भाषा, इतिहास और अंतर्विरोध – आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी

इतिहास के रोचक और कुछ करुण, अंतर्विरोधों में से एक यह है कि ‘तराना-ए-हिंदी’ के गायक, अपने को ‘हिंदी’ कहने वाले और अपने वतन को ‘हिंदुस्तान’ मानने वाले प्रसिद्ध शायर और मनीषी डॉ० इकबाल काल-क्रम में पाकिस्तान की योजना के आरंभिक प्रस्तावकों में हुए। पर यह अंतर्विरोध का मूल गुण, आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रयोग में ‘विरुद्धों का सामंजस्य’, हिंदू धर्म और हिंदुस्तान की संस्कृति का आधारभूत तत्व है। यों अंतर्विरोधों का होना और फिर उनका समन्वय एक प्रकार से संस्कृति-मात्र का लक्षण है, उसकी जीवंतता का प्रमाण है, पर हिंदू धर्म और उससे जुड़ी तथा उसके सहारे विकसित संस्कृति में यह प्राणधारक तत्व रहा है, जिसके होने से ही कवि के सरल से लगते तराने में यह गहरी अनुभूति उसे हुई थी-“कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।” यह ‘बात’ ध्यान से देखने पर हिंदू मानसिकता की वह शक्ति है जो अनेक अंतर्विरोधों को अपने में समोए हुए है।

इन अंतर्विरोधों को समोने की शक्ति हिंदू मानस को शायद इसलिए मिली कि वह किसी धर्म ग्रंथ विशेष और व्यक्तित्व विशेष पर अनिवार्यतः आस्था लाने का आदेश नहीं देता। इसीलिए आस्तिक-नास्तिक, ब्राह्मण-शैव, मूर्ति-पूजक और प्रतिमा-भंजक सब उसके प्रवाह में शामिल हैं। तब अंतर्विरोधों का उपजना स्वाभाविक है, और हिंदू दिमाग धीरे-धीरे उनको शमन करने का आदी होता गया है। यहाँ धर्म संस्थागत नहीं बना, वरन् एक आंतरिक जिजीविषा का रूप हो गया, एक ऐसी हस्ती जो यूनान, मिस्त्र और रोम के मिटने पर भी बराबर बनी रहती है।

हिंदू मानस के अनेक अंतर्विरोधों में सबसे दिलचस्प है सूक्ष्म अद्वैत दर्शन और जड़ीभूत जाति-व्यवस्था का सह-अस्तित्व। तत्व-चिंतन की सूक्ष्मतम भाव-भूमि अद्वैत की परिकल्पना में है जहाँ संपूर्ण यथार्थ एक ब्रह्म की सत्ता की ही विविध रूपा अभिव्यक्ति है। यह अद्वैत- भावना हिंदू दर्शन की विशिष्ट उपलब्धि है, और इस रूप में अन्यत्र नहीं मिलेगी। वहीं जाति-प्रथा का स्थूल रूप-जन्म पर आधारित, जाति के मूल अर्थ में ही- ऐसा कहीं नहीं मिलेगा। जातियों का जाल और वर्गीकरण, इतना पूर्ण और व्यवस्थित है कि छंद-शास्त्र का प्रस्तार याद आ सकता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की यह टिप्पणी अनायास गणित की अनंत राशि की ओर संकेत करती है कि हिंदू समाज में नीचे से नीचे समझी जानी वाली जाति भी अपने से नीची एक और जाति ढूँढ़ लेती है। और यह व्यंग्य नहीं, व्यावहारिक सच है। तो एकत्व का परम रूप अद्वैत में और वैविध्य की बहार जाति प्रथा में, ये दोनों छोर हिंदू व्यवस्था में बड़े इतमीनान के साथ समाए हुए हैं। इसी तरह दैव-विधान और कर्म का महत्त्व यहाँ के दर्शन में एक साथ अँटे हैं।

