भारतेन्दु और भारत की उन्नति – डॉ. नामवर सिंह

भारतेंदु हरिश्चंद्र

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र डेढ़ सौ साल बाद फिर याद आ रहे हैं और याद आ रहा है सबसे पहले उनका वह अंतिम व्याख्यान :’ भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ पहली बार यह व्याख्यान 3 दिसम्बर 1884 की’ नवोदिता हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद तो इधर विविध पत्रिकाओं और पुस्तकों में उसे फिर-फिर छापने की होड़ सी लग गई और कुछ चर्चाएं भी हुईं। इस तरह वह व्याख्यान अब एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज़ का दर्जा हासिल कर चुका है – इस हद तक कि वह अब सिर्फ़ बलियावाले व्याख्यान के रूप में प्रसिद्ध है।

समकालीनों की दृष्टि में भी वह एक बड़ा ललित, गंभीर और समयोपयोगी व्याख्यान था। लेकिन उसके लालित्य, गंभीरता और समयोपयोगिता को खोजकर सामने रखने का काम बाक़ी था। यह ऐतिहासिक कार्य किया डॉ. रामविलास शर्मा ने। ’भारतेन्दु युग’ (1942) नामक पुस्तक में उन्होंने ही पहले-पहल भारतेन्दु के उस व्याख्यान में व्यक्त क्रांतिकारी, सामाजिक और राजनीतिक विचारों का उद्घाटन किया और उसे’ भारतवर्ष की श्रेष्ठ वक्तृताओं में गिने जाने योग्य’ माना। इसलिए उस व्याख्यान के ऐतिहासिक महत्त्व को पहचानने का श्रेय भी रामविलास जी को ही है।

इधर अस्सी के दशक से हिन्दी प्रदेश में कुछ युवा इतिहासकार भी भारतेन्दु के उस व्याख्यान की ओर आकृष्ट हुए हैं। निश्चय ही दिलचस्पियां और आवश्यकताएं उनकी अपनी हैं, फिर भी उनकी नज़र में यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज़ है पर कुल मिलाकर है एक दस्तावेज ही। इस प्रसंग में कालक्रम से क्रमशः डॉ. सुधीरचन्द्र, डॉ. ज्ञानेन्द्र पांडेय और डॉ. वसुधा डालमिया के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इतिहासकारों के इस हस्तक्षेप से उस व्याख्यान की व्याख्या में निश्चित रूप से गहराई और बारीक़ी में जाने का शुभारंभ हुआ है।

सम्मान का भाव रामविलास जी के प्रति हममें से प्रत्येक के मन में है, पर कहीं-न-कहीं उनकी व्याख्या के प्रति गंभीर संदेश भी है। मसलन सुधीरचन्द्र को भारतेन्दु में सर्वत्र एक प्रकार का दुचित्तापन दिखाई पड़ता है: राजभक्ति और देशभक्ति को लेकर भी, हिंदू-मुस्लिम भेदभाव के सवाल पर भी, यहां तक कि’ स्वदेशी’ के मामले में भी उनके आचार-विचार में फांक दिखती है। इसी तरह ज्ञानेन्द्र पांडेय को भारतेन्दु का राष्ट्रवाद ’अनिश्चित’ सा प्रतीत होता है जबकि रामविलास जी को भारतेन्दु में एक सम्मिलित राष्ट्र की कल्पना स्पष्ट दिखती है। इन तमाम मुद्दों पर वसुधा डालमिया को न सुधीरचन्द्र के एतराज में दम मालूम होता है और न ही ज्ञानेन्द्र पांडेय के संदेह में। दरअसल उनकी शिकायत और ही है। भारतेन्दु का ज़ोर इस बात पर है कि सब उन्नतियों का मूल धर्म है और रामविलास जी हैं कि व्याख्या करते समय इस बात को एकदम गोल कर जाते हैं। वसुधाजी की शिकायत व्याख्याकार की इस चुप्पी से है।

