राहुल सांकृत्यायन अपने सही अर्थो में भारतीय ज्ञान – शास्त्र के अन्वेषक माने जाने चाहिएं। 1936 की तिब्बत यात्रा के दौरान उन्होंने न्याय दर्शन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति ‘प्रमाण वार्तिक’ की मूल प्रति की खोज की थी। राहुल द्वारा आचार्य धर्मकीर्ति के इस एकमात्र ग्रन्थ के पुनरुत्थान की घटना को रूस के विश्वविख्यात बौद्ध न्याय शास्त्री प्रो. स्तचेर्वात्स्की ने इतना महत्वपूर्ण माना था कि काशी प्रसाद जायसवाल को एक पत्र में उन्होंने लिखा कि इस खोज के महत्व की चर्चा करने और इस घटना को रेखांकित करने की दृष्टि से एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन की जरूरत है। 1923, 1934, 1936, और 1938 में राहुल चार बार तिब्बत गये थे। वहां से वे 21 खच्चरों पर ग्रन्थ लादकर लाये। तीसरी बार की यात्रा में उन्होंने शाक्य, नागौर और शालू के मठों से 15 ग्रंथों का उद्धार किया। ये पुस्तकें ताड़ के पत्र पर लिखी हुई थीं और उनका रचनाकाल 10 से 12 वीं शताब्दी के बीच है। उन्होंने इन्हें अपने हाथों से नकल किया, कुछ का फोटो लिया और संभव हुआ तो उन्हें मूल रूप में साथ ले आये ।
जायसवाल ने 1937 में उनके बारे में लिखा था कि राहुलजी द्वारा पुनरुद्धार की गई तथा अपने देश में वापस लाई गई महाभारत से भी बड़ी इन 50 अमूल्य पुस्तकों में से एक की ही खोज करने पर कोई विद्वान भी अमर हो जाता।
तिब्बत के पंडितों ने मुख्यतः बू तोन रिनचेन डूब की प्रेरणा से इन विशाल ग्रंथों को दो भागों में विभाजित किया। पहला कंजूर अथवा बुद्ध वचन जिनकी कुल संख्या 1100 है। दूसरा तंजूर अथवा भारतीय मूल के बौद्ध शस्त्र समूह, जिनकी कुल ग्रंथ संख्या 3459 है। तंजूर में दंडी के काव्यादर्श तथा कालिशादास का भी अनुवाद मिलता है।
जैसा कि राहुल ने बताया था कि तिब्बती ग्रंथों के अध्ययन का सांस्कृतिक मूल्य बहुत अधिक है क्योंकि जिन हजारों भारतीय ग्रन्थों की मूल प्रतियां नष्ट हो चुकी हैं वे तिब्बती भाषा में आज भी सुरक्षित हैं। राहुल का मानना था कि तिब्बत यात्रा का उनका मूल उद्देश्य दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, असंग, वसुबन्धु आदि के प्राचीन संस्कृत ग्रंथों को उपलब्ध करना था, जो अब तक अपने संस्कृत मूल रूप में उपलब्ध नहीं थे ।
इसके अतिरिक्त सरहपा का दोहाकोष उनकी अनुपम खोज है।
राहुल की तरह सरहपा का भी औघड़ विद्रोही व्यक्तित्व था । राहुल ने स्वयं कहा, सरहपा विद्रोही थे, राजनैतिक विद्रोही नहीं, विचारों की दुनिया के विद्रोही और कितने ही रूपों में सामाजिक विद्रोही भी । उन्होंने अपने दोहाकोष चर्यागीत के पहले बारह दोहों में अपने समय के धार्मिक सम्प्रदायों और उनके विचारों का खण्डन किया है।
राहुल द्वारा लाये गये विपुल संग्रह की आलोचना में काशीप्रसाद जायसवाल ने इन ग्रंथों का उल्लेख किया है। उनके श्लोकों की कुल संख्या नवासी हजार तीन सौ सैंतीस है । ‘रायल अक्टाभो’ आकार के 6400 पृष्ठ हैं। प्रायः दो सौ चित्रपटों के साथ इस विशाल संग्रह को दुर्गम पर्वतों को लांघकर राहुल किस तरह भारत लाए होंगे, यह आज भी रहस्य का विषय बना हुआ है ।
राहुलजी की स्वरचित साहित्यिक कृतियों के विपुलभंडार को जानकर आश्चर्य होता है। वे 40 प्राचीन और आधुनिक भाषाएं जानते थे। उनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 150 है जिनमें, दर्शन, धर्म, इतिहास, राजनीति पर उनके अनेक सैद्धांतिक ग्रंथ हैं। 1941 में प्रकाशित ‘मानव समाज’ में उन्होंने ब्रह्माण्ड या विश्व कैसे निर्मित हुआ, उसमें नक्षत्र, ग्रहगोल आदि के साथ हमारी पृथ्वी पर उद्भिद से जीवोत्पत्ति, विकास आदि पर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की दृष्टि से राहुलजी ने जानकारी दी है। प्रागैतिहास सभ्यता से लेकर आज तक के मानव समाज के विकास पर अनेक पुस्तकों की रचना का श्रेय उन्हें है । 1942 में प्रकाशित ‘मानव समाज’ इस विषय पर उनकी बहुचर्चित पुस्तक है। ‘दर्शन दिग्दर्शन’ उनका विशाल दार्शनिक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में बर्गसां, बरटैंड रस्सल, विलियम जेम्स विटिगन्स्टाइन, डार्विन, नीत्शे, मार्क्स पर गंभीर चर्चा के साथ-साथ उन्होंने इस्लाम के बड़े दार्शनिक इब्ने सिना, इब्नेरोशन, अलगज्जाली आदि पर विस्तार से लिखा । 850 पृष्ठों की यह पुस्तक 1940-41 में जेल में देवली के तप्त रेगिस्तान के डीटेन्शन कैम्प में लिखी गयी थी । वोल्गा से गंगा, मेरी जीवन यात्रा और दर्शनदिग्दर्शन ये तीन पुस्तकें उनकी अविस्मरणीय हैं
श्रीलंका के प्रवास में छः घंटे प्रतिदिन संस्कृत अध्यापन करने के साथ, उन्होंने पालि में उपलब्ध त्रिपिटक और उसकी अट्ठकथाओं को मूल रूप में पढ़ा। तीन महाभारत के बराबर इस ग्रन्थ का पारायण उन्होंने 9 महीने में न सिर्फ समाप्त कर दिया बल्कि उन्होंने विभिन्न कापियों में भरपूर टिप्पणियां लिखीं जिन्हें जोड़कर उनकी पुस्तक बुद्धचर्या तैयार हुई । गौतम बुद्ध के जीवन चरित्र और प्रवचनों पर ऐसा दूसरा ग्रन्थ किसी भाषा में नहीं है । बाद में उन्होने तीन निकायों का हिन्दी अनुवाद किया और बड़ी उपयोगी भूमिका लिखी। प्रभाकर माचवे के अनुमान के अनुसार 50000 पृष्ठों का उनका प्रकाशित साहित्य है जबकि 12 पाण्डुलिपियां अभी भी अप्रकाशित हैं ।
