राहुल ने लगभग एक सौ उन्नीस या इससे भी अधिक ग्रन्थ लिखे हैं। ये सभी ग्रन्थ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ‘साम्यवादी विचारधारा’ की दृष्टि से या तो व्याख्या हैं या समाज का तद्नुरूप परिकल्पित स्वरूप। उन्होंने छोटी-छोटी पुस्तिकाएं ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’, ‘साम्यवाद ही क्यों’, ‘तुम्हारी क्षय’ लिखीं। अपने देश के ऐतिहासिक विकास को फंतासी के रूप में बीस कहानियों में ‘वोल्गा से गंगा’ रचा। सोवियत संघ की क्रांति के बाद वहां की विकास-दिशा देखी, ‘बाईसवीं सदी’ लिखी। यह कृति लम्बी कहानी या लघु उपन्यास की तरह ‘समाजवादी’ यूटोपिया के रूप में रची गयी। ‘साम्यवाद’ को भारत में स्थापित करने का स्वप्न राहुल लगभग 1920-21 के आसपास ही देखने लगे थे। पण्डित थे, अतः मानस में काल्पनिक सृष्टि बनाकर संस्कृत श्लोकों में उसे उतारते रहते। स्वभाव से यात्री थे। सारी दुनिया को आंखों से देखना चाहते थे। यात्राएं उनके लिए खुले विश्वविद्यालय की तरह होती थीं, ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ और ‘घुमक्कड़ स्वामी’ पुस्तकें देखकर सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है। राहुल ने तो यहां तक कहा कि उनका लेखन घुमक्कड़ी लालसा की संतान है शब्द है
‘मेरी यदि लालसा थी तो घुमक्कड़ बनने की और कुछ ज्ञानार्जन करने की। लेखक तो समझता हूं, संयोग से ही मैं बन गया।’
(राहुल निबंधावली, पृ. 1)
राहुल ने अपनी दोनों लालसाओं को पूरा किया। भारत का कोना- कोना देखा । श्रीलंका, नेपाल, जापान, तिब्बत, चीन, रूस तथा यूरोप के अन्य देशों में जाकर वर्षों रहे। छत्तीस भाषाएं सीखीं। वहां का साहित्य पढ़ा। साहित्य या दर्शन को आंखों से देखी दुनिया से मिलाया, पाया कि दुनिया में रचा गया साहित्य दरअसल यात्रा प्रतिबिम्ब है। अनुभव की सम्पदा है। घुमक्कड़ शास्त्र में उन्होंने कहा, ‘पुस्तकें भी कुछ-कुछ घुमक्कड़ी का रस प्रदान करती हैं, – लेकिन जिस तरह फोटो देखकर आप हिमालय से देवदार के गहन वनों और श्वेत-हिम-मुकुटित-शिखरों के सौन्दर्य, उनके रूप, उनकी गंध का अनुभव नहीं कर सकते उसी तरह यात्रा – कथाओं से आपको उस बूंद से भेंट नहीं हो सकती जो कि एक घुमक्कड़ को प्राप्त होती है।’ (पृ. 2) गौर करें कि लेखक दुनिया के अवलोकन के बिना पुस्तकीय ज्ञान की अपूर्णता को किस प्रकार रेखांकित करता है? इसी द्वैत को भरने में राहुल का जीवन समर्पित था। जीवन का सूत्र था ‘घूमना, जानना और लिखना’। विज्ञान, समाजशास्त्र, पुरातत्व, इतिहास, धर्म, राजनीति और साहित्य आदि अनुशासनों में लिखित ग्रन्थ उनके इसी जीवन सूत्र से उपजे दस्तावेज हैं। –
