मेरे दोस्त प्रायः मुझे कहते थे कि तुम बातचीत भी ठिकाने की कर लेते हो और तुम्हारा दाखिला भी हो गया है पीएचडी की डिग्री के लिए लेकिन तुम्हारा बचपना है कि जाने का नाम नहीं लेता। खैर!
एक घटना थी जिसको घटित हुए अब महीनों बीत गए लेकिन अज्ञेय की पंक्ति महीने भर से मन में घर किए बैठी है। ना जाने क्यों रह रह कर यही पंक्ति भीतर गूंजती है –”दुख सबको मांजता है”। सोचता हूं कि बिना किसी हादसे के कैसे किसी का बचपना जाए। जिसके साथ जीवन भर कुछ घटित नहीं हुआ, उसे जीवन की क्रूर सच्चाई का अनुभव भला कैसे हो? बुद्ध को सोचता हूं। उनकी संवेदना शक्ति तो बहुत प्रबल रही होगी। उन्होंने मृत्यु को देखा उस वक्त जब जीवन अपने उत्कर्ष पर पहुंचकर अमृत की वर्षा उनपर करता होगा। यौवन के मधुर सालों में सिद्धार्थ ने मृत्यु को महसूस किया। हाय! यह है जीवन का सच। यह सोचा होगा सिद्धार्थ ने तब कहीं बुद्ध हुए। मेरे दोस्त मुझे कहते थे कि तुम्हारा बचपना नहीं जाता। कैसे जाए बचपना। मृत्यु महसूस नहीं की, दुख को नजरंदाज किया। सोचा नहीं कभी कि ऐसा भी कुछ घटित होगा कि बचपना चला जाए!
कुछ थोड़ा सा हासिल हुआ कि गुमान में फूले नहीं समाते। इतना अहंकार कि जैसे जीवन की धुरी हम ही हों। दुःख का वो क्षण आया नहीं कि सारी मिथ्या भस्म। ओह! जीवन का एक पक्ष तो यह भी है। इसके बारे में तो कभी विचारा नहीं। अत्यंत दुःख के क्षणों में अकेलेपन का एहसास व्यक्ति को उसकी तुच्छता का अनुभव कराता है। किसी के दुःख पर हंसते हुए कभी यह नहीं सोचा कि दुःख तो राम के भी हिस्से आया – “युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल।” वेदना तोड़ती है अहम को। रावण अहंकारी था लेकिन झुककर शक्ति को बस में कर लिया। राम विनम्र थे परंतु विजेता होने का एहसास बैठा था भीतर –”विश्व विजय भावना हृदय में आई भर, वे आये याद दिव्य शर अगणित मंत्रपुत”। शक्ति को समक्ष पाकर लघुता का एहसास हुआ तब धैर्य से अर्चना करने बैठे।
एम.ए. में जब पढता था तो साथियों से कहता था क्यों निराला निराला करते हो, कुछ पल्ले नहीं पड़ता। ना जाने क्या लिखते हैं – “है अमानिशा, उगलता गगन घन अंधकार/खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन–चार/ अप्रतिहत गरज रहा पीछे अंबुधि विशाल/भूधर ज्यों ध्यान मग्न, केवल जलती मशाल।” जिस वक्त मन में बचपना भरा हो, यौवन का उन्माद हो, एक आध किताब नई नई पढ़ी हो, कोई छोटी मोटी योग्यता हासिल कर ली हो उस समय व्यक्ति इस समंदर की गरज में भी क्या पता कुछ रोमांटिक खोज निकाले। निराला की विराटता का अनुभव तो किसी हादसे के बाद ही संभव है। दुःख में आदमी लघुता से घिरता है। तब कहीं वह धरती को नजदीक से देखता है।
इसको तो निराला ही लिख सकते थे और बुद्ध होते तो शायद सबसे अधिक समझ सकते। बुद्ध से यदि पूछा जाता कि भन्ते इस क्षण में क्या किया जाए शायद बुद्ध अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ कहते- दुःख की इस विराटता को पहचानने के बाद ही इसका निर्वेद संभव है। अपनी लघुता को पहचानो। इसी में गति है। परन्तु भन्ते, हमने जन्म ही कुछ बड़ा करने के लिए लिया है। बुद्ध कहते- सहजता में ही बड़ाई है।
बुद्ध अपनी लघुता को पहचान कर बड़े हुए। उन्होंने अपने को बराबर कर लिया। गांधी कहते थे घोर संशय के क्षणों में अंतिम व्यक्ति के विषय में सोचो। उनको पता था कि लघुता का एहसास ही आदमी में मनुष्यता को जीवित रख सकता है। सिद्धार्थ को भी एहसास होगा कि राजा का पुत्र होकर बुद्ध ना हुआ जाएगा। मनुष्य की लघुता नित्य है, उसे प्राप्त कर ही समता की बात हो सकेगी। सोचता हूँ कि सिद्धार्थ ने अपने घर का त्याग किया या राजा के महल का?
अब पिछले कुछ महीने में सब दोस्त कहने लगे हैं तुम में बदलाव दिखाई देता है। एक घटना के घटने से ऐसा कैसे हो गया मुझे नहीं पता। अब एहसास होता है कि परिपक्वता और प्रौढ़ता के साथ कोई भी पैदा नहीं होता। हादसा आदमी के भीतर से उसका बचपना गायब कर देता है। गंभीरता जबरदस्ती अपने पैर पसारने लगती है। किसी साथी ने मुझसे कहा था- “जीवन को नजदीक से वही देखता है जिसने समाज को नजदीक से देखा हो। समाज को बहुत नजदीक से देखना है तो समाज के साथ समझौता मत करो। समाज अपने सबसे नग्न रूप में आपके सामने खुद को प्रस्तुत कर देगा। उन क्षणों में जब व्यक्ति को सबसे ज्यादा अपनों की जरूरत होती है, उसके अपने उसको अकेला छोड़कर समाज के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। जैसे समाज के अलावा व्यक्ति का अपना कोई वजूद नहीं।” मैं सोचता कि इतनी क्रूर भाषा, जरुर भीतर ही भीतर यह हरिशंकर परसाई वाला क्रन्तिकारी होगा। लेकिन मैं ही बचपने से भरा हुआ था। अब साथी का कहा हुआ एक एक शब्द सच लगता है।
इति।
बहुत खूब योगेश जी….. लिखने में अलग ही ठहराव है ठहराव है या कुछ प्यार है लेकिन अद्वितीय तो है… समय के साथ समय की भाषा से लिखा हुआ है……
अपने अनुभव के साथ गहरे रिश्ते के माध्यम से ही देश-दुनिया समझ आती है। अनुभव चाहे दुख का हो या सुख का उसके साथ वस्तुनिष्ठ संबंध से ही खिड़की खुलती है। भविष्य उज्जवल है।
बहुत खूब। समाज से समझौता ना करो, समाज से लड़ो, समाज को बदलो, समाज के बीच में रहो- इस जद्दोजहद की रीत पुरानी है और इसके रूप भी परिवर्तनशील हैं। इसको अभिव्यक्त करने पर साधुवाद।