उनकी वैचारिक यात्रा वैष्णवपंथ, आर्यसमाज, बुद्ध दर्शन के रास्ते से एक कम्युनिस्ट के रूप में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद तक अपना सफर तय करती है। कम्युनिस्ट हो जाने के बाद भी वे महात्मा बुद्ध के शिष्य बने रहे। उन्होंने एक स्थल पर बताया है कि बुद्ध कालवादी थे। देश-काल व्यक्ति देखकर वह अपनी सम्मति देते थे। वह हवा में तलवार चलाना पसन्द नहीं करते थे । वही बातें उनके इस छोटे से शिष्य राहुल की भी हैं – शिष्यता का अधिकार मैंने छोड़ा नहीं है बल्कि ‘मेरे उपदेशिक धर्म को बेड़े की तरह जानें, वह पार उतारने के लिए है ढोकर ले चलने के लिए नहीं । उनके इस उपदेश का पालन करते हुए ही मैं क्षणिक द्वन्द्वात्मक अन्- आत्मवाद से द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर पहुँचा (वैज्ञानिक भौतिकवाद पृ. 44 ) ।
‘सिंह सेनापति’ के अंत में जो बुद्ध की ओर से कहा गया है वह राहुलजी की अपनी दृष्टि है : ‘जीवन से मैं इंकार नहीं करता सेनापति ! किन्तु जीवन नदी का प्रवाह है जो हर क्षण नया होता है। यदि नया होने की गुंजाइशें न होतीं तो हमारे सारे सुकर्म हमारे सारे विचार हमारे सारे सुवचन निष्फल होते, क्योंकि नित्य ध्रुव जीवन पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं होता। मैं जीवन को सदा नया बनाना चाहता हूं।’
राहुल का मानना था कि जिस प्रकार यूरोप में मार्क्स के सिद्धांत की नींव हीगल के दर्शन से उठी है, उसी प्रकार भारत में मार्क्सवाद को बौद्ध दर्शन से प्रेरणा लेनी होगी ।
बौद्धमत के द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण का अपना एक दिलचस्प इतिहास है । कदाचित इसकी सर्वाधिक साहसपूर्ण और साथ ही सरल अभिव्यक्ति बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में है। लेकिन बुद्ध के निर्वाण के बाद जब बौद्ध मत कई पंथों में विभक्त हो गया और प्रत्येक पंथ अपनी अलग दार्शनिक पहचान स्थापित करने लगे, तब कुछ पंथ गुप्त रूप से इस विचारधारा का प्रतिरोध करने लगे और नागार्जुन ने तो माध्यमिक दर्शन अथवा शून्यवाद के झण्डे के नीचे इसे पूर्ण रूप से ठुकराते हुए सभी प्रकार की विविधाताओं और परिवर्तनों के परे वर्णनानीत परम तत्व को निर्देशित करने वाले उपनिषद् दर्शन के मूलभूत तत्वों को पुनरुज्जीवित कर दिया। इस बीच यह विचारधारा सौत्रांतिकों के कारण टिकी रही जो बौद्धमत की अपेक्षतया एक पुरानी शाखा के अनुयायी थे। लेकिन सौत्रांतिकों की वास्तविक रचनायें सदा के लिए लुप्त हो गयी हैं।
दुःख और दुःख से छुटकारा पाने का रास्ता ये ऐसे दो तत्व हैं, जिनमें प्रारंभिक बौद्ध मत का सार निहित है। तीसरी महत्वपूर्ण बात है, दुःख की आधारभूत वास्तविकता को समझने के सम्बन्ध में – सार्वभौम कारणकार्य अर्थात् प्रतीत्य-समुत्पाद । प्रतीत्यसमुत्पाद को – आश्रित उत्पत्ति – किसी वस्तु के उपस्थित होने पर किसी वस्तु की उत्पत्ति – का सिद्धांत कहते हैं । बुद्ध कहते हैं – हमें आदि और अन्त से सम्बन्धित प्रश्नों को छोड़ देना चाहिये। मैं तुम्हें धर्म की शिक्षा दूंगा उसके ऐसा होने पर, इसकी उत्पत्ति होती है। उसकी उत्पत्ति होने से ऐसा होता है। उसके अनुपस्थित होने पर, ऐसा नहीं होता । उसका अवसान होने से ऐसा होता है, उसके अनुपस्थित होने पर ऐसा नहीं होता । उसका अवसान होने पर इसका अवसान हो जाता है (रिस-डेविड्स, टी. डब्ल्यू. आर. खंड 3 पृष्ठ 44 ) । स्पष्टतया यह निरपेक्षतावाद, निषेधवाद, दैवयोगवाद, अनियमित कारण कार्य सम्बन्ध और अनिश्चयवाद से सम्बन्धित सभी अवधारणाओं का परित्याग करता है।
बुद्ध के एक अन्य संवाद में द्वन्द्ववाद का अधिक सटीक रूप देखने को मिलता है । बुद्ध ‘ओ कच्चान, यह संसार साधारणतया एक द्वैत – अर्थात् ‘यह है’ और ‘यह नहीं है’ के आधार पर चलता है। लेकिन ओ कच्चान ! जो कोई सत्य और विवेक के माध्यम से देखता है और संसार में वस्तुओं का उद्भव किस प्रकार होता है उसकी दृष्टि में यह भाव उत्पन्न नहीं होता कि इस संसार में ‘यह नहीं है’ ओ कच्चान, जो कोई सत्य और विवेक के माध्यम से देखता है कि इस संसार में वस्तुओं का नाश कैसे होता है उसकी दृष्टि में इस संसार में ‘यह है’ का भाव उत्पन्न नहीं होता । … ओ कच्चान ‘यह सब कुछ है’ पर यह एक छोर की अतिवादी उक्ति है, कुछ भी नहीं (है, ‘यह दूसरे छोर की अतिवादी उक्ति है। ओ कच्चान शुद्ध रूप दोनों छोरों से अलग रहता है और सत्य मध्यमार्ग का अनुसरण करता है ( ओल्डन बर्ग, एच : बुद्ध, हिज़ टीचिंगज़, हिज़ आर्डर, पृ0 249 ) ।