गरज यह कि भारतेन्दु का बलियावाला व्याख्यान अब बौद्धिकों के विवाद के घेरे में आ गया है और इस तरह एक विवादास्पद दस्तावेज है। छपा हुआ पाठ जो भी हो, पढ़े जानेवाले पाठ अनेक हैं और इस उत्तर आधुनिक दौर की यह बरकत है। रास्ते दो ही हैं – या तो आप इनमें से कोई एक पाठ चुन लें या फिर स्वयं अपना पाठ तैयार करें। जो यथालाभ संतोषी हैं वे निश्चय ही पहला रास्ता चुनेंगे, लेकिन हम जब भारतेन्दु को फिर याद करने चले ही हैं तो उस बलियावाले व्याख्यान को भी एक बार फिर क्यों न पढ़ लें।’ फिर-फिर’ का चक्कर तो याद के साथ ही लगा है। गालिब की’ मुद्दत हुई है यार को मेहमां किए हुए’ के मतले से शुरू होने वाली ग़ज़ल की कैफ़ियत यही फिर-फिर है, कोई चाहे तो भारतेन्दु के इस व्याख्यान को भी गालिब की इस मुसल्सल ग़ज़ल की तरह पढ़ सकता है। आख़िर ग़ालिब और भारतेन्दु एक तरह से समकालीन तो थे ही, बावजूद इसके कि दोनों को कभी मिलने का सौभाग्य न मिल सका। लेकिन अब उसका मुज़ायक़ा भी क्या ?

बात फिलहाल हमारे सामने वह व्याख्यान है – आदि से अंत तक एक अनुक्रम में बंधा और सजा। बीच-बीच में संस्कृत के श्लोक, उर्दू के शेर, हिन्दी के काव्यांश, पुराण और उपमाएं और इन्हीं सबके बीच छिटकते हुए विचारों के स्फुलिंग। विशेष है कि इनमें से हर चीज़ अपने मुकाम पर है और उसकी सार्थकता भी अपनी जगह से जुड़ी हुई है। बीच से किसी वक्तव्य के टुकड़े को नोचकर पेश करें तो वह और ही अर्थ देने लगेगा। ग़रज़ कि पूरे व्याख्यान के विन्यास में एक अंतर्निहित योजना है और भारतेन्दु ने उसे साकार करने के लिए अपनी सिद्ध नाट्य-कला के सारे कौशल का भरपूर इस्तेमाल किया है।

ध्यान देने की बात है कि व्याख्यान के विषय का उल्लेख एकदम आरम्भ में नहीं बल्कि काफ़ी देर के बाद किया गया है। आरंभ के दो पैराग्राफ के बाद भारतेन्दु बतलाते हैं : “मुझको मेरे मित्रों ने कहा था कि तुम इस विषय पर आज कुछ कहो कि हिन्दुस्तान की कैसे उन्नति हो सकती है।” मजा यह कि सूचना तो वे दे देते हैं किंतु यह कहकर बच निकलते हैं कि इस विषय पर मैं और क्या कहूं। और तुरंत भागवत के एक श्लोक की आड़ में वे छिप जाते हैं। विषय पर लौटते हैं कुछ और देर बाद – लगभग दो-तिहाई व्याख्यान दे डालने के बाद। लेकिन अंदाज़ वही : “भाई हम तो जानते ही नहीं कि उन्नति और सुधारना किस चिड़िया का नाम है।” और सहसा “शीघ्रता में” कहते हैं: “सब उन्नतियों का मूल धर्म है।” इतनी बड़ी बात और “शीघ्रता में!” क्या सूत्र शीघ्रता में फूटते हैं ? “

