सन 1957 में देवलाली में एक छोटा सा मिलिट्री स्टेशन होता था जहां खुली डुली जगह, बैरक वाले घर, सुंदर ट्रिम की हुई बाड़ और रंग बिरंगे फूलों की क्यारियाँ थी। दूसरे वर्ल्ड वार के बाद हमारी फ़ौज फ़ुर्सत और चैन भरे माहौल की उत्सुक थी। 1962 की शिकस्त का तो कभी सपने में भी ख़्याल नहीं आया था। दिनचर्या आसान और सहज थी। तमाम अफ़सर हर हफ़्ते क्लब में मिलते थे और एक दूसरे को अच्छे से जानते थे। प्रमोशन कम और लम्बे टाइम के बाद होती थी।
एक सीनियर कैप्टन तलवार अपनी सात महीने की गर्भवती और कमजोर सेहत वाली पत्नी के साथ एक बड़े बंगले में रहता था। उन्हें एक मेड सर्वेंट की सख़्त ज़रूरत थी और किस्मत से उन्हें लक्ष्मी मिल गई जो कैंट में नई नई आयी थी और एक बढ़िया आया, कुक और घर को सम्भालने में निपुण थी।
लक्ष्मी बला की खूबसूरत थी। छोटे कद, सांवले रंग वाली लक्ष्मी अजंता की सांवली प्रिन्सेस सी या दक्षिण भारत के मंदिरों में नृत्य करती यक्षिणी की भाँति घने काले बाल, बड़ी-बड़ी गोल-गोल आँखें, आकर्षक चेहरा, सुराहीदार गर्दन पर सलीके से तराशा गया जबड़ा, पतली कमर पर कलात्मक रूप से उभरी छाती और स्तन, एक नृत्यांगना जैसी टांगों पर गोलाई से भरपूर कूल्हे। स्त्रियोचित सुंदरता के किसी भी पहलू के हिसाब से लक्ष्मी के सौंदर्य पर कोई मीन मेख निकालना मुश्किल काम था।
इतनी एक्स्पर्ट और ख़ूबसूरत होने के बावजूद उसे काम की सख़्त आवश्यकता थी जिसके लिए वह कितने ही पगार पर कोई भी काम करने को तैयार थी। तलवार दम्पति की ख़ुशक़िस्मती थी कि उन्हें सही वक्त पर एक नायाब मेड सर्वेंट मिल गई।
ज्यों ज्यों मिसेज़ तलवार की प्रसूति का समय नज़दीक आता गया त्यों त्यों उसके अस्पताल आने जाने के चक्कर बढ़ते गए जहां अब ज़्यादा देर तक भी रुकना पड़ जाता था। ऐसे में कैप्टन तलवार और घर की सम्भाल की ज़िम्मेवारी लक्ष्मी के कुशल हाथों में बढ़ती गई। एक अरसे से कैप्टन तलवार लक्ष्मी के सुडोल सौंदर्य के जादू का शिकार था। उसकी थोड़ी सी पहलकदमी के जवाब में ख़ुशनुमा सहमति का भाव था। लम्बे समय से दमित कामना को चिंगारी से एक स्ट्रोंग तृप्तिदायक प्रणय की लौ बनने में देर नहीं लगी जिसे छुपाया जाना भी मुश्किल था।
मिसेज़ तलवार ने एक स्वस्थ बच्ची को जन्म दिया और उसका अपना स्वास्थ्य भी सुधरने लगा। बच्ची के जन्म पर दूर पास के दोस्तों को बुलाकर एक जश्न मनाया गया। हर कोई खुश था, सब कुछ बढ़िया चल रहा था। ऐसे में अचानक से एक मेहमान ने एक बात बताकर बम फोड़ दिया। ऐसा बम जिसके धमाके से जैसे अनेक जिंदगियों के परखचे से उड़ गए। उसने बताया- हालाँकि यह पक्का नहीं है लेकिन लक्ष्मी उसके गाँव के एक ऐसे व्यक्ति की पत्नी है जिसे कोढ़ हो जाने पर वह नज़दीक की एक कुष्ठ बस्ती में रहता है।
यह धमाका बेमौके पर दिल दहलाने वाला था। तलवार परिवार के लिए अपरिहार्य लक्ष्मी अब इतनी भयानक लगने लगी कि उसे क्षण भर भी घर में नहीं रखा जा सकता था। कैप्टन तलवार की तमाम आसक्ति हवा में काफ़ूर हो गई और उसे लगने लगा कि वह घिनोने रूप में अशुद्ध हो चुका है। एक अनुपस्थित और अदृश्य कोढ़ी का डर प्रेम, समर्पण, करुणा जैसी इंसानी व्यवहार की तमाम अभिव्यक्तियों पर हावी हो गया। उसे जाना था, वह चली गई। लेकिन मुड़ने से पहले उस सांवली प्रिन्सेस की बड़ी बड़ी काली आँखों से झरते आंसुओं वाली तस्वीर तलवार के मन पर अमिट छाप छोड़ गई।
महीने भर बाद बेरोज़गार और खाली जेब लक्ष्मी ने कैप्टन तलवार से मिलने का प्रयास किया। कोई भी उसे काम नहीं दे रहा था और हर कोई उससे यूँ डरके रहता था जैसे वो स्वयं कोढ़ी हो। उसके पास बिखरी हुई गरिमा और सहनशील शिष्टता के अलावा कुछ नहीं था। तलवार उसे देखकर सिहर उठा और उसे कुछ पैसे दे दिए। वो चली गई और उसके बाद कभी भी दिखाई नहीं दी।