राहुल का मानना है कि प्रतीत्य समुत्पाद बुद्ध के सारे दर्शनों का सार है, उनके दर्शन के समझने की यह कुंजी है। जैसा कि बुद्ध ने स्वयं कहा था, ‘जो प्रतीत्य समुत्पाद को देखता है, वह धर्म को देखता है, जो धर्म को देखता है, वह प्रतीत्य समुत्पाद को देखता है’ ( मज्झिम निकाय 1.3.8) । ओल्डनबर्ग की टिप्पणी है कि कारण कार्य सम्बन्ध के प्राकृतिक नियम के अनुसार निरंतर दोलन की स्थिति में ही उत्पन्न होने के बीच ही इस विश्व की अन्तर्वस्तुओं की सच्चाई निहित है ( 248-49)।
लक्ष्य किया जा सकता है कि प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप में कारण कार्य की श्रृंखला के तहत आत्मा सम्बन्धी प्रचलित सभी धारणाओं को अस्वीकृत कर दिया गया। उस समय यह मत प्रचलित था कि आत्मा एक विशिष्ट आध्यात्मिक तत्व है जो शरीर के भीतर स्थित है और केवल उसमें ही सोचने अनुभव करने तथा संकल्प करने की दक्षता होती है । उपनिषदों के याज्ञवल्क्य परम्परा के चिंतकों का मानना था कि शरीरस्थ आध्यात्मिक तत्व को विश्व के आध्यात्मिक तत्व – विश्वात्मा से अभिन्न समझना चाहिये । इस विश्वात्मा को आस्तिकवादी दृष्टिकोण से बहुधा ईश्वर माना जाता था, जो विश्व का सृजन और उसका विनाश करता है। लेकिन दूसरे छोर पर रहने वाले विचारवादी (ideelist) किसी व्यक्ति की आत्मा को इससे इतना अभिन्न मानते थे कि विश्व का अपना कोई मर्यादित अस्तित्व रह ही नहीं जाता था। लेकिन आत्मा सम्बन्धी इन सभी धारणाओं में एक बात समान रूप से पाई जाती थी, आत्मा एक स्थायी तत्व है और वह जन्म, ह्रास और मृत्यु की प्रक्रियाओं से परे है। बुद्ध के सार्वभौम सतत परविर्तन के सिद्धांत ने एक झटके में उस समय के आत्मा सम्बन्धी प्रचलित सभी विचारों को मानो ध्वस्त कर दिया।
राहुल ने उल्लेख किया है कि उपनिषद् के इतने परिश्रम से स्थापित किए आत्मा के महान् सिद्धांत को प्रतीत्यसमुत्पादवादी बुद्ध कितनी तुच्छ दृष्टि से देखते थे… जो यह मेरा आत्मा अनुभवकर्ता, अनुभव का विषय है, और जहां-तहां (अपने भले-बुरे कर्मों के विषय को अनुभव करता है; वह मेरा आत्मा नित्य = ध्रुव = शाश्वत = अपरिवर्तनशील है, अनन्त वर्षों तक वैसा ही रहेगा’ – यह भिक्षुओ ! केवल भरपूर बाल धर्म (मूर्ख विश्वास ) है ( मज्झिम निकाय -1-1-2 ) ।’
राहुल ने बताया है कि बुद्ध ने प्रतीत्यसमुत्पाद के जिस महान् और व्यापक सिद्धांत का आविष्कार किया था, उसे व्यक्त करने के लिए उस वक्त अभी भाषा भी तैयार नहीं हुई थी, इसलिए अपने विचारों को प्रकट करने के लिए जहां उन्हें प्रतीत्य-समुत्पाद, सत्काय, जैसे कितने ही शब्द नये गढ़ने पड़े, वहां कितने ही पुराने शब्दों को उन्होंने अपने नये अर्थ में प्रयोग किया। जब बुद्ध ‘सारे धर्म अनात्मा हैं’ कहते हैं तो वहां धर्म को उन्होंने अपने खास अर्थों में प्रयुक्त किया है। राहुल कहते हैं कि यह शब्द आज के साईंस की भाषा में वस्तु की जगह प्रयुक्त होने वाले ‘घटना’ शब्द का पर्याय है ( दर्शन – दिग्दर्शन पृ. 520 ) । ‘सत्काय’ को ही आत्मा मान लेने की भूल के प्रति सावधान करने के लिये बुद्ध ने अपने इस नये पारिभाषिक को अधिक स्पष्ट किया है। जैसा कि रिस डेविड्स का कथन है कि सत्काय अथवा व्यक्तित्व का प्रयोग इस जगत में केवल सुविधा के लिए किया जाता है और इसीलिए तथागत भी इसका प्रयोग करते हैं। लेकिन इसका प्रयोग वह इस रूप में करते हैं जिसमें द्विधार्थकता से, एक प्रकार की स्थायी सत्ता मानने के इसके सहज निहितार्थ से, कोई बहक न जाये ( डायलॉग ऑवबुद्ध ( 2 ) 243 ) । अर्थात् ये सतत परिवर्तनशील कुछ संघटक ही हैं, जिनके साहचर्य को व्यक्तित्व मान लेने की चर्चा की जाती है। जिसे हम व्यक्तित्व कहते हैं, उसमें सतत परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन जब एक बिन्दु पर पहुंच जाता है; तब सहज ही उसके संशोधन में भी परिवर्तन हो जाता है, अर्थात् व्यक्तित्व जिस रूप में प्रकट होता है उसी के अनुरूप उसका नाम लिया जाता है – यह बात गाय से प्राप्त होने वाली वस्तु के भिन्न-भिन्न रूपों से सिद्ध है। लेकिन, सिद्धांत के रूप में, यह अभिव्यक्ति का ही सुविधाजनक रूप है। कभी एक पृथक् सत्ता के रूप में कोई व्यक्तित्व नहीं रहा ( 2 ) 263।
प्राचीन पालि ग्रंथों में, व्यक्तित्व सम्बन्धी इसी विचार को अनिवार्य रूप से कई अनित्य, भौतिक और मानसिक तत्वों के समुच्चय के सुविधाजनक मौखिक सम्बोधन के साथ रथ के साम्यानुमान द्वारा समझाया गया है। ‘मार’ अर्थात् शैतान, जो अपधर्म और भ्रांति के द्वारा लोगों को विपथ करना चाहता है, भिक्षुणी वजिरा के सम्मुख प्रकट होकर कहता है कि जिसके माध्यम से व्यक्तित्व का निर्माण होता है, वह तुम हो, तुम मानव की निर्मात्री हो; जिसका अपना एक उद्गम है वह तुम हो, तुम वह हो जिसका शरीरांत हो जाता है। तुम क्या कहते हो, किस व्यक्ति की चर्चा करते हो ? तुम्हारा उपदेश झूठा है। यह सत्काय तो परिवर्तनशील स्थितियों का पुंजमात्र है, यहां कोई व्यक्तित्व नहीं । जिस प्रकार रथ के पुर्जों के इकट्ठा होने के बाद हम रथ का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार पांच महाभूतों के सम्मिलन से व्यक्ति की कल्पना की जाती है। आम लोग इस बात को जानते हैं ( ओल्डनबर्ग 22 ) ।