राहुल की विचारधारा का जहां तक प्रश्न है- घोषित रूप से साम्यवादी है। वे वैज्ञानिक भौतिकवाद पर विश्वास करते थे। यह विश्वास उन्होंने ओढ़ नहीं लिया, इसे अर्जित किया। अपनी प्रकृति को पहचान कर यह काम किया। जोर देने की बात है कि प्रकृति के प्रतिकूल कोई विचारधारा मनुष्य में टिक नहीं सकती। मार्क्स ने खुद ही व्यक्ति और जनता के सहजबोध की अनिवार्यता पर समूचा कर्म-रूप तैयार किया है। राहुल के ग्रन्थों में बार-बार मनुष्य की प्रकृति या उसके भीतरी अंकुरों को पहचानने पर बल है। घुमक्कड़ शास्त्र के आरम्भ में कहा— “घुमक्कड़ी का अंकुर पैदा करना इस शास्त्र का काम नहीं बल्कि जन्मजात अंकुरों की पुष्टि परिवर्धन या मार्ग प्रदर्शन इस ग्रन्थ का लक्ष्य है।” कहना न होगा कि हमारे आचार्यों ने शास्त्रों के प्रति शिक्षितों या अशिक्षितों में उदासीनता का भाव इसलिए उगा दिया क्योंकि वे मानवीय प्रकृति की पहचान के साथ जुड़े न रह सके इतने विवेकवान और मनुष्य की समूची अन्तर्बाह्य शक्ति के संयोजक और प्रवर्त्तक दर्शन की मूल प्रतिज्ञा से भटक जाने के कारण ही विश्व के अनेक देशों के समाजवादी मॉडल बिखर गये। स्पष्ट है कि जब भी कोई विचारधारा, शास्त्र या सत्ता का मॉडल मनुष्य के जीवन को हरियाली की उपेक्षा कर कार्य योजनाएं तैयार करेगी, जनता की प्रकृति के बजाए दलबद्ध सदस्यता पर जिवेगी, उसकी हत्या अनिवार्य है। हकीकत यह है कि खुद मॉडल जड़ वस्तु नहीं है। जीवन की परिवर्तनशीलता का द्वन्द्व उसे भी बदलता है। परिवर्तन की तरलता ही उसे जीवित रखती है।
राहुल राष्ट्रभक्त थे। देश की गुलामी और दरिद्रता से दुःखी थे। उन्हें लगा कि हमारी भयंकर दरिद्रता की दवा साम्यवाद है। सामाजिक रोगों से मुक्ति इसी में है शोषितों, पीड़ितों, स्त्रियों की स्वतन्त्रता इसी शासन व्यवस्था में सम्भव है। लेखक कलाकार की या नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अस्थायी तौर पर नहीं, सदा के लिए हमें करने में उन्हें मार्ग यही दिखा। इस विचारधारा को उन्होंने उलट-पलटकर गहराई से जाना। विश्व की ऐतिहासिक और भौतिक पृष्ठभूमि में समझा। वैज्ञानिक भौतिकवाद पर निर्भर इस विचारधारा को समझने के क्रम में उन्होंने कहा-
‘आज हम साइंस के युग में हैं, किन्तु तब भी शिक्षित लोगों में भी बहुत-से साइन्स युग के पहले के मृत विचार ही चल रहे हैं।’
(वैज्ञानिक भौतिकवाद, पृ. 5)
स्पष्ट है कि राहुल की निगाह में विज्ञान की शत्रुता मृत विचारों से है। वैज्ञानिक दृष्टि मृत विचारों से संघर्ष के बिना नहीं विकसित हो सकती। उन्होंने एक पुस्तिका लिखी ‘तुम्हारी क्षय’ उसके शीर्षक हैं- तुम्हारे समाज की क्षय, तुम्हारे धर्म की क्षय, तुम्हारे भगवान की क्षय, तुम्हारे सदाचार की क्षय, तुम्हारी जात-पात की क्षय, तुम्हारी जोंकों की क्षय। देखें, समाज का कौन-सा रूप क्षय योग्य है- ‘पंच कह उठते हैं, अमीर-गरीब सदा से चले आये हैं, अगर सभी बराबर कर दिये जायें, तो कोई काम करना पसन्द नहीं करेगा, दुनिया के चलाने के लिए अमीर-गरीब का रहना जरूरी है।’ (पृ. 4)। धर्म का क्षय क्या है ‘आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गांवों में एक मज़हब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा है।’ (पृ.15)। किस ईश्वर का क्षय चाहते हैं राहुल, ‘अज्ञान का दूसरा नाम ईश्वर है। हम अपने अज्ञान को साफ स्वीकार करने में शर्माते हैं, अतः उसके लिए सम्भ्रान्त नाम ईश्वर ढूंढ़ निकाला गया।’ (पृ. 22 ), बतायें कि क्या आज भी पुस्तिका प्रासंगिक है या नहीं, आप साम्यवाद को मानें या न मानें।
वैज्ञानिक दृष्टि को राहुल केवल हिन्दी के एक लेखक की तरह नहीं, वे जीवन और जगत को समग्रता से जानना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने प्रकृति विज्ञान, समाज विज्ञान, दर्शन और कला- सभी ज्ञान के उपांगों का गहन अध्ययन और विश्लेषण किया। उन्होंने इन शाखाओं के ज्ञान का केवल शब्दों से नहीं, इन्हें परखकर देखा इतिहास और इतिहास पूर्व की जीवन- छायाओं को उन्होंने पुस्तकों के आलोक में घूम-घूमकर पहचाना पुरातात्विक स्थलों में अंकित स्मृतियों को अपनी अनुभव-सम्पदा में शामिल कर ऐन्द्रिय रूप प्रदान किया। लेखक के रूप में अपने सृजन कौशल की विशिष्टता की रक्षा करते हुए विभिन्न ज्ञानानुशासनों से उसके अन्तर्सम्बन्धों की खोज की मृत विचारों के खिलाफ वैज्ञानिक दृष्टि का विस्तार देखने बैठे एक पुस्तक लिखने की योजना बनायी और चार पुस्तकें बन गयीं। उन्होंने कहा- ‘अलग-अलग विषयों पर डेढ़-पौने दो हजार का पृष्ठ का एक पोथा लिखने की जगह अलग-अलग पुस्तक मान लेना ही अच्छा है, इस प्रकार एक पुस्तक की जगह चार पुस्तकें लिखनी पड़ी, विश्व की रूपरेखा (साइन्स), मानव समाज भौतिकवाद प्राक्कथन, पृ. 4) एक रूपरेखा के अधीन चार विषयों की इन पुस्तकों का लिखा जाना लेखक में ज्ञान-दिशाओं की विशिष्टता और सामान्यता की एक साथ अनुभूति का प्रमाण है। ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ पूर्व-पश्चिम के सभी दर्शनों में साम्यवादी चिन्तन के सूत्रों की गवेषणा है। इसका अन्वेषक राहगीर है, जो अपरीक्षित-दर्शन की उत्तीर्णता पर सन्देह बनाये रखता है। राहुल, केदार पाण्डेय से रामोदर दास और फिर राहुल बने थे। यह नाम उन्हें बौद्धधर्म की दीक्षा के बाद मिला। श्रीलंका में रहकर उन्होंने बौद्धधर्म का अध्ययन किया। ज्ञान हुआ कि भारतीय दर्शन और साहित्य की विपुल ग्रन्थ- सम्पदा तिब्बत में है, इसलिए उन्होंने तिब्बत की कठिन यात्रा की। वहां भोट भाषा सीखकर उन ग्रन्थों का अध्ययन किया और उन्हें यहां ले आये। वह ग्रन्थ-राशि पटना के काशीप्रसाद जायसवाल शोध संस्थान में सुरक्षित है। ग्रन्थों के अनुशीलन के अनन्तर उनके ही शब्दों में, ‘सोलह वर्ष लगाकर जितन बौद्धधर्म का ज्ञान मिला, मैंने एक दर्जन ग्रन्थों को लिखकर ऐसा रास्ता बना दिया है कि दूसरे सोलह वर्षों में प्राप्त ज्ञान को तीन-चार वर्षों में अर्जित कर सकते हैं।’ (घुमक्कड़ शास्त्र, पृ. 30 )। इन पंक्तियों में ‘रास्ता बना दिया है’ कथन सूचित करता है कि उनके लिए ज्ञानार्जन रास्ता खोजने और बनाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। रास्ता खोजते ही उन्होंने आर्य समाज को टटोला और वेद का अध्ययन किया। वैष्णव सम्प्रदाय के धार्मिक ग्रन्थों से धार्मिक रहस्य को समझने का प्रयास किया। वैदिक साहित्य के अध्ययन के आधार पर उन्होंने ऋग्वैदिक काल की घटनाओं पर ‘दिवोदास’ उपन्यास लिखा। बौद्धधर्म राहुल को प्रकृति के अनुकूल लगा। इस दर्शन की अनात्मवादी और अनीश्वरवादी स्थापनाओं में उन्हें मार्क्सवाद की पूर्व ध्वनि सुनायी पड़ी। उन्होंने पाया कि वह जीवन-दृष्टि बौद्ध दर्शन में पहले से मौजूद है। इसमें कोई ग्रन्थ स्वतः प्रमाण नहीं है। शरीर के पूर्ण और उपरान्त जीवन प्रवाह के प्रति विश्वास इसके मूल हैं। श्रीलंका में राहुल ने बौद्धधर्म के पालि-त्रिपिटक का अध्ययन किया था, इसी कारण उन्हें त्रिपिकाचार्य की उपाधि मिली। बौद्धधर्म का इनके द्वारा किया गया विश्लेषण साम्प्रदायिक मान्यताओं से मुक्त है।
राहुल का साहित्य कई तरह का है। उन्होंने दार्शनिक ग्रन्थ लिखे। सोवियत समाज-व्यवस्था पर तरह-तरह से लिखा, मसलन सोवियत न्याय और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास, सोवियत भूमि दो भागों में, सोवियत मध्य एशिया आदि। मार्क्स, लेनिन, माओ आदि की जीवनियां लिखीं। मार्क्स की जीवनी लिखकर उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवाद के सार को प्रस्तुत किया। राहुल का यात्रा साहित्य निराला है। यह ज्ञान मंजूषा के अलावा वित्व- चित्रपट जैसा है। रेखांकन के योग्य पुस्तकें हैं- ‘मेरी लद्दाख यात्रा’, ‘लंका यात्रावलि’, ‘तिब्बत में सवा वर्ष’, ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘यात्रा के पन्ने’, जापान, ईरान, रूस में पच्चीस मास’, ‘एशिया के दुर्गम खण्डों में’, ‘किन्नर देश’, ‘दार्जिलिंग परिचय’, ‘कुमायूँ’, ‘गढ़वाल’, ‘नेपाल’, ‘हिमालय प्रदेश’, ‘जौनसार’, ‘देहरादून’, ‘आजमगढ़ का पुरातत्त्व’। इनके अलावा घुमक्कड़ शास्त्र तो है ही। साथ ही राहुल ने ‘दिमागी गुलामी’, ‘क्या करें’, ‘आज की समस्याएं’, ‘आज की राजनीति’, ‘कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं’ और ‘भागो नहीं, दुनिया बदलो’ जैसी राजनीतिक पुस्तकें लिखीं। मार्क्स के नाम का भोजपुरीकरण किया- मरकस बाबा। लोक-भाषा के ही लहजे में समाज की बुराइयों के दुश्मन और कमेरों के राज्य के गायक के रूप में ‘भागो नहीं, दुनिया बदलो’ में मरकस बाबा के उसूलों