हमारे शैशवकालीन अतीत और प्रत्यक्ष वर्तमान के बीच में समय- प्रवाह का पाठ ज्यों-ज्यों चौड़ा होता जाता है त्यों-त्यों हमारी स्मृति में अनजाने ही एक परिवर्तन लक्षित होने लगता है। शैशव की चित्रशाला के जिन चित्रों से हमारा रागात्मक सम्बन्ध गहरा होता है, उनकी रेखाएँ और रंग इतने स्पष्ट और चटकीले होते चलते हैं कि हम वार्धक्य की धुँधली आँखों से भी उन्हें प्रत्यक्ष देखते रह सकते हैं। पर जिनसे ऐसा सम्बन्ध नहीं होता वे फीके होते-होते इस प्रकार स्मृति से धुल जाते हैं कि दूसरों के स्मरण दिलाने पर भी उनका स्मरण कठिन हो जाता है। मेरे अतीत की चित्रशाला में बहिन सुभद्रा से मेरे सख्य का चित्र, पहली कोटि में ही रखा जा सकता है, क्योंकि इतने वर्षों के उपरान्त भी उनकी सब रंग-रेखाएँ अपनी सजीवता में स्पष्ट हैं ।
एक सातवीं कक्षा की विद्यार्थिनी, एक पाँचवीं कक्षा की विद्यार्थिनी से प्रश्न करती है – ‘क्या तुम कविता लिखती हो ?’ दूसरी ने सिर हिलाकर ऐसी अस्वीकृति दी जिसमें हाँ और नहीं तरल होकर एक हो गये थे । प्रश्न करनेवाली ने इस स्वीकृति – अस्वीकृति की सन्धि से खीझकर कहा- ‘तुम्हारी क्लास की लड़कियाँ तो कहती हैं कि तुम गणित की कापी तक में कविता लिखती हो! दिखाओ अपनी कापी’ और उत्तर की प्रतीक्षा में समय नष्ट न कर वह कविता लिखने की अपराधिनी को हाथ पकड़कर खींचती हुई उसके कमरे में डेस्क के पास ले गयी। नित्य व्यवहार में आनेवाली गणित की कापी को छिपाना सम्भव नहीं था, अतः उसके साथ अंकों के बीच में अनधिकार सिकुड़कर बैठी हुई तुकबन्दियाँ अनायास पकड़ में आ गयीं। इतना दण्ड ही पर्याप्त था । पर इससे सन्तुष्ट न होकर अपराध की अन्वेषिका ने एक हाथ में वह चित्र विचित्र कापी थामी और दूसरे में अभियुक्ता की उँगलियाँ कसकर पकड़ीं और वह हर कमरे में जा-जाकर इस अपराध की सार्वजनिक घोषणा करने लगी।
उस युग में कविता-रचना अपराधों की सूची में थी। कोई तुक जोड़ता है, यह सुनकर ही सुननेवालों के मुख की रेखाएँ इस प्रकार वक्रकुंचित हो जाती थीं मानो उन्हें कोई कटु-तिक्त पेय पीना पड़ा हो । ऐसी स्थिति में गणित जैसे गम्भीर महत्त्वपूर्ण विषय के लिए निश्चित पृष्ठों पर तुक जोड़ना अक्षम्य अपराध था। इससे बढ़कर कागज का दुरुपयोग और विषय का निरादर और हो ही क्या सकता था! फिर जिस विद्यार्थी की बुद्धि अंकों के बीहड़ वन में पग-पग पर उलझती है उससे तो गुरु यही आशा रखता है कि वह हर साँस को अंक जोड़ने घटाने की क्रिया बना रहा होगा। यदि वह सारी धरती को कागज बनाकर प्रश्नों को हल करने के प्रयास से नहीं भर सकता तो उसे कम-से-कम सौ पचास पृष्ठ, सही न सही तो गलत प्रश्न उत्तरों से भर लेना चाहिए। तब उसकी भ्रान्त बुद्धि को प्रकृतिदत्त मानकर उसे क्षमा- दान का पात्र समझा जा सकता है, पर जो तुकबन्दी जैसे कार्य से बुद्धि की धार गोंटिल कर रहा है वह तो पूरी शक्ति से दुर्बल होने की मूर्खता करता है, अतः उसके लिए न सहानुभूति का प्रश्न उठता है, न क्षमा का।