कुछ ऐसा ही अंतर्विरोध भारतीय काव्यशास्त्र की मान्यताओं में मिलता है। एक ओर रस-सिद्धांत का सूक्ष्म चिंतन है जो अपनी ऊँचाइयों में दर्शन की कोटि तक पहुँचता है, और दूसरी ओर अलंकारों और ध्वनियों का स्थूल तौर पर विभाजन और वर्गीकरण है, जो बाबू गुलाबराय को ठीक ही हिंदू-जाति-प्रथा का स्मरण दिलाता है। ध्वनियों के वर्गीकरण के प्रसंग में उन्होंने ‘या अल्लाह! गौड़ों में भी और!’ वाला किस्सा याद किया है। “हमारे यहाँ के भेदों को देखकर दूसरे साहित्य वाले ब्राह्मणों की पंक्ति में बैठे हुए छद्मवेशधारी मुसलमान की भाँति चिल्ला उठते हैं ‘या अल्लाह गौड़ों में भी और!’ मैं उन भेदों को गौड़ों तक यानी मोटे-मोटे भेदों तक ही सीमित रखूँगा।” (‘सिद्धांत और अध्ययन’ ध्वनि और उसके भेद)।

अपने चिंतन में ही नहीं अपनी रचना-प्रक्रिया में भी हिंदू-मानस इसी प्रकार के छोरों को दरसाता है। हमारे दो आदि-काव्य ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ अपनी परिकल्पना में एक- दूसरे के विरोधी हैं। एक आदर्श की चरम गाथा है तो दूसरा यथार्थ का नग्न रूप। कथा का मूल ढाँचा दोनों जगह भारतीय हिंदू परिवार में भाइयों के आपसी संबंध पर टिका हुआ है। पर इन संबंधों की दिशा अलग-अलग है। ‘रामायण’ के भाई इस बात के लिए तत्पर हैं कि दूसरा गद्दी पर बैठे, जब कि ‘महाभारत’ के भाई दूसरे को सुई की नोंक बराबर जमीन भी नहीं देनाचाहते। क्या यह एकदम आकस्मिक है कि इन दोनों महाकाव्यों की रचना-परिकल्पना एक दूसरे के इतने प्रतिरोध में हो? क्या हिंदू मानस के चरम अंतर्विरोध का रूप यहाँ देखने को नहीं मिलता? इन दो छोरों में हिंदू जातीयता का पूरा विस्तार समा गया है।

अंतर्विरोधों के बीच अपने को गतिशील रखने की यह क्षमता अब तक चली आती है। तभी तो संभव हुआ कि इस देश का एक संविधान स्वतंत्र आर्यावर्त में मनु महाराज ने रचा था, और दूसरा देश के फिर से स्वाधीन होने पर डॉ. अंबेडकर ने रचा। मनु के विधान में अंबेडकर के लिए स्थान नहीं था, या नहीं जैसा था, अंबेडकर के विधान में मनु के लिए पूरा स्थान है। इतिहास-चक्र की यह विलक्षण गति सारे समाज दार्शनिकों को परेशान करने वाली है। और तब समझ में आता है कि हमारे यहाँ धर्म की व्याख्या धारण करने के अर्थ में क्यों की गई है।

धर्म वस्तुतः वह है जो इन अंतर्विरोधों को धारण करने की सामर्थ्य रखता है। धर्म सामान्यतः जीवन को धारण करे तो इसमें कुछ विशेष बात नहीं है। विशेष बात तब है कि उससे जीवन के अंतर्विरोधों को धारण करने की अपेक्षा की जाए।

धारण करने की इस शक्ति ने भारतीय संस्कृति को प्रचल ग्रहणशीलता और प्रवहमानता दी है! यह ठोक है कि इस संस्कृति का मूलाधार आर्य संस्कृति रही। पर बहुत बड़ा अंश आर्येतर सभ्यता का है, आगमों का है, बौद्ध, जैन और सिक्खों का है। फिर इस्लाम और ईसाई धर्म के प्रभाव हैं। यह सब मिलाकर भारतीय संस्कृति की धारा बनती है, जो आधुनिक काल में इकबाल को प्रसन्न आशंसा का कारण होती है। अंतर्विरोधों को द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया में यह धारा इतने लंबे समय तक गतिशील बनी रही है।

