महात्मा जोतिबा फुले के भाषणों पर जब मैं यह प्रतिक्रिया लिख रहा हूँ तो दूसरी ओर नूपुर शर्मा नाम की एक भाजपा प्रवक्ता द्वारा पैगंबर मुहम्मद पर की गई अपमानजनक टिपप्णी को लेकर देश भर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं और नूपुर शर्मा को फाँसी देने की माँग हो रही है। एक ओर हम अपने बच्चों को जीवों की उत्पत्ति और सृष्टि के विकास के वैज्ञानिक सिद्धांत को चार्ल्स डार्विन के जैव विकास सिद्धांत ( theory of evolution) का हवाला देते हुए पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा रहे हैं और उन्हें समझा रहे हैं कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति में किसी अदृश्य सत्ता या ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है बल्कि जीवन की उत्पत्ति रासायनिक अभिक्रियाओं तथा भौतिक प्रक्रियाओं के कारण हुई है तो दूसरी ओर अपने उन्हीं बच्चों को कुरान, बाइबिल और पुराणों में वर्णित किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना की घुट्टी पिलाकर उन्हें विज्ञानविरोधी, अंधविश्वासी और पाखंडी बना रहे हैं। यही कारण है कि आदिम मनुष्य के मस्तिष्क की उपज, यह तथाकथित सर्वशक्तिमान ‘ईश्वर’ मानव समाज का सबसे बड़ा शत्रु बना हुआ है। आज भी धर्म और ईश्वर के नाम पर ही सबसे अधिक खून बहाऐ जा रहे हैं। आज से लगभग पौने दो सौ वर्ष पहले जन्म लेने वाले महात्मा जोतिबा फुले (1827-1890) के चिन्तन और दृष्टिकोण को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि हमारा समाज वैचारिक स्तर पर उनसे आगे बढ़ा हुआ है।
‘देस हरियाणा’ के सौजन्य से महात्मा जोतिबा फुले के भाषणों का हिन्दी अनुवाद मैंने पहली बार पढ़ा। ये भाषण 1856 में प्रकाशित हुए थे। उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले ने इसका संपादन किया था। उस समय महात्मा फुले की उम्र महज 29 साल थी। जोतिबा फुले के ये भाषण क्रमबद्ध इतिहास के रूप में हैं। इनकी संख्या चार हैं जिनके शीर्षक हैं क्रमश: ‘अति प्राचीनकाल’, ‘इतिहास’, ‘सभ्यता’ और ‘गुलामगिरी’। अपने पहले भाषण में उन्होंने जीवों की उत्पत्ति से लेकर सभ्य होते मनुष्य तक की कहानी का प्रामाणिक विवेचन किया है। इसके पीछे उनकी दृष्टि पूरी तरह आधुनिक और वैज्ञानिक है। मानव जाति की उत्पत्ति का विश्लेषण करते हुए वे अनुमान करते हैं कि, “ब्रह्मांड के कई सौर मंडलों के ग्रहों में थलचर, जलचर, नभचर आदि जीव -जंतु हो सकते हैं। अपने भूमंडल पर सभी प्राणियों में मानव प्राणी श्रेष्ठ है।” ( पृष्ठ-15) इसी तरह उन्होंने पशु- पक्षियों के उत्पन्न होने तथा जंगली अवस्था से सभ्य मानव बनने की प्रक्रिया का विस्तृत विश्लेषण किया हैं। उन्होंने अपने इस भाषण को मानव जाति की उत्पत्ति, पशु-पक्षी और मानव, जंगली अवस्था से मानव, मनुष्य की प्रगति, बली राजा का बलिस्तान जैसे उपशीर्षकों में बाँटा है। इसी तरह ‘इतिहास’ शीर्षक भाषण में बहामनियन नाईट्स, झूठा इतिहास लिखने वाले भट्ट-ब्राह्मण, बलिस्तान की सभ्यता, ग्रीक, रोमन और गुलाम, जब बली राज आएगा जैसे उपशीर्षक हैं। उनका तीसरा व्याख्यान ‘सभ्यता’ शीर्षक से हैं। इसमें उपशीर्षक हैं, प्राचीन काल के अपने पूर्वज, अज्ञानी आर्यन टोली, बलिस्तान ही हमारी जन्मभूमि है, यूनान-रोमन सभ्यता तथा गुलामगिरी के इतिहास की ओर ध्यान दो। उनका अंतिम भाषण ‘गुलामगिरी’ है। इसके उपशीर्षक हैं, भयभीत जंगली कुत्ते की कहानी, पशु जगत और मानव जगत, अरस्तू और यूनान के गुलाम, रोमन साम्राज्य में गुलामों की स्थिति और अमेरिकन नीग्रो की गुलामगिरी।