मैंने होठ भींचकर न रोने का जो निश्चय किया तो वह न टूटा तो न टूटा। अन्त में मुझे शक्ति परीक्षा में उत्तीर्ण देख सुभद्रा जी ने उत्फुल्ल भाव से कहा-‘अच्छी तो लिखती हो । भला सवाल हल करने में एक-दो-तीन जोड़ लेना कोई बड़ा काम है!” मेरी चोट अभी दुःख रही थी, परन्तु उनकी सहानुभूति और आत्मीय भाव का परिचय पाकर आँखें सजल हो आयीं । ‘तुमने सबसे क्यों बताया?’ का सहास उत्तर मिला- ‘हमें भी तो यह सहना पड़ता है। अच्छा हुआ, अब दो साथी हो गये ।’
बहिन सुभद्रा का चित्र बनाना कुछ सहज नहीं है क्योंकि चित्र की साधारण जान पड़नेवाली प्रत्येक रेखा के लिए उनकी भावना की दीप्ति ‘संचारिणी दीपशिखेव’ बनकर उसे असाधारण कर देती है। एक-एक करके देखने से कुछ भी विशेष नहीं कहा जाएगा, परन्तु सबकी समग्रता में जो उद्भासित होता था, उसे दृष्टि से अधिक हृदय ग्रहण करता था ।
मँझोले कद तथा उस समय की कृश देहयष्टि में ऐसा कुछ उग्र या रौद्र नहीं था जिसकी हम वीरगीतों की कवयित्री में कल्पना करते हैं। कुछ गोल मुख, चौड़ा माथा, सरल भृकुटियाँ, बड़ी और भावस्नात आँखें, छोटी सुडौल नासिका, हँसी को जमाकर गढ़े हुए से ओठ और दृढ़तासूचक ठुड्डी – सब कुछ मिलाकर एक अत्यन्त निश्छल, कोमल, उदार व्यक्तित्ववाली भारतीय नारी का ही पता देते थे । पर उस व्यक्तित्व के भीतर जो बिजली का छन्द था, उसका पता तो तब मिलता था, जब उनके और उनके निश्चित लक्ष्य के बीच में कोई बाधा आ उपस्थित होती थी। ‘मैंने हँसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना’ कहनेवाली की हँसी निश्चय ही असाधारण थी। माता की गोद में दूध पीता बालक जब अचानक हँस पड़ता है, तब उसकी दूध से धुली हँसी में जैसी निश्चिन्त तृप्ति और सरल विश्वास रहता है, बहुत कुछ वैसा ही भाव सुभद्राजी की हँसी में मिलता था । वह संक्रामक भी कम नहीं था क्योंकि दूसरे भी उनके सामने बात करने से अधिक हँसने को महत्त्व देने लगते थे ।
वे अपने बचपन की एक घटना सुनाती थीं। कृष्ण और गोपियों की कथा सुनकर एक दिन बालिका सुभद्रा ने निश्चय किया कि वह गोपी बनकर ग्वालों के साथ कृष्ण को ढूँढ़ने जाएगी ।
बबूल दूसरे दिन वह लकुटी लेकर गायों और ग्वालों के झुण्ड के साथ कीकर और से भरे जंगल में पहुँच गयी । गोधूली वेला में चरवाहे और गायें तो घर की ओर लौट गये, पर गोपी बनने की साधवाली बालिका कृष्ण को खोजती ही रह गयी। उसके पैरों में काँटे चुभ गये, कँटीली झाड़ियों में कपड़े उलझकर फट गये, प्यास से कण्ठ सूख गया और पसीने पर धूल की परत जम गयी, पर वह धुनवाली बालिका लौटने को प्रस्तुत नहीं हुई। रात होते देख घरवालों ने उन्हें खोजना आरम्भ किया और ग्वालों से पूछते-पूछते अँधेरे करील वन में उन्हें पाया।
अपने निश्चित लक्ष्य-पथ पर अडिग रहना और सब कुछ हँसते-हँसते सहना उनका स्वभावजात गुण था। क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में जब वे आठवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थीं, तभी उनका विवाह हुआ और उन्होंने पतिगृह के लिए प्रस्थान किया। स्वतन्त्रता के युद्ध के लिए सन्नद्ध सेनानी पति को वे विवाह से पहले देख चुकी थीं और उनके विचारों से भी परिचित थीं। उनसे यह छिपा नहीं था कि नववधू के रूप में उनका जो प्राप्य है उसे देने का न पति को अवकाश है, न लेने का उन्हें। वस्तुतः जिस विवाह में मंगल-कंकण ही रण-कंकण बन गया, उसकी