थर्ड जेंडर विमर्श : एक पड़ताल- डॉ. सुनील दत्त

डॉ. सुनील दत्त

            बीसवीं सदी से इक्कीसवीं सदी तक अस्मिता बोध या पहचान के संकट से पूरा विश्व और विशेषकर भारतीय समाज गुजरा है। इसका कारण देश को आजादी मिलना और संविधान ने भारतवासियों को जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण प्रदान करना प्रमुख घटना रही है। इक्कीसवीं सदी आते-आते साहित्य में युग और धारा का स्थान नए-नए विमर्श लेने लगे जैसे, दलित, स्त्री, किसान, वृद्ध और आदिवासी विमर्श आदि। इन विमर्शों के अंतर्गत एक सवाल या यूं कहिए एक आवाज जो प्रमुख तौर पर उभर कर सामने आई है, वह है ‘अस्मिता’, ‘आइडेंटी’ या ‘पहचान का सवाल’। अस्मिता या पहचान के संकट से संघर्षरत एक मानवीय समुदाय भी है, जो प्राचीन काल से हमारे आसपास विद्यमान रहता है और हमारी गमी – खुशी में निरंतर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है। जिसे समाज में हिजड़ा, बृहन्नला,उभयलिंगी, ट्रांसजेंडर, खुसर, छक्का, ख्वाजासरा आदि नामों से पुकारता रहता है।

         15 अप्रैल,2014 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में हिजड़ों को थर्ड जेंडर या तृतीय लिंगी घोषित किया है। इस निर्णय से समाज में प्राचीन काल से उपस्थित और उपेक्षित एक समुदाय की ओर सभी का ध्यान आकर्षित हुआ। सामान्य तौर पर समाज की बात जब हम करते हैं तो दो बिंदु सामने रखकर हम अपनी बात शुरू करते हैं- पुरुष और स्त्री। पुरुष प्रधान व्यवस्था होने के कारण प्रथम स्थान पर पुरुष तथा सीमित अधिकारों के साथ द्वितीय स्थान पर स्त्री की हम चर्चा करते हैं। इन दोनों के साथ समाज में उपस्थित तृतीय लिंग पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। अभी तक विभिन्न विद्वानों, संस्थाओं द्वारा थर्ड जेंडर को अनेक परिभाषाओं से परिभाषित करने का प्रयास हुआ है; सामान्य तौर पर यही माना जाता है कि जो लैंगिक तौर पर न तो नर है और न ही मादा है, उन्हें ही हिजड़ा या थर्ड जेंडर माना गया है। विजेंद्र प्रताप सिंह का मानना है कि, ‘अर्थ की दृष्टि से देखें तो बुनियादी स्तर पर ट्रांसजेंडर, ट्रांसेक्सुअल, एंड्रोगायन तथा कोथिस को इस प्रकार पाते हैं। एक ट्रांसजेंडर वह व्यक्ति है, जिसे जन्म के समय गुप्तांग के रूप में एकलिंग प्राप्त होता है, परंतु वह लिंग जूठा प्रतिनिधित्व लगता है अर्थात यदि व पुरुष लिंग के साथ होता भी तो उसके अंदर भावनाएं स्त्री की होती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि शरीर तो स्त्री का होता है, परंतु हाव-भाव पुरुषों वाले होते हैं। इस तरह के व्यक्ति की पहचान पारम्परिक पुरुष या महिला के बीच असंदिग्ध रूप से झूलती रहती है। ऐसे व्यक्तियों को ही तृतीय लिंग या ट्रांसजेंडर के रूप में जाना जाता है।’1 इसी परिभाषा का विस्तार करते हुए विजेंद्र प्रताप सिंह इस समुदाय का वर्गीकरण करते हुए आगे लिखते हैं कि,’ हिजड़ा समुदाय कई हिस्सों में विभक्त है। भारत में हिजड़ों के सात घराने माने जाते हैं। मुंबई, पुणे और हैदराबाद जैसे अधिक जनसंख्या वाले शहरों में इनके केन्द्र स्थापित हैं। हिजड़ों की चार शाखाएं हैं- बुचरा, नीलिमा, मनसा एवं हंसा जो शारीरिक कमी के कारण तृतीय लिंगी समुदाय में आते हैं। जिन्हें जबरन हिजड़े के रूप में बनाया जाता है, उन्हें ‘छिबरा’ कहा जाता है। हिजड़े के रूप में झूठ या स्वांग रचने वालों को ‘अबुआ’ कहा जाता है।’2