इस एक उदाहरण से आभास हो जाएगा कि व्याख्या का पूरा विन्यास कितना संश्लिष्ट है। भाषा निश्चय ही बहुत सरल है – लिखित भाषा से सर्वथा भिन्न। एकदम हिन्दी; बल्कि बोलती हुई हिन्दी। इसके साथ ही विन्यास काफ़ी जटिल बोलचाल की है। सरल भाषा और जटिल विन्यास एक साथ हों तो बौद्धिकों के लिए चुनौती होगी ही। विन्यास की अनदेखी करके यदि व्याख्यान के आरंभिक अंश को स्वतंत्र रूप में लें तो लगेगा कि भारतेन्दु अंग्रेज कलक्टर और सरकारी हाकिमों की खुशामद कर रहे हैं। आख़िर कलक्टर राबर्ट्स को अकबर और मुंशी चतुर्भुज सहाय और मुंशी बिहारीलाल साहब को अबुलफज़ल और टोडरमल कहने का क्या अर्थ है? लेकिन अगले ही क्षण पहले रेलगाड़ी का रूपक और फिर एक पर एक चढ़े तीन मेढकों के रूपक से सारी ग़लतफ़हमी हवा हो जाती है। कोई चाहे तो इसे भारतेन्दु की वाक्चातुरी अथवा वाक्छल भी कह सकता है। लेकिन साहित्य-कला के देश को अंदर से जानने वाले इस रहस्य को किसी और नाम से पुकारते हैं – अंग्रेजी में’ रेटरिक’ और संस्कृत में’ अलंकृति’। ऐसी अलंकृत कृति का बोध आनन्दवर्धन के शब्दों में केवल ’काव्यार्थतत्त्वज्ञ’ को ही हो सकता है। यहां ’शब्दार्थशासनज्ञानमात्र’ से काम नहीं चलता। और कभी-कभी तो उनसे भी चूक हो जाती है; जैसे इसी व्याख्यान में घोड़ों के प्रसंग में ’हिन्दू काठियाबाड़ी’ इतिहासविद ज्ञानेन्द्र पांडेय के लिए अबूझ हो गया और उन्होंने ’हिन्दू पपेट’ अनुवाद से काम चलाया जबकि यहां तुरकी, ताज़ी घोड़ों और जापानी टट्टुओं के बरक्स हिंदुस्तान के काठियावाड़ी घोड़ों की ओर इशारा है। ऐसे प्रसंग में ’काठियावाड़’ को कठपुतली वही भारतीय समझेंगे जो भारत में रहते हुए अपने देश के भूगोल और इतिहास से पूरी तरह परिचित नहीं हैं। विडंबना है कि इस व्याख्यान के भाषिक मर्म और संवेदना को समझने ही में कहीं अधिक दक्षता दिखाई है। एक ऐसे विद्वान ने जो इतिहासकार नहीं, बल्कि हिन्दी साहित्य के अध्येता हैं और हिन्दी जिनकी मातृभाषा भी नहीं है। वे हैं रोनाल्ड स्टुअर्ट मैकग्रेगर जो अभी कुछ वर्ष पहले तक केम्ब्रिज में हिन्दी पढ़ाते थे। मैकग्रेगर ने लगभग दस साल पहले इसी विषय पर ’माडर्न एशियन स्टडीज’ (1991) एक अच्छा-सा निबन्ध प्रकाशित किया था, जिसकी प्रशंसा आगे चलकर वसुधा डालमिया को भी करनी पड़ी।

मैकग्रेगर ने व्याख्यान को ध्यान से पढ़ा है। इसका सबसे दिलचस्प उदाहरण है निम्नलिखित संदर्भ की व्याख्या : “अंग्रेजों के राज्य में सब प्रकार का सामान पाकर अवसर पाकर भी हम लोग जो इस समय पर उन्नति न करें तो हमारा केवल अभाग्य और परमेश्वर का कोप ही है। सास के अनुमोदन से एकांत रात में सूने रंगमहल में जाकर भी बहुत दिन से जिस प्रान से प्यारे परदेसी पति से मिलकर छाती ठंडी करने की इच्छा थी, उसका लाज से मुंह भी न देखै और बोलै भी न, तो उसका अभाग्य ही है। वह कल तो फिर परदेस चला जाएगा।”

यह संदर्भ दूसरों से अनदेखा ही रहा। इतना तो स्पष्ट है कि भारतेन्दु की दृष्टि में अंग्रेजी राज से भारत का वही संबंध है जो परदेशी पति से भारतीय स्त्री का होता है। किंतु मैकग्रेगर को इसमें ’आइरनी’ या विडंबना दिखाई देती है और इसे वे पाश्चात्य प्रभाव के प्रति भारत के दुचित्ते रुख़ का सूचक मानते हैं। उन्हें यह स्वीकार करने में कठिनाई होती है कि भारतेन्दु अंततः अंग्रेज के भारत छोड़कर चले जाने की कल्पना करते थे। स्पष्ट ही यहां रूपक में काफ़ी खींचतान की गई है। इसी प्रकार की खींचतान एक और प्रसंग में भी मिलती है। उल्लेखनीय है कि रामविलास जी ने भी व्याख्यान के उस अंश को काफ़ी उभार के साथ प्रस्तुत किया है।

“जब तक सौ दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से न निकाले जाएंगे, दरिद्र न हो जाएंगे, क़ैद न होंगे वरंच जान से न मारे जाएंगे, तब तक कोई देश भी न सुधरेगा।”

