कहानी के भविष्य की चिंता राजेन्द्र यादव को भी है और मुझे भी। लेकिन जैसा कि लेव तोल्सतोय ने अन्ना करेनिना के आरंभ में कहा है, सभी सुखी परिवार एक जैसे हैं लेकिन हर दुखी परिवार अपने-अपने ढंग से दुखी है। राजेन्द्र यादव को संजय की कहानी ‘तख्तोताब’ इतनी अविश्वसनीय लगी कि उन्होंने उसे ‘हंस’ में न छापा और लौटा दिया। ‘वर्तमान साहित्य’ ने उस कहानी को प्रकाशित किया और वह पत्र-व्यवहार भी जो कहानी की विश्वसनीयता-अविश्वसनीयता को लेकर दोनों लेखकों के बीच हुआ था। ‘तख़्तोताब’ में होता यह है कि दो छोटे बच्चे घर के अंदर वक़्त काटने के लिए एक नाटक खेलते हैं। भाई बादशाह बनता है और बहन जो उससे छोटी है, वज़ीर। भाई पर तख़्त का नशा कुछ ऐसा चढ़ता है कि बहन का ख़ून करने पर आमादा हो जाता है और उसके गिड़गिड़ाने – चेताने पर भी होश में नहीं आता। हादसा तो खैर नहीं होता, लेकिन ख़ून के छींटे रह जाते हैं। राजेन्द्र यादव को शायद यह पूरा नाटक अविश्वसनीय लगा था।
फ़िलहाल इस कहानी पर तफ़सील से चर्चा करने का अवसर नहीं है लेकिन इसे ‘अविश्वसनीय’ कहकर खारिज कर देने के पीछे जो प्रवृत्ति या मनोवृत्ति है वह गहरी चिंता का विषय है, क्योंकि उसका संबंध कहानी की बुनियादी समझ से है।
विजयदान देथा ने पिछले महीने साहित्य अकादेमी में अपनी दो कहानियाँ पढ़ी थीं। एक कहानी ऐसी थी जिसमें राजा के आदेश पर सारी प्रजा अंधकार उलीचने में लग जाती है। उस गोष्ठी में राजेन्द्र यादव भी मौजूद थे। कोई टिप्पणी उन्होंने नहीं की, इसलिए उनकी राय का पता नहीं, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि दोनों कहानियाँ ‘तख्तोताब’ से भी अधिक ‘अविश्वसनीय’ थी।
इस क्रम में यदि यथार्थवादी माने जाने वाले लेखकों की कालजयी कहानियों को याद करें तो उनकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध प्रतीत होगी। प्रेमचन्द की अमर कहानी ‘क़फन’ को ही लें। घर में लाश को छोड़कर कफ़न के पैसों से शराब पीने वाले लोग कितने होते हैं?
प्रेमचन्द की ही एक और कहानी है ‘बलिदान’ जो उतनी प्रसिद्ध नहीं है लेकिन इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। खेत छिन जाने पर एक किसान को इतना ग़म होता है कि वह लापता हो जाता है और अपने खेत पर भूत बनकर मंडराता रहता है। प्रेमचन्द लिखते हैं कि अंधेरा होते ही वह मेड़ पर आकर बैठ जाता है और कभी-कभी रात को उधर से रोने की आवाज़ सुनाई देती है। वह किसी से बोलता नहीं, किसी को छेड़ता नहीं। उसे केवल अपने खेतों को देखकर संतोष होता है। इस कहानी को विश्वसनीय मानने के लिए क्या भूत-प्रेम में विश्वास करना ज़रूरी है?
