मेवात की पूर्वी और ब्रज की पश्चिमी सीमाएं आपस में सटी हुई हैं। इसलिए मेवात और ब्रज की आबादी भी एक सीमा में मिली जुली है।मेवाती बोली के तीन अंचलों में पूर्वी मेवाती भयाना मेवाती कहलाती है ऐसा अनुमान है कि यह बयाना की तरफ़ होने के कारण भयाना कहलाई हो, बयाना इस अंचल का प्राचीनतम स्थान है, भरतपुर से बहुत पहले का, भरतपुर से पुराना तो धौलपुर है। भरतपुर की बसावट अठारहवीं शताब्दी की है, जहां महाराजा सूरजमल का बनाया हुआ क़िला अठारहवीं सदी में निर्मित हुआ है। बहरहाल पूर्वी मेवाती ब्रज से सटी हुई है जिसका एक सिरा कभी ब्रज में ही रहा होगा इसीलिए मेवात के कुछ गांवों से होकर आज भी ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा लगाने की परंपरा बनी हुई है।हर तीन साल बाद जब भी अधिक मास यानी लौंद के महीने में ब्रज का आम जन ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा लगाता है। तब वह मेवात में पड़ने वाले बीसियों गांवों के मार्गों से होकर गुजरता है।विशेष अवसरों पर कामां के अष्टछाप वल्लभ सम्प्रदाय के गुसाईं ब्रज चौरासी कोस की यात्रा का आयोजन कराते रहे हैं।जो पूरे ठाठ बाट और साजो-सामान के साथ निकलती है जिसमें गुजरात तक के कृष्ण भक्त भागीदारी करते हैं।इन यात्राओं में ब्रज की लोक-संस्कृति और लोकसंगीत के विशेष आयोजन होते हैं। पूरा लश्कर लवाजमा इन यात्राओं में साथ चलता है। लेकिन आज तक मेवातियों ने इसमें कभी कोई अवरोध पैदा नहीं किया।इसको भी उन्होंने अपने जीवन और लोक-संस्कृति का हिस्सा बना लिया। आज जो नूह जैसा उपद्रव यहां नज़र आता है वह लोकतंत्र प्रणाली में वोट के कारण पैदा किया गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि यह कोई अपराध मुक्त इलाका रहा है। व्यक्तिगत अपराधी सभी जगहों पर होते हैं और वहां कुछ अधिक होते हैं जहां के समुदाय पिछड़े, अभावग्रस्त,और मंहगाई, बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार की मार से हमेशा त्रस्त रहते हैं। जिनके पास न शिक्षा होती हैं न ही रोजगार के उत्कृष्ट साधन। ऐसे समुदायों के प्रति जरायमपेशा होने का पर्सेप्शन अंग्रेजी ज़माने से ही बना हुआ है।क्या कारण है कि पूरा मेवात और उसमें भी नूह जिला भारत के सबसे पिछड़े हुए जिलों में आता है। यहां आज भी पशुपालन और खेती किसानी ही सबसे बड़े रोजगार के साधन है। जबकि विडंबना यह है कि यह इलाका दिल्ली की दक्षिणी सीमा से लगा हुआ है।इसकी एक वजह मेवातियों का लड़ाकू स्वभाव होना भी रहा है। यद्यपि ये मेव समुदाय के लोग सूफ़ियों के प्रभाव से इस्लाम मतावलंबी हो गये फिर भी ख़िलज़ी,मुगल और पठान शासकों से लगातार लड़ने का इनका इतिहास रहा है।एक मेवाती दोहे में कहा गया है
दिल्ली पै धावौ कियौ,अपणा पण कै पाण।
डरपा मेवन सू सदा,खिलजी मुगल पठान।
यद्यपि अपने आदि रूप में मेवाती बोली राजस्थानी की कई बोलियों में से एक मानी जाती है। इसीलिए इनके मीरासियों और भाट जग्गाओं ने इनको इनके लड़ाकू स्वभाव के कारण राजपूत वंशजों के नजदीक रखा है। इनकी बारह पाल और एक पलाकड़े का नामकरण राजपूत वंशों के आधार पर किया गया है। गोत्र 52 हैं जो राजपूत गोत्रों से नहीं मिलते। मेवाती बोली से भी पता चलता है कि इसका ध्वनि विन्यास राजस्थानी जैसा होना है जिसमें मूर्द्धन्य ध्वनियों का विशेष बलाघात मिलता है। इसका ल भी राजस्थानी ल़ के समानांतर है यद्यपि मेवाती की कुछ अपनी ऐसी विशिष्टताएं भी हैं जो न राजस्थानी में हैं न ब्रज में। जैसे कर्म कारक का लू प्रत्यय। इधर को के लिए इतलू,उधर को के लिए उतलू।इसी तरह यहां के लिए हीण और वहां के लिए हूण सर्वनाम का प्रयोग। मेवाती का बोलने का लहजा भी मेवों और हिंदुओं की मेवाती का अलग अलग है।इस वजह से मेरे गांव जुरहरा को हिंदू जहां जुरहरा बोलते हैं वहीं मेव जुरहड़ा बोलते हैं।लेकिन रूप विन्यास में यह ब्रज के समीप इसकी ओकारांत क्रियाएं और बहुवचन ब्रज के अनुसार ही हैं। बहरहाल।
कल सोशल मीडिया से मालूम हुआ कि हमारे गांव जुरहरा से सटे हरियाणा के परिक्रमा मार्ग में पड़ने वाले मेवाती गांव बिछोर में एक मेव युवक शौकतखां परिक्रमार्थियों के लिए एक ढाबा चला रहा है जिसमें मात्र बीस रुपए में एक यात्री को भोजन कराता है जहां हजारों की संख्या में यात्री बिना संकोच भोजन कर रहे हैं। यहीं से ज्ञात हुआ कि इस साल विशेष ब्रज चौरासी कोस की यात्रा होने के कारण बिछोर वासियों ने 29 जुलाई को मुहर्रम के दिन ताजिया निकालना भी स्थगित कर दिया, जिससे यात्रियों को कोई परेशानी न हो।तो यह भी है मेवात की एक तस्वीर।