             इतिहास की दृष्टि से देखें तो थर्ड जेंडर इतिहास और पुराणों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। काशीराज की तीनों पुत्रियों अंबा, अंबालिका और अंबाबिका का जब भीष्म ने अपहरण किया, तब बड़ी पुत्री अंबा ने स्वयं को अपमानित और तिरस्कृत महसूस किया। इसके उपरांत उसने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए शिखंडी के रूप में राजा द्रुपद के घर जन्म लिया। यहां पर हम यह देखते हैं कि अंबा ने स्वयं अपने लिए थर्ड जेंडर के जीवन का चुनाव किया। महाभारत में ही दूसरा उदाहरण अर्जुन का मिलता है। उसने अपने अज्ञातवास का एक वर्ष थर्ड जेंडर का रूप धारण करके बृहन्नला के नाम से पूरा किया था। कुछ राजा भी थर्ड जेंडर से संबंधित किन्नरों को अपनी निजी सुरक्षा और जासूसी के लिए नियुक्त करते थे। इसका उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है। अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार हिंदू और मुस्लिम शासकों के द्वारा थर्ड जेंडर का उपयोग मुख्यतः रनिवासियों और रनिवासों में रहने वाली रानियों के लिए पहरेदारी के लिए किया जाता था। इतिहास में हमें पता चलता है कि सल्तनत काल के दौरान हिजड़े महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे। अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में कई किन्नर सेना के उच्च पद पर तैनात थे। खिलजी के  प्रिय मित्र और प्रमुख पदाधिकारी हिजड़े मलिक काफूर का वर्णन हमें इतिहास में मिलता है। थर्ड जेंडर के प्रमुख विद्वान और उपन्यासकार महेंद्र भीष्म अपने उपन्यास ‘किन्नर कथा’ में बताते हैं -‘अलाउद्दीन खिलजी की सेना जब मां बहुचरा देवी के मंदिर को विध्वंस करने पहुंची। तब उनके तमाम सैनिकों ने मंदिर की मुर्गियों खा ली। जब देवी के संज्ञान में यह आया, तब उन्होंने सारी मुर्गियों को आह्वान कर अपने पास बुलाया। देवी के आह्वान करने से सारी मुर्गियां सैनिकों का पेट फाड़कर देवी के समक्ष उपस्थित हुई। उन सैनिकों के प्राण बच गए जिन्होंने मुर्गियां नहीं खाई थीं। वे सारे जीवित सैनिक देवी की अनुयाई बन गए और देवी की प्रसन्नता के लिए उन्होंने स्त्री वेश धारण कर लिया। मां बहुचरा देवी ने उन्हें हिजड़ा रूप प्रदान कर सभी को अपनी सेवा में लगा लिया।’3 यह भी माना जाता है कि खिलजी ने मलिक काफूर के प्रयास से ही दक्षिण भारत में अपने राज्य का विस्तार किया था। मुगल बादशाह जहांगीर के शासनकाल में भी कई तृतीय लिंगी महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं।

          लेकिन समय सदा एक समान नहीं रहता और तृतीय लिंगी समुदाय के अस्तित्व पर ही संकट के काले बादल छा गए जो कभी तृतीय लिंग समुदाय भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग होता था, वह केंद्र से हाशिए पर जाने लगा। उसके साथ उपेक्षित व्यवहार किया जाने लगा। इनकी इस उपेक्षा का कारण भारतीय संस्कृति का संकुचन ही रहा है। जो संस्कृति सदा सभी के लिए बाहें फैलाए हुए थी, सभी को आत्मसात करना जानती थी, यह जिसका प्रमुख गुण था किंतु निरंतर इस गुण का ह्रास होता गया और अपने इस मानव समुदाय का सम्मान वह नहीं बचा सकी।