अपने ‘बॉस’ से लोग डरते ज़रूर हैं, लेकिन इतना नहीं डरते कि उसके सामने छींक देने पर भय के मारे मर ही जाएं। फिर भी चेखव की ‘क्लर्क की मौत’ की कहानी यही है। कौन विश्वास करेगा कि बच्चे को पालने में झुलाते-झुलाते एक आया ने तंग आकर अंत में उसका गला घोंट दिया? लेकिन फ्लोबेयर की एक कहानी का यह सच है। यह सच इतना ‘क्रूर’ है, इतना अमानुषिक है कि अतिमानवीय और अविश्वसनीय लगता है।
सच-क्रूर सच चाहे वह ‘कफ़न’ का हो, चाहे ‘क्लर्क की मौत’ का या फिर फ्लोबेयर की कहानी का प्रथम परिचय में हमेशा अविश्वसनीय लगेगा क्योंकि ये कहानियाँ उस सच की खोज के कारण ही कालजयी हो सकी हैं। इस सच का अनुभव एक आघात की तरह होता है। आघात से पहचान की दृष्टि मिलती है। जिसे हम जानते होते हैं लेकिन पहचानते हैं पहली बार। जो अतिपरिचित है वह जैसे अपरिचित होकर सामने आता है और उससे पुनः परिचय होता है। तथाकथित रूसी रूपवादी आलोचक इसी को ‘आस्त्रोनेनिए’ कहते थे। अंग्रेजी में उसे ‘डिफेमिलियराइजेशन’ कहा गया है। हिन्दी में मोटे तौर पर उसे ‘अपरिचयीकरण’ कह सकते हैं। परिचित को अपरिचित करना। अतिपरिचित को पुनः परिचित करना। क्योंकि अतिपरिचय में अवज्ञा का भाव होता है। उल्लेखनीय है कि इस शताब्दी के दूसरे दशक के रूसी रूपवादियों को सच कहने की यह कला सबसे ज़्यादा लेव तोल्सतोय की कहानियों में मिली – विशेषतः ‘इवान इलिच की मृत्यु’ जैसी अमर कहानी में।
वैसे, तोल्सतोय यथार्थवाद के मानदंड माने जाते हैं। लेकिन सच तो यह है कि तोल्सतोय की मुख्य चिंता उस सच को कहने की थी जिसे देखते हुए भी लोग देखने से इन्कार करते थे और जिसके बारे में बड़े तो खामोश थे ही, छोटे भी खामोश थे। ‘इवान इलिच की मृत्यु’ का महत्त्व यथार्थ के सूक्ष्म चित्रण में उतना नहीं जितना यथार्थ में निहित जीवन के अर्थ-जीवन के एक सच को व्यक्त करने में है। अविश्वसनीयता का ख़तरा उठाकर भी तोल्सतोय ने कहानी के माध्यम से ऐसा ‘सच’ कहा।
आज हिन्दी में यह सच ही चिंता का विषय है, जबकि हिन्दी कहानी पर ‘यथार्थवाद’ का आतंक है। दुर्भाग्य से इस आतंक की सृष्टि में काफ़ी हाथ प्रगतिवादी हिन्दी कहानी का भविष्य और जनवादी आंदोलनों का है। सारा ज़ोर यथार्थ के वर्णन और चित्रण पर है। यथार्थ की तलाश में कोई गांव के अंचलों की ओर भागा जा रहा है तो कोई क़स्बों की ओर और शहर के कल-कारखानों की ओर। कुछ लोग आम आदमी को कहानी में पकड़ लाने के लिए परेशान हैं तो कुछ किसानों-मज़दूरों को और कुछ हरिजनों-आदिवासियों तथा दहेज़ की मारी नई बहुओं को। विषय वस्तु के रूप में इस यथार्थ में दिलचस्पी लेने पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है, किंतु दिक़्क़त यह है कि इस यथार्थ के वर्णन मात्र से कहानी नहीं बनती। उपन्यास में शायद इन सबके लिए कहीं अधिक अवकाश हो। कहानी किसी किसान की नहीं होती, कहानी होती है हल्कू नाम के एक विशेष किसान की और वह भी जब उसके जीवन के एक क्रूर सच को एक आघात की तरह एहसास कराती है तब ‘पूस की रात’ बनती है। इस दृष्टि से कहानी एक संवेदनशील कहानीकार की नितांत निजी अनुभूति है और निजी कला भी। और कहने की आवश्यकता नहीं कि यह निजता व्यक्तिवाद नहीं है। यह एक कहानीकार का अपना हस्ताक्षर है, अपनी छाप है। आज कमी है तो इस छाप की, हवा है तो वर्णन की, चित्रण की, यथार्थ की। वैसे देखिए तो कौन यथार्थवादी नहीं है। प्रेमचन्द की परंपरा में सब है, सभी सामूहिक रूप से प्रेमचन्द की विरासत को ढोने वाले।
यथार्थ का आतंक इतना है कि कहानी की हर चर्चा कोरी राजनीतिक बहस होकर रह जाती है; जैसे ‘हंस’ में प्रकाशित ‘कामरेड का कोट’ पर बहस ! विडंबना यह कि यह लेखकों की राजनीतिक बहस नहीं रहती! ऐसे माहौल यह कहना भी गुस्ताखी मालूम होती है कि कहानी भी एक कला है और एक कला रूप की तरह ज़रूरी चर्चा की अपेक्षा रखती है।
