्श है।  “मानव को जन्म से या जीवनपर्यंत किसी दुर्घटना का शिकार -विकार से कभी भी न्यूनता हो सकती  है। इनकी समस्याओं को समझना संघर्ष को महसूस करना और संवेदना से समरस होना  विकलांग विमर्श कहलाता है।”1 विकलांगों को केंद्र में रखकर साहित्य सृजन करना समय की मांग है विकलांग का अर्थ अंगहीन होना ही नहीं अपितु विकृत अंग वाला भी होता है अर्ध विकसितता आदि विकलांगता की श्रेणी में आते हैं यह दृश्यमान विकलांगता अर्थात शारीरिक विकलांगता कहलाती है । जो जन्मजात, दुर्घटना , रोग अन्य कारणों से सकती है।

विकलांग शब्द का अर्थ एवं परिभाषा

विभिन्न कोषों  तथा विद्वानों ने ‘विकलांग ‘शब्द का अर्थ एवं परिभाषा करने का प्रयास किया है नालंदा विशालसागर कोश में इस शब्द का अर्थ है ” जिसका कोई अंग टूटा हो या खराब हो अंगहीन।”2 इसी तरह से प्रीत प्रमाणिक हिंदी कोश में लिखा है “जिसका कोई अंग टूटा या  बेकाम हो, खंडित अंग वाला।”3

अतः  स्पष्ट है कि जिसके शरीर का कोई अंग टूट गया हो बेकार हो गया हो ऐसा प्राणी या मानव विकलांग है देह दृष्टि से कमजोर, दुर्बल पंगु व्यक्ति विकलांग है।

डॉ. हेनरी शर्ट का मानना है कि “बीमारी और युद्ध आदि के कारणों से विकलांग लोगों की संख्या विश्व जनसंख्या के 25% हैं।”4

 समाज मे लोग नैसर्गिक ,प्राकृतिक आपदा, युद्ध और बीमारी विकलांगता के कारण हो सकते हैं। केवल बाहरी कारणों में विकलांगता आई है ऐसा नहीं है इसीलिए दो प्रकार के विकलांग लोग दिखाई देते हैं एक शारीरिक दृष्टि से दूसरे मानसिक दृष्टि से। जिसे इस व्यवस्था ने मानसिक गुलाम किया, दबाया गया, कुचला गया, रौंदा गया ऐसे समाज के लोग भी विकलांग है। जो प्राकृतिक आपदा युद्ध, बीमारी आदि के कारण देह दृष्टि से कमजोर है वह शारीरिक विकलांग है ।

हिंदी साहित्य में विकलांग विमर्श-

साहित्य समाज का दर्पण है समाज में घटित होने वाली घटनाओं का यथार्थ चित्रण साहित्य में होता है। साहित्य में हित का भाव छिपा होता है साहित्य की दो विधाएं  गद्य और पद्य ,गद्य के अंतर्गत कहानी,नाटक, निबंध, उपन्यास रेखाचित्र, संस्मरण ,यात्रा वृतांत आत्मकथा,जीवनी आते हैं, पद्य के अंतर्गत महाकाव्य,खंडकाव्य ,प्रबंध काव्य, मुक्तक काव्य आते हैं।दोनों ही विधाओं में साहित्यकारों ने किसी न किसी रूप में विकलांग चेतना को  हिंदी साहित्य का अभिन्न अंग बनाया है हिंदी साहित्य व इतिहास के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि आदिकालीन ,भक्तिकालीन का उत्तरार्ध, रीतिकालीन साहित्य में सामान्य व्यक्ति की अभिव्यक्ति नहीं थी वह साहित्य राजा रानी, युद्ध, नारी सौंदर्य, भोग विलास सब कुछ  भक्ति तक ही सीमित था। परंतु आधुनिक युग में मानव ने उन्नति की राह खोजी, प्रगति के पथ पर चलने लगा, सुधारवादी वृत्ति पैदा हुई। अंग्रेज तथा भारतीय समाज सुधारकों ने सामाजिक सुधार के प्रयास किए।आजादी का आंदोलन चला विभिन्न सांस्कृतिक चिंतकों विद्वानों ने अपने मतानुसार समाज को दिशा देकर समाज को प्रगतिशील बनाया परिवर्तन किया इसी कारण फिर साहित्य में विभिन्न विचारधाराएं निर्माण हुई फुले,गांधी,अंबेडकरी विचारधारा ,मार्क्सवादी विचारधारा नारीवादी विचार, आदिवासी संस्कृति के विचार आदि सामने आए । अतः उन्हीं के अनुसार साहित्य में विमर्श आए दलित नारी विमर्श आदिवासी विमर्श आदि अतः संविधानिक अधिकारों तथा अंबेडकरी प्रेरणा से दलित, आदिवासी साहित्य लिखा जाने लगा शोषित पीड़ित लोगों की वेदना को अभिव्यक्ति मिली वास्तव में देखा जाए तो पूरा दलित आदिवासी साहित्य के पात्र मानसिक दृष्टि से विकलांग पात्र  है,उन्हें व्यवस्था ने मानसिक गुलाम किया था। साहित्य में मानसिक विकलांग विमर्श का एक बिंदु दलित ,आदिवासी, नारीवादी साहित्य है ।लेकिन उस साहित्य को हम विकलांग विमर्श नहीं कह सकते विकलांग विमर्श के अंतर्गत उसी साहित्य का समावेश हो सकता है “जो साहित्य में बहरा-गूंगा, हाथ पैर टूटा हुआ या शरीर का कोई अंग विकृत हुआ पात्र है।” 5 हिंदी के कुछ इने गिने साहित्यकारों ने इस सामाजिक समस्या की ओर ध्यान दिया व विकलांगों का विषय साहित्य में लाने का प्रयास किया। अतः हिंदी कविता, नाटक, कहानी व उपन्यास इन प्रमुख विधाओं में विकलांग विषय को लेकर बहुत बात हुई है।