        वर्तमान समय में हिजड़ा एक जातिसूचक गाली है, किसी को अपमानित करने वाला शब्द है। हम समाज में जाति के आधार पर किसी का अपमान नहीं कर सकते और न ही ठेस पहुंचा सकते, लेकिन प्रकृति और समाज द्वारा दोनों लिंगों से अपदस्थ तृतीय लिंगी का बार-बार हम अपमान करते हैं। कोई भी फिल्मी हीरो विलेन की फौज को ‘हिजड़ों की फौज’ कहता हुआ अक्सर देखा और सुना जा सकता है, ‘एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है।’ अर्थात पुरुष को पौरुषहीन  बना देता है। यह संवाद आप प्रायः सुनते होंगे। यह संवाद संदेश देता है कि मनुष्य को समाज में उसके पुरुषत्व या वीर्य शक्ति से पहचाना जाता है या फिर यह कहा जा सकता है कि उसे पौरुष शक्ति ही उसे पुरुषत्व प्रदान करती हैं। क्या इस गुण ने दया, करुणा, प्रेम,क्षमा और सहृदयता जैसे गुणों को किसी मानव के लिए आवश्यक नहीं माना केवल पौरुष पावर को ही आवश्यक समझा है। यह समझ हमारे ऋषि-मुनियों, सिद्धों -नाथों, संतों -भक्तों की शिक्षा की ओर पीठ करना नहीं है?

        तृतीय लिंग समुदाय के प्रति समाज में तरह- तरह के पूर्वाग्रह मिलते हैं। ये पूर्वाग्रह समाज की संकुचित विचारधारा और अज्ञानता के कारण निरंतर अपना विकराल रूप धारण कर रही हैं और समाज ने इसी संकुचितता के कारण चलते एक मानव समुदाय को तमाम बुनियादी सुविधाओं से वंचित कर दिया बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि एक समुदाय की अस्मिता और अस्तित्व को मिटाने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगाया गया है। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों से इस समुदाय को बाहर कर दिया गया। इस समुदाय को मूर्ख और प्रतिभाहीन माना जाने लगा। सामाजिक कार्यकर्ता रवीना बरिहा लिखती है, ‘कई कलात्मक प्रतिभा और गुणों से परिपूर्ण होने के बावजूद हमारा वर्ग सामाजिक भेदभावों के चलते अपनी पहचान और विकास के लिए आज भी तरस रहा है। कितनी विडंबना है कि प्रगतिवादी व वैज्ञानिक विचारधारा से प्रभावित समाज में भी अपने मूलभूत अधिकारों को पाने के लिए अत्यंत पीड़ादाई संघर्ष कर रहे हैं। हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों को सभी नागरिकों के बुनियादी अधिकारों के रूप में परिभाषित किया गया है, लेकिन सामाजिक स्वीकार्यता नहीं होने के चलते उन अधिकारों को पाना तो दूर अपने आप को प्यार करना भी भूल जाते हैं।‘4 प्रकृति ने किसी को यदि लिंग के आधार पर सामान्य मनुष्य नहीं बनाया तो क्या उससे उसके मानव अधिकार भी छीन लिए जाएंगे?

     डॉ• शरद सिंह ने तृतीय लिंग समुदाय से जुड़ी समस्याओं पर समग्रता से विचार किया है,’ कई ऐसी बुनियादी बातें हैं, जो थर्ड जेंडर को परेशान करती हैं, जैसे स्कूल, कॉलेजों, एवं सार्वजनिक स्थानों में पृथक सुलभ शौचालयों का न होना, शिक्षा का समान अवसर न मिलना, उनके विरुद्ध अपमानजनक स्थिति तथा अपराधों को रोकने के लिए अलग पुलिस थाना न होना, नौकरी का समान अवसर न मिलना’।5 अपनी अस्मिता के संकट से जूझ रहे किसी भी समुदाय के लिए डॉ• शरद द्वारा बताई गई बुनियादी सुविधाएं अनिवार्य है, वांछित हैं। इस समुदाय के लिए कानूनी सुविधाएं, समानता, शिक्षा, रोजगार के अवसर, राजनीति के क्षेत्र में अवश्य और सम्मान पूर्व जीवन इसी प्रकार आवश्यक है जैसे अन्य मानव समुदायों के लिए आवश्यक हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कानूनी अधिकार और सुरक्षा मिलने के उपरांत तृतीय लिंगी समाज के मन: स्थिति पूर्णतया परिवर्तित हो गयी है। कानूनी अधिकार मिलने से पूर्व और बाद के परिवर्तन को लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ने इस प्रकार बताया है,’ मैं जब फैसले से पूर्व कोर्ट में दाखिल हो रही थी, तब मुझे बहुत सी नजरें घूर रही थीं, पर जब मैं इस फैसले के साथ बाहर आई तो मुझे उन घूमती हुई नजरों की रत्ती भर भी चिंता नहीं थी, क्योंकि अब मेरे हाथ में वे तमाम अधिकार हैं, जिनका हमें बहुत लंबे समय से इंतजार था।’6 इस प्रकार से माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस उपेक्षित समुदाय को कानूनी संबल प्रदान कर इनको एक नई दिशा दी। 