गृहस्थी भी कारागार में ही बसायी जा सकती थी । और उन्होंने बसायी भी वहीं । पर इस साधना की मर्म-व्यथा को वही नारी जान सकती है जिसने अपनी देहली पर खड़े होकर भीतर के मंगल चौक पर रखे मंगल कलश, तुलसी चौरे पर जलते हुए अपने घी के दीपक और हर कोने से स्नेह-भरी बाँहें फैलाये हुए अपने घर पर दृष्टि डाली हो और फिर बाहर के अन्धकार, आँधी और तूफान को तोला हो और तब घर की सुरक्षित सीमा पार कर, उसके सुन्दर मधुर आह्वान की ओर से पीठ फेरकर अँधेरे रास्ते पर काँटों से उलझती चल पड़ी हो । उन्होंने हँसते-हँसते ही बताया था कि जेल जाते समय उन्हें इतनी अधिक फूल-मालाएँ मिल जाती थीं कि वे उन्हीं का तकिया बना लेती थीं और लेटकर पुष्पशैया के सुख का अनुभव करती थीं।
एक बार भाई लक्ष्मणसिंहजी ने मुझसे सुभद्राजी की स्नेहभरी शिकायत की – ‘इन्होंने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा।’ सुभद्राजी ने अर्थ-भरी हँसी में उत्तर दिया था – ‘इन्होंने पहले ही दिन मुझसे कुछ माँगने का अधिकार माँग लिया था महादेवी ! यह ऐसे ही होशियार हैं, माँगती तो वचन-भंग का दोष मेरे सिर पड़ता, नहीं माँगा तो इनके अहंकार को ठेस लगती है।’
घर और कारागार के बीच में जीवन का जो क्रम विवाह के साथ आरम्भ हुआ था वह अन्त तक चलता ही रहा । छोटे बच्चों को जेल के भीतर और बड़ों को बाहर रखकर वे अपने मन को कैसे संयत रख पाती थीं, यह सोचकर विस्मय होता है। कारागार में जो सम्पन्न परिवारों की सत्याग्रही माताएँ थीं, उनके बच्चों के लिए बाहर से न जाने कितना मेवा मिष्टान्न आता रहता था। सुभद्राजी की आर्थिक परिस्थितियों में जेल जीवन का ए और सी क्लास समान ही था । एक बार जब भूख से रोती बालिका को बहलाने के लिए कुछ नहीं मिल सका तब उन्होंने अरहर दलनेवाली महिला कैदियों से थोड़ी-सी अरहर की दाल ली और उसे तवे पर भूनकर बालिका को खिलाया । घर आने पर भी उनकी दशा द्रोणाचार्य जैसी हो जाती थी, जिन्हें दूध के लिए मचलते हुए बालक अश्वत्थामा को चावल के घोल से सफेद पानी देकर बहलाना पड़ा था। पर इन परीक्षाओं से उनका मन ना कभी हारा, न उसने परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए कोई समझौता स्वीकार किया ।
उनके मानसिक जगत में हीनता की किसी ग्रन्थि के लिए कभी अवकाश नहीं रहा, घर से बाहर बैठकर वे कोमल और ओज-भरे छन्द लिखनेवाले हाथों से गोबर के कण्डे पाथती थीं । घर के भीतर तन्मयता से आँगन लीपती थीं, बर्तन माँजती थीं। आँगन लीपने की कला में मेरा भी कुछ प्रवेश था, अतः प्रायः हम दोनों प्रतियोगिता के लिए आँगन के भिन्न-भिन्न छोरों से लीपना आरम्भ करते थे। लीपने में हमें अपने से बड़ा कोई विशेषज्ञ मध्यस्थ नहीं प्राप्त हो सका, अतः प्रतियोगिता का परिणाम सदा अघोषित ही रह गया पर आज मैं स्वीकार करती हूँ कि ऐसे कार्य में एकान्त तन्मयता केवल उसी गृहिणी में सम्भव है जो अपने घर की धरती को समस्त हृदय से चाहती हो और सुभद्रा ऐसी ही गृहिणी थीं।
