Savi Savarkar, ‘Untouchables’

पाँच कविताएँ – विनोद कुमार

विनोद कुमार
1.	दुष्कर्म 

मेरे परिवार के हाथ लगाने से 
हो जाते है दूषित जो,
वही भूखे भेड़िए
नोचते रहे मेरे जिस्म को 
बार-बार 

अपनी अस्मिता को बचाना भी,
पाप बन जाता है,
अंधी कानून
व्यवस्था के हवाले से 

भटकता परिवार 
और दुखी मेरा मन 
शांत हो जाना चाहता है 
इस भयानक शोर से 
सामाजिक दायरा 
एक बोझ बन जाता है 
उनकी नज़रों के 
नुकीले तीर
मेरे जिस्म के 
साथ-साथ
भेद देते हैं
मेरे सम्मान को भी

ठाकुरता की धौंस में
किसी के जिस्म को 
कर देना तार-तार
धब्बा है
उनकी मनुष्यता पर

अदालतों की खिड़कियों से 
झांकता कानून 
केवल एक पक्ष को 
देखता है,
और आवाज लगाता है 

काले कोट वाला आदमी
अपनी भाषा के जोर से 
उलझाने की कोशिश करता है,
बार-बार 

मेरे जिस्म के घावों से 
निकलती मवादें 
अदालत के कटघरे में 
बह जाना चाहती है...

आंखो पर पट्टी बांधे,
न्याय का तराजू लिए ये मूर्ति 
अपनी आंखो से हटाकर  
एक वर्ग को देखती है 

ऊंची कुर्सी पर बैठा 
न्याय करने वाला,
कलम बार-बार 
उठाता और छोड़ता है
उसकी कलम की स्याही
"जाति" के कीचड़ की भांति 
जाम हो गई है।


2.	बंद आंखें  

क्या दिखाई नहीं देता 
इतना वीभत्स चेहरा
या दिखाई नहीं देता 
एक मां का कोहराम
जो अपनी छाती पीट-पीट कर
रो रही है,
निशब्द हो गई है,
हो गई है बेहोश 
   
समस्याओं के जाल में,
फंसी शिक्षा 
दिखाई नहीं देती,
या सुनाई नही देती,
संविधान की प्रतिज्ञा 
जिसकी शपथ लेकर 
ये कारवां शुरू किया था 

क्या दिखाई नहीं देता 
वो दर्द जो,
सैनिकों की विधवाओं ने
छिपा रखा है
अपने आंसुओं में 

क्या दिखाई नहीं देता 
फुटपाथ पर पलटा बच्चा 
जो अपनी पेट की आग,
बुझाने के लिए 
फंफूद लगी रोटी को 
बड़े चाव से खा रहा है 

क्या दिखाई नहीं देती 
अपनी अस्मिता को 
बचाने के लिए,
फांसी लगाती स्त्री 
नाजायज नाम को
जायज बनाती स्त्री 

क्या दिखाई नहीं देते 
ईश्वर के नाम पर
सिमटता बचपन-होते कत्ल-उजड़ते घर,
आग लगाता नौजवान?

3.	नमक

घबराता व्यक्ति, डरती सभ्यताएं- 
बतलाना चाहती है,
दिखलाना चाहती है,
अपने घावों को,
जो सदियों से हरे है।

देखकर घावों को 
वर्तमान शक्ति करने लगती है,
नमक का व्यापार
मिला है जिसमें,
सूखी लाल मिर्च का कण।
हर परिस्थिति में मुनाफे की बाट जोहता
एक खास किस्म के व्यक्तियों का समूह
भरना चाहता है अपने गोदामों को
नमक के ढेरों से। 

संताप लिए सदियों का
दबे कुचले लोगो का समूह 
उठाना चाहता है आवाज, उसी वक्त-
छिड़क दिया जाता है 
उन पर नमक  

वेदों पुराणों के जमाने से
आपने घावों को बचाती स्त्री,
देख रही है,
किवाड़ खोल कर 
आता तो नही कोई,
पशुता से भरा कोई आदमी
जिसके हाथ में हो नमक।

