वैदिक समुदाय जहां कहीं भी अपनी यात्राओं का जिक्र करता है, यह कतई नहीं बताता कि आव्रजन करने वाले उन लोगों के साथ कोई स्त्री भी है। गोकि यह भी सही है कि उनमें कुछ स्त्रियां थीं और काफी सुधी स्त्रियां थीं। विविध ऋचाओं के लगभग 300 ऋषि हैं, पर इनमें गिनी हुई ही महिलाएं हैं-जुह शची, घोषा, लोमशा, लोपामुद्रा और विश्वावारा। इन सुधी स्त्रियों के होते हुए भी स्त्री के बारे में विचार बहुत खराब हैं। वेदों में स्त्री को बराबरी का दर्जा तो है ही नहीं उसकी निन्दा भी कठोर शब्दों में है। मंडल 10 के सूक्त 95 के मंत्र 15 में स्त्री भेड़िये जैसी बताई गई है और दिलचस्प है कि यह बात एक स्त्री उर्वशी से ही कहलाई गई है- न स्त्रीणानि सख्यानि सस्ति सालावृकाणां हृदयान्येता यानी स्त्री और भेड़िए के हृदय भी समान हैं और उनका साथ भी। बावजूद इसके कि कुछ स्त्रियां ऋचाओं की लेखिका थीं, आम स्त्री का दर्जा दासी जैसा ही था। मंडल 9, सूक्त 112, मंत्र 3 में आया है — मैं स्तोता हूं, पुत्र वैद्य, कन्या सोम पीसती है— कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना
अध्येताओं ने इसे इस नजरिए से अक्सर उद्धृत किया है कि वैदिक समाज में जातिवाद नहीं था। एक ही परिवार के लोग अलग-अलग धन्धे करते थे। मूल मंत्र का यह शुद्ध कुपाठ है। स्तुति वैदिक समुदाय का धन्धा नहीं थी। वह देवोपासना तथा एक धार्मिक क्रिया मात्र थी। धन्धा तो वैद्य करता था। स्त्री सोम कूटती है। यह सेवा का काम है धन्धा नहीं। यहां विचारणीय यह है कि स्त्री न तो स्तुति करने वाली दिखाई गई और न ही वैद्यक करती हुई, काम वह कूटने पीसने का ही करती है।
इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह बात है कि ऊपर हमने कारुरहं इत्यादि का जो अर्थ दिया वह सायण के भाष्य से है। आर्यसमाजियों का भाष्य यों है— मैं बढ़ई हूं, मेरा पिता वैद्य है और मां चक्की पीसती है। यह सच है कि मां को सिर्फ चक्की पीसने वाली बताया गया है, पर सायण उनमें सोम जोड़ देते हैं। सायण में चक्की बेटी पीसती है अन्य जगह मां। इसी तरह सायण में वैद्य बेटा है और अन्य भाष्यकारों में पिता । यह उदाहरण है वेदार्थों में मनमानी का।
पहले ही मण्डल का पूरा 28वां सूक्त घरों में स्त्री की स्थिति का परिचायक है। इसमें इन्द्र उस घर में बुलाया जाता है जिसमें स्त्री मूसल चलाती है, सिलबट्टे से पीसती है, ओखली में कूटती है, मथानी से पेय मचती है। स्त्रियों की वैदिक समाज में दासीत् दयनीय स्थिति का यह एक शर्मनाक उदाहरण है। पहले मण्डल के सूक्त 122 का मंत्र 2 कहता है— पत्नीव पूर्व हृर्ति वावृधध्या उषासानक्ता पुरुधा विदाने स्तरोनति व्यु बसाना सूर्यस्य क्रिया सुदृशी हिरण्यै पति के पुकारने पर जैसे पत्नी शीघ्र उपस्थित होजाती है उसी तरह अहोरात्र देवता मेरे पुकारने पर आएं। यहां स्त्री की आज्ञाकारिता किसी दासी से कम नहीं है।