          हिंदी साहित्य का क्षेत्र विस्तृत है। जिसमें मानव समाज, राजनीति, पशु- पक्षी सभी को स्थान मिला है। जिसमें मानव-जीवन से संबंधित तमाम चित्तवृत्तियां वृत्तियां और भावनाओं का विकास सभी विधाओं में विस्तार सहित मिलता है।  लेकिन तृतीय लिंग संबंधी साहित्य अभी सीमित है। एक सकारात्मक बात यह है कि वर्तमान रचनाकारों का रूझान अब थर्ड जेंडर विमर्श की ओर हो रहा है और उनकी कलम की नोंक से एक उपेक्षित मानव समुदाय का जीवन व समस्याएं उपन्यास, कहानी, सिनेमा और कविता के माध्यम से सामने आ रही हैं। प्रसिद्ध गीतकार सुश्री गीतिका वेदिका के गीत में इनकी व्यथा को इस प्रकार देखा जा सकता है-

'अधूरी देह क्यों मुझको बनाया
बता ईश्वर तुझे ये क्या सुहाया
किसी की प्यार हूँ मैं वास्ता हूँ
न तो मंजिल हूँ मैं न रास्ता हूँ 
कि अनुभव पूर्णता का हो न पाया
अजब यह खेल रह- रह धूप छाया
अधूरी देह क्यों मुझको बनाया।
बहिष्कृत और तिरस्कृत त्रासदी हूँ
भरी जो पीर से जीवन नदी हूँ 
मिलन सागर को ही कब रास आया
वही एकाकीपन मुझमें आया
अधूरी देह………।'7

           हिंदी उपन्यास विधा में ‘यमदीप’ (नीरजा), ‘किन्नर कथा'( महेंद्र भीष्म), ‘गुलाम मंडी’ ( निर्मला भूराड़िया),’ पंखवाली नाव’ (पंकज बिष्ट), ‘पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा’ (चित्रा मुद्गल), ‘ तीसरी ताली’ (प्रदीप सौरभ) जैसे उपन्यासों चर्चा थर्ड जेंडर के विषय में होती रहती है।

        प्रदीप सौरभ के उपन्यास ‘तीसरी ताली’ में ज्योति नाम के लौंडे की करुण कथा मिलती है। जिसे वहाँ के ठाकुर के लोग उठा ले जाते हैं। उसके साथ कई लोग कुकर्म करते हैं। बाद में ठाकुर उसे दो हजार रुपए देकर भगा देता है। जैसे- तैसे वह हिजड़ो के गद्दीनशीन गुरु सोनम के पास सहायता के लिए जाता है और अपने को हिजड़ा बना दिया जाने का की गुजारिश करता है,वह कहता है,’ माना मैं मर्द हूँ लेकिन यह समाज मुझसे मर्द का काम लेने के लिए राजी नहीं है। मुझे इस समाज ने मादा की तरह भोग की चीज में तब्दील कर दिया है। मैं मर्द रहूँ, औरत रहूँ या फिर हिजड़ा बन जाऊँ इसमें किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। पेट की आग तो बड़ों- बड़ों को न जाने क्या-क्या बना देती है।8 ‘किन्नर कथा’ उपन्यास में लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि किन्नर सत्यमार्ग पर चलकर अच्छा जीवन बिताते हैं और ओरों के लिए भी प्रकाश का कार्य करते हैं। महेंद्र भीष्म जी अपने अन्य उपन्यास में ‘मैं पायल’ में पायल के मानवीय और अमानवीय दोनों पक्षों को पाठकों के सामने रखने का सुंदर प्रयास करते हैं। ‘पोस्ट बॉक्स नंबर 203- नाला सोपारा’ उपन्यास में चित्रा मुद्गल द्वारा तृतीय लिंग पर आधारित एक संवेदनशील उपन्यास है। ‘यमदीप’ नीरजा माधव का तृतीय लिंग पर लिखा गया हिंदी साहित्य का पहला उपन्यास माना जा सकता है। इस उपन्यास के माध्यम से यह संदेश मिलता है कि तृतीय लिंग से संबंधित मनुष्य को पहले स्वयं में सुधार करना होगा और अपनी स्थिति स्वयं सुधारनी होगी। निर्मला भूराड़िया कृत ‘गुलाम मंडी’ उपन्यास में मूल रूप से मनुष्यों की खरीद- फरोख्त, वेश्यावृत्ति, एड्स रोगियों की मनोदशा का चित्रण बखूबी से मिलता है। इस प्रकार से हिंदी साहित्य में थर्ड जेंडर विमर्श की पड़ताल एक सकारात्मक पथ की ओर अग्रसर है। सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की 