यहां महत्व की बात यह है कि जिस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात् कारण कार्य का सिद्धांन्त अनात्मवाद की आधार शिला है, उसी प्रकार अनात्मवाद बुद्ध के निजी सम्पत्ति के विरोध से गहरे रूप से सम्बद्ध है। रूस के एक विश्वविख्यात बौद्ध चिन्तक (फर्दरज़ पेपरज़ ऑफ स्तचेरवात्सकी कलकत्ता पृ. 26) ने इस बात को बड़े सटीक रूप में प्रस्तुत किया है जहां व्यक्तित्व है वहीं उसकी सम्पत्ति भी होती है । जहां मैं होता है वहां मेरा भी होता है । और जहां निजी सम्पत्ति होती है, वहीं उसके प्रति किसी न किसी प्रकार का प्रेम भी होता है। निजी सम्पत्ति का यही मोह सभी बुराइयों का, सभी वैयक्तिक कर्मों और सामाजिक अन्याय का मूल है। इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व से इन्कार करके बौद्ध मत निजी सम्पत्ति के अधिकार के निषेध को एक अत्यन्त गहन दार्शनिक आधार प्रदान करता है। जब व्यक्तित्व ही न हो तो निजी सम्पत्ति कैसी ? इस कारण एक सच्चा बौद्ध वही है जो निजी सम्पत्ति ही नहीं, परिवार, घट आदि का भी सदा सदा के लिये त्याग कर चुका हो । विश्च धर्मों के ईसाईयत और इस्लाम के इतिहास में अक्सर सम्पत्ति का निषेध करने और उसे त्यागने की सलाह देने वाले सिद्धांत मिलते हैं। लेकिन बौद्ध मत इस प्रश्न की सर्वाधिक मूलगामी विवेचना करता है।’
बुद्ध की इसी धारणा को राहुल लक्षित करना चाहते थे । इसके लिये उन्हें सबसे पहले दर्शन के भौतिक आधार का सैद्धांतिक विवेचन करने की जरूरत थी। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस प्रकार उपनिषदों के ऋषि उद्दालक आरुणि ने बताया था कि मन अन्नमय है ।… खाये हुए अन्न का जो सूक्ष्मांश ऊपर जाता है, वही मन है ( छान्दोग्य उपनिषद् 6-6/1-5)। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए राहुल ने अपने ग्रन्थ ‘मानव समाज’ में लिखा कि हमारे मन के विकास में हमारे हाथों-हाथ के श्रम, सामाजिक और वैयक्तिक दोनों का सबसे भारी हिस्सा है। मनुष्य की भांति मनुष्य का मन भी अपने निर्माण में समाज का बहुत ऋणी है। अतः उन्होंने बताया कि ऐसी स्थिति में मन की उपज दर्शन की भी व्याख्या समाज से दूर जाकर कैसे की जा सकती है ? सजीव आंख की असलियत जैसे शरीर से अलग निकालकर देखने से नहीं मालूम हो सकती, उसी तरह दर्शन को समझने में भी हमें उसके जन्म और कार्य की परिस्थिति में देखना होगा’ (दर्शन दिग्दर्शन 536 ) ।
इस दृष्टि से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि उपनिषदों में रूप ले रहे विचारवादी (आइडियालिस्ट) चिन्तन की परिकल्पना को वर्ग विभाजित समाज की शोषणपरक व्यवस्था से हटकर नहीं देखा जा सकता। बुद्ध के समकालीन आत्मवादी दर्शन की संभावना, केवल नयी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत सुविधा सम्पन्न वर्ग के स्थायितत्व प्राप्त कर लेने पर ही बन सकती थी । निस्संदेह उपनिषदों के सैद्धांतिक प्रश्न तथा उनके प्रस्तुत समाधान एक प्रकार के बौद्धिक विकास के सूचक थे तथा ज्ञान मीमांसा की दृष्टि से नयी संभावनाओं को व्यक्त कर रहे थे, परन्तु जीवन-जगत् के लौकिक अनुभवों से अविच्छिन्न उनका शुद्ध चिंतन बौद्धिक प्रयत्नों की तुलना में श्रमजन्य गतिविधियों को निम्नकोटि का स्वीकार करने के लिए बाध्य था । परिणाम स्वरूप समस्त श्रमजीवी उत्पादन कार्यों में लगे हुए किसानों, शिल्पियों को निम्न वर्ग में डाल दिया गया था, जिन्हें परम्परा ने शूद्र कहा है ।
यकीनन भौतिक विकास के लिए अपेक्षित प्रकृति के प्रति यथार्थता पर प्रश्न चिन्ह हमारी तकनीकी प्रगति के लिए आज तक बहुत बड़ी बाधा बना हुआ है। यहां ज्ञान का अभिप्राय लौकिक जगत एवं प्रकृति की अधिक जानकारी की अपेक्षा विषयिनिष्ठ रूप में ज्ञान का साध्य ‘स्व’ होकर रहस्यमय बन गया। अतः उपनिषदों के आत्मवादी दार्शनिक को अपने प्रश्नों के समाधान के लिए, प्रत्यक्ष-जन्य अनुभवों को भ्रम-जन्य मान लेने पर स्वप्न, गहरी नींद, तथा अन्त में मृत्यु की शरण में जाना पड़ा।
राहुल ने इस वस्तुस्थिति को अपनी तरह से प्रस्तुत किया। राहुल का कहना था कि समाज की स्थिति को धारण करने वाले धर्म (वैदिक कर्मकांड और पाठ – पूजा) की ओर से आस्था उठते देख पहिले शासक वर्ग को चिन्ता हुई और क्षत्रियों – राजाओं ने ब्रह्म ज्ञान तथा पुनर्जन्म के दर्शन को पैदाकर बुद्धि को थकाने तथा सामाजिक विषमता को उचित ठहराने की चेष्टा की ।” राहुल द्वारा प्रस्तुत श्रृंखला देखिये :
वाद – यज्ञ; वैदिक कर्मकांड, पाठ पूजा श्रेय का रास्ता है
प्रतिवाद – यज्ञ रूपी घरनई पार हाने के लिये बहुत कमजोर है
संवाद – ब्रह्मज्ञान श्रेय का रास्ता है, जिसमें कर्म सहायक होता है।
दूसरी श्रृंखला है-
वाद – (उपनिषद्) – आत्मवाद
प्रतिवाद – ( चार्वाक ) – आत्मा नहीं – भौतिकवाद
संवाद – (बुद्ध) – अभौतिक अनात्मवाद