विश्वास ही नहीं होता कि आज से लगभग पौने दो सौ साल पहले सामान्य से भी निचले स्तर के माली परिवार का मामूली स्कूली शिक्षा अर्जित करने वाला एक युवक इतना सुपठित, तार्किक और आधुनिक हो सकता है। मानव समाज के विकास को लेकर दिए गए ये व्याख्यान पर्याप्त प्रमाणों से पुष्ट और वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न हैं। उल्लेखनीय है कि उन दिनों न तो इतने शोध हुए थे और न शोध- सामग्री ही उपलब्ध थी। संचार के साधनों का तो अत्यंत ही अभाव था। फुले खुद अत्यंत निम्न परिवार से ताल्लुक रखते थे।
फुले के इन भाषणों के हिन्दी अनुवादक और ‘देस हरियाणा’ पत्रिका के संपादक प्रो। सुभाष चंद्र ने अपने संपादकीय में इस ओर संकेत करते हुए लिखा है कि प्रसिद्ध मानवशास्त्री एंगेल्स की पुस्तक ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य’ का मानव विकास की विभिन्न संस्थाओं के निर्माण को जानने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। गौर करने की बात यह है कि यह पुस्तक सन् 1884 में प्रकाशित हुई थी। (द्रष्ट्य, देश हरियाणा, जनवरी-अप्रैल 2022, पृष्ठ-8) अपने भाषणों में यूरोप और अमेरिका के विद्वानों, इतिहासकारों, दार्शनिकों का फुले जगह- जगह उल्लेख करते हैं। उन्होंने अपने भाषणों में डार्विन, लिव्ह, प्लूटार्क, टासिटस, केटो, मेरीयास, सीक्षर, सिसरो, मेगस्थनीज, सुकरात, प्लेटो, अरस्तू आदि इतिहासकारों और दार्शनिकों के विचारों का बार-बार हवाला दिया है। वह समय और फुले की उम्र को देखते हुए यह चौंकाने वाली बात है।
फुले अनुमान करते हैं कि यूरोप के लोग जिस तरह ज्ञान- विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति कर रहे हैं वे शीघ्र ही चाँद पर तो पहुँचेंगे ही, “आकाश गंगा में अनेक सूर्य मंडल हैं, उनमें से पृथ्वी जैसे किसी ग्रह पर ही न पहुँच जायँ, कह नहीं सकते।” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-35)
फुले ने अपने भाषणों में अंग्रेजी राज की बार- बार प्रशंसा की है क्योंकि अंग्रेजी राज हमारे देश के “शूद्र-अतिशूद्र लोगों के पशुतुल्य जीवन और अज्ञानता को दूर करने के लिए बहुत उपयुक्त है। क्योंकि मनु विधान के अनुसार शूद्रों -अतिशूद्रों द्वारा विद्या -ज्ञान हासिल करके उद्योग-धंधा करना, धन संपत्ति अर्जित करना आज तक वर्जित था। इसलिए वे अज्ञानी व दरिद्र होते गए। पशुओं की तरह रहने की आदत बन गई और गुलामगिरी से ही संतुष्ट रहने को पुण्य समझने लगे। अब हमें अंग्रेजी विद्या सीखकर ज्ञान बढ़ाते हुए अपनी व अपने बलिस्तान की शान को भी बढ़ाना चाहिए।” ( उद्धृत, देस हरियाणा, जनवरी-अप्रैल 2022, पृष्ठ-34)
फुले भारत के इस क्षेत्र को ‘बलिस्तान’ कहते हैं। पौराणिक मान्यता है कि पहले इस क्षेत्र में महाप्रतापी असुर राजा बली का शासन था। ऋग्वेद में वामन-बली का प्रकरण है। असुर पूर्व-वैदिक लोग थे। बली बड़े पराक्रमी राजा थे। वेदों से लेकर रामायाण, महाभारत तथा पुराणों में भी बली की कथा का वर्णन है। बली प्रजावत्सल राजा थे। उनके राज में सभी समानता और भाई-चारे के साथ रहते थे। जोतिबा फुले भी मानते हैं कि यहाँ पहले बली का शासन था। ईरान से आने वाले आर्यों ने इस पूरे क्षेत्र पर अधिकार कर लिया और यहाँ के मूल निवासियों को गुलाम बना लिया। शूद्रों को जोतिबा यहाँ के मूल निवासी के रूप में रेखांकित करते हैं और आर्यों को ईरान से आए आक्रांता। वे बताते हैं कि अपने को आर्य कहने वाले ये ब्राह्मण भारत के मूल निवासियों में फूट डालकर तथा अपनी ताकत के बलपर उन्हें अपना गुलाम बना लिया और उनके उन्नत और सभ्य देश को बर्बाद कर दिया।