उस छोटे से अधबने घर की छोटी-सी सीमा में उन्होंने क्या नहीं संगृहीत किया । छोटे-बड़े पेड़, रंग-बिरंगे फूलों के पौधों की क्यारियाँ, ऋतु के अनुसार तरकारियाँ, गाय-बच्छे आदि-आदि बड़ी गृहस्थी की सब सज्जा वहाँ विराट दृश्य के छोटे चित्र के समान उपस्थित थी । अपने इस आकार में छोटे साम्राज्य को उन्होंने अपनी ममता के जादू से इतना विशाल बना रखा था कि उसके द्वार पर न कोई अनाहूत रहा और न निराश लौटा। जिन संघर्षों के बीच से उन्हें मार्ग बनाना पड़ा वे किसी भी व्यक्ति को अनुदार और कटु बनाने में समर्थ थे । पर सुभद्रा के भीतर बैठी सृजन-शीला नारी जानती थी कि काँटों का स्थान जब चरणों के नीचे रहता है तभी वे टूटकर दूसरों को बेधने की शक्ति खोते हैं। परीक्षाएँ जब मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य को क्षत-विक्षत कर डालती हैं तब उनमें उत्तीर्ण होने न होने का कोई मूल्य नहीं रह जाता।
नारी के हृदय में जो गम्भीर ममता-सजल वीर – भाव उत्पन्न होता है वह पुरुष के उग्र शौर्य से अधिक उदात्त और दिव्य रहता है। पुरुष अपने व्यक्तिगत या समूहगत राग-द्वेष के लिए भी वीर धर्म अपना सकता है और अहंकार की तृप्ति मात्र के लिए भी। पर नारी अपने सृजन की बाधाएँ दूर करने के लिए या अपनी कल्याणी सृष्टि की रक्षा के लिए ही रुद्र बनती है। अतः उसकी वीरता के समकक्ष रखने योग्य प्रेरणाएँ संसार के कोश में कम हैं। मातृशक्ति का दिव्य रक्षक उद्धारक रूप होने के कारण ही भीमाकृति चण्डी, वत्सला अम्बा भी है, जो हिंसात्मक पाशविक शक्तियों को चरणों के नीचे दबाकर अपनी सृष्टि के मंगल की साधना करती है।
सुभद्रा जो महिमामयी माँ थी, उसकी वीरता का उत्स भी वात्सल्य ही कहा जा सकता है। न उनका जीवन किसी क्षणिक उत्तेजना से संचालित हुआ, न उनकी ओज-भरी कविता वीर रस की घिसी-पिटी लीक पर चली। उनके जीवन में जो एक निरन्तर निखरता हुआ कर्म का तारतम्य है वह ऐसी अन्तर-व्यापिनी निष्ठा से जुड़ा हुआ है जो क्षणिक उत्तेजना का दान नहीं मानी जा सकती। इसी से जहाँ दूसरों को यात्रा का अन्त दिखाई दिया वहीं उन्हें नयी मंजिल का बोध हुआ।
थककर बैठनेवाला अपने न चलने की सफाई खोजते-खोजते लक्ष्य पा लेने की कल्पना कर सकता है, पर चलनेवाले को इसका अवकाश कहाँ ! जीवन के प्रति ममता-भरा विश्वास ही उनके काव्य का प्राण है :
सुख भरे सुनहले बादल
विश्वास
रहते हैं मुझको घेरे प्रेम साहस हैं
जीवन के साथी मेरे ।
मधुमक्षिका जैसे कमल से लेकर भटकटैया तक और रसाल से लेकर आक तक, सब मधुर-तिक्त एकत्र करके उसे अपनी शक्ति से एक मधु बनाकर लौटाती, बहुत कुछ वैसा ही आदान-सम्प्रदान सुभद्राजी का था | सभी कोमल-कठिन, सह्य-असह्य अनुभवों का परिपाक दूसरों के लिए एक ही होता था। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उनमें विवेचन की तीक्ष्ण दृष्टि का अभाव था। उनकी कहानियाँ प्रमाणित करती हैं कि उन्होंने जीवन और समाज की अनेक समस्याओं पर विचार किया और कभी अपने निष्कर्ष के साथ और कभी दूसरों के निष्कर्ष के लिए उन्हें बड़े चामत्कारिक ढंग से उपस्थित किया
