हम हरियाणा के जिस इलाके में रहते हैं उसमें गांव में पूजा के मुख्य स्थलों में खेड़ा, पीर, सती तथा डेरे मुख्यत: सामूहिक पूजा स्थलों के तौर पर सौ साल पुराने मिल जाते हैं । खेत में अपने पूर्वजों की मढ़ी परिवारों के व्यक्तिगत स्थानों के रूप में हैं । अधिकतर मंदिर पिछले 30-35 सालों में बनें हैं । जिन गांव में पुराने मंदिर हैं वो मुख्यत: व्यापार के केंद्र रहे हैं तथा व्यापारी वर्ग का उन मंदिरों को बनवाने बड़ा योगदान है । इस क्षेत्र में गांवों में डेरे खूब मिल जाते हैं वो भी गांव की आबादी से दूरी पर हैं जो मुख्यत: गिरी, पुरी संप्रदाय से संबन्धित संतों के हैं और ये भी बड़े गांवों में ज्यादा हैं । नाथ संप्रदाय के डेरों की विशेषता ये है कि इन्हे यहां पीर कहकर भी पूजा जाता रहा है ।
इन बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि खेती किसानी पर निर्भर इस क्षेत्र में धर्म दैनिक जीवन के कामों का हिस्सा नहीं था । किसी त्यौहार पर, शादी ब्याह, जीवन मृत्यु से जुड़े अवसर पर धार्मिक विश्वास आस्थानुसार प्रचलन में रहा । दलित जातियों में मन्दिर की धारणा तो बनने ही नहीं दी गई थी, हां लेकिन डेरों की सेवा में दलित परिवारों की भागीदारी फिर भी दिखती थी । दलित परिवारों की बस्तियों में छोटी छोटी मढ़ी बना ली जाती थी या अक्सर त्यौहारों पर अस्थाई मढ़ी बनाने के उदाहरण रहे हैं ।
स्थितियों का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मन्दिर, डेरों में चढ़ावा इतना कम था कि वहां रहने वाले बाबा, पुजारियों को भिक्षा लेने के लिए घर-घर जाना पड़ता था । परिवार अपनी क्षमताओं अनुसार दान दक्षिणा देते थे । बाबाओं, पुजारियों की स्थितियों और निर्भरता को बेहतर बनाने के लिए गांव वालों ने डेरे मंदिरों को जमीनें दान में दी जिनपर लगभग सभी जातियों के लोग कार सेवा करके धार्मिक काम का हिस्सा पूरा करते थे । मन्दिर, डेरों में रोज जाने वाले व्यक्तियों को बहुत बेहतर नहीं माना जाता था । काम करके खाने को ही सबसे बड़े धर्म के रूप में माना जाता था ।
जातियों में बंटे समाज में अपनी गंदगियो के बावजूद धार्मिक आडम्बरों के लिए बहुत ज्यादा स्वीकार्यता नहीं थी । भगवान के साथ ग्रामीण जीवन में रोज की जद्दोजहद थी जिसमें कभी राम से आस थी तो कभी राम को उलाहना था । राम यहां राजा का बेटा नहीं था । मेरा परिवार ब्राह्मण है लेकिन बावजूद इसके हमारे परिवार में भी त्यौहारों के मौके के अलावा पूजा का कॉन्सेप्ट नहीं था। एकाध परिवार को छोड़कर मुख्यत: खेती करने वाले परिवार ही रहे ।
मुस्लिम परिवारों में भी पांच वक्ती नमाज यहां के समाज का हिस्सा कभी नहीं रही । सामूहिक धार्मिक आयोजन संकट की स्थिति में ज्यादा किए जाते थे ।
इस क्षेत्र में अधिकतर गांवों में पहली बार मंदिरों का निर्माण 25-30 साल पहले हुआ है ।
मेरा गांव पुराना व्यापारिक केंद्र रहा है इसलिए यहां पुराने मन्दिर हैं अन्यथा कुरुक्षेत्र भूमि का हिस्सा होने के बावजूद मंदिरों के प्रति समाज लंबे समय तक सुस्त ही रहा है । डेरों की स्थापना को अगर और गहराई से देखा जाए तो ये भी बड़े गांव या व्यापारिक केंद्रों के नजदीक ज्यादा मिलते हैं ।
धार्मिक यात्राओं का जिक्र जरूर मिलता है लेकिन वे भी बड़े बड़े परिवारों में इक्का दुक्का उदाहरण ही मिलते हैं ।
– मानव प्रदीप