इस प्रकार यान्त्रिक रूप से राहुल ने स्थापित किया है कि यज्ञपरक कर्मकांड की प्रतिक्रिया में उपनिषदों का ब्रह्मज्ञान अथवा आत्मवाद जन्म लेता है। तथा आगे जाकर चार्वाकों के (आदिम) भौतिकवाद के साथ आत्मवाद के द्वन्द्व में बौद्धों के अभौतिक अनात्मवाद का प्रादुर्भाव हुआ है। इसकी व्याख्या करते हुए राहुल ने बताया है कि समाज में वैदिक धर्म स्थिति-स्थापक था, और वह सम्पत्ति वाले वर्ग की रक्षा और श्रमिकदास और कर्मकर-वर्ग पर अंकुश रखने के लिए खूनी हाथों से जनता को कुचलकर स्थापति हुए राज्य की मदद करना चाहता था। इसका पारितोषिक था धार्मिक नेताओं ( = पुरोहितों) का शोषण में और भागीदार बनाया जाना । शोषित जनता अपने स्वतंत्र – वर्गहीन, आर्थिक दासता – विहीन दिनों को भूल सी चुकी थी, धर्म के प्रपंच में पड़कर वह अपनी वर्तमान परिस्थिति को देवताओं का न्याय समझ रही थी। राहुल का मानना है कि शोषित जनता को वास्तविक न्याय करवाने के लिए तैयार करने के वास्ते जरूरी था कि उसे धर्म के प्रपंच से मुक्त किया जाय। यह प्रयोजन था कि नास्तिकवाद (देव- परलोक से इन्कारी) भौतिकवाद का । इसके साथ ही उन्होंने जोड़ा कि ब्राह्मण (पुरोहित) अपनी दक्षिणा समेटने में मस्त थे, उन्हें भुस के ढेर में सुलगती इस छोटी सी चिंगारी की परवाह न थी । सदियों से आये कर्म-धर्म को वह वर्ग – शोषण का साधन नहीं बल्कि साध्य मानने लगे थे, इसलिये वह भी परिवर्तन के इच्छुक न थे ।
क्षत्रिय ( = शासक ) ठोस दुनिया और उसके चलने फिरने वाले, समझाने की क्षमता रखने वाले शोषित मानवों की क्षमता को ज्यादा समझते थे । उन्होंने खतरे का अनुभव किया, और धर्म के फंदे को दृढ़ करने के लिए ब्रह्मवाद और पुर्नजन्म को उसमें जोड़ा ( दर्शन दिग्दर्शन 537 ) ।
किन्तु तथ्यों का अति सरलीकरण नहीं किया जाना चाहिये। यह सोचना भूल होगी कि वैज्ञानिक समाजवाद को कुछ प्रतिभाशाली लोगों ने एकाएक ही आविष्कृत कर लिया। इसी कारण भौतिकवाद के प्रशंसक होने पर भी वैज्ञानिक समाजवाद के दर्शन शास्त्र के संस्थापक भौतिकवाद और विचारवाद, दोनों के ही सतही ज्ञान के विरुद्ध हमें सचेत करते हैं । जैसा कि देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने बताया है कि भौतिकवाद को श्रेष्ठतर दर्शन शास्त्र मान लेना उतना ही गलत है जितना कि विचारवाद को श्रेष्ठतर मान लेना निरी बकवास है। भौतिकवाद की अन्तर्धारा में प्रायः निरा कुत्सिक पंक भी रहा है। यह निरा गंवारपन से कुछ कम भी न था । इसकी अभिव्यक्ति भौंडे भौतिकवाद में हुई है जो घृणित है। साथ ही, विचारवाद की अन्तर्धारा में प्रायः बहुत कुछ इतना अधिक अर्थपूर्ण रहा है कि वैज्ञानिक समाजवाद के संस्थापक उसके बिना उस विश्वधारणा तक नहीं पहुंच सकते थे जिस पर वे अंततः पहुंचे ( दर्शन शास्त्र के स्रोत, पृ. 93 ) ।
अतः बुद्ध चिन्तन की अतिसरलीकृत भौतिकवादी यान्त्रिक दृष्टि के कारण राहुल को हताश होकर कहना पड़ा, बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद को देखने पर जहां तत्काल प्रभु वर्ग- भयभीत हो उठता, वहां प्रतिसंधि और कर्म का सिद्धांत उन्हें बिल्कुल निश्चिंत कर देता था। यही वजह थी, जो कि बुद्ध के झंडे के नीचे हम बड़े-बड़े राजाओं, सम्राटों, सेठ साहूकारों को आते देखते हैं और भारत से बाहर लंका, चीन, जापान, तिब्बत में तो उनके धर्म को फैलाने में राजा सबसे आगे बढ़े। -वह समझते थे कि यह धर्म सामाजिक विद्रोह के लिये नहीं बल्कि सामाजिक स्थिति को स्थापित रखने के लिये बहुत सहायक साबित होगा (वही, 539 ।
देखने की बात है कि एक अन्य प्रतिष्ठित मार्क्सवादी चिन्तक रामविलास शर्मा के निष्कर्षों में भी यांत्रिक भौतिकवाद का दृष्टिभ्रम विद्यमान है। अपनी पुस्तक ‘विराम चिन्ह’ में उनका मानना है, ‘बुद्ध का सन्देश आर्थिक रूप से पिछड़े हुए आदिम समाजों को नहीं दिया गया था, उनका संदेश अभ्युदयशील सामन्तीय व्यवस्था को दिया गया था (पु. 164 ) ।
‘इसका कारण था सामंतों और व्यापारियों को साधारण धर्म की नहीं, संगठित धर्म की – एक ‘चर्च’ की, मठों और विहारों वाले शृंखलाबद्ध पुरोहित वर्ग की आवश्यकता थी (पृ. 168 ) ।
‘संसार के तीन बड़े संगठित धर्मों – बौद्ध, ईसाई तथा इस्लाम में – बुद्ध का धर्म संगठित चर्च था । मगध और कोसल संसार के प्रथम सामन्ती साम्राज्यों में थे। बुद्ध का धर्म इन सामन्ती साम्राज्यों का पहला संगठित धर्म था (पृ. 168 ) ।’
‘इस धर्म ने एक ऐतिहासिक आवश्यकता पूरी की, शासक वर्ग को जिस तरह के धर्म की दरकार थी, वह उसे दिया। यही कारण था कि बिम्बसार से लेकर अशोक और हर्ष तक अनेक सामन्त और सम्राट इस धर्म के षोषक रहे ( 168 ) । ‘
‘बुद्ध ने ब्राह्मणों की आलोचना की, लेकिन यह आलोचना उपनिषदों में ही आरंभ हो गयी थी ( 168 ) ।’ ‘यज्ञ और बाह्मणों का जो विरोध बुद्ध ने किया, वह मौलिक न था।’ ‘बुद्ध ने ब्राह्मणों की जो आलोचना की, वह केवल एक प्रकार के पुरोहितों के विरुद्ध थी, पुरोहित वर्ग मात्र के विरुद्ध वह न थी’ (पृ. 168 ) ।
‘वह स्वयं एक पुरोहित वर्ग का निर्माण कर रहे थे और उसके लिए वैसा ही विशेषाधिकार चाहते थे जैसे ब्राह्मण चाहते थे।’ ‘बुद्ध ने ब्राह्मणों की अपेक्षा कहीं अधिक संगठित पुरोहित वर्ग की रचना की, इसीलिए उन्हें सामंतों और व्यापारियों का ऐसा समर्थन प्राप्त हुआ। अनेक ब्राह्मण भी उनके अनुयायी बने (168 / 69)।’