फुले के अनुसार बली के राज की समृद्धि एवं समानता को वापस लाने के लिए हमें ब्राह्मणवादी गुलामी से मुक्त होना होगा। इसी गुलामी ने हमें कमजोर बना दिया है, अमानवीय स्थिति में पहुँचा दिया है। हमें आर्यों के आज के ढाँचे को तोड़ने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ेगा।
फुले के अनुसार, “अरब लोग दास को गुलाम कहते हैं। भट्ट लोग इन्हें शूद्र बोलते हैं। यूनान के लोग स्लेव व अन्य यूरोपियन लोग अपेक्षाकृत महत्वहीन दासों को सर्वेन्ट कहते हैं। गुलामों की स्थिति को ही गुलामगिरी कहते हैं। गुलामगिरी, शूद्रगिरी, स्लेव्हगिरी, सेव्हिड्युल और दासत्व आदि शब्दों का अर्थ एक ही है। जानवरों में गुलामगिरी की प्रथा नहीं होती। यह सिर्फ और सिर्फ ज्ञान रूप धारण करने वाले मनुष्य में ही होती है, जो मनुष्य की जन्मजात स्वतंत्रता को छीन लेती है।” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 40)
इस बात की आलोचना की जा सकती है कि अपने भाषणों में फुले ने भारत में अंग्रेजी राज का समर्थन किया है। लेकिन भारत में उन दिनों शूद्रों की दशा को देखते हुए फुले के ये विचार बिल्कुल स्वाभाविक हैं। उनकी दृष्टि में अंग्रेजो का आना यूरोप की विकसित सभ्यता का आना है जहाँ इस तरह की वर्ण- व्यवस्था और जाति गत अमानवीय स्तरभेद नहीं है। अंग्रेजों के आने से यहाँ के शूद्रों में नई चेतना का संचार हो सकता है। उनके भीतर अपनी गुलामी से मुक्त होने की छटपटाहट पैदा हो सकती है। फुले कहते है, “फिलहाल अपने बलिस्तान पर अंग्रेज बहादुरों का राज है, वे रैयत को सभ्य बनाकर सुख -सुविधा बढ़ा रहे हैं,।।।। उनकी ( ईरानी आर्य ब्राह्मणों की) थोपी हुई गुलामगिरी को खत्म करने के लिए अंग्रेज लोगों का राज उपयुक्त है।” ( उपर्युक्त, पृष्ठ 36)
इन भाषणों में उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा तैयार किए गए अबतक के भेदभावमूलक, शोषणकारी इतिहास का खंडन किया है और उसके समानान्तर स्वतंत्रता, समता, भाई-चारे पर आधारित मानवीय समाज की रचना करने का संकल्प लिया हैं। उन्होंने भारतीय इतिहास की जाति-वर्ण के आधार पर बनी भयंकर असमानता और उसके कारणों का व्यापक और तार्किक विश्लेषण किया है।
फुले ने 1873 में ‘सत्य-शोधक समाज’ की स्थापना की थी। इसके माध्यम से उन्होंने समाज को बदलने की दिशा में व्यापक कदम उठाए और आन्दोलन किए। अछूतों एवं स्त्रियों के लिए स्कूल, पीने के पानी के कुओं को अछूतों के लिए भी खोलने के लिए संघर्ष, विवाह में ब्राह्मण पुजारियों की अनिवार्यता का विरोध, विधवाओं के सिर के बाल काटने के विरुद्ध नाईयों की हड़ताल, शोषित स्त्रियों के लिए प्रसूति गृह खोलने जैसे अनेक जरूरी कार्य किए। इन सब कारणों से सत्य- शोधक समाज महाराष्ट्र का एक संघर्षशील व्यापक आन्दोलन बन गया।
महात्मा जोतिबा फुले के इन भाषणों को पढ़ने से पता चलता है कि बचपन से ही वे अप्रतिम प्रतिभाशाली, निर्भीक, तार्किक, संघर्षशील और वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न थे। दुनिया में होने वाले नये से नए शोधों से वे अपने को जोड़े रहते थे। वे जिस तरह के परिवार से ताल्लुक रखते थे उसे देखकर यह सब अविश्वसनीय सा लगता है, किन्तु सच यही है।
(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।)
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