मैकग्रेगर को इस उद्धरण में बीसवीं शताब्दी के राजनीतिक संघर्ष की भविष्यवाणी सुनाई पड़ती है। ’सुधरेगा’ क्रिया से तो स्पष्ट है ही,’ जात से निकाले न जाएंगे’ वाक्यांश से और भी स्पष्ट हो जाता है कि संदर्भ राजनीतिक आंदोलन का नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार का है। रामविलास जी यदि सन् 42 में इस अंश में क्रांति का बिगुल सुनें तो उतना आश्चर्य नहीं, जितना 1991 में मैकग्रेगर की राजनीतिक दूरदर्शिता पर हैरानी होती है।

दरअसल व्याख्यान की व्याख्याओं में व्याख्याकारों के तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक परिवेश की भूमिका भी नियामक दिखाई पड़ती है। इसी कारण अस्सी के दशक के बाद की व्याख्याओं के प्रायः भारतेन्दु में हिन्दू संप्रदायवाद के कीटाणु दिखाई पड़ते हैं। यह एक तरह से वर्तमान संप्रदायवाद के आलोक में अतीत को देखने की कोशिश है जिससे सुधीरचन्द्र भी तमाम कोशिशों के बावजूद मुक्त होने में कामयाब नहीं हो पाते।

विभाजन के बाद के भारत से उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध का भारत हिन्दू संप्रदायवाद और मुस्लिम संप्रदायवाद से कितना भिन्न था इसकी एक ही मिसाल काफ़ी है। सन् 1884 में जब भारतेन्दु बलिया के ददरी मेले में यह कह रहे थे कि ’जो हिन्दुस्तान में रहे वह हिन्दू’ , ठीक उसी समय सय्यद अहमद खां भी लाहौर में यही बात कर रहे थे। विचित्र संयोग है कि मैकग्रेगर भी भारतेन्दु के इस कथन को कोरी शब्द-क्रीड़ा मानते हैं। उन्होंने तो भारतेन्दु के इस दृष्टांत में भी एक नया अर्थ ढूंढ़ लिया है कि भारत में हिन्दू और मुसलमान में जेठानी-देवरानी के रिश्ते हैं। मैकग्रेगर के अनुसार इस उपमा में ही यह निहित है कि अलग-अलग परिवारों से आने के कारण जितना जेठानी और देवरानी के बीच निकट यानी ख़ून का रिश्ता नहीं होता उसी तरह का रिश्ता भारतेन्दु हिन्दू और मुसलमानों के बीच भी मानते थे। ऐसे ही छिटपुट वक्तव्यों के आधार पर अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारतेन्दु की दृष्टि में हिन्दू मुस्लिम एकता का आधार सिर्फ़ एक उभयनिष्ठ हित है। तात्पर्य यह कि हिन्दू-मुस्लिम एकता का आधार रागात्मक नहीं बल्कि ख़ालिस व्यावहारिक है। कहना न होगा कि यह धारणा रामविलास जी की इस स्थापना से कुछ भिन्न है कि भारतेन्दु ने जिस राष्ट्र की कल्पना की थी उसमें सभी धर्मों और मत-मतांतरों के लिए स्थान था। सवाल स्थान का नहीं, बल्कि उनकी समान हैसियत का है और कहना न होगा कि इस मुद्दे पर यहां बिल्कुल ख़ामोशी है और यह ख़ामोशी बहुत-सी ग़लतफ़हमियों को जन्म देती है।