सन 1977 में तलवार की कर्नल के रैंक से रिटायरर्मेंट हो गयी और उसने देवलाली से क़रीब एक दिन की दूरी पर स्थित अपने फार्महाउस पर शान्त ज़िंदगी शुरू कर दी। सन 1957 की बीमारी से उसकी पत्नी लम्बी देर नहीं जी पाई तो अकेले ही उसने अपनी बेटी रेणु को पाला-पोसा। जीवन मुश्किल था लेकिन दूसरी शादी का विचार नहीं आया। कोई शिकायत किए बिना उसे लगता था कि कोई दैविय शक्ति उसे अपने पापों की सजा दे रही है। फिर भी, एकांत उसे काटने को दौड़ता था। कभी कभी उसे मृतक पत्नी याद आती थी लेकिन लक्ष्मी हमेशा ज़ेहन में छाई रहती थी। वक़्त बीतने के साथ साथ एक कोढ़ी पुरुष की पत्नी के खून में खून मिलने से उपजे डर और हिक़ारत के गहरे में छपे भाव तिरोहित हो गए। अब तो बार बार एक अप्सरा जैसी देह वाली प्रतिमा की आँसू भरी आँखों वाला दुर्भाग्यशाली हादसा याद आता रहता। चोरी चोरी वह उस देह को देखने को, फिर से छूने को, झरते हुए आँसुओं को चूमने और बाकी ज़िंदगी उसके साथ गुज़ारने के सपने देखता रहता। अफ़सोस! अपना भेद किसे बताए और इतनी हिम्मत भी नहीं कि उसे ढूँढा जाए।
रेणु ने ग्रेजुएशन के बाद सोशल साइंस के एक प्रतिष्ठित इन्स्टिचयूट में पढ़ना शुरू कर दिया। क़िस्मत ने ऐसा मोड़ लिया कि उसने फ़ील्डवर्क के लिए ‘बालकुंज’ को चुना जो कुष्ठरोगियों के बच्चों के लिए एक संस्था थी। तलवार के लिए यह विडम्बना थी कि उसकी बेटी उसपर चढ़े हुए पुराने क़र्ज़ का एक अंश लौटा रही थी।
‘बालकुंज’ में कुष्ठरोगियों के बच्चों को उनसे अलग रखा जाता था जहां उनकी देख-रेख के अलावा उन्हें प्राइमरी स्कूल की शिक्षा भी दी जाती थी। आगे की पढ़ाई के लिए उन बच्चों को संस्था के खर्चे से निर्धारित स्कूलों में भेजा जाता था। हालाँकि, उनमें से कोई अत्यंत प्रतिभाशाली बच्चे के रूप में नहीं उभरा लेकिन वे संतुष्ट और शिष्ट थे।
प्राइमरी स्कूल की संचालिका ‘बालकुंज’ से निकली एक ऐसी युवती थी जिसपर संस्था को गर्व था कि वह अनाथ माँ-बाप के अनचाहे बच्चों को योग्य और आत्मनिर्भर बनाने के मिशन को आगे बढ़ाने को प्रयासरत थी।
रेणु तलवार की तुरंत उस लड़की से अच्छी खासी दोस्ती हो गई और वह उसके बारे में अनेक बातें जानकर हैरान थी। उसका नाम भी रेणु था और उसका जन्म भी सन 1957 या 1958 में देवलाली के नज़दीक एक गाँव में हुआ था। और, उसके पापा भी फ़ौज में कैप्टन थे। उसे अपने बचपन और माँ-बाप की और अधिक जानकारी नहीं थी।
छुट्टियों के दौरान रेणु अपने पापा के पास आई। उसने ‘बालकुंज’ की रेणु का ज़िक्र किया। उसका ख़्याल था कि उसके पापा को किसी ऐसे आर्मी कैप्टन की जानकारी अवश्य ही होगी जिसकी पत्नी या उसे कुष्ठरोग हो गया था। और, वे शायद ‘बालकुंज’ वाली रेणु के मम्मी-पापा थे।
कर्नल तलवार चौंक उठा। उसे यह समझने में कुछ सेकंड से अधिक नहीं लगा कि ‘बालकुंज’ वाली रेणु कौन थी और उसे यह नाम किसने और क्यों दिया। उसने अपनी बेटी की आँखों में नज़रें गड़ाई शायद अंदाज़ा लग पाए कि वह कितना कुछ जानती है। शुक्र है वह मासूम दिख रही थी और केवल अपनी दोस्त की सहायता करना चाहती थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दे। ज़ुबान साथ नहीं दे रही थी लेकिन हौसला कायम था। उसने आराम से हामी भरते हुए कहा “हाँ मैं जानता हूँ।”
“क्या उसकी पत्नी कुष्ठरोगी थी?” लड़की ने पूछा।
कर्नल ने ना में सिर हिलाया।
“तो क्या कैप्टन खुद कोढ़ी था?” बेटी ने फिर पूछा।
बूढ़े व्यक्ति को एक डंक सा लगा। अनिच्छापूर्वक उसने अपने हाथों और पैरों पर नज़र डाली। अपनी बेटी को कम और अपने आप को ज़्यादा सुनाने के अन्दाज़ में उसने कहा “वह एक कोढ़ी! नहीं, उससे भी कहीं बदतर था।”
साभार-अरुण पब्लिशिंग हाउस, चंडीगढ़.