हिंदी उपन्यासों में विकलांग विमर्श- हिंदी साहित्य में उपन्यास विधा सबसे लोकप्रिय वस्तु प्रसिद्ध है।

प्रेमचंद द्वारा रचित प्रसिद्ध  रंगभूमि उपन्यास का नायक सूरदास है वह गरीब और अंधा चमार है। भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की जरूरत है , ना काम की “सूरदास उसका बना बनाया नाम है और भीख मांगना बना बनाया काम उनके गुण और स्वभाव भी जगत प्रसिद्ध है। गाने बजाने में विशेष रूचि हृदय में विशेष अनुराग अध्यात्म और भक्ति में विशेष प्रेम उनकी स्वभाविक लक्षण है बाह्य दृष्टि बंद और अंतर्दृष्टि खुली हुई !”6 निष्कर्षत सूरदास प्रेमचंद का आदर्श चरित्र है । समय प्रेमचंद के अनुसार वह साधु न था, महात्मा न था ,देवता न था, फरिश्ता न था,वह एक सुंदर शक्तिहीन प्राणी था,चिंताओं और बाधाओं से गिरा था। जिसमें अवगुण भी थे और गुण भी थे, गुण कम थे ,अवगुण बहुत, गुण केवल एक था न्याय, प्रेम, सत्य, भक्ति, दर्द का उसका जो नाम है वह अपने कर्म और आचरण से कुलीनों से अधिक श्रेष्ठ है । वह उस भारतीय जीवन का प्रतिरूप है जिसमें सादगी सरलता और विचारों की उत्साह प्राप्त होता है। उनका कार्य संपूर्ण भारतीय समाज को नैतिक धरातल पर क्रांति का अमृत संदेश देता है।

‘मानस का हंस’ तुलसीदास की जीवन गाथा को उपन्यास के रूप में प्रस्तुत करने के पश्चात उसी क्रम में अगली कड़ी खंजन नयन से जुड़ती है। जिसमें महाकवि सूरदास के जीवन वृत्त को आधार बनाकर लिखा गया यह उपन्यास तत्कालीन युग के परिवेश तथा युगबोध को अपने आप में बैठाए हुए हैं। इसमें हिंदी कवि की आंतरिक और बाह्य छटपटाहट जिज्ञासा की प्रवृत्ति और जिजीविषा को बड़ी ही बारीकी से उद्घाटित किया गया है। नागर जी ने ” लोक मानस में मानवीय धरातल पर एक आदर्श मनुष्य के रूप में दर्शाया है। सूर के मानव से सूर स्वामी बनने की प्रक्रिया में उनके संघर्षशील व्यक्तित्व का निरूपण हुआ है जो सार्थक एवं सफल है”। 7