‘बुद्ध के पास सामाजिक निदान था । उनका सिद्धांत निष्क्रियता का सिद्धांत था । अन्यायी से घृणा मत करो, अपनी तृष्णा को जीतो – यह आदेश यूरोप और एशिया में सर्वथा सामंत वर्ग की विचारधारा में मौजूद रहा है। रामायण और महाभारत में अन्यायी को दंड दिया गया है। लेकिन बुद्ध के यहां इस तरह के प्रतिरोध और दंड का अभाव है, प्रतिरोध भावना की अस्वीकृति है । इसलिए उनकी तृष्णा को जीतने की स्थापना आज भी पूंजीपति वर्ग में बहुत लोकप्रिय है (पृ. 169 ) ।’
बुद्ध ईश्वर और आत्मा को न मानते थे, वेद को प्रमाण न मानते थे। ऊपर से देखने में ये बातें ऐसी हैं जो उन्हें प्राचीन भौतिकवादियों के निकट लाती हैं। लेकिन बुद्ध का निर्वाण सच्चिदानंद ब्रह्म के साक्षात्कार या मुक्ति से मिलता-जुलता है (पृ. 169) ।’
‘निर्वाणगत पुरुष का मरने के बाद क्या होता है, इस प्रश्न का उत्तर बुद्ध ने नहीं दिया।’
‘भौतिकवादी जहां कहते थे कि शरीर के अंत से ही मनुष्य का अंत है, वहां बुद्ध निर्वाण प्राप्त की मृत्यु के उपरान्त उसकी अवस्था के बारे में चुप रहे ।
‘इसका कारण यह था कि वह भौतिकवाद के प्रच्छन्न विरोधी थे, उसका खुलकर विरोध न कर रहे थे ।’
‘आत्मा को न मानते हुए भी वे आवागमन की शृंखला मानते थे ।’
‘बुद्ध ने आत्मा के बदले पुनर्जन्म की प्रतिष्ठा की, शब्दों का भेद है, बात एक ही है (पृ. 169 ) ।
‘मुक्ति की जगह निर्वाण, आत्मा की जगह पुनर्जन्म, वेद की जगह बुद्ध के अपने वचन इस तरह एक आत्मवाद की जगह दूसरा आत्मवाद प्रतिष्ठित हुआ । इसी कारण बुद्ध अभौतिक अवश्य थे लेकिन आत्मवादी ऊपर से देखने पर ही लगते हैं (पृ. 170) ।’
‘यह बात ध्यान देने की है कि बुद्ध भौतिकवादी नहीं थे वरन् भौतिकवाद की एक समर्थ परम्परा का विरोध करके उन्होंने निर्वाण, कर्म-बन्धन और तृष्णा के विनाश के सिद्धांतों का प्रचार किया था।’
‘बुद्ध ने आदिम समाज व्यवस्था की समानता से प्रेरणा नहीं ली, वरन् धनी, सामन्तों और व्यापारियों के लिये ऐतिहासिक रूप से आवश्यक धर्मसंघ की स्थापना की थी, इस बात को अस्वीकार करना सत्य से मुंह मोड़ना होगा (पृ. 172 ) ।
बुद्ध के काल में विचारताद और भौतिकवाद के बीच एक तीखा संघर्ष देखने को मिलता है। उद्दालक आरुणि भौतिकवाद के प्रतिनितिध थे, तो याज्ञवल्क्य भारत के प्रथम आत्मवादी अर्थात् प्रारंभिक विचारवादी दार्शनिक थे। पुरातत्ववेत्ताओं ने बताया है कि प्राचीन सिंधुघाटी सभ्यता का अंत ई. पू. लगभग 1750 में हुआ। इस बात को जानने का अभी हमारे पास कोई साधन नहीं है कि इस सभ्यता का अन्त किन कारणों से हुआ। एक मत यह है कि विदेशी आक्रमणों से इसका अन्त हुआ होगा । संभव है कि इससे पूर्व ही कतिपय अन्तर्विरोध इसे विनाश की ओर धकेल रहे हों। ये नये आक्रमणकारी पशुपालक थे और आर्य कहे जाते थे। इन्होंने भारतीय संस्कृति को मौखिक गीतों और स्तोत्रों का विशाल भंडार प्रदान किया ।
सिन्धु घाटी सभ्यता गार्डन चाइल्ड ( टाऊन प्लानिंग रिव्यू, खंड 21, अंक, 1, पृ. 3-7 ) के शब्दों में पहली ‘नगरीय क्रांति थी जिसके मिस्र, मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी तीन प्रमुख क्षेत्र थे ।
स्मरण रखना चाहिए कि सिंधु घाटी की सभ्यता के बाद लगभग एक हजार साल की अवधि तकनीकी रूप से सृजनहीनता की अवधि रही है ।
गंगाघाटी में दूसरे नगरीकरण की बात लगभग ई. पू. सातवीं या छठी शताब्दी में इतिहासकारों ने की है। इस नयी सरंचना ने एक नये बौद्धिक वातावरण के लिए स्थान बनाया जिसने दर्शन के विकास की अथवा बुद्धि के आधार पर मानव एवं प्रकृति को समझने की नयी संभावनायें दीं। इसे हम उपनिषदों की विभिन्न धारणाओं में, जैन और बौद्ध धर्म के उदय में और उन विचारकों की धारणाओं में देख सकते हैं जिन्हें न केवल उपनिषद् अपितु जैन और बौद्ध भी अपधर्मी मानते थे । ब्रह्मजाल सुत्त संवाद में बासठ विभिन्न प्रकार के दार्शनिक मतों का उल्लेख मिलता है जिनमें पूर्ण कश्यप का अक्रियावाद, मक्खलिगोसाल का दैववाद, अजित केशकंबलि का जड़वाद, प्रक्रध कात्यायन का अकृतवाद, निगंठनाथ पुत्त का चातुर्भाग संवर और संजय वेलटिठ गोसाल पुत्त का अनिश्चयवाद उल्लेखनीय हैं।
द्वितीय नगरीकरण के इस नये परिवेश में तीन प्रवृत्तियों का उल्लेखनीय महत्व है, जिनका प्रतिनिधित्व क्रमशः उद्दालक आरुणि, याज्ञवल्क्य और गौतम बुद्ध करते हैं । उद्दालक को देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने प्रथम भारतीय भौतिकवादी और प्रकृति वैज्ञानिक बताया है। याज्ञवल्क्य उपनिषदों की उस धारणा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें बताया गया है कि आत्मा ही प्रत्येक वस्तु के पीछे निहित परम सत्ता है और इस कारण किसी भी वस्तु का यथार्थ बोध अनिवार्यतः आत्मा का ही बोध होता है, जिसने आत्मा को जाना उसने सब कुछ जान लिया, किन्तु जिसने किसी वस्तु को आत्मा से भिन्न जाना उसे अज्ञान ही मिला। इस प्रकार के आत्मवादी दर्शन में न केवल मानव ज्ञान की समस्त शाखाओं एवं सामान्य बोध की