व्याख्यान में ध्यान देने योग्य एक बात यह भी है कि व्याख्यान के शीर्षक में तो देश का नाम’ भारतवर्ष’ है पर पूरे व्याख्यान के दौरान भारतवर्ष संज्ञा का प्रयोग सिर्फ़ एक बार हुआ है और वह भी पृथ्वीराज और ग़ियासुद्दीन वृत्तांत बखानने के ठीक बाद। लेकिन उन्नति के ही प्रसंग में। वाक्य इस प्रकार है : “भारतवर्ष की सब अवस्था, सब जाति, सब देश में उन्नति करो।” इसके बरक्स शुरू से आख़िर तक’ हिन्दुस्तान’ नाम का ही इस्तेमाल किया गया है; मसलन’ सो हिन्दुस्तान की साधारण प्रजा की दशा यही है’ ,’ पहले भी जब आर्य लोग हिंदुस्तान में आकर बसे थे’ : मुसलमानों से अपील करते समय भी भारतेन्दु यही कहते हैं कि “मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिंदुस्तान में बसकर वे लोग हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें।” इन सभी प्रयोगों में सबसे दिलचस्प है : “जब आर्य लोग हिंदुस्तान में आकर बसे थे।” कहना न होगा कि आर्य लोग जब हिंदुस्तान में आए तो वह हिंदुस्तान के नाम से न जाना जाता था। पूरे प्रकरण को उचित परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए इतना ही काफ़ी है कि बंटवारे के बाद इस देश का नाम भारत रखने का ही निर्णय हुआ; हिंद केवल ’जयहिंद’ जैसे अनौपचारिक सलाम में बचा रह गया, और हिंदुस्तान तो इतिहास की वस्तु हो गया। इस पूरे प्रसंग में कुछ लोग भारतेन्दु के दुचित्तेपन को रेखांकित कर सकते हैं तो कुछ सीधे-सीधे हिंदूपन भी सूंघने से बाज़ न आएंगे! भारतेन्दु का ठीक-ठीक आशय व्याख्यान का बीज शब्द है’ उन्नति’ ।’ उन्नति’ से क्या है? कहते हैं कि स्वयं भारतेन्दु ने अपने व्याख्यान का अंग्रेजी शीर्षक दिया था How can India be reformed ? (हाउ कैन इंडिया बी रिफॉर्म्ड ?) इससे स्पष्ट है कि वे’ उन्नति’ का अर्थ’ सुधार’ समझते थे। किंतु व्याख्यान के दौरान वे उन्नति और सुधारना – इन दोनों शब्दों का प्रयोग इस तरह से करते हैं जैसे वे दो भिन्न संकल्पनाएं हैं-भिन्न लेकिन परस्परपूरक। उदाहरण के लिए “और वह सुधारना भी ऐसा होना चाहिए कि सब बात में उन्नति हो।” दूसरा प्रयोग, “भाई हम तो जानते ही नहीं कि उन्नति और सुधारना किस चिड़िया का नाम है।”

सामान्यतः उन्नति को अंग्रेजी में लोग’ प्रोग्रेस’ ही कहते हैं, ख़ासतौर से भारतेन्दु के इस व्याख्यान के संदर्भ में। ऐसा करने वाले यह भूल जाते हैं कि अंग्रेजी शब्द’ प्रोग्रेस’ के लिए हिन्दी में’ प्रगति’ शब्द चलता है – ख़ासतौर से तीस के दशक में’ प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ की स्थापना के बाद से। संस्कृत का आभास देते हुए’ प्रगति’ शब्द संस्कृत के शब्दकोश में दर्ज नहीं है।’ प्रगत’ तो संस्कृत में है पर’ प्रगति’ नहीं।

प्रगति और उन्नति में अंतर यह है कि’ प्रगति’ से आगे बढ़ने का अर्थ व्यक्त होता है और उन्नति से ऊपर उठने का। संभवतः इसलिए उन्नति का प्रयोग’ प्रोमोशन’ के लिए होता है। साफ़ है कि उन्नीसवीं सदी की हिन्दी में भारतेन्दु को प्रगति शब्द सुलभ नहीं था। इसलिए वे आगे बढ़ने के लिए भी’ उन्नति’ शब्द का प्रयोग करने के लिए विवश थे।

भारतेन्दु अपने व्याख्यान में बार-बार आगे बढ़ने की बात करते हैं। आरंभ में ही वे जब हिंदुस्तानी लोगों को रेल की गाड़ी कहते हैं तो तुरंत ही वे इंजिन की बात करते हैं, कामना करते हैं कि हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला तो हो। रेल के बाद वे घोड़ों की उपमा का सहारा लेते और हिंदुस्तानी घोड़ों की शिकायत करते हुए कहते हैं कि काठियाबाड़ी खाली खड़े-खड़े टाप से मिट्टी खोदते हैं। घुड़दौड़ का पूरा रूपक बांधते हुए अंत में वे ऐलान करते हैं : “यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जाएगा फिर कोटि उपाय किए भी आगे न बढ़ सकेगा।”