की प्रस्तुति की। राहुल का रचनात्मक साहित्य कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उदाहरण के लिए उपन्यास ‘सोने की ढाल’, ‘विस्मृति के गर्भ में’, ‘जादू का मुल्क’, ‘जीने के लिए’, ‘सिंह सेनापति’, ‘जय योधेय’, ‘मधुर स्वप्न’, ‘सप्तसिन्धु’ कहानियां ‘सप्तमी के बच्चे’, ‘वोल्गा से गंगा’, ‘बहुरंगी मधुपुरी’, ‘कनैला की कथा’। उन्होंने अनेक भाषाओं की महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद किये। कोश तैयार किये। पांच खण्डों में ‘मेरी जीवन यात्रा’ लिखी। पुरातत्त्व निबंधावलि, हिन्दी – काव्यधारा (अपभ्रंश), साहित्य-निबंधावलि आदि हिन्दी की कहानियां, दक्खिनी हिन्दी काव्यधारा संस्कृत काव्यधारा आदि पुस्तकों का प्रणयन किया।
राहुल अपने उपन्यासों में इतिहास में बिखरी मनुष्य की उस संघर्षशील जयगाथा को सहेजना चाहते हैं, जिसे इतिहासकार छोड़ देते हैं वे इतिहास को, जीवनी और डायरी की तरह लिखते हैं- ‘ऐतिहासिक उपन्यास’। ‘जय योधेय’ का मुख्य पात्र जय है । वह योधेयों को संगठित कर चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से लोहा लेता है। वह साहसी है। संघर्ष करते-करते वह बौद्ध भिक्षु बन जाता है। राहुल का अपना मन इस नायक में प्रवेश कर जाता है। ‘सिंह सेनापति’ का नायक वीरसिंह तक्षशिला का छात्र है। वहां गदा चालन, शास्त्र शिक्षा और शास्त्रों का पारायण करता है। बहुलाश्व की पुत्री से विवाह होता है। विश्वसार के दंभ को तोड़ता है। विदेशी आक्रमणकारियों को मुंहतोड़ जवाब देता है। यह सब करके भी उसे संतोष नहीं मिलता। संतोष पाता है महावीर या बुद्ध के सिद्धान्तों में लेखक इस कृति में रूढ़िवाद की खिल्ली उड़ाता है। ब्राह्मणवाद की मनुष्य के खिलाफ की गयी साजिशों को खोलता है। सिंह सेनापति बौद्धधर्म के रंग में उसी तरह रंग जाता है जैसे राहुल मार्क्स में अतः उपन्यास में मार्क्स बुद्ध की अनुभूति में झांकते दिखते हैं। ‘मधुर स्वप्न’ में छठी सदी का एशियाई समाज है। सामन्तवाद के अत्याचारों से कराहते हुए लोगों का दस्तावेज लेखक समानता का ‘मधुर स्वप्न’ यहां भी देखता है। ‘विस्मृत यात्री’ का नरेन्द्र यात्री ही है, बौद्ध धर्म में दीक्षित और अन्ततः मार्क्सवादी राहुल में इतिहास देख सकने और उसे दृश्य रूप प्रदान करने में कमाल हासिल था। देखें कि भारत के समूचे विकास को उन्होंने ‘वोल्गा से गंगा’ की बीस कहानियों में ढाल दिया। कहानी के पात्रों की रचना की और उन्हें जीवन्त बना दिया। जेल में रहते हुए उनके मानस में साम्यवादी भारत का स्वप्न घुमड़ता है। नालन्दा का छात्र विश्वबन्धु दो शताब्दियों की नींद (बीसवीं से बाईसवीं सदी) के बाद उठा, अर्थात् ‘बाईसवीं सदी में पहुंचकर पाया कि उनकी कल्पना साकार हो गयी है। देशों की सीमाएं टूट गयी हैं। नया विश्वबांधव तैयार हो गया है। ‘सार्वभौमिक व्यवस्था’, ‘सार्वभौमिक भाषा’, ‘सार्वभौम नगर’ और उसमें सबकुछ भला – भला – सा। मंगलमय। इस यूटोपिया का आधार क्या था— ‘बाईसवीं सदी’ की पूर्वगामिनी सोवियत भूमि मौजूद है। उससे पता चलता है कि दुनिया किधर जा रही है।’ (बाईसवीं सदी की भूमिका)। बीसवीं सदी में दुनिया की दिशा में हर लेखक ने यूटोपिया का कल्पित ढांचा तैयार किया। वह यूटोपिया वर्षों उनके मानस में छाया रहा। पाण्डुलिपि खो गयी। स्मृति के सहारे सात वर्षों बाद पुनः लिखा और ‘बाईसवीं सदी’ प्रकाशित हुई। मुख्य बात यहां यह कि राहुल की स्वीकृत विचारधारा जीवन पाने के लिए कितनी बेचैन थी। उनकी फंतासी वैसी ही थी जैसी तुलसीदास के रामराज्य की। अब रचयिता का क्या दोष कि ‘रामराज्य’ की फंतासी को साम्प्रदायिक ले उड़ें और रूसी मॉडल गतिशील न रह पाये, उस पर साम्राज्यवादी शिकंजा जकड़ जाये। इस तरह की अनेक कृतियों में राहुल इतिहास को सजीव करने में लगे रहे हैं। विचारों का संघर्ष उनमें इतना तीव्र था तथा वर्गदृष्टि इतनी उत्तेजित थी कि कृतियों में कई बार असहज उपलब्धि को भी चित्रित करने में वे नहीं चूके।
राहुल मानते थे कि साहित्य सामाजिक परिवर्तन का कारगर औजार है। जिस समय वे बहुत सक्रिय लेखक थे, उन दिनों विश्व में फासीवाद का खतरा मंडरा रहा था। दुनिया के जागरूक लेखक इसके खिलाफ एकजुट हो रहे थे । सन् 1944 में इन्दौर में हिन्दी के लेखकों ने सम्मेलन किया। राहुल ने इस सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा-
“साहित्य सिर्फ कल्पना जगत् की चीज नहीं है। वह एक दुर्धर्ष शक्ति है। हां, वह कल्पना जगत् की चीज मात्र रह सकता है, यदि वह सिर्फ शून्य आकाश में ही घूमता रहे। लेकिन जैसे ही उसे ठोस भूमि का आधार मिल जाता है, वैसे ही वह एक प्रचण्डतम भौतिक शक्ति के रूप में परिणत हो जाता है और साहित्य को यह दुर्धर्ष भौतिक शक्ति प्राप्त होने की वह भूमि कौन दे, साधारण जनता।”
राहुल की दृष्टि में साधारण जनता का साहित्य में बहुत महत्त्व है। उनके ही सहचर प्रेमचन्द साधारण जनता को साहित्य के केन्द्र में ला रहे थे। राहुल ने भी ‘सतमी के बच्चे’ जैसी कहानियां लिखीं। धूल में सने गरीबों की स्थितियां, उनके प्रति करुणा और अन्त में विद्रोह के लिए प्रस्तुत वे नायक। देहातियों की व्यवस्था के प्रति चुभते व्यंग्य से कहानियां क्रांतिकारी बन जाती हैं। राहुल के लिए साधारण जनता वास्तविक भौतिक शक्ति है सांस्कृतिक निधि भी इसी के अनुभवों में डूबकर लेखक – भविष्यद्रष्टा बनता है। जनता के प्रति लगाव ही उसे फासीवाद विरोधी बनाता है। उन्होंने बताया कि जर्मनी के अधिनायकवाद ने जैसे तमाम कौमों की संस्कृति नष्ट की, तोल्सतोय की समाधि और आश्रम ध्वस्त किया, उसी तरह भारत में यदि ये शक्तियां ताकतवर हुई तो यहां की संस्कृति भी नष्ट हो जायेगी। राहुल प्रगतिशील लेखक और विचारक थे। वे प्रगतिशील लेखकों के संगठन में शामिल थे और सम्माननीय थे सन् 1947 में प्रयाग में हुए इस संगठन के राष्ट्रीय अधिवेशन में अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने कहा-