हिंदू देव-माला में इसीलिए विविध कालों में ऐसे देवता अधिक लोकप्रिय हुए जिनमें अंतर्विरोधों को धारण करने को क्षमता थी। इंद्र में योद्धा और संगीत प्रेमी, शिव में सबसे बड़े योगी और वैसे ही भोगी, ज्ञानी और भोलानाथ, कृष्ण में प्रेमी, कूटनीतिज्ञ और दार्शनिक के परस्पर विरोधी पक्ष ऐसे घुल-मिल गए हैं कि सहसा उनके विरोधत्व का आभास ही नहीं होता। इन विरोधों और उनकी समरसता के बीच से इस देश के दार्शनिकों और मनीषियों ने जीवन की एक समग्र, समृद्ध और संपूर्ण प्रस्तावना प्रस्तुत करनी चाहीं है। यही हिंदू धर्म का मूल चरित्र है।

हिंदी भाषा की प्रकृति इस चरित्र से जुड़ी है। भाषाओं के लंबे इतिहास में ऐसी बहुरूपी भाषा का अस्तित्व और कहीं नहीं मिलता। भौगोलिक विस्तार के अनेक जनपदों और उनमें व्यवहत अठारह बोलियों के वैविध्य को, जिनमें से कई व्याकरणिक दृष्टि से एक दूसरे को विरोधी विशेषताओं से युक्त कही जा सकती हैं, हिंदी भाषा बड़े सहज भाव से धारण करती है। हिंदी के स्वरूप के संबंध में इसीलिए वैचारिक द्वैत की भावना ग्रियर्सन में जगह-जगह दिखती है। ‘भाषा सर्वेक्षण’ के भूमिका-भाग में वे लिखते हैं “इस प्रकार यह कहा जाता है और सामान्य रूप से लोगों का विश्वास भी यही है कि गंगा के समस्त काँठे में, बंगाल और पंजाब के बीच, अपनी अनेक स्थानीय बोलियों सहित, केवल एकमात्र प्रचलित भाषा हिंदी ही है। एक दृष्टि से यह ठीक है और इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सर्वत्र हिंदी अथवा हिंदोस्तानी शासन की भाषा है और ग्रामीण स्कूलों में यही शिक्षा का माध्यम भी है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इस क्षेत्र के लोग द्विभाषा-भाषी हैं अतएव व्यवहार में उन्हें किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती और ये लोग नहीं चाहते कि शासन कार्य के लिए अनेक भाषाएँ स्वीकार कर कठिनाई उत्पन्न की जाय। यह सब होते हुए भी, तथाकथित हिंदी को इन बोलियों की जब भाषाशास्त्री परीक्षा करता है और उन्हें समूह के अंतर्गत लाने अथवा उन्हें वर्गीकृत करने का उद्योग करता है तो इनके मुहावरों तथा गठन में उसे अत्यधिक अंतर मिलता है।” (पृ० ४२-४३) ग्रियर्सन के काफी पहले विलियम कैरे ने १८१५ में इसी प्रकार की भावना व्यक्त की थी। एक ओर हिंदी क्षेत्र की बोलियों में शब्दावली को समानता होने पर भी उन्हें रूप-तंत्र की भिन्नता प्रतीत हुई, और दूसरी ओर हिंदी के विस्तार के प्रति बड़े आश्वस्त भाव से उन्होंने पहली निगाह में लिखा है, “इस बोली से मैं सारे हिंदुस्तान को समझा सकूँगा।” यहाँ स्मरणीय है कि कैरे का भाषा-सर्वेक्षण अपने ढंग का पहला प्रयास है, और बाइबिल के अनुवादों के सिलसिले में उन्होंने हिंदी-क्षेत्र की बोलियों का गहराई के साथ परीक्षण किया था।

