
वे, जो बहुजातीय व्यवस्था को कायम रखना चाहते हैं। हमने कहा कि चार मूल जातियों के समय के साथ 4,000 से अधिक जातियों में बँट जाने की मूल वजह है – एक जाति का दूसरी जाति के साथ सम्बन्ध कायम होना। इसके बावजूद हमारे बीच ऐसे लोग हैं, जिनको ‘वेललार’ कहा जाता है। ये लोग चार जातियों की मूल व्यवस्था को स्वीकार करते हैं। ये जातियाँ हैं— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और पंचम। ये खुद को शूद्र मानते हैं। कुछ अन्य लोग उन्हें संस्कृत के वगीकृत जातीय नामों के बजाय तमिल के खूबसूरत शब्दों से पुकारते। मसलन, अन्तनार, अरसार, वनीगर और वेललार आदि। उनका दावा है कि वे श्रेणियाँ तमिलनाडु में पहले से विद्यमान हैं। यहाँ तक कि आर्यों के आगमन के पहले से यह व्यवस्था थी और वे चौथे वर्ण में आते थे। यह मिथक गढ़ा गया कि इन चार वर्गों के लोगों की सेवा के लिए अनेक जातियाँ अस्तित्व में आईं। इनमें पल्लू, परियाह समेत 18 जातियाँ शामिल थीं।
‘पल्लू, परियाह और 18 जातियों’ की इस बात से यह संकेत निकलता कि ये 18 जातियाँ चार उच्च वर्णों की सेवा के लिए बनी थीं। इनको निम्नलिखित नाम दिए गए – इलइ वणिकन, उप्पू वणिकन, एन्नई वणिकन, ओछ्छन, कलचछन, कन्नन, कुयवन, कोल्लन, कोयिकुडियन, थचन, थट्टन, नवीथन पल्ली, परियाह, पन्न, पूमलईक्करन, वन्नन और वलयान।
परन्तु, एक शोधपरक पुस्तक अभिधनकोसाम के मुताबिक, यही 18 जातियाँ – शिविगैयर, कुयावर, पनार, मेलाकार, परतवर, सेमबदवार, वेदार, वलईयार, थिमलार, करइयार, सनरार, सैलियार, एन्नई वणिकर, अंबत्तार, वन्नार, पल्लार, पुलियार और सक्किलियार के रूप में नौकरों की जाति के रूप में उल्लिखित हैं।
इसके अतिरिक्त वेललारों के बीच भी अन्तर कुछ इस प्रकार उल्लिखित है – वेललार शूद्रों में सबसे श्रेष्ठ हैं। उनमें भी मुंडालियों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है; उसके बाद आते हैं— वेलंचेट्टी । ये वेलंचेट्टी चोलापुरतर, सीताकत्तर और पंचुक्ककर में बँटे हुए हैं। ये सिवार हैं और बिना किसी भेदभाव के अन्य लोगों के साथ एक कतार में बैठ और खा सकते हैं। इसके बाद नम्बर आता चोलिया, थुलुवा और विभिन्न श्रेणियों के कोडिक्कल वेललार का । इस क्रम में आते हैं – अहमबदियार; उनके नीचे मरवार और सबसे नीचे कल्लार | उनके नीचे आते हैं – इदइयार और सामाजिक सोपान पर सबसे नीचे हैं—कवरइगल और कमावरगल ।
यह बात देखी जा सकती है कि उपरोक्त व्यवस्था में बहुत सावधानी से ब्राह्मणों के बीच भेद को दूर रखा गया है। वे ऊँची-नीची जातियों की इस बहस से बाहर हैं और उनकी जातीय स्थिति पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता है। यह बात स्पष्ट बताती है कि जाति-व्यवस्था की प्रकृति कितनी धूर्ततापूर्ण है। अन्यथा इसमें क्षत्रियों और वैश्यों के झगड़ों की बातें हैं; कौन किससे श्रेष्ठ है? इसका उल्लेख है और बिना किसी पूर्वग्रह के एक-दूसरे पर श्रेष्ठता के लिए लड़ाई है। इसके तहत अन्य जातियों को खुद से नीचा बताया गया है। ये सारी बातें देखी जा सकती हैं। अगर अन्य जाति के लोग खुद को साथी जातियों से श्रेष्ठ बताने का तरीका खोजने की कोशिश करते हैं, तो बेहद चतुराईपूर्वक उनको यह संकेत कर दिया जाता है कि वे परप्पनार यानी ब्राह्मणों से कमतर हैं। अन्यथा वे ऐसे वर्ग निर्माण के रहस्य की गुत्थी का खुलासा करने में कतई उपयोगी नहीं है। इस प्रकार यह स्थापित किया गया था कि ब्राह्मणों के अलावा अन्य जातियाँ नीची हैं। वे ब्राह्मणों के स्पर्श के काबिल नहीं हैं; न ही ब्राह्मण उनके साथ भोजन करके उनको समान दर्जा देगा। अन्य जातियाँ कई तरह के अधिकारों से भी वंचित थीं। वे केवल ब्राह्मणों की सेवा करने लायक थे। उनका जन्म अवैध सम्बन्धों, ऊँची-नीची जातियों के सम्बन्धों की परिणति थी। इसकी वजह से विभिन्न वर्ण एक-दूसरे से मिल गए और व्यापक तौर पर लोगों की सामाजिक स्थिति खराब हुई । संक्षेप में यही जाति-व्यवस्था है।