आकस्मिक नहीं कि आज हिन्दी कहानी की दुनिया में कवि रघुवीर सहाय जैसा भी कोई रचनाकार नहीं है। ग़रज़ कि कविता में रघुवीर सहाय जो काम कर रहे हैं, कहानी में उस तरह लिखने वाला कोई नहीं दिखता – न उनकी पीढ़ी का, न उनके बाद की पीढ़ी का। क्या ‘रामदास’ कविता जैसी कोई कहानी हिन्दी में लिखी गई है? वैसे छोटी प्रगीतात्मक कविता की अपनी विधागत शर्तें हैं, किंतु विचित्र विडंबना है, कि कहानी के बहुत सारे काम आज की हिन्दी कविता कर रही है। जीवन की कहानियाँ इधर की कहानी में नहीं, बल्कि कविता में सुलभ हो रही हैं।
बीस पच्चीस वर्ष पहले अच्छे गद्य के टुकड़े केवल कहानियों में मिलते थे क्योंकि कविता की भाषा ज़रूरत से ज़्यादा काव्यात्मक हो गई थी। आज उल्टी गंगा बह रही है। गद्य के जीवंत टुकड़े आज केवल कविताओं में ही मिल रहे हैं। जीवन के गद्य के लिए कविता को कहानी की ओर देखने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। निर्मल वर्मा की ‘सूखा’ कहानी को देखकर लगता है कि कहानी में कविता करने वाली लेखनी से भी भाषा की जादुई कलई छूटती जा रही है।
यथार्थ पर पकड़ का प्रमाण गद्य है तो मानना पड़ेगा कि आज की हिन्दी कहानी यथार्थ की माला जपते हुए भी यथार्थ से दूर है। संयोग से जिन लेखकों की कुछ कहानियों में इस नए गद्य की झलक मिलती है, वे अंशतः कवि हैं जैसे उदय प्रकाश के ‘तिरिछ’ कहानी संग्रह की आत्मकथाएं शीर्षक छोटी-छोटी कहानियाँ जिनका संबंध बचपन की स्मृतियों से है। या फिर विष्णु नागर की नीति कथाओं की शैली में लिखी हुई कुछ लघु कथाएं।
शायद लोग यह भूल ही गए हैं कि कहानी यथार्थ का आभास देते हुए भी है अंततः ‘गल्प’ ही। अंग्रेजी में इसीलिए इसे ‘फिक्शन’ कहते हैं, जो गुणधर्म में ‘मिथक’ का सगोतिया है। कहानी के माध्यम से हर लेख किसी-न-किसी तरह का एक ‘मिथक’ ही रचता है। इस ‘मिथक’ को कल्प सृष्टि भी कह सकते हैं। आकस्मिक नहीं कि हर कालजयी कहानी अंततः एक ‘मिथक’ बनकर जातीय स्मृति में जीवित रहती है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसी कालजयी कल्प सृष्टि के लिए कल्पनाशीलता की आवश्यकता है और खेद के साथ कहना पड़ता है कि अधिकांश कहानीकारों में आज उस कल्पनाशीलता की कमी है। इसका असर कहानी की सृजनशीलता पर पड़ा है। सृजनात्मक दृष्टि से कहानी क्षतिग्रस्त हुई है।
क्या कहानीकारों को यह याद दिलाना होगा कि आज अख़बारों की नज़र में भी ख़बर की परिभाषा बदल गई है। खोजी पत्रकारिता के चलते ख़बर वह नहीं रही जो घटित हुई, बल्कि ख़बर वह जो ‘सच’ का पता लगाकर रची जाती है। प्रसंगवश, अखबार वाले भी ख़बर को ‘स्टोरी’ ही कहते हैं। विडंबना यह है कि अख़बारों की ‘स्टोरी’ जैसे-जैसे ‘सर्जनात्मक’ होने लगी है, साहित्य जगत की ‘स्टोरी’ वैसे-वैसे कल्पनाशून्य और यथार्थवादी हो चली है।
कहानी का अपनी ज़मीन के निकट रहना ज़रूरी तो है, पर ज़मीन पर रेंगते रहने से वह जमीन में गड़ कर ख़त्म हो जाती है। कला के रूप में विकास करने के लिए कहानी को एक हद तक ज़मीन के ऊपर उठना ही पड़ता है। जैसा कि तुलसीदास ने कहा है –
“उरबी परि कलहीन होइ
ऊपर कलाप्रधान।
तुलसी देखु कलाप गति,
साधन घन पहचान ॥
मोर के पंख जब तक पृथ्वी पर पड़े रहते हैं, तब तक वे कलाहीन बने रहते हैं पर जब वे ही पंख ऊपर जाते हैं तो वे कला प्रधान हो जाते हैं। इसलिए तुलसीदास उस साधन घन को पहचानने के लिए कहते हैं।
आज के कवियों को तो इस बात का बराबर एहसास है कि उनके सृजन की चुनौती वह भाषा है जिस में निराला और मुक्तिबोध जैसे कवि रचना कर चुके हैं। किंतु कहानीकार आभास नहीं देते कि जिस भाषा में ‘कफ़न’, ‘रोज़’, ‘चीफ की दावत’, ‘क्लाड ईथरली’, ‘हत्यारे’ जैसी कहानियां लिखी गई हैं उसी में उन्हें कुछ नया रचना है। शायद इसीलिए जहां आज मलयालम, मराठी, यहां तक कि गुजराती कहानी की एक निजी पहचान बन चुकी है हिन्दी कहानी का चेहरा काफ़ी धुंधला है। हो सकता है, मेरी यह धारणा एकदम ग़लत हो, लेकिन जब तक ग़लत साबित नहीं होती तब तक तो उसके भविष्य को लेकर चिंता तो है ही। कहानियाँ निस्संदेह हैं, लेकिन कहानीकार नहीं हैं- जो हैं भी वे एक या दो कहानियों के कहानीकार।