इन वाक्यों से स्पष्ट है कि भारतेन्दु की उन्नति में’ प्रगति’ की भावना भी अंतर्निहित थी। इस प्रसंग में यह जोड़ना ज़रूरी है कि’प्रगति’ के अर्थ में उन्नति का प्रयोग विशेष रूप से वे औद्योगिक और व्यावसायिक विकास के ही प्रसंग में करते थे। हिंदुस्तानी लोगों को आगे बढ़ने की अपील करते हुए वे प्रायः यूरोप और अमेरिका के अलावा जापान में उद्योग वाणिज्य की प्रगति का आदर्श प्रस्तुत करते थे। इस प्रकार उन्नति का प्रगतिवाचक अर्थ मुख्यतः उद्योग, वाणिज्य, विज्ञान और टेक्नोलॉजी तक ही सीमित था।

सवाल यह था कि उद्योग वाणिज्य आदि में उन्नति हो तो कैसे? यह तो तय है कि फिलहाल इन क्षेत्रों में उन्नति अवरुद्ध है। इसका अर्थ है कि कहीं-न-कहीं भारत की उन्नति के मार्ग में बाधाएं हैं। सबसे बड़ी बाधा है उपनिवेशवाद। अंग्रेजी राज का उपनिवेश होना भारत की उन्नति के मार्ग में बाधक है, इस कटु सत्य का अहसास भारतेन्दु को पूरा था। बलियावाले व्याख्यान में उन्होंने उपनिवेश या उपनिवेशवाद शब्द का प्रयोग नहीं किया है – यह तथ्य है। शायद इसलिए कि श्रोताओं का जन-समुदाय उसका ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझ पाएगा। लेकिन अन्यत्र प्रबुद्ध लोगों के लिए लिखे हुए लेखों में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में उपनिवेशवाद की चर्चा की है। उदाहरण के लिए 31 अगस्त 1874 की ’कविवचन सुधा’ में ’सच मत बोल’ शीर्षक संपादकीय टिप्पणी के अन्तर्गत “जिस प्रकार अमेरिका उपनिवेषित होकर स्वाधीन हुआ वैसे ही भारतवर्ष भी स्वाधीनता लाभ कर सकता है परंतु भारतवर्ष के उपनिवेषित होने से इसके विपक्ष में बहुत आपत्ति है। “

यह उपनिवेशवाद ही है जिसके कारण मुसलमानों का राज अंग्रेजों के राज से भिन्न था। उसी टिप्पणी में भारतेन्दु ने लिखा था कि “मुसलमान लोग सौ गुना अपव्ययी थे, परन्तु वे लोग इस देश के निवासी थे इससे उनका अर्थ समुदाय इसी देश में व्यय होता था।” तात्पर्य यह कि मुस्लिम शासन में भारत किसी का उपनिवेश नहीं था। उपनिवेश हुआ वह अंग्रेजी राज में, जिससे देश का सारा धन विदेश चला जाता है। इस कटु सत्य का बोध भारतेन्दु को कुछ तो अपने व्यापार के अनुभव से हुआ था और बहुत कुछ दादा भाई नौरोजी के लेखों से। उल्लेखनीय है कि’ कविवचन सुधा’ में 1880 के दशक के मध्य में दादा भाई नौरोजी के ’पावर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ नामक पुस्तक के रूप में आगे चलकर संकलित होने वाले लेख हिन्दी अनुवाद में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए थे। इन्हीं लेखों से प्रभावित होकर भारतेन्दु ने आर्थिक राष्ट्रवाद में स्वदेशी पर इतना ज़ोर दिया है। भारतेन्दु के चिंतन में स्वदेशी का महत्त्व कितना है, इसका अंदाज़ सिर्फ़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि व्याख्यान का अंत इस आह्वान के साथ होता है : “परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा मत करो। अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो।”