इसके अलावा इस सम्बन्ध में अगर कोई दार्शनिक या तार्किक स्पष्टीकरण दिया जाता है; तो वह केवल उन मूर्खों के लिए होगा, जो धर्म और वेद, शास्त्र और तथाकथित संहिताओं आदि पर यकीन करते हैं। और इन स्पष्टीकरणों को लेकर कोई प्रश्न या आपत्ति खड़ी किए बिना लोगों को अपनी कमतर स्थिति को सहज स्वीकार कर लेने के अलावा कोई चारा नहीं रहता।
इसे छोड़ दिया जाए और अगर हम ब्राह्मणों के अलावा अन्य लोगों की स्थिति और उनको मिले अधिकारों को देखें, तो आसानी से यह समझा जा सकता है कि कोई तार्किक अथवा आत्मगौरव सम्पन्न व्यक्ति इस जाति-व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेगा । वास्तव में वह इस जातिभेद के अपमानजनक परिणामों के बारे में तो सपने में भी नहीं सोच सकता। ऐसे में अगर आप ब्राह्मणों द्वारा चौथे वर्ण यानी शूद्रों को दिए गए अधिकार और उस वर्ण की स्थिति को देखेंगे, तो यह कुछ वैसा ही है जैसे कि मौजूदा सरकार द्वारा कुछ लोगों को पारम्परिक रूप से अपराधी वर्ग का बताना और उन्हें सरकार द्वारा तय किए गए नियम एवं शर्तों के मुताबिक जीवन बिताने को कहना।
उदाहरण के लिए हम धर्म शास्त्रों अथवा संहिता को उद्धृत करेंगे। जैसे—’स्नातमश्वम गजमस्तम ऋषभम काममोहितम शूद्रम क्षरासंयुक्तम दूरता परिवर्जियेम।’ अर्थात् ‘एक घोड़ा, जिसे स्नान कराया गया हो; एक हाथी, जो तनाव में हो; एक सांड, जो काम के वशीभूत हो और एक पढ़ा-लिखा शूद्र – इन सभी को करीब नहीं आने दिया जाना चाहिए।’
‘जप तप तीर्थ यात्रा प्रवर्ज्या, मंत्र साधना देवर्धनम, सचैस्व स्त्री, शूद्र पठठनिशन’ अर्थात् ‘मानसिक प्रार्थनाएँ, पश्चात्ताप, पवित्र स्थानों की तीर्थ यात्रा, संन्यास या दुनिया को त्यागना, ईश्वर की उपासना और पूजा – ये सभी महिलाओं और शूद्रों के लिए वर्जित हैं।’
‘न पतेम संस्कृतम वणिम’ यानी शूद्र को संस्कृत नहीं पढ़नी चाहिए।
‘नैव शास्त्रम पतेनैव श्रुणवन वैदिक आश्रम, नसंन्यातु दयालपुर्वम थापो मंत्रम सुर्वाजयेल ।’ अर्थात् ‘एक शूद्र को कभी शास्त्र नहीं पढ़ने चाहिए या वेद नहीं सुनने चाहिए। उसे कभी भी सूर्योदय के पहले नहीं उठना चाहिए और न ही नहाना चाहिए। उसे मंत्र पाठ और पापमोचन की इजाजत नहीं है।’
‘इतिहास पुराणानि नपतेस्रोतममार्षि’– एक शूद्र को इतिहास और पुराण नहीं पढ़ने चाहिए। लेकिन, वह एक ब्राह्मण को उन्हें पढ़ते हुए सुन अवश्य सकता है।’
‘चतुर्वर्णम माया’ सृष्टम, परिश्रमात्यकम, कर्मम शूद्रस्यापी पवन्नम (गीता ) – अर्थात् चारों वर्ण मेरे द्वारा बनाए गए हैं। इसके तहत शूद्रों का प्राथमिक कर्तव्य है कि वे अन्यों की सेवा करें। ऐसे हजारों उद्धरण हैं, जिनको समझा जा सकता है। हमारे धार्मिक साहित्य वेदों, धर्म-शास्त्रों आदि में यही सब लिखा हुआ है। इन ग्रंथों को ईश्वरीय उत्पत्ति माना जाता है।
हमारे पास एक सरकार है, जो इन धार्मिक नियमों का पालन करने को बाध्य नहीं है। इसी तरह हममें से कुछ इन संहिताओं के नियम-कायदों के मुताबिक जीने को बाध्य नहीं हैं। लेकिन, अगर हमारे धर्म और जाति को बचाने, धर्म और जाति के नाम पर उनको स्थिर करने का प्रयास किया जाता है; तो सोचिए, हमें इसके चलते किस तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ सकता है? जब तक हिन्दू समाज में जाति भेद है, तब तक ऊँच-नीच की भावना भी रहेगी।
आज जो राष्ट्रवादी हैं और चाहते हैं कि भारत को पूरी आजादी मिलनी चाहिए; उनको यह कोशिश करनी चाहिए कि ब्रिटिश राज में भी जाति प्रथा का अन्त किया जा सके। इसके बजाय अगर वे कहते हैं कि ‘तुम हमें छोड़ दो, हम चीजों का ध्यान रख लेंगे’, तो यह खुद से खुद को जहर देने के समान है। इससे कुछ भला नहीं होगा। भारत में आज 1,000 में से 999 लोग जाति-भेद खत्म करने के इच्छुक नहीं हैं, बल्कि वे ऊँची जाति में शामिल होना चाहते हैं; ताकि वे अन्य निचली जातियों पर रसूख कायम कर सकें। आज अगर हम मौजूदा शासन के अधीन हासिल अधिकारों का भी त्याग कर दें और प्रशासन उन लोगों के हाथ में आ जाए, जो वर्ण-व्यवस्था, जातिव्यवस्था के समर्थक हैं; तो जाति-व्यवस्था के चलते होने वाले अत्याचार कभी खत्