कविता ‘अर्धनारीश्वर’ का एक अंश द्रष्टव्य है–

'कौन हूँ मैं
क्या अस्तित्व है मेरा
हूँ ईश्वर की भूल या
रहस्यमयी प्रकृति का प्रतिफल…।'9

 तृतीय लिंग के जीवन में समस्याओं से संबंधित हिंदी सिनेमा में भी खूब फिल्में आई हैं, ‘फायर’, ‘सड़क’, ‘संघर्ष’, ‘मस्त कलंदर’, ‘तमन्ना’, ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ आदि फिल्मों को देखा जा सकता है।

निष्कर्ष तौर पर माना जा सकता है कि भारतीय समाज और साहित्य में ‘थर्ड जेंडर’ जीवन और संबंधित समस्याओं पर विमर्श का आरंभ हो चुका है। सबसे पहले समाज को अपना नकारात्मक रवैया बदलना होगा और फिर संकुचित भावनाओं का विस्तार करना होगा। थर्ड जेंडर भी अब शिक्षित हो रहा है और संविधान प्रदत्त अधिकारों को जान चुका है। जिसके परिणाम स्वरूप शिक्षा, राजनीति, आर्थिक क्षेत्र और फैशन जगत में थर्ड जेंडर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अब इस वर्ग के लोग चुनाव में बहुत बहुमत हासिल कर महापौर तक का पद संभाले हुए हैं। देश की प्रथम किन्नर प्राचार्य मानवी बंदोपाध्याय, पहली किन्नर वकील सत्यश्री शर्मिला और लेखक तथा सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रतिभा, बुद्धिमता और विद्वता किसी विशेष लिंग की बपौती नहीं है। हम भी किसी से कम नहीं हैं।

संदर्भ –

  1. विजेंद्र प्रताप सिंह, ‘लैंगिक अस्मिता के प्रश्न से जूझता हिजड़ा समुदाय’ जनकृति (अन्तराष्ट्रीय मासिक पत्रिका) अंक- 18, Vol- 2 अगस्त, 2016
  2. वही
  3. महेंद्र भीष्म,’ किन्नर कथा’, सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली
  4. रवीना बरिहा,’ जुड़ाव जब सकारात्मक हो तो एक आदर्श समाज बनता है’, जनकृति, संपादकीय, अंक -18, Vol- 2, अगस्त, 2016
  5. डॉ• शरद सिंह, सागर दिनकर, 27 जुलाई 2010, पृष्ठ – 4
  6. स्वतंत्र मिश्र,’ किन्नर अब थर्ड जेंडर की तरह पहचाने जाएंगे’, जनकृति, अंक -18, Vol- 2 ,अगस्त, 2016
  7. महेंद्र भीष्म,’ किन्नर भी इंसान हैं’ सामयिक सरस्वती, अप्रैल- सितंबर, 2018, पृष्ठ -संख्या- 48
  8. प्रदीप सौरभ, ‘तीसरी ताली’, प्रथम संस्करण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-57
  9. सत्या शर्मा ‘कीर्ति’, ‘अर्धनारीश्वर’ सामयिक सरस्वती, अप्रैल- सितंबर, 2018, पृष्ठ -संख्या -72

साभार – शोध दिशा पत्रिका

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