हिंदी क्षेत्र की १८ बोलियाँ (पाश्चमी हिंदी के अंतर्गत – खड़ी बोली, बाँगरू, ब्रजभाषा, कौजी, बुंदेली; पूर्वी हिंदी में अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी; बिहारी में मैथिली, मगही, भोजपुरी; राजस्थानी में मेवाती अहीरवाटी, मालवी, जयपुरी-हड़ौती, मारवाड़ी-मेवाड़ी; तथा पहाड़ी में पश्चिमी पहाड़ी, मध्य पहाड़ी, पूर्वी पहाड़ी १८) व्युत्पत्ति की दृष्टि से अलग-अलग अपभ्रंशों से विकसित हुई हैं। बोधगम्यता के संदर्भ में तो ग्रियर्सन ने कहा है कि झाँसी जिले के किसान अर्थात् बुंदेली बोलने वाले को गोरखपुर जिले के किसान अर्थात् भोजपुरी बोलने वाले से बात करने में कठिनाई होगी। व्याकरण के स्तर पर पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी और भोजपुरी के अंतर प्रसिद्ध हैं। पश्चिमी की बोलियों में कर्ता कारक के लिए प्रयुक्त ने परसर्ग पूर्व में अवधी और भोजपुरी में एकदम अनुपस्थित है। पश्चिमी में भविष्यत् काल के लिए-ह और ग प्रत्यय हैं, पूर्व में ब। दूसरी ओर पूर्व के भूतकाल में प्रयुक्त – अल, इल प्रत्यय पश्चिम की बोलियों में नहीं हैं। अ स्वर का उच्चारण भोजपुरी में जिस रूप में है वह बँगला आदि पूर्वी भाषाओं के निकट है बजाय पश्चिमी हिंदी क्षेत्र को बोलियों के। इन्हीं सब कारणों से प्रेरित होकर ग्रियर्सन ने लिखा ‘तथाकथित हिंदी की बोलियाँ।’ यह स्पष्ट है कि ग्रियर्सन अपने भाषावैज्ञानिक विचार-क्रम में इन बोलियों को एक भाषा से संबद्ध नहीं मानते। उनके सर्वेक्षण में हिंदी क्षेत्र की पाँच उपभाषाएँ – पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, बिहारी, राजस्थानी, पहाड़ी किसी एक स्थान पर विवेचित न होकर सर्वेक्षण की पाँच अलग- अलग जिल्दों में (क्रमशः ९ : १, ६, ५ : २, ९ : २ तथा ९ : ४ में) वर्णित हुई हैं। और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के वर्गीकरण में उन्होंने भीतरी, बाहरी तथा बीच की तीनों शाखाओं में हिंदी क्षेत्र की बोलियों को रक्खा है। अर्थात् ग्रियर्सन के अनुसार हिंदी क्षेत्र की बोलियों की विशेषताएँ सारी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विशेषताओं के समतुल्य हैं। और तब यह अकारण नहीं है कि इन तीनों वृत्तों का केन्द्र उन्होंने पश्चिमी हिंदी को माना है-“जब उन्हें भारतीय आर्य भाषाओं को किसी क्रम में रखना पड़ेगा तो सर्वप्रथम मध्यदेश की भाषा पश्चिमी हिंदी को केन्द्र में रखना पड़ेगा।” (भूमिका-भाग-पृ० ३२२) । और इतने पर भी, कवि के शब्दों में, ‘कुछ बात है’ कि इन सारी बोलियों के समूह और संश्लेष को पहले भी ‘हिंदी’, ‘हिंदवी’, ‘हिंदुई’ कहा जाता था, और आज भी ‘हिंदी’ कहा जाता है। कबीर और मुल्ला वजही, जायसी और तुलसी, सूर और मीराबाई, भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, निराला और अज्ञेय समान रूप से और सम भाव से हिंदी के कवि हैं। इनकी रचनाओं का इतिहास हिंदी संवेदना का इतिहास है। यह ठीक है कि इन बोलियों में से ‘दकनी’ भाषिक रूप में हिंदी के निकट है पर साहित्यिक संदभों में उर्दू के।