अजब स्त्री का व्यक्तित्व उसके पति से स्वतन्त्र नहीं माना जाता था तब वे कहती हैं- ‘मनुष्य की आत्मा स्वतन्त्र है। फिर चाहे वह स्त्री- शरीर के अन्दर निवास करती हो चाहे पुरुष शरीर के अन्दर। इसी से पुरुष और स्त्री का – अपना-अपना व्यक्तित्व अलग रहता है।’ जब समाज और परिवार की सत्ता के विरुद्ध कुछ कहना अधर्म माना जाता था तब वे कहती हैं- ‘समाज और परिवार व्यक्ति को बन्धन में बाँधकर रखते हैं। ये बन्धन देशकालानुसार बदलते रहते हैं और उन्हें बदलते रहना चाहिए वरना वे व्यक्तित्व के विकास में सहायता करने के बदले बाधा पहुँचाने लगते हैं। बन्धन कितने ही अच्छे उद्देश्य से क्यों न नियत किये गये हों, हैं बन्धन ही, और जहाँ बन्धन है वहाँ असन्तोष है तथा क्रान्ति है।’
परम्परा का पालन ही जब स्त्री का परम कर्तव्य समझा जाता था तब वे उसे तोड़ने की भूमिका बाँधती हैं- ‘चिर प्रचलित रूढ़ियों और चिर-संचित विश्वासों को आघात पहुँचानेवाली हलचलों को हम देखना – सुनना नहीं चाहते। हम ऐसी हलचलों को अधर्म समझकर उनके प्रति आँख मींच लेना उचित समझते हैं, किन्तु ऐसा करने से काम नहीं चलता । वह हलचल और क्रान्ति हमें बरबस झकझोरती है और बिना होश में लाये नहीं छोड़ती।’
अनेक समस्याओं की ओर उनकी दृष्टि इतनी पैनी है कि सहज भाव से कहीं सरल कहानी का अन्त भी हमें झकझोर डालता है। वे राजनीतिक जीवन में ही विद्रोहिणी नहीं रहीं, अपने पारिवारिक जीवन में भी उन्होंने अपने विद्रोह को सफलतापूर्वक उतारकर उसे सृजन का रूप दिया था। सुभद्राजी के अध्ययन का क्रम असमय ही भंग हो जाने के कारण उन्हें विश्वविद्यालय की शिक्षा तो नहीं मिल सकी, पर अनुभव की पुस्तक से उन्होंने जो सीखा उसे उनकी प्रतिभा ने सर्वथा निजी विशेषता दे दी है।
भाषा, भाव, छन्द की दृष्टि से नये, ‘झाँसी की रानी’ जैसे वीर-गीत तथा सरल स्पष्टता में मधुर प्रगीत मुक्त, यथार्थवादिनी मार्मिक कहानियाँ आदि उनकी मौलिक प्रतिभा के ही सृजन हैं। ऐसी प्रतिभा व्यावहारिक जीवन को अछूता छोड़ देती तो आश्चर्य की बात होती । पत्नी की अनुगामिनी अर्धांगिनी आदि विशेषताओं को अस्वीकार कर उन्होंने भाई लक्ष्मणसिंहजी को पत्नी के रूप में ऐसा अभिन्न मित्र दिया जिसकी बुद्धि और शक्ति पर निर्भर रहकर अनुगमन किया जा सके।
अजगर की कुण्डली के समान, स्त्री के व्यक्तित्व को कसकर चूर-चूर कर देनेवाले अनेक सामाजिक बन्धनों को तोड़ फेंकने में उनका जो प्रयास लगा होगा, उसका मूल्यांकन आज सम्भव नहीं है।
उस समय बच्चों के लालन-पालन में मनोविज्ञान को इतना महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं मिला था और प्रायः सभी माता-पिता बच्चों को शिष्टता सिखाने में स्वयं अशिष्टता की सीमा तक पहुँच जाते थे। सुभद्राजी का कवि हृदय यह विधान कैसे स्वीकार कर सकता था! अतः उनके बच्चों को विकास का जो मुक्त वातावरण मिला उसे देखकर सब समझदार निराशा से सिर हिलाने लगे। पर जिस प्रकार यह सत्य है कि सुभद्राजी ने अपने किसी बच्चे को उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ करने के लिए बाध्य नहीं किया, उसी प्रकार यह भी सत्य है कि किसी बच्चे ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे उनकी महीयसी माँ को किंचित् भी क्षुब्ध होने का कारण मिला हो । उनके वात्सल्य का विधान ऐसा ही अलिखित और अटूट था।