समस्त शक्तियों अपितु संसार एवं जीवन की वास्तविकता का भी तिरस्कार और अस्वीकार करने की शक्ति थी। सर्वोच्च ज्ञान के नाम पर यह एक ऐसे दर्शन में विकसित हो सकता था जिसने प्रकृति को काल्पनिक सृष्टि कहकर एवं तर्क और अनुभव को तात्विक रूप से अप्रामाणिक घोषित करके प्रकृति के रहस्यों पर विजय पाने के और उन्हें जानने के सभी प्रयासों का विरोध किया। यह तभी सम्भव हुआ जब समुदाय का एक वर्ग किसी समुदाय के अन्य वर्ग के अतिरिक्त उत्पादन पर निर्वाह करता हुआ शारीरिक श्रम के भार से मुक्त हो गया हो और इसी कारण वह भौतिक संसार की यथार्थता को स्वीकार करने की बाध्यता से भी मुक्त हो गया हो क्योंकि केवल श्रम की प्रक्रिया ही चेतना पर वस्तुनिष्ठ बाध्यता का प्रभाव डाल सकती है।
दूसरे शब्दों में कहें तो सिद्धांत ने व्यावहारिकता से नाता जोड़ लिया था और शुद्ध सिद्धांत बन गया था । सोची गयी बात विचार मात्र बनकर रह गई और इस प्रकार ज्ञाता, विषयी ने अपने आपको संज्ञात अथवा विषय की सीमाओं से मुक्त करने का प्रयास किया और उसे अज्ञान या अविद्या की उपज माना ।
इस प्रकार जिस समय उपनिषद्कालीन भारत में विचारवाद और भौतिकवाद के बीच संघर्ष चल रहा था, गंगाघाटी सभ्यता में एक ऐसे व्यक्ति का अविर्भाव हुआ, जिसने इस बात पर बल दिया कि तत्व-मीमांसी चिंतन के स्थान पर जिस बात की तत्काल आवश्यकता है, वह है दुख के तथ्य को और इसके बाहर निकलने के मार्ग को जानना । बुद्ध के मूल उपदेश में चार बातें महत्वपूर्ण हैं – संसार में प्रत्येक वस्तु दुख है, दुख का कोई कारण होता है, इस कारण को दूर किया जा सकता है और इस कारण के दूर हो जाने पर निर्वाण की प्राप्ति होती है। इन्हीं चार बातों को चार ‘आर्य सत्य’ कहा जाता है। यह दुखवाद बुद्ध के निजी व्यक्तिगत जीवन की घटनाओं की अपेक्षा जैसा कि बौद्धों के पौराणिक ग्रन्थों में आगे जाकर बताया जाता रहा, उस समय के तेजी से बदल रहे परिवेश के अन्तर्गत समझा जा सकता है।
गंगाघाटी में दूसरे नगरीकरण की सबसे बड़ी विशेषता रही है कबीलायी जनतंत्रों के अवशेषों पर निरकुंश राज्य सत्ताओं का उदय । बुद्ध स्वयं एक शाक्य कबीले से सम्बद्ध थे। उन्होंने देखा कोशल नरेश विदुद्ध शाक्यों का नरसंहार कर रहे थे। वज्जियों के समूल नाश की घोषणाओं में मगध नरेश अजातशत्रु की विनाश लीला का वर्णन बौद्ध ग्रन्थों में मिल जाता है।
इस प्रकार एक ओर कोशल और मगध राज्य सत्ताएं विकसित हो रही थीं, दूसरी ओर वज्जी, शाक्य, काशी, कोलीय और मल्ल जनजातियाँ सामाजिक परिवर्तनों में गुजर रही थीं। ये राज्य इन कबीलों से घिरे हुए थे । कौटिल्य के अर्थशास्त्र से इस प्रकार के स्पष्ट संकेत मिलते हैं, पड़ोस में इन स्वतन्त्र कबीलों के रहते इन उभरते हुए सम्राटों का भविष्य सुरक्षित नहीं रह सकता था और सीधे सैन्य आक्रमण करके इन शक्तिशाली कबीलों को विजित करना कठिन था। इसके अतिरिक्त इन जनतन्त्रों के उदाहरण राजतन्त्रों के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकते थे। अतः इन संघों का ध्वंस उभरते राजतंत्रों की राजनीति का अनिवार्य अंग हो गया। इन उदीयमान राजतंत्रों के साथ-साथ और मुख्यतः इन पर आधारित एक दृढ़ और प्रभावशाली व्यापारी वर्ग का भी उदय हुआ जिसके साथ समाज में उन समस्त बुराईयों का आगमन हुआ होगा, जो वाणिज्य की विशेषताएं हैं। एक सुत्त में बुद्ध ने कहा- ‘इस संसार में धनिकों को देख रहा हूं। जिन वस्तुओं को वे प्राप्त करते हैं, उनमें से कुटिलतावश किसी को कुछ नहीं देते। वे अधिकाधिक धन एकत्र करते जाते हैं और आनन्दोपभोग में लीन रहते हैं। राजा धरती के राज्यों को जीतकर भी समुद्र के इस पार की धरती का, समुद्र के किनारे तक का स्वामी होकर भी अतृप्त रहता है और उसकी कामना करता है जो समुद्र के उस पार है। राजा और अन्य लोग अतृप्त इच्छाओं के साथ ही मृत्यु के शिकार हो जाते हैं…न संबंधी, न मित्र, न ही परिचित, मरते हुए व्यक्ति को बचाते हैं। उनकी धन-संपत्ति को उत्तराधिकारी ले लेते हैं किन्तु अपने कर्मों का फल वही भोगता है । कोई खजाना, पत्नी या संतान धन संपत्ति या राज्य परने वाले के साथ नहीं जाते ( ओल्डनबर्ग 64 ) । एक अन्य सुत्त में बुद्ध कहते हैं राज्यों का शासन करने वाले जो सपंत्तिशाली नृपति एक-दूसरे को अपने लोभ का शिकार बनाते हैं, अतृप्त रूप से अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने में लगे रहते हैं । यदि ये लोग अनित्यता के सागर में तैरते हुए लोभ एवं लौकिक वासनाओं में लिप्त रहते हुए इस प्रकार अशांत होकर व्यवहार करते हैं तो धरती पर कौन शांति से विचरण कर सकता है ( वही ) ।
बुद्ध ने अपने ही लोगों का स्त्रियों-बच्चों सहित निर्मम संहार होते देखा। उन्होंने राजाओं को अनित्यता के सागर में तैरानी वाली तृप्त न होने वाली आकांक्षाओं का उदय होते देखा। उन्होंने अपने मित्र प्रसेनजित के पुत्र को पिता से विश्वासघात करते देखा और प्रसेनजित निश्चय ही उनके समय के महानतम शासक थे। उनके एक अन्य मित्र सम्राट बिंबसार को उसके पुत्र अजात शत्रु ने कारागृह में रखकर मार डाला। थोड़ा और जीते तो बुद्ध यह भी देख लेते कि किस प्रकार वह प्रक्रिया धन और सत्ता के अतुलनीय लोभ की वही अभिव्यक्ति उस काल के राजनीतिक इतिहास का लक्षण बनी। अजातशत्रु का वध उसके पुत्र उदयभद्र ने किया, उदयभद्र का वध उसके पुत्र अनुरुद्धक ने किया, अनुरूद्धक का वध उसके पुत्र मुंड ने किया और मुंड का वध उसके पुत्र नगदसक ने किया।