इसके पीछे कई कारण हैं, जो विशुद्ध भाषावैज्ञानिक विचार-क्रम से कुछ अलग पड़ते हैं। एक तो हिंदी क्षेत्र या कि प्राचीन मध्यदेश के जनपदों के बीच सामाजिक संबंधों की स्थिति और सांस्कृतिक एकरूपता बराबर रही है। ग्रियर्सन ने इस स्थिति को बड़े अच्छे ढंग से पहचाना है। बिहारी के प्रसंग में वे लिखते हैं “यहाँ तक कि रामायण महाकाव्य की रचना के युग में भी अयोध्या (आधुनिक अवध) के राजकुमार रामचंद्र ने मिथिला अथवा आधुनिक उत्तरी बिहार की प्रसिद्ध राजकुमारी सीता के साथ विवाह किया था। बिहार का मुख सदैव उत्तर-पश्चिम की ओर रहा: बंगाल की ओर से तो उस पर शत्रुतापूर्ण आक्रमण ही होते रहे। इन्हीं कारणों से लोग बिहारी भाषा को यू० पी० में प्रचलित हिंदी का ही एक रूप मानते हैं, किंतु वास्तव में यह तथ्य के सर्वथा विपरीत है। बिहार तथा बंगाल में पारस्परिक चाहे जो दुर्भावना हो, बिहारी भाषा बंगला की बहिन है, और पश्चिम की बोली से उसका बहुत दूर का संबंध है।” (‘भारत का भाषा-सर्वेक्षण’ भूमिका-भाग, पृ० २७४) जब भाषावैज्ञानिक तथा सामाजिक साक्ष्यों के बीच वैषम्य उपस्थित होता है तो ग्रियर्सन अपनी मान्यता भाषावैज्ञानिक साक्ष्यों को ही देते हैं। पर बिहार की भाषिक स्थिति इसी से प्रकट नहीं होती कि वहाँ की बोलियों का व्याकरण बँगला जैसा है, बल्कि इससे भी जुड़ी है कि वहाँ के निवासी अपनी काव्यभाषा के लिए ब्रजभाषा अथवा खड़ी बोली को आधार-रूप में चुनते हैं, और उनकी जातीय पाठ्य रचना तुलसी कृत रामचरितमानस है, न कोई बँगला काव्य। और यहाँ काव्यभाषा के महत्वपूर्ण साक्ष्य पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। काव्यभाषा का संबंध रचनाकार से ही नहीं श्रोता और पाठक वर्ग से भी होता है, इस रूप में वह पूरे जनसमाज को परस्पर जोड़े रहती है। एक ओर जन-बोली से वह शक्ति लेती है और दूसरी ओर उसे परिष्कार देती है। तुलसीदास के बारे में एक रोचक किंवदंती यह है कि रामचरितमानस पहले वे संस्कृत में लिखना चाहते थे, पर जितना वे दिन भर में लिखते उतना रात भर में मिट जाता था। तब शंकरजी ने उन्हें स्वप्न दिया कि तुम जन-भाषा में रचना करो और वह स्थायी होगी। फिर तुलसी ने अपनी कथा को ‘भाखाबद्ध’ किया। यहाँ काव्यभाषा की प्रसरण-शक्ति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इस दृष्टि से किसी क्षेत्र की काव्यभाषा वहाँ के समाज को प्रतिफलित करती है।