भारतवर्ष की उन्नति में विदेशी बाधा के साथ आंतरिक बाधा है-भारतेन्दु को इसका भी गहरा अहसास था जिससे निपटने के लिए वे कटिबद्ध थे। इसी आंतरिक संघर्ष को वे ’सुधारना’ या’ सुधार’ कहते थे। गुजराती आज भी उन्नीसवीं सदी के उस दौर को ’सुधारा युग’ कहते हैं। कहना कठिन है कि यह अंग्रेजी के ’रिफार्मेशन’ से आया है या अपनी ही पुरानी परंपरा से निकला है। जो हो, हर हालत में इसका संबंध धर्म से है। इसीलिए भारतेन्दु ने व्याख्यान में धर्म को सब उन्नतियों का मूल कहा है। उनकी दृष्टि में समाजनीति, राजनीति, मत-मतांतर आदि सभी इस धर्मनीति पर आधारित हैं या फिर धर्म से किसी-न-किसी तरह जुड़े हैं। उनका दृढ़ विश्वास था कि धर्मनीति और समाजनीति के कुछ ऐसे रूप हैं जो देशकाल के अनुसार बदले जा सकते हैं जैसे विदेश यात्रा, विवाह पद्धति, जात-पांत, छूआछत आदि। इन सब सामाजिक व्यवस्थाओं में आवश्यकतानुसार परिवर्तन संभव है और उचित भी। परमात्मा से है

लेकिन धर्म का एक और रूप है जिसका संबंध आत्मा और इस मामले में वे सच्चे’ वैष्णव’ थे- यहां तक कि वैष्णवता को ही वे भारत का राष्ट्रधर्म की दृष्टि से देखें तो भारतेन्दु की’ वैष्णवता’ उनके’ भारतवर्ष की तरह ही व्यापक थी – इतनी व्यापक कि उसमें नाभादास के’ भक्तमाल’ के सभी प्रकार के भक्त के लिए तो स्थान है ही, उसमें उस’ उत्तरभक्तमाल’ के लिए भी जगह बनाई गई जिसकी रचना भारतेन्दु ने स्वयं की।’ इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिक हिंदू वारिए’ जैसी पंक्ति से ही भारतेन्दु की नई और व्यापक वैष्णवता का अनुमान लगाया जा सकता है।

वैष्णवता की इस अवधारणा का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के उस लंबे धार्मिक वाद-विवाद-संवाद के बीच हुआ जिसमें सनातनी पंडितों के साथ-साथ ब्राह्मो समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन आदि नए धार्मिक आंदोलनों और संगठनों के अगुवा तो शामिल ही थे, ईसाई धर्म के विभिन्न चर्चों के प्रबुद्ध धर्माचार्य और अनेक यूरोपीय प्राच्यविद्याविदों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इस धार्मिक संवाद के बारे में वसुधा डालमिया का शोधग्रन्थ ’नेशनलाइजेशन ऑफ हिंदू ट्रैडिशन’ (1997) सर्वाधिक उपादेय है।

बलिया के व्याख्यान में इस गंभीर विचारमंथन से निकले हुए अमृत की कुछ ही बूंदें झलक पाई हैं क्योंकि वह सर्वजन-सुलभ व्याख्यान था किंतु उससे एक ऐसे क्रांतदर्शी कवि का व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है जिसकी सर्जनात्मक प्रतिभा की जड़ें ठेठ अपनी ही परंपरा से फूटी हैं और जिसके हृदय वैष्णव ज़रूर था, लेकिन वह किसी मंदिर का मोहन भोग न था। उस हृदय में अनीति और अन्याय के विरुद्ध दहकती हुई आग भी थी और दुखी-दीन के लिए करुणा भी। जिंदादिली इतनी कि अंतिम घड़ी में मृत्युशय्या पर यह कहने का जिगर रखता हो : “हमारे जीवन के नाटक का प्रोग्राम नित्य नया-नया छप रहा है- पहले दिन ज्वर की, दूसरे दिन दर्द की, तीसरे दिन ख़ासी की सीन हो चुकी, देखें लास्ट नाइट कब होती है।”

भारतेन्दु ने अंग्रेजी राज को क्षय का रोग कहा था और वे मरे भी क्षय रोग से ही। चंद्रमा का एक नाम क्षयी भी है। भारत का वह चन्द्र बलियावाले व्याख्यान के लगभग दो-ढाई महीने बाद ही अस्त हो गया। नवंबर 1884 में व्याख्यान हुआ और 6 जनवरी 1885 को चंद्रास्त।

व्याख्यान के दिन कतकी पूनो थी। ऊपर आकाश में पूरा चांद और नीचे धरती का पूरा चांद। पास ही हर-हर बहती हुई भागीरथी।

आज भी उस दृश्य को याद करके रोमांच हो आता है।

डॉ. नामवर सिंह

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