“प्रगतिवाद कोई कल्ट या सम्प्रदाय नहीं है। प्रगतिवाद का काम है, प्रगति के रुंधे रास्तों को खोलना। उसके पथ को प्रशस्त करना। प्रगतिवाद कलाकार की स्वतंत्रता का नहीं, परतंत्रता का शत्रु है प्रगति रोम-रोम में जिसके भीग गयी है, प्रगति ही जिसकी प्रकृति बन गयी है, वह स्वयं अपनी सीमाओं का निर्धारण कर सकती है। उसकी सीमा अगर कोई है तो यही कि लेखक और कलाकार की कृतियां प्रतिगामी शक्तियों की सहायक न बनें, उनके शोषण और उत्पीड़न का हथियार न बनें।”
(साहित्य निबंधावली, पृ. 115 )
यह परिभाषा राहल की दृष्टि में काल- विशेष की होकर भी सदा की है। वे साहित्य को उपयोगिता से जुड़ा हुआ देखते हैं। मानव कल्याण इसका मूलाधार है। सम्प्रदायवाद उनकी दृष्टि में मनुष्यता का शत्रु है। जनता से गहरी अनुरक्ति के कारण लोक भाषाओं और बोलियों के साहित्य को वे तेजस्वी और प्राणवान् मानते हैं।
राहुल मानते हैं कि साहित्यिक भाषा का विकास बोली से होता है। बोली से जुड़े बिना साहित्य-भाषा सजीव नहीं रह सकती। वे कहते हैं ‘हिन्दी के लोक साहित्य में हमें उन सब भाषाओं के लोक-साहित्य को लेना चाहिए, जिनके शिष्ट साहित्य मानते हैं जैसे विद्यापति की मैथिली, तुलसीदास की | अवधी, सूरदास की ब्रज और पृथ्वीराज की मरुवाणी (मारवाड़ी) का लोक- साहित्य। यही नहीं बल्कि अलिपिबद्ध और अब तेजी से लिपिबद्ध होती हिन्दी की अन्य भाषाओं के लोक-साहित्य को उसमें गिनना होगा।’ (राहुल निबंधावली, पू. 69 ) । स्पष्ट है कि शिष्ट साहित्य की वरीयता और अभिजात्य राहुल को पसंद न था। वे ‘दोनों में सामंजस्य के हिमायती थे। के राहुल का स्वभाव अन्वेषी था। रूसी, अरबी, फारसी, तिब्बती, सिंहली अलावा संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, अवधी, भोजपुरी के साहित्य की शक्ति को उन्होंने भाषा के भीतर से पहचाना। भाषा सम्बन्धी पृथक् नहीं लिखा, पर भाषा के संदर्भ में कुछ लेखों द्वारा अपनी स्थापनाएं प्रकट की। ग्रंथ ‘हिन्दी भाषा की प्राचीनता’, ‘हिन्दी स्थानीय भाषा’, ‘सिद्ध कवियों की भाषा’, ‘मारवाड़ी और पहाड़ी भाषाओं का सम्बन्ध’, ‘हिन्दी की मूल भाषा कौरवी’, जैसे निबंध महत्त्वपूर्ण हैं। ये निबंध हिन्दी जाति की विशेषताओं को पहचानते हैं। ये मानकर चलते हैं कि धर्म एक होने पर यदि भाषा भिन्न है, तो अलग जाति का प्रश्न उठना स्वाभाविक है। हिन्दी के सम्बन्ध में राहुल का अभिमत अलग था। इतना अलग कि वे उसी आधार पर साम्यवादी पार्टी से अलग हो गये। वे चाहते थे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाया जाये। लिखते हैं, “हमारा हिन्दी के लिए आग्रह सिर्फ इसलिए है कि वह पहले ही से भारत के विशाल भाग में व्यवहृत होती है” (राहुल स्मृति, पृ. 99- पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लि.)। राहुल व्याकरण के नियमों में सर्वग्राही थे। कहते हैं कि संस्कृत- व्याकरण की दृष्टि से कोई शब्द अशुद्ध होकर लोकभाषा की दृष्टि से शुद्ध हो जाता है। लोकभाषाओं को वे इतना सम्मान देते थे कि उन्हें शिक्षा का माध्यम तक बनाने के पक्षधर थे> भाषा सम्बन्धी इतना चिन्तन राष्ट्रप्रेम की नींव पर खड़ा है। आप देखें कि एक ओर वे हिन्दी की वकालत करते हैं, दूसरी ओर उस हिन्दी को पूतना कहते हैं, जो लोकभाषाओं की हत्यारी होती है। राहुल भाषा पर आधारित राज्य चाहते थे हिन्दी को लादना नहीं चाहते थे। जो ऐसा कहते, उन्हें वे अखण्ड हिन्दीवादी कहकर व्यंग्य करते राहुल ने अठारह नाटक भोजपुरी में लिखे। यह था, उनका लोकभाषा प्रेम।
‘हिन्दी साहित्य का वृहद् इतिहास’ के लोकभाषा खण्ड का संपादन राहुल ने किया था। वास्तविकता यह है कि राहुल हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी के सहज आन्तरिक संघर्ष के साक्षी थे। हिन्दी ढल रही थी और हिन्दी उर्दू एक मूल की होकर भी दूर हो रही थीं। राहुल ने कहा ‘एक मूल से पैदा होने पर भी इसका विकास इतनी दूर तक अलग पथ पर हो चुका है कि उसे फिर मूल रूप से लौटाया नहीं जा सकता।’ (राहुल स्मृति, 107 )। राहुल चाहते थे कि उर्दू को लिपि सहित संरक्षण मिले, पर अनिवार्यता हिन्दी की हो। हिन्दी-उर्दू- हिन्दुस्तानी का सवाल हमारी भाषा नीति में बहुत दिनों तक छाया रहा। राहुल भारतीय समाज के निर्माताओं में दुर्लभ व्यक्ति थे। वे प्रखर बुद्धिजीवी, इतिहासविद् यायावर और जनता की आशाओं-आकांक्षाओं के प्रतीक थे । उन्होंने जीवन भर अपने भारत के उस रूप को खोजने की कोशिश की, जो गुफाओं और कन्दराओं में छिपा दिया गया था। गरीब आदमी की सिकुड़ी पपड़ियों से लेकर वेद-शास्त्रों, स्मृतियों और मूल्यवान धरोहरों में गुमशुदा भारत की तस्वीर को पाने और रचने में उन्होंने अपना जीवन लगा दिया। उनके पास जितना समय था उसका ये भरपूर उपयोग करते थे। आलस्य अथवा उदासीनता के लिए उनके पास जगह न थी। राहुल की बुद्धि स्मृति कल्पना और पूरी ऊर्जा उनकी आंखों से जुड़ी थी, इसलिए उन्होंने जो कुछ जाना उसे यायावर की तरह देख लिया। वास्तव में राहुल बीसवीं शताब्दी पुरुष थे। ‘सैर कर दुनिया की गाफ़िल, जिन्दगानी फिर कहां’ राहुल की जिन्दगी का सूत्र था। वे इसी के होकर रहे। जाते-जाते कहा था, ‘कमर बांध लो भावी घुमक्कड़ों। संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।’ (घुमक्ककड़ शास्त्र, पृ. 11)।
साभार : आलोचक और आलोचना – कमला प्रसाद