अपनी सन्तान के भविष्य को सुखमय बनाने के लिए उनके निकट कोई भी त्याग अकरणीय नहीं रहा । पुत्री के विवाह के विषय में तो उन्हें अपने परिवार से भी संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने एक क्षण के लिए भी इस असत्य को स्वीकार नहीं किया कि जातिवाद की संकीर्ण तुला पर ही वर की योग्यता तोली जा सकती है। इतना ही नहीं, जिस कन्यादान की प्रथा का सब मूक-भाव से पालन करते आ रहे थे उसी के विरुद्ध उन्होंने घोषणा की- ‘मैं कन्यादान नहीं करूँगी। क्या मनुष्य मनुष्य को दान करने का अधिकारी है? क्या विवाह के उपरान्त मेरी बेटी मेरी नहीं रहेगी? उस समय तक किसी ने, और विशेषतः किसी स्त्री ने, ऐसी विचित्र और परम्परा – विरुद्ध बात नहीं कही थी।
देश की जिस स्वतन्त्रता के लिए उन्होंने अपने जीवन के वासन्ती सपने अंगारों पर रख दिये थे, उसकी प्राप्ति के उपरान्त भी जब उन्हें सब ओर अभाव और पीड़ा दिखाई दी तब उन्होंने अपने संघर्षकालीन साथियों से भी विद्रोह किया । उनकी उग्रता का अन्तिम परिचय तो विश्ववन्ध बापू की अस्थिविसर्जन के दिन प्राप्त हुआ। वे कई सौ हरिजन महिलाओं के जुलूस के साथ-साथ सात मील पैदल चलकर नर्मदा किनारे पहुँचीं। पर अन्य सम्पन्न परिवारों की सदस्याएँ मोटरों पर ही जा सकीं। जब अस्थिप्रवाह के उपरान्त संयोजित सभा के घेरे में इन पैदल आनेवालों को स्थान नहीं दिया गया तब सुभद्राजी का क्षुब्ध हो जाना स्वाभाविक ही था । उनका क्षात्रधर्म तो किसी प्रकार के अन्याय के प्रति क्षमाशील हो नहीं सकता था । जब उन हरिजनों को उनका प्राप्य दिला सकीं तभी वे स्वयं सभा में सम्मिलित हुईं।
सातवीं और पाँचवीं कक्षा की विद्यार्थिनियों के सख्य को सुभद्राजी के सरल स्नेह ने ऐसी अमिट लक्ष्मण रेखा से घेरकर सुरक्षित रखा कि समय उस पर कोई रेखा नहीं खींच सका। अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण मैं अनायास ही सबकी देखरेख और चिन्ता की अधिकारिणी बन गयी थी। परिवार में जो मुझसे बड़े थे उन्होंने भी मुझे ब्रह्मसूत्र की मोटी पोथी में आँख गड़ाये देखकर अपनी चिन्ता की परिधि से बाहर समझ लिया था। पर केवल सुभद्रा पर न मेरी मोटी पोथियों का प्रभाव पड़ा, न मेरी समझदारी का । अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों में हम कभी कुतूहली बाल-भाव से मुक्त नहीं हो सके। सुभद्रा के मेरे घर आने पर भक्तिन तक मुझ पर रौब जमाने लगती थी। क्लास में पहुँचकर वह उनके आगमन की सूचना इतने ऊँचे स्वर में इस प्रकार देती कि मेरी स्थिति ही विचित्र हो जाती – ‘ऊ सहोदरा विचरि अऊतो इनका देखे बरे आइ के अकेली सूने घर माँ बैठी हैं। अउर इनका कितबियन से फुरसत नाहिन बा ।’ एम.ए., बी.ए. के विद्यार्थियों के सामने जब एक देहातिन बुढ़िया गुरु पर कर्तव्य-उल्लंघन का ऐसा आरोप लगाने लगे तो बेचारे गुरु की सारी प्रतिष्ठा किरकिरी हो सकती थी । पर इस अनाचार को रोकने का कोई उपाय नहीं था। सुभद्राजी के सामने न भक्तिन को डाँटना सम्भव था, न उसके कथन की उपेक्षा करना। बँगले में आकर देखती कि सुभद्राजी रसोईघर में या बरामदे में भानमती का पिटारा खोले बैठी हैं और उसमें से अद्भुत वस्तुएँ निकल रही हैं। छोटी-छोटी पत्थर या शीशे की प्यालियाँ, मिर्च का अचार, बासी पूरी, पेड़े, रंगीन चकला-बेलन, चुटीली, नीली-सुनहली चूड़ियाँ आदि-आदि सब कुछ मेरे लिए आया है, इस पर कौन विश्वास करेगा! पर वह आत्मीय उपहार मेरे निमित्त ही आता था।