इस प्रकार आदिम वर्गपूर्व समाज के निषेध की देहरी पर खड़े बुद्ध केवल इससे उत्पन्न दुख को ही देख सके। अतः बुद्ध के पास केवल यही विकल्प था कि वे आगे न देखकर तेजी से विलुप्त होते आदिम साम्यवादी समाज की ओर देखते जो इतिहास की प्रगति के साथ पूर्णतः लुप्त हो जाने को था। यह अधिक से अधिक एक वास्तविक समस्या का वैचारिक समाधान था। उन्होंने अपना सारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित किया कि नये वर्ग विभाजित समाज में ही मानो एक प्रकार के निर्लिप्त जीवों का विकास किया जाय जिसके अन्दर ही स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के विस्तृत मूल्यों को व्यवहार में लाया जा सके। इस तथ्य को सैद्धांतिक रूप से देखने का श्रेय देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय को है । उन्होंने बताया है कि इतिहास के एक संकटपूर्ण चरण में जबकि तत्कालीन स्वतंत्र कबीलों को निर्दयतापूर्वक नष्ट किया जा रहा था और विस्तृत होती राज्यसत्ताओं के घेरे में लोग नये मूल्यों के उदय का अनुभव कर रहे थे जिनका उदय कबीलायी समता के अवेशषों पर हुआ था, तब बुद्ध अपने संघ का संगठन कबीलायी समाज के मूल सिद्धांतों के आधार पर कर रहे थे और भिक्षुओं को उपदेश दे रहे थे कि वे इन्हीं सिद्धांतों के अनुरूप अपने जीवन को लें। यह बात अत्यन्त महत्वपूर्ण है । अपने संघों के संगठन में बुद्ध अपने समकालीन लोगों को एक विस्मृत यथार्थ का एक मृतप्राय कबीलायी जीवन का आभास दे सकते थे।
यह बुद्ध की महान प्रतिभा ही थी जो इस सुसंबद्ध एवं सम्पूर्ण भ्रम का निर्माण कर सकी। बुद्ध ने केवल सफलतापूर्वक अपने संघों को वर्गपूर्व समाज के सांचे में ढाला अपितु इस बात की अत्यन्त सावधानी रखी कि संघों के सदस्य भिक्षु एक पूर्णतः निर्लिप्त जीवन व्यतीत करें अर्थात् निजी सम्पत्ति के लोभ से निर्लिप्त रहें । निजी सम्पत्ति की घृणा के कारण बुद्ध ने किसी स्थायी आत्मा की धारणा से इन्कार किया (106 दर्शन शास्त्र के स्रोत) ।
निष्कर्षतः प्रारंभिक बुद्ध धर्म का उद्भव यज्ञपरक कर्मकांडों तथा उपनिषदों के आत्मवाद की प्रतिक्रिया में नहीं हुआ था । याज्ञिक गतिविधियों का प्रचार-प्रसार तथा उपनिषदों के संवाद जब पश्चिमी क्षेत्रों की बौद्धिक गतिविधियों में प्रचलित थे, उस समय बुद्ध का कार्य क्षेत्र पूर्वी प्रदेश थे, जहां जनजातीय जीवन पद्धति का समूल नाश किया जा रहा था। बुद्ध का अनात्मवाद निजी संपत्ति के विरोध में था जिसे बुद्ध नयी राज्यसत्ताओं के उद्भव के मूल में देखकर मानवीय दुख की मुक्ति के लिये चिन्तित दिखाई दिये थे। जबकि कबीलायो व्यवस्था में निजी सम्पत्ति के लिए कोई स्थान नहीं था । अतः हमारे भौतिकवादी आचार्यों के निष्कर्ष किस सीमा तक भ्रामक रहे हैं, इसे देखने के लिए हमें बुद्ध के जनजातीय सम्बन्धों और जनजातीय व्यवस्था के अनुरूप बुद्ध संघ व्यवस्था की ओर ध्यान देना होगा :
ग्रंथों में गौतम बुद्ध का एक सबसे अधिक प्रचलित सम्बोधन शाक्य पुत्र है । वे शाक्य जनजाति से सम्बन्धित थे। इस गौरव को उन्होंने कभी विस्मृत नहीं किया । इन जन जातियों की विशिष्ट व्यवस्था थी लोकतंत्र – जिसकी एक संस्था जन परिषद थी, जिसकी सभा संथागार में होती थी । मोरगन ने जनजातीय समाज की महान विशेषता उसकी परिषद बताया है ( एंशेंट सोसायटी, 84 ) । देखने की बात है कि उस समय की नवोदित राज्य सत्ताओं-मगध और कोसल ने मिलकर इन जनजातियों के विनाश के लिये अनेक अभियान किये। कोसल ने बुद्ध के जीवनकाल में ही शाक्यों पर आक्रमण किया था और उनकी स्त्रियों और बच्चों सहित नरसंहार किया था ।
बुद्धकाल इस प्रकार जनजातीय स्थिति से राजसत्ता के संक्रमण का काल था । जनजातीय मूल्यों के अवशेषों पर नये वर्ग विभाजित मानदंड स्थापित किये जा रहे थे । इतिहास की प्रगति में यह एक महत्वपूर्ण कदम तो था जैसा कि एंगेल्स ने उल्लेख किया है, इन आद्य समुदायों की शक्ति को तोड़ना आवश्यक था और ऐसा ही किया गया। किन्तु इस शक्ति को उन प्रभावों के माध्यम से तोड़ा गया जो स्पष्ट रूप से हमें सामान्य अवनति प्रतीत होते हैं, अर्थात् प्राचीन असभ्य समाज के सहज नैतिक वैभव का अधोपतन । निम्न कोटि के स्वार्थ जैसे घृणित लिप्सा, बर्बर कामुकता, कुत्सित लोलुपता, सांझी सम्पत्ति की स्वार्थपूर्ण लूट-खसोट आदि से एक नये सभ्य समाज का निर्माण होता है जो वर्गीकृत समाज है, चोरी, बलात्कार, धूर्तता और विश्वासघात जैसे अत्यंत दुराचारी तरीकों से पुराने वर्गविहीन समाज को खोखला करते हैं, उसे नष्ट कर दिया जाता है (दि ओरिजिन ऑफ दि फैमिली, प्रायवेट प्रापर्टी एन्ड द स्टेट, 163 ) ।