नारी अस्मिता के लिए समर्पित लेखिका समाजसेवी व चिंतक श्रीमती मृदुला सिन्हा का उपन्यास ‘ जो मेहंदी को रंग’ विकलांगता पर आधारित न केवल प्रथम एवं समग्र उपन्यास है वरन परिमल की विकलांगता के कारण इनके साथ भोगे हुए यर्थाथ का जीवन भी है। लेखिका ने पुत्र परिमल के स्थान पर शालिनी को आरोपित कर दिया है उनका मंतव्य है अपने पुत्र परिमल के प्रति किस भाव की भाषा में अपना संसार व्यक्त करूं। उन्होंने अपने इस उपन्यास में दर्शाया है कि विकलांग जिस पीड़ा को भोगता है उसकी अनुभूति मीरा शब्दों में ‘घायल की गति, घायल जाने’ की तरह है या लोकोक्ति ‘जाके पांव न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई’की भांति है। इस उपन्यास का शीर्षक मेहंदी का रंग प्रसिद्ध कवि रहीम के इस दोहे का अंतिम चरण है “यो रहीम सुख उपजे, उपकारी के संग बाँटन बारे को लगे ,जो मेहंदी को रंग।”8

विकलांगता की सेवा को तप त्याग और साधना की त्रिवेणी बनाने वाली लेखिका ने प्रमाणित करना चाहा है कि जैसे मेहंदी बांटने वाले को भी मेहंदी कर रंग चढ जाता है उसी तरह सेवा में संलग्न सभी सहयोगियों को आत्मिक और अभिनव आनंद की प्राप्ति होती है । इस दृष्टि से उपन्यास का नामकरण सार्थक है। हिंदी साहित्य में उपन्यासों की भांति कहानीकारों ने भी अपनी कथ्य में विकलांग पात्र व कथानक को गति प्रदान की व विकलांग विमर्श को एक नई दिशा प्रदान करने का प्रयास किया है।

हिंदी कहानियों में विकलांग विमर्श-

हिंदी कहानी के कई कहानीकारों जयशंकर प्रसाद, धर्मवीर भारती ,फणीश्वरनाथ रेणु,,रांगेय राघव, ममता कालिया ,यशपाल, शशि प्रभा श्रीवास्तव,मैत्रयी पुष्पा आदि ने विकलांग पात्रों के प्रति आत्मिक संवेदना को व्यक्त करके पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है ।

 ‘कर्मनाशा की हार’ फणीश्वर नाथ रेणु की आंचलिक कहानी है जिसमें भैरव पांडे पैर से विकलांग है जो विधवा स्त्री के गर्भवती होने पर उसकी बलि गांव वाले देना चाहते हैं उसकी रक्षा करता है। अज्ञेय द्वारा लिखी गई ‘मेजर चौधरी की वापसी’ कहानी में आहत हुए मेजर की मनोदशा का वर्णन है। प्रेमचंद द्वारा लिखित ‘पत्नी से पति’कहानी में एक विकलांग भिखारी है जो देश प्रेम के लिए प्रेरणा का कारण बन गया है। रांगेय द्वारा लिखित ‘हरसिंगार’ कहानी है जिसमें सूरदास अंधा होने पर भी हारमोनियम बजाता है। हिंदी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में किसी ना किसी विकलांग पात्र को चित्रित किया है तो उसके प्रति संवेदना और सहानुभूति भी प्रकट की है.व संघर्षशील विजय चरित्र स्थापित करने की भरसक कोशिश की है । 9  धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कहानी ‘गुल की बन्नो को हम भूल नहीं सकते।जिसने आधुनिक संवेदना को समष्टिगत सत्य के धरातल पर पकड़ा गया है। उनकी बन्नो मानवीय संवेदना को आकर देती है। रांगेय राघव की ‘गूंगे’ कहानी का केंद्रीय आकर्षण है इसमें हरद्कोरे देने वाली पीड़ा है जो प्रसाद के मधवा में भी आ चुकी है।”10

फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी’ठेस’ का सिरजन तुतला कर बोलता है जो की विकलांगता  श्रेणी में है। यशपाल की ‘अभिशप्त’ कहानी गूंगा नवाब बालक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। ‘शहर’ कहानी में कहानीकार मैत्री पुष्पा एक लंगडी की गाथा को प्रस्तुत करती है इस कहानी का अनपढ़ बंसी उसका इलाज करवाता उसका दूसरा विवाह करवाता है व  हीनता के भाव से ऊपर उठाता है। 11 ओमप्रकाश भाटिया की कहानी ब्रिज चांद और दुआ का अनिल स्वार्थपरकता के गर्त में गिरकर विकलांग बुजुर्ग के प्रति निरादर दृष्टि को उजागर करता है। साक्षी कहानी की लेखिका जया जादवानी मानवीय संबंधों को यथार्थ रूप प्रदान करती है।12 ‘साये का सुख’ शशिप्रभा श्रीवास्तव की ऐसी कहानी है जिसमें गरीब स्त्री के पुरुष की झगड़े में पति का दाहिना हाथ ह अपाहिज हो जाता है उसकी पत्नी उनकी सेवा करती है वह कहती है “वो अपाहिज ही नहीं है मेरा शौहर आज  घर में था और मैं उसके दम पर घर की मालकिन थी ,मेरे सिर पर इज्जत और हिफाजत का साया उनकी वजह से बना रहा। नारी के जीवन में पुरुष की अहमियत क्या होती है इसका श्रेष्ठ उदाहरण यहां मिलता है।”13

उपसंहार-

हिंदी साहित्य में वर्तमान सदी  के दौर में विकलांग विमर्श अपने आप में एक नई अवधारणा है। जिसकी परिकल्पना ,परिचर्चा इस सदी से पूर्व में नहीं हो पाई थी हालांकि हिंदी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में विकलांग पात्रों को अवश्य चित्रित किया है। हिंदी कहानी ही नहीं ,हिंदी उपन्यास व अन्य गद्य विधाओं में भी यत्र तत्र विकलांग पात्रों का उल्लेख होता रहा है यदि आवश्यकता है तो यह है कि उन्हें विकलांग विमर्श की दृष्टि से विवेचन विश्लेषण किया जाए।

संदर्भ ग्रँथ सूची-
1.(सं)डॉ माहेश्वरी, विकलांग विमर्श का वैश्विक परिदृश्य, पृ०378
2. (सं) नवलजी, नालंदा विशाल शब्दसागर, पृ०1256
3.(सं)आचार्य रामचंद्र वर्मा, बृहद प्रामाणिक हिंदी कोष,पृ०859
4.(सं) लक्ष्मण जोशी, मराठी विश्वकोश-खंड-1,पृ०265
5.मालती जोशी,साहित्य सुमन,पृ०97
6.(सं)विनय पाठक,कथा साहित्य में विकलांग विमर्श,पृष्ठ०522
7.(सं)पुष्पपाल सिंह,कथा मंजरी,पृ०74
8.(सं.)परमानन्द श्रीवास्तव, कथान्तर, पृ०108
9.धर्मवीर भारती,, गुल्ल की बन्नो, पृ०108
10.रांगेय राघव, मेरी प्रिय कहानियां, पृ०86
11.( सं.) गिरिजा शरण अग्रवाल,विकलांग जीवन की कहानियां,पृ०163
12. वही,पृ०140
13.शशि प्रभा शास्त्री, साये का सुख,पृ०20

1 thought on “हिंदी कथा साहित्य के आईने में विकलांग विमर्श- डॉ. सुनील कुमार

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    Jai pal Ambala City teacher jaipalambala62@gmail.com says:

    अन्य विमर्शों के साथ विकलांगता को भी साहित्य में एक विमर्श के रूप में देखा जाना चाहिए।इस पर शोध करना और रचनाकर्मियों का ध्यान इस ओर खींचना अपने आप में एक जरूरी कदम होगा। अन्य विमर्शों की तरह बहुत शीघ्र ही इस पर साहित्यिक आलोचना का ध्यान जाएगा। जैसाकि अभी तक नहीं गया है
    साहित्य में यह विमर्श एक उपेक्षित संवेदनशील मानवीय पक्ष को सामने रखेगा ।मनुष्य की गरिमा के प्रति साहित्य के आग्रह को और पुख्ता करेगा।
    इस विषय पर ध्यान आकृष्ट करने और लगातार इस पर काम करने के लिए डॉ सुनील थुआ की पहल कदमी का स्वागत है।
    (-जयपाल)

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