4.	भूख से पहचान 

कूड़े के ढेर पर बैठी 
एक नन्ही सी बच्ची 
उसकी आंख से 
झलकता आंसू 
लगा पूछने मुझसे-

क्या आप भूख को जानते हैं
पहचानते है रोटी को
क्या होती है, आपकी उनसे बात
एक अरसे से से न दिखी है,
न आती है मेरे पास  
 
मेरी आंतो का सिकुड़ना 
कहता है, बार-बार
रोटी नही आई या
रूठ गई है हमसे 
सारा रक्त, 
भीगे वस्त्र की भांति 
निचोड़ रही है देह

सामने बैठा कंकाल 
लगाता है आवाज 
बतलाता है उसका पिता 
तभी कंकाल की आंत्ते
लगी चिल्लाने
लगी पुकारने 
जोर-जोर से मुझे 

स्वर वही जो बच्ची की आंत 
और आंसू का था 
क्या आप भूख को जानते है 
पहचानते है रोटी को,
क्या होती है आपकी उनसे बात।


5.	कटे अंगूठे की आवाज

कटा अंगूठा 
है लेता बोल 
आती है 
जंगल से आवाज 

अचानक 
पक्षियों का चहचाना 
रुका सा जाता है
पेड़ों की पत्तियां
कांपने लगती है 
भयानक आवाज
का  कहराना 
देता है सुनाई 

जंगल की धरती
पड़ गई काली
टपका है लहू,
यहां 
रहा लहू पुकार

प्रकृति की गोद में 
पलता जंगल 
गूंज रहा इसी ध्वनि से 
प्रकाश की चमक 
इस ध्वनि से टकराकर 
हो जाती है तेज

धरती के गर्भ से,
निकली आवाज 
लगी पूछने 
है तू कौन, रहा जो चिल्लाय़


मैं वही
कटा है जिसका अंगूठा 
हो रही है पीड़ा 
इस दर्द से नहीं
उस दर्द से 
जो गुरु से मिला 

रहे हो किसे पुकार 
बतलाते हो गुरु 
जिसने कटा है अंगूठा 
अपने ही शिष्य का
है वो कौन 

वो है द्रोण 
गुरु द्रोणाचार्य
जिसने युद्ध में,
प्रत्यंचा चढ़ाने से, 
पहले ही 
लिया अंगूठा मांग 

किस वचन 
से बंधे थे 
राजा का बेटा राजा 
क्या है ये सत्य
क्या यही थी 
वजह 


मैं रहा हूं भूल 
इस अत्याचार को 
मेरे बहे,
लहू के कतरे
पूछते रहेंगे 
सदियों तक 


क्या राज घरों के खूंटे से 
बंधी रहेगी शिक्षा 
क्या सदियों तक 
मिलेंगे द्रोण 
जो काट ले 
अंगूठा प्रतिभा का 
क्या नहीं हारेगा 
कभी अर्जुन?

फीचर इमेज के लिए सावी सावरकर की पेंटिंग 'untouchables' को साभार इस्तेमाल किया गया है।

More From Author

‘1947’ उपन्यास पर समीक्षात्मक टिप्पणी – नरेश कुमार

हिंदी कथा साहित्य के आईने में विकलांग विमर्श- डॉ. सुनील कुमार

3 thoughts on “पाँच कविताएँ – विनोद कुमार

  1. बहुत सुंदर और मार्मिक चित्रण किया गया है। जाति है नहीं जाती। बहुत बहुत साधुवाद। उज्जवल भविष्य की अशेष शुभकामनाएं ♥️????

    1. विनोद कुमार की इन कविताओं में सदियों से समाज में व्याप्त जातीय भेदभाव और घृणा से उपजी पीड़ा को वाणी दी गई है। इनमें उठाए गए सवाल कथित सभ्य समाज को कठघरे में खड़ा करते हैं ।
      – अशोक भाटिया

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *