वो आदिम गीत – जी.आर.महर्षि (मूल तेलुगु से अनुवाद-मुलख सिंह)

मुलख सिंह

           किसी ज़माने में इस धरती पर एक जंगल हुआ करता था।

          उसमें आसमान को झिंझोड़ने वाले दरख़्त, दिलों में गीत छुपाए बहती नदियाँ, निरंतर किसी को पुकारते आबशार, रंगों में नहाते, अपने परों से तस्वीरें बनाते परिंदे, पुरजोश हवा के झोंकों को कान लगाकर सुनते फूल और हर शक्ल और आकार के जानवर थे, जो इन सबका साया बनकर घूमते थे।

          इस जंगल में बारिश की एक रात…..

         आसमानी बिजली ने पूरे जंगल को रोशन कर दिया। बादल गरजने लगे, गरज इतनी ज़ोर की कि दिल को फाड़ डाले। बारिश एक अज़ीम फ़ौज की तरह आई। बारिश की बूँदें सूखे पत्तों पर गिरतीं और टूट जातीं। हवा कड़कती हुई चीख़ रही थी। पूरा जंगल भीगा हुआ, गरज चमक से ख़ौफ़-ज़दा खड़ा था।

           इस ख़ौफ़नाक रात के दौरान, एक दरख़्त के नीचे, एक बंदरिया को पैदाइशी तकलीफ़ हो रही थी। हवा से कांपती, बारिश और आँसूओं से भीगती वो बेबसी से कराह रही थी। वो उस बच्चे को दुनिया में लाने के लिए जद्द-ओ-जहद कर रही थी जिसे उसने अब तक अपनी कोख़ में महफ़ूज़ रखा था। अपनी सारी हिम्मत जमा कर के, दरख़्त के तने की जड़ को अपने नाख़ुनों से खुर्चते हुए, उसने एक ज़ोरदार चीख़ निकाली। बच्चा जमीन पर गिरा। बंदरिया ने कुछ देर के लिए आँखें बंद कर लीं। नाक़ाबिले बयान ख़ुशी…..। जाना पहचाना दर्द।

          बारिश कम होते-होते रुक गई और उसके रुकते-रुकते बिजली ज़मीन पर गिरी। उस रोशनी में माँ ने इस नन्ही जान को देखा। ख़ून से सने अपने बच्चे को मज़बूती से गले लगा कर उसने उसके जिस्म को चाट लिया। उसे अपनी छाती से चिपका लिया। आँखें खुली न होने पर भी छोटे ने अपनी माँ को मज़बूती से पकड़ लिया। उसने पेट भर कर दूध पिया और जल्द ही माँ और बच्चा नींद में गुम गए।

          फ़ज्र के वक़्त जब परिंदे चहक रहे थे तो माँ ने आँखें खोलीं। छोटे ने भी आँखें खोल कर माँ की तरफ़ देखा। उनकी नजरें मिलीं, मुहब्बत का इज़हार हुआ।

          छोटा अपनी माँ को देखता रहा और फिर पूछा, “मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ?

         माँ थोड़ा हैरान हुई। वो ख़ुश थी कि उसका बच्चा पहली बार बोला था। 

         “हम सब बंदर हैं, बेटा। मैं तुम्हारी माँ हूँ,” उसने कहा। उसने छोटे को अपने पेट से जकड़ लिया और दरख़्त की शाख़ पर चढ़ने लगी।

       “अम्मां, दुनिया तिरछी क्यों है?” बच्चे ने फिर पूछा।

        माँ ने बच्चे के चेहरे को मशकूक नज़रों से देखा। सोचा, क्या बच्चे को ‘ओपरी हवा’ ने छू लिया है! वो फ़ौरन बंदर बाबा को ढ़ूँढ़ने निकल पड़ी।

        वह दरख़्त की सबसे ऊंची शाख़ पर बैठा दुनिया के उतार-चढ़ाव का जायज़ा ले रहा था। माँ बंदरिया को देखकर उसने उसे ख़ुश-आमदीद कहा और छोटे को प्यार से सहलाते हुए बोला, “हमारे नए मेहमान का स्वागत है।”

        माँ ने उसे बच्चे के पूछे गए सवालों के बारे में बताया।

        बाबा ने छोटे को अपने हाथों में लेकर उसका माथा चूमा और कहा, “अगर यह अपनी पैदाइश के बाद इतनी जल्दी ऐसे सवाल पूछ रहा है तो इस के महान आत्मा बनने के ख़तरे को रद्द नहीं किया जा सकता।”

       “क्या सवाल करना ग़लत है, साधु महाराज?” बच्चे ने पूछा।

       बाबा चौंक गए। 

       ”इस दुनिया में मुँह-बंद रखने जैसा हितकारी कोई दूसरा काम नहीं है। इसी कारण तो सब मुझे एक बुज़ुर्ग की हैसियत से इज़्ज़त देते हैं। यह दुनिया तो जैसी है, वैसी ही रहेगी। तुम्हें यह तिरछी लगी, मुझे तो उल्टी नजर आती है। क्या मैंने किसी से पूछा कि ऐसा क्यों है? ‘क्यों?’ और ‘क्या?’ जैसे सवाल ग़ैर दानिशमंदाना हैं। तर्क से जीभ तो तेज़ हो सकती है लेकिन दिमाग़ नहीं खिलेगा। जंगल मीठे फलों से भरा हुआ है। जाओ, उन्हें खाओ। तुम्हें मालूम हो जाएगा कि खाने से बड़ी ख़ुशी कोई नहीं है।” यह कह कर बंदर बाबा दुनिया का जायज़ा लेने में खो गए।

        माँ बच्चे को लेकर चली गई।

           ज्यों-ज्यों बच्चा बड़ा होता गया, उस के सवालों में इज़ाफ़ा होता गया। वो दोस्तों के साथ घुलता-मिलता नहीं था। अकेला बैठ जाता। स्कूल न जाता। दरख़्त, पत्ते, फल, बारिश, धूप, धुंध…… हर चीज़ ने उसे हैरानी से भर दिया। उसकी जीवन की गहराई में जाने और कम अज़ कम एक सच्चाई की तलाश करने की ख़ाहिश थी।

         एक दिन एक अख़बार हवा के साथ उड़ता हुआ जंगल में आ गिरा। छोटे बंदर ने उसे अपनी बग़ल में दबाया और बाबा के पास चला गया।

       ’’बाबा, मुझे शक है।”

       ’’एक वाक्य में बताओ,” बाबा ने कहा।

       “इसमें कहा गया है कि इन्सान बंदर से पैदा हुआ है। क्या यह सच है?” उसने पूछा।

       “हर कोई अपने-अपने इलम के मुताबिक़ लिखता है। यह ज़रूरी नहीं कि हम हर बात पर यक़ीन करें।”

       “मैं ख़ुद ही इस बात की हक़ीक़त मालूम करने का सोच रहा हूँ।”

       “तुम कहना क्या चाहते हो?”

       “मैं इंसानों के पास जाने का सोच रहा हूँ।”

       “तजुर्बे के ज़रीये हर चीज़ को तलाश करना मूर्खता है। तुम अभी नादान हो। इंसान बहुत शैतान होते हैं।” बाबा ने उसे मश्वरा दिया।

      “मुझे आशीर्वाद दें, बाबा। बहरहाल मैं जा रहा हूँ।”

      “ठीक है, अगर खोजी के रास्ते में दुम अड़ा दी जाए तो क्या वो रुक जाएगा?”

      बाबा ने अफ़सोस से बच्चे की तरफ़ देखा।

      बंदर निकल पड़ा। माँ ने आँसू बहाए। “बच्चे, ये मत भूलना कि तुम्हारी माँ तुम्हारी वापसी का बेसबरी से इंतज़ार कर रही है, तुम्हारे लिए बहुत चिंतित और बेचैन है।” यह कह कर उसने अपने बच्चे को प्यार से गले लगाया और उसे रुख़स्त किया।

        बंदर जैसे ही इन्सानी बस्ती के पास पहुंचा कि उस के गले में फंदा आ पड़ा।

        एक आदमी उसके सामने आया और कहा, “अब मैं तुम्हारा बॉस हूँ। बिल्ली की तरह कलाबाज़ी खाओ।” फिर उसने उसे चार डंडे लगाए।

       बंदर सूरत-ए-हाल को न समझ सका। “अया, क्या मैं तो बंदर नहीं हूँ? मैं बिल्ली की तरह कलाबाज़ी कैसे खा सकता हूँ?” उसने पूछा।

       “ठीक है, फिर बंदर की तरह कलाबाज़ी खाओ” आदमी ने कहा, और इस बार मोटी छड़ी से सिर्फ दो बार मारा। इससे बचने के लिए बंदर ने चार बार ऊपर-नीचे छलांग लगाई।

       उसने बंदर को अपने साथ लेकर उससे भीड़ के सामने कलाबाज़ी करवाई, तमाशाइयों से पैसे निकलवाए और घर चला गया।

       घर जाकर उसने बंदर को खाने के लिए निवाला दिया। फिर खुद खाना खाकर सो गया और ख़र्राटे लेने लगा। बंदर ने भागने की कोशिश की लेकिन वह बाहर न निकल सका। अगले दिन वह आदमी बंदर को दोबारा सड़क पर ले गया। उसने उससे तरह-तरह के करतब करवाए। उसे मुँह में सिक्के रखना सिखाया। उसने बंदर को उतना ही खाना दिया कि वह ज़िंदा रह सके और बग़ैर नागा डाले, रोज चार डंडे लगाए।

       “तुम मुझे क्यों मारते रहते हो? तुम्हारी तरह मुझ में भी जान है। क्या सब को एक जैसा दर्द नहीं होता?” बंदर ने पूछा।

        “मैंने तजुर्बे से सीखा है कि यह दुनिया डंडे के अलावा, और कोई भाषा नहीं समझती। बावजूद इसके, जब भी मैं तुम्हारी बातें सुनता हूँ, तो तुम मुझे दया के पात्र लगते हो।” यह कह कर उसने बंदर के दो डंडे और ठोंक दिए।

           कुछ दिन गुज़र गए। बंदर ने कितने ही करतब दिखाए पर पैसे नहीं बने। जब ज़िंदा रहने के लिए आदमी ही हर तरह के करतब कर रहे थे तो बंदर पर कौन ध्यान देता? बॉस अब थक चुका था। उसने बंदर का खाना कम कर दिया और डंडे बढ़ा दिए।

         एक दिन इलाक़े की तमाम गलीयों में घूमने के बाद भी उन्हें पैसे नहीं मिले। बॉस अपनी सोचों में गुम था। थोड़ी देर बाद उसने कहा, ”अब कोई फ़ायदा नहीं। लोगों में हास्य रस ख़त्म हो चुका है। अब उनके पास दया के सिवा कुछ नहीं है।”

       बंदर ने सवालिया नज़रों से आदमी को देखा।

      “देखो, मेरे दोस्त! यह दुनिया बड़ी पापी है। क्योंकि हमारी आँखें हैं, इसलिए सब देखना ही पड़ता है। मैं तो इस दर्द को बर्दाश्त कर ही रहा हूँ। क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारे लिए यह दुनिया देखना ज़रूरी है?” बॉस ने पूछा।

     बंदर असमंजस में था।

     “समझो, मैं क्या कह रहा हूँ। भूख से मरने से बेहतर है कि अंधा बनकर जिंदा रहा जाए। लोग बहुत दयालु हैं। अगर वे किसी अंधे बंदर को देखेंगे तो वो हमें दिल खोल कर पैसा देंगे। डरो मत, मैं बगैर किसी दर्द के तुम्हारी आँखें निकाल दूँगा।” बॉस ने चेहरे पर बिना कोई भाव लाए, कहा।

     बंदर ने नफ़रत से उसे देखा। “क्या तुम वाक़ई इन्सान हो?”

     “मुझे यह ख़्याल इसलिए आया कि मैं इन्सान हूँ। तुम एक जानवर हो। क्या तुम्हारे दिमाग़ ने कभी इस तरह काम किया है?”

    इतने में एक ज़ोरदार आवाज़ सुनाई दी। और फिर, लोग भागते हुए दिखाई दिए। हर तरफ पीड़ा की पुकार। दर्द की चीख़ें।

    बॉस घबरा गया। “दोस्त, मैं तुम्हें इस दुनिया को देखने का मौक़ा दे रहा हूँ। ख़ुदा-हाफ़िज़!” यह कह कर वह भाग गया।

    बंदर को मालूम नहीं था कि वो किधर मुड़े। उसने जिधर देखा, लोगों को भागते हुए देखा। जो बच्चे भाग नहीं सकते थे उन्हें कुचला जा रहा था। पैट्रोल की दुर्गंध। गोश्त जलने की बू। औरतें अपने दुधमुँहेँ बच्चों को सीने से लगाए भाग रही थीं। पागलों की तरह चीख़ रही थीं। नीचे गिर रही थीं। जल रही थीं।

     चार लोगों ने बंदर को घेर लिया

     “तुम कौन हो?  हिंदू? मुस्लमान?”

     बंदर ने हैरानी से उन्हें देखा। ”मैं बंदर हूँ” उसने काँपते हुए कहा।

     ”इस से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि तुम कौन हो?”

     लाठियां हवा में लहराईं।

     अपने सिर को बचाने के लिए बंदर ने कलाबाज़ी की। पर एक लाठी उसकी एक टांग पर लगी। ‘कड़क!’ हड्डियों के टूटने की आवाज़ आई।

      तब, उसे माँ का ख्याल आया। उसके बाद क्या हुआ, उसे कुछ याद नहीं रहा।

      बंदर ने आँखें खोलीं। उसे दवाईयों की बू ने घेर रखा था। ज़ख़्मों की दुर्गंध। दुधमुँहेँ बच्चे रो रहे थे। उनसे अपना दर्द बर्दाश्त न हो रहा था। दो साल की एक बच्ची, जिसके सिर पर पट्टी बंधी हुई थी, “अम्मां! अम्मां!” पुकारते हुए अपनी मां को तलाश रही थी।

      बंदर का सर फट रहा था। उस की एक टांग पर पट्टी बंधी हुई थी। नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त दर्द।

      एक नर्स अंदर आई और कहा, “आप ख़ुश-क़िस्मत हैं कि बच गए, लेकिन…” वो बीच में ही रुक गई।

      बंदर ने बेबसी से उसे देखा

     “आप कभी भी अपनी दोनों टांगों पर नहीं चल पाएँगे” नर्स ने कहा। अपनी टांग की तरफ़ देखकर बंदर बे-तहाशा रोने लगा।

     कुछ दिन गुज़रने के बाद, उन्होंने बंदर को एक छड़ी दी और कहा, “अब तुम जा सकते हो।”

     “कहाँ?” बंदर ने पूछा।

     “आप जहां चाहें जा सकते हैं।”

    बंदर के होंठों पर उदास मुस्कुराहट उभरी।

     इतने में एक आदमी बंदर के पास आया। “मैं एक सर्कस का मालिक हूँ। मैं तुम्हें अपने साथ ले जाऊँगा।” यह कह कर उसने छड़ी समेत बंदर को अपने साथ ले लिया।

“अया! मुझे वहां क्या करना होगा?”

“लोगों का मनोरंजन ​​करना, और क्या!”

“अगर मैं उदास होऊँ तो क्या मैं रो सकता हूँ?” बंदर ने पूछा।

“तुम रो सकते हो, लेकिन बाहर आवाज़ मत निकालना। तुम्हें इतनी आज़ादी तो हमेशा मिलेगी।”

     सर्कस में, उन्होंने उसे पिंजरे में डाल दिया। वहां उसने अपने जैसे कई जानवर देखे। बंदर ने उनसे पूछा, “तुम सब कहाँ से आए हो?”

    “हम कहीं से क्यों आएँगे? हम यहीं पैदा हुए हैं, हम यहीं पले बढ़े हैं,” उन्होंने कहा।

    “क्या तुम्हें यहां रहना अच्छा लगता है?”

    “क्यों नहीं? वो हमें हर-रोज़ गोश्त के चार टुकड़े खिलाते हैं। वैसे तुम कहाँ से आए हो?” जानवरों ने पूछा।

    “दरख़्तों, परिंदों, नदियों, सूर्योदयों की एक शानदार दुनिया से। तुम अपने सपनों में भी इस का तसव्वुर नहीं कर पाओगे।” अपने टूटे हुए ख़ाब को याद करते हुए बंदर ने कहा।

   “वहां गोश्त कौन मुहैया करवाता है?” जानवरों ने पूछा।

         इधर सर्कस में, भीड़, बंदर द्वारा एक टांग से दिखाए करतबों की तारीफ़ करती। वह अपनी टांग घसीटता और भागता; उलटी छलांगें लगाता। 

       कुछ ही दिनों में, भीड़ ऊब गई तो उसने तालियाँ बजाना बंद कर दिया। मालिक ने सोचा कि अब बंदर को खाना देना बेकार है, अतः उसे दिन में सिर्फ एक-बार खाना मिलने लगा।

       एक दिन, मालिक आया और बंदर को पिंजरे से बाहर निकाल लिया गया। उसने अपने सहायक से कहा, “अब कोई भी इसके करतबों की तारीफ़ नहीं करता। इसे बाँसुरी बजाना सिखाना चाहिए।”

      उन्होंने बंदर के हाथ में बाँसुरी रख दी। बंदर उस की तरफ देखकर उलझन में पड़ गया। उसे न समझ आया तो कोड़े बरसाए गए। वो चीखा तो बाँसुरी से संगीत निकला। सिर्फ बंदर ही जानता था कि वो उसके आँसू थे।