ऐसे भी अवसर आ जाते थे जब वे किसी कवि सम्मेलन में आते-जाते प्रयाग उतर नहीं पाती थीं और मुझे स्टेशन जाकर ही उनसे मिलना पड़ता था। ऐसी कुछ क्षणों की भेंट में भी एक दृश्य की अनेक आवृत्तियाँ होती ही रहती थीं। वे अपने थैले से दो चमकीली चूड़ियाँ निकालकर हँसती हुई पूछतीं- ‘पसन्द हैं? मैंने दो तुम्हारे लिए, दो अपने लिए खरीदी थीं। तुम पहनने में तोड़ डालोगी। लाओ अपना हाथ, मैं पहना देती हूँ।’ पहन लेने पर वे बच्चों के समान प्रसन्न हो उठतीं।
हम दोनों जब साथ रहती थीं तब बात एक मिनिट और हँसी पाँच मिनट का अनुपात रहता था। इसी से प्रायः किसी सभा-समिति में जाने से पहले न हँसने का निश्चय करना पड़ता था। एक-दूसरे की ओर बिना देखे गम्भीर भाव से बैठे रहने की प्रतिज्ञा करके भी वहाँ पहुँचते ही एक-न-एक वस्तु या दृश्य सुभद्रा के कुतूहली मन को आकर्षित कर लेता और मुझे दिखाने के लिए वे चिकोटी तक काटने से नहीं चूकतीं। तब हमारी शोभा सदस्यता की जो स्थिति हो जाती थी, उसका अनुमान सहज है।
अनेक कवि-सम्मेलनों में हमने साथ भाग लिया था, पर जिस दिन मैंने अपने न जाने का निश्चय और उसका औचित्य उन्हें बता दिया उस दिन से अन्त तक कभी उन्होंने मेरे निश्चय के विरुद्ध कोई आग्रह नहीं किया। आर्थिक स्थितियाँ उन्हें ऐसे निमन्त्रण स्वीकार करने के लिए विवश कर देती थीं, परन्तु मेरा प्रश्न उठते ही वे कह देती थीं- ‘मैं तो विवशता से जाती हूँ, पर महादेवी नहीं जाएगी, नहीं जाएगी।’
साहित्य-जगत् में आज जिस सीमा तक व्यक्तिगत स्पर्द्धा, ईर्ष्या-द्वेष है, उस सीमा तक तब नहीं था, यह सत्य है। पर एक दूसरे के साहित्य-चरित्र-स्वभाव सम्बन्धी निन्दा-पुराण तो सब युगों में नानी की कथा के समान लोकप्रियता पा लेता है। अपने किसी भी परिचित अपरिचित साहित्य-साथी की त्रुटियों के प्रति सहिष्णु रहना और उसके गुणों के मूल्यांकन में उदारता से काम लेना सुभद्राजी की निजी विशेषता थी। अपने को बड़ा बनाने के लिए दूसरों को छोटा प्रमाणित करने की दुर्बलता उनमें असम्भव थी।
वसन्त पंचमी को पुष्पाभरणा, आलोकवसना धरती की छवि आँखों में भरकर सुभद्रा ने विदा ली। उनके लिए किसी अन्य विदा की कल्पना ही कठिन थी। – एक बार बात करते-करते मृत्यु की चर्चा चल पड़ी थी। मैंने कहा- ‘मुझे तो उस लहर की-सी मृत्यु चाहिए जो तट पर दूर तक आकर चुपचाप समुद्र में लौटकर समुद्र बन जाती है।’ सुभद्रा बोलीं- ‘मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है। मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिसके चारों ओर नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते रहें, स्त्रियाँ गाती रहें और कोलाहल होता रहे । अब बताओ, तुम्हारी नामधामरहित लहर से यह आनन्द अच्छा है या नहीं?’
उस दिन जब उनके पार्थिव अवशेष को त्रिवेणी ने अपने श्यामल-उज्ज्वल अंचल में समेट लिया तब नीलम – फलक पर श्वेत चन्दन से बने उस चित्र की रेखाओं में बहुत वर्षों पहले देखा एक किशोर-मुख मुस्कराता जान पड़ा।
‘यहीं कहीं पर बिखर गयी वह छिन्न विजय-माला-सी!’