इन्द्र जहां बहादुरी दिखाता है वहां वह निःशस्त्र स्त्री को भी मार ही डालता है- (मंडल 1 सूक्त 32 मंत्र 9) नीचावया अभद्ध वृत्र पुत्र इन्द्रो अस्य अव वधर्जभार उत्तरा सूरधरा पुत्र आसीद्धानुः शये सहवत्सा न धेनुः अर्थात् वृत्र की मां उसकी रक्षा के लिए पुत्र के शरीर पर झुककर छा गई, पर इन्द्र के प्रहार करने पर इस तरह मरी जैसे बछड़े के साथ गाय मर जाती है। मंडल 4, सूक्त 18 का मंत्र 8 है— ममच्चन त्वा युवतिः परास ममच्चन त्या कुषवा जगार ममच्चिदापः शिशवे ममृड्युर्भमच्चिदिन्द्रः सहसोदतिष्ठत् अर्थात् ममतामयी माँ से उत्पन्न हुए से इन्द्र तुमने कुषवा नाम की शत्रु स्त्री को मारा। प्रसूतिका गृह में तुमने उसका वध किया। प्रसूतिका गृह में स्त्री इन्द्र के लिए बरछी लेकर नहीं बैठी होगी। नवजात शिशु के साथ असहाय और शस्त्रहीन स्त्री को वैदिक समाज के नेता मार डालते हैं। स्त्री के प्रति यह आचरण बर्बरतापूर्ण है।
स्त्री के प्रति वैदिक समाज की नफरत का आश्चर्यजनक नमूना अथर्ववेद है। अथर्ववेद के अध्याय 3 के सूक्त 25, मंत्र 5 और 6 देखें- कुशा से पीटता हुआ, हे स्त्री ! मैं तुम्हें माता-पिता के घर से लाता हूं ताकि तू मेरी आज्ञा माने हे मित्रावरुण इस स्त्री के हृदय को ज्ञानशून्य कर दो ताकि इसे कर्माकर्म का ज्ञान न रहे और यह मेरे अधीन रहे व्यस्यै मित्रावरुणी हृदयश्चित्तान्यस्यतम् अथैनामक्रतुं कृत्वा ममैव कृणतुं वशे ।
यह हतप्रभ करने वाली देव स्तुति है, जिसमें स्त्री को पीटते हुए घर लाया जाता है और कामना की जाती है कि वह लाई गई स्त्री ज्ञानशून्य हो जाय, करनी-अकरनी की समझ समाप्त हो जाय यानी वह स्त्री यौन सुख, पुत्रोत्पादन और दासकर्म के लिए संज्ञाशून्य मशीन में तब्दील हो जाय और पूरी तरह पति की अधीनता स्वीकार कर ले।
अध्याय 6. सूत 102 के मंत्र 1 और 2 को देखें- यथायं वाहो अश्विना समेति संच वर्तते एवा ममाभि ते मनः समैतु संज वर्तन्ताम् । आहं खिदामि ते मनो राजस्वः पृष्ठयामिव मच्छिन्नं यथा तृणं मयि ते वष्ठतां मनः। यानी हे देवता शिक्षित घोड़े का मालिक खूंटे से रस्सी खोलकर घोड़ी को अपनी तरफ खींचता है, उसी प्रकार स्त्री मेरी ओर खिंची रहे।
इससे पहले सूक्त का अन्त इस वाक्य से होता है कि तुम बैल की तरह अपनी पत्नी के पास जाओ। अथर्ववेद के इसी अध्याय 6 के सूक्त 77 में और ज्यादा विचारणीय स्थिति का वर्णन है। इसमें स्त्री को घर में बांधकर रखने की इच्छा जताई गई है ठीक उस तरह जैसे घोड़े को सवार रस्सी से बांधता है। इसी सूक्त के अंत में प्रार्थना की गई है- हे अग्नि भाग जाने वाले स्वभाव की इस स्त्री को सुधारो उसे वापस लाने में मुझे सफलता मिले।
स्त्री को बांधकर रखने और घर से चली जाने वाली स्त्री का क्या रहस्य है ? यह क्या स्थिति है वैदिक समाज में स्त्री की ?