समूचे मध्यदेश की काव्यभाषा का आधार हर युग में एक रहा है। कभी आरंभ में वह खड़ी बोली था, तो कभी खड़ी बोली और ब्रजभाषा का मिला-जुला रूप, फिर मध्य काल मे ब्रजभाषा और अंशतः अवधी। और अब आधुनिक काल में यह आधार फिर से खड़ी बोल हुआ है। कुमायूँ से सुमित्रानंदन पंत, बैसवाड़े से निराला, ब्रजक्षेत्र से महादेवी वर्मा और भोजपुरी क्षेत्र से प्रसाद आकर एक खड़ी बोली के आधार पर उस नये काव्य आंदोलन को जन्म देते हैं, जो आधुनिक कविता की विशिष्टतम उपलब्धि बनता है। छायावादी कविता इतने बोली-क्षेत्रों के संस्कार अपने में समाहित किए है जो घुल-मिलकर एक काव्यभाषा में रचे गए हैं। हिंदी क्षेत्र की भाषिक एकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह समान काव्यभाषा का प्रयोग है। आधुनिक काल में इस मध्यदेश अथवा हिंदी प्रदेश की पहचान बनाने में धीरेन्द्र वर्मा, राहुल सांकृत्यायन तथा वासुदेवशरण अग्रवाल प्रमुख हैं। राजनीति क्षेत्र के विचारकों में राममनोहर लोहिया का ध्यान इस ओर गया। उर्दू, जो बोल-चाल में खड़ी बोली का ही एक रूप है, हिंदी काव्यभाषा से अलग हो जाती है। यहाँ स्मरणीय है कि यह अलगाव सांप्रदायिक धरातल पर कभी नहीं रहा। अलगाव का यदि कोई आधार रहा तो यह कि उर्दू दरबार से जुड़ी रही-यद्यपि बाजार से भी उसका संबंध बराबर बना रहा और हिंदी विविध बोलियों के रूप में जनसाधारण में प्रयुक्त होती रही। इसीलिए कायस्थ जैसी हिंदू जाति दरवार से संबद्ध होने के कारण उर्दू प्रयोग में अग्रणी रही, और खत्री तथा अग्रवाल जैसी व्यापारिक जातियाँ अपने आवागमन के साथ हिंदी का प्रसार करती रहीं। एक ही खड़ी बोली के दो रूप यों अलग-अलग ढंग से संस्कारित और प्रचारित हुए। कविता में यह संस्कार एकदम फरक हो गया, पर अलगाव हिंदू-मुसलमान के आधार पर कभी नहीं हुआ। जायसी,रहीम, रसखान जैसे मुसलमान हिंदी में लिखते हैं, और हिंदुओं में चकबस्त, सरशार, फ़िराक उर्दू परंपरा के श्रेष्ठतम रचनाकार हैं।

जैसा कहा गया, हिंदी-उर्दू में अंतर बोलचाल के स्तर पर नहीं है। अंतर साहित्य के स्तर पर है। कुछ तो भिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से, कुछ छंद-विधान को लेकर, पर अधिकतर काव्यभाषा को प्रयोग-विधि में अंतर के कारण। सांस्कृतिक और दरबारी अनुषंगों के ही होने से खड़ी बोली के दोनों रूपों उर्दू और खड़ी बोली हिंदी को हिंदी लेखकों विशेषतः ब्रजभाषा के समर्थकों द्वारा ‘यामनी’ कह कर संबोधित किया गया। यह तिरस्कारसूचक विशेषण उर्दू के लिए नहीं, खड़ी बोली मात्र के लिए था, इस्लामी दरबार से संपर्क के कारण। फिर उर्दू ने वर्णिक या मात्रिक, भारतीय परंपरा के किसी छंद-विधान को स्वीकार नहीं किया। और इससे भी अधिक उर्दू शैली में अलगाव आया काव्यभाषा की प्रयोग-विधि के कारण। उर्दू की विशेषता यह थी कि उसने दरबार और बाजार दोनों को एक साथ साधा था। वह उच्च संस्कृति से जुड़ी थी, पर अपने नाम के अनुरूप लश्कर के बाजार भी। यों उसका बोलचाल का रूप कविता में भी बराबर सुरक्षित रहा। उर्दू में शेर लिखा नहीं जाता, कहा जाता है। और यह एक अत्यंत मौलिक तथा गुणात्मक अंतर है। यही कारण है जिससे उर्दू काव्यभाषा में अर्थ-क्षमता बोलचाल के मुहावरे से उपजती है, न कि कवियों द्वारा विकसित विशिष्ट बिंब-विधान से। मुहाविरा कहा जाता है, बिब कहा नहीं जाता बनाया जाता है। उस दृष्टि से यह अंतर्विरोध भी रोचक है कि उर्दू जो व्याकरण की दृष्टि से खड़ी बोली हिंदी का निकटतम रूप है काव्यभाषा के स्तर पर उससे अलग हो जाती है, और मैथिली, भोजपुरी, अवधी, ब्रज आदि जो व्याकरणिक आधार पर अपेक्षाकृत अलग हैं, काव्यभाषा के स्तर पर एक साहित्य का निर्माण करती हैं, जिसे हम हिंदी साहित्य का संश्लिष्ट रूप कहते हैं।

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