      बाँसुरी के ग़मगीन राग की वजह से सर्कस में एक नई जान आई। जीवन जितना ज्यादा मुश्किल होता गया, बाँसुरी के गीत उतनी ही गहराई लेते गए। माँ की लोरियां, जंगल की हवा का गान, झरनों का उदास गीत। बंदर इन गीतों में अपनी बिखरी ज़िंदगी की तलाश करने लगा।

     सर्कस में काम बिना आराम, दिन-रात चलता था। वे उसे रात में जगाते और घसीटते हुए ले जाते।

     थोड़ा वक्त बीता। वह बहुत सी जगहों पर गया।

      एक-बार, जब सर्कस एक जगह से दूसरी जगह जा रही थी, तो वह जंगल में रुक गई। जिस क्षण जंगल की हवा ने बंदर को स्पर्श किया, अनंत यादें उसके भीतर से उछल पड़ीं। यह उसकी मातृभूमि थी। जमीन की गंध ने उसकी रगों में खून ताजा कर दिया, उसे जगा दिया। उस वक्त उसका चीखने का मन हुआ, उसका रोने को जी चाहा।

         उसने अपनी सारी ताक़त इकट्ठी की और अपने पैर में बंधी डोरी को तोड़ डाला। वह लंगड़ाता हुआ बाहर भागा। एक पाँव घसीटते हुए, जोर से सांस लेते हुए, खूब पसीना बहाते हुए, अपने आँसुओं को पोंछते हुए, शरीर पर लगी खरोचों से बहते हुए खून की परवाह किए बगैर, गिरते हुए, उठते हुए, लड़खड़ाते हुए, वह जंगल के बीचों-बीच भाग गया।

        उस का जंगल, उस की ज़मीन, उस की महक- जिन्होंने उसे प्यार से घेर लिया। उसने ज़मीन को बार-बार चूमा। ज़मीन, जिस पर उस की माँ घूम रही थी, वो ज़मीन जहां कोई इन्सान नहीं था।

       जंगल के तमाम बंदरों ने हैरत से उस की तरफ़ देखा। इस हैरत से, कि इतना दर्द बर्दाश्त करते हुए यह कौन अजनबी एक टांग पर उनकी ओर चला रहा है। इस से पहले कि कोई और बोले, उस की माँ ने उसे पहचान लिया। वो अपने बच्चे को दूर से ही जान गई। अपने बच्चे की गंध आई तो मां का हृदय पिघल गया।

        जब उसने बच्चे को देखा तो उस की आँखों में आँसूओं के बादल उमड़ आए। उसे लगा कि वो फिर कभी आँखें नहीं खोल सकेगी। वह भाग कर उस के पास गई और उसे गले लगा लिया। उसके कटे-मुड़े पांव को देखकर उसका दिल रोया। उसने अपने बच्चे के पूरे शरीर को सहलाया, घावों को चाट लिया।

      दर्द का दरिया हुई अपनी मां को देखकर बालक ने उसे कस कर गले लगा लिया।

       उसने अपने ग़म पर काबू पाया और एक हाथ से अपनी माँ के आँसू पोंछ दिए। फिर किसी से बात किए बग़ैर, वह सीधे बंदर बाबा के पास गया।

     “बाबा!” वो चीख़ा।

      बाबा एक ही छलांग में पेड़ से उतर आए और बंदर को गले लगा लिया। बंदर की टूटी टांग को देखकर वह खिन्नता से मुसकाए। “अनुभव से बड़ा कोई गुरु नहीं है,” वे बुदबुदाये।

     बंदर ने कहा , “बाबा, मैंने एक सच को पा लिया है।”

    बाबा ने उसे प्यार से सहलाते हुए कहा, “तुमने इसके लिए कितनी कीमत चुकाई है, यह भी देखा जा सकता है।”

    “बाबा! यदि निम्न अवस्था से उच्च अवस्था में जाना ही विकास की प्रक्रिया है, तो यह कहना झूठ होगा कि नीच आदमी उच्च बंदर से पैदा हुआ है। सच तो यह है कि बंदर आदमी से पैदा हुआ है। जो कोई भी इस संसार में सत्य को पाना चाहता है, उसे कीमत चुकानी ही पड़ती है। मैं भी…” एक आंसू सरक कर उसकी कटी टांग के बालों पर आकर सूख गया।

      बंदर अपना पैर घसीटता हुआ, चुपचाप जंगल में चला गया। थोड़ी देर बाद जंगल बांसुरी के गीत से गूंज उठा। गीत ऐसे गूंजा, मानो यह यह धरती पर मौजूद तमाम इन्सानों से सवाल कर रहा हो।

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