इस गुत्थी को खोलने के लिए हमें फिर ऋग्वेद पर नजर डालनी होगी। वेद में जगह-जगह इन्द्र आदि देवताओं से प्रार्थना की गई है कि वह प्रार्थी को स्त्री दिलाए। इस बात के लिए देवता की प्रशंसा भी की गई है कि उस देवता ने अमुक-अमुक को स्त्रियां प्रदान की। मं.1, सू. 51 के मंत्र 13 में अददा अभ महते वचस्य च सुवन्ते यानी कक्षीवान को इन्द्र ने स्त्री प्रदान की। यह स्त्री कक्षीवान को इसलिए दी कि वह इन्द्र की स्तुति करता था।
इन्द्र की स्तुति वैदिक समाज के अनेक लोग स्त्री पाने के लिए ही करते हैं। तवं र पिठीनसे मंत्र (म. 6, सू. 26) में है— हे इन्द्र ! पिठीनस को रजि नाम की स्त्री तुमने दी। मं. 10 के सू. 65 के मुन्युमंहसः मंत्र में अश्विनी द्वय ने विमद को सुन्दर स्त्री दी, यह प्रशंसा है। मं. 1, सू. 69 के अयं सोमः मंत्र में सोम से प्रार्थना की गई है, हमें रमणीय स्त्री दिलाओ।
निश्चय ही ये वे स्त्रियाँ होती थीं जिन्हें इन्द्र लूट कर बंदी बनाकर लाते थे। मं. 5 के सूक्त 31 के मंत्र तदिन्नु ते करणं में बताया गया है कि शुष्ण नाम की स्त्री को इन्द्र ने बंदी बनाया।
वैदिक समुदाय के नेताओं पर अक्सर भारत के मूलवासियों की स्त्रियों की सेना भी आक्रमण करती थी। ऋग्वेद के मं. 5. सू. 30 के मंत्र 9 मे लिखा गया है स्त्रियो हि दास आयुधानि चक्रे कि मा करन्नवला अस्य सेना इन्द्र ने सोचा दासों ने (संभवत आर्य समुदाय के शिल्पी लोग) स्त्रियों की सेना भेजी, वह मेरा क्या बिगाड़ेगी ? जाहिर है जहां ब्राह्मणों ने स्त्रियों की सेना का सामना किया होगा वहां उन्हें हराने के बाद बंदी भी बनाया होगा। वे स्त्रियां ही इन्द्र से वैदिक समुदाय के लोगों को मिलती होंगी। वे आपस में बांटी जाती होंगी।
निश्चय ही बाहर से जो वैदिक समुदाय बहुत-से संकटों से जूझता हुआ भारत आया होगा, उसके साथ स्त्रियां कम ही रही होंगी और तब वे हमला करके धन और उसके साथ स्त्रियां भी लूट लाते होंगे जो दुनिया के बहुत-से विजेता करते थे। चूंकि वे लूटी हुई स्त्रियां होती थीं और उन लोगों की होती थीं जिन्हें वैदिक समुदाय दास कहता था या बना लेता था, इसलिए लूटी हुई स्त्रियां जब वैदिक समुदाय के लोगों ने अपने पास रखीं तो उन्हें भी दासी का ही दर्जा दिया गया। उनके लिए कठोर विधान किए गए, अक्सर उन्हें रस्सियों से बांधकर भी रखा गया, उन्हें सम्पत्ति से या अन्य अधिकारों से वंचित रखा गया। यह इन्तजाम किए गए कि वे भाग न जाएं। जिन्हें लूटकर बलात् वैदिक समाज के घरों में डाल लिया गया था, निश्चय ही वे कभी न कभी मुक्त होने की कोशिश करती होंगी। जिन्हें वे स्त्रियां मिलती थीं, अक्सर उनमें कुछ कुरूप, दुराचारी, बदमिजाज या बूढ़े भी होते होंगे। लूटी गई स्त्री का उसके पास रहना भी नरक होता होगा। पहले मंडलके अनु 117, सूक्त 116 का एक मंत्र है जुजुरुषो नासत्योत इत्यादि इस मंत्र में वृद्ध च्यवन को युवती कन्याएं दी गई जिसका जिक्र है।
संस्कृत में विवाह के लिए शब्द परिणय या परिणयन है। परिणयन का अर्थ है, ले जाना, ले जाई गई, लूटकर या उठाकर ले जाई कन्याएं विजेता वैदिक समुदाय के लोगों को मिलती थी, इसलिए इस समुदाय के धर्मग्रंथों में स्त्री की स्थिति बेहद अपमानजनक रही है। उसे यज्ञ ही नहीं, शिक्षा के अधिकार भी नहीं दिए गए।
महाभारत के आदिपर्व (122-47) में पाण्डु अपनी पत्नी से कहते हैं, प्राचीन काल में स्त्रियां संयम से बाहर थीं, जिस प्रकार चाहती थीं मिथुन जीवन बिताती थीं। एक पुरुष को छोड़कर दूसरे का ग्रहण करती थीं। जाहिर है समाज द्वारा लूटकर ले जाई गई स्त्रियों से यौन शुचिता की उम्मीद भी नहीं की जा सकती होगी।
यहाँ एक बात कहना जरूरी है। वैदिक समुदाय में लूटी गई कन्याएं आपस में बांटी गई घरों में दी गई, कन्या को दान में मिली चीज इसलिए कहा जाता होगा, पर वह समाज शत-प्रतिशत ऐसी कन्याओं पर निर्भर रहता होगा, यह नहीं कहा जा सकता। वैदिक समुदाय के साथ कुछ स्त्रियां आई और उनसे भी परिवार चले, पर चूंकि समाज में लूटकर लाई जाने के बाद अपनों में दान कर दी गई स्त्रियां बड़ी तादाद में रही हैं, इसलिए स्त्री को लेकर धर्मसूत्रों का नजरिया अनुदार था।