आपको यह जानकर खुशी होगी कि जिस नूह में पिछले दिनों सांप्रदायिक दंगे कराये गये उसी इलाके में नूह के नज़दीक आकेड़ा गांव में अठारहवीं सदी में दो बड़े शायर पैदा हुए,एक का नाम है सादल्ला तो दूसरे का नाम है नबी खां।इन दोनों ने महाभारत की कथाएं अपने पूर्वज मीरासियों से सुन सुन कर पूरे मेवाती परिवेश , लहज़े और चरित्रों के अपूर्व संयोजन के साथ लोकगाथा काव्य लिखा —- नाम दिया पंडून कौ कड़ा अर्थात पांडवों की कथा। इसमें पंडून की जन्म पतरी, भींव कौ कड़ा और अरजन कौ कड़ा,सादल्ला ने रचे,जो अधूरी कथा रह गयी , उसकी पूर्ति नबी खां ने बबराबाण कौ कड़ा यानी वभ्रुवाहन की कथा रचकर की।इसके बारे में सादल्ला ने कहा —-
सत्तरह सौ सत्तानवे बरस गया हैं बीत।
जानै पंडू अब हुया,याकी कौन करै परतीत।
इसे मीरासियों ने मेवों और मेवात में बसे हिंदुओं के पर्वों, उत्सवों और समारोहों में गा गाकर अमर कर दिया। पहले के शादी विवाहों में बारात तीन दिन रुका करती थी।ऐसा हिंदुओं के यहां ही नहीं, मेवों के यहां भी हुआ करता था। बचपन में मैंने अपने घर में एक रथ देखा है जिसके लिए अलग से ऐसे बैल रखे जाते थे जिनसे रथ में दौड़ने के अलावा कोई अन्य काम नहीं लिया जाता था।हमारा रथ हिंदुओं और मेवों दोनों की बारातों में जाता था,तब रात्रि में मीरासियों का लोक गायन होता था जिसमें वे पंडून के कड़े भी गाकर सुनाते और उसके बदले में इनाम-इकराम पाया करते थे। इनमें से ही ऐसे मीरासी भी निकल आते थे जो स्वयं शायरी करने लगते थे।ये मीरासी चूंकि मेवात के हिंदुओं को भी अपना यजमान मानते थे इसलिए इनके पास सभी तरह की चीजें हुआ करती थी। दोनों समुदायों के हृदयों को लंबे समय तक जोड़कर रखने में इन मीरासियों की बहुत बड़ी भूमिका होती थी।सच तो यह है कि इसी मीरासी समुदाय ने मेवाती लोक संस्कृति को खुद भूखा रहकर रचा है। इनके पास हारमोनियम होते थे जिनसे गा गाकर ये भादों के महीने में हर घर से अनाज मांगकर अपनी आजीविका चलाते थे। चौधरियों, नंबरदारों, जागीरदारों का संरक्षण भी इनको मिला हुआ होता था। किंतु धीरे धीरे यह सब कुछ बंद हो गया इससे हिंदुओं और मेवों की नयी पीढ़ियों का अपने लोकसाहित्य से रिश्ता विच्छेद होता गया।आज दोनों समुदायों की जो नयी पीढ़ियां है उनका स्मृति लोप हो चुका है। इसके विपरीत दोनों ही समुदायों का तेज़ी से संस्कृतीकरण हो रहा है। हिंदू, पहले से ज्यादा हिंदू हो रहा है इसी तरह मेव समुदाय भी पहले से ज्यादा मुसलमान बन रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था में जो अलगाव और अजनबीपन होता है वह भी तेज़ी से बढ़ रहा है। तीसरे लोकतंत्र में ध्रुवीकरण का ऐसा खतरा पैदा कर दिया गया है जिससे धर्म संप्रदायों का ही नहीं, जातियों का ध्रुवीकरण करने की प्रक्रिया बहुत तेजी से बढ़ी है। महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी की मार ऊपर से निम्न और निम्न मध्यवर्ग पर पड़ ही रही है।ये ऐसे कारक हैं जो समाज में फूटपरस्ती को बढ़ाने का काम करते हैं। बहरहाल, सादल्ला जैसे शायरों का ज़माना आज जैसी संस्कृतिहीनता का जमाना नहीं था।तभी तो उनकी प्रशंसा करते हुए किसी मीरासी शायर ने कहा था — कुछ लोग यह भी मानते हैं कि यह अपने बारे में सादल्ला का ही कथन है ——
जंह तक बेद कुरान हैं,हूं तक सादल्ला।
आगे अगम अथाह है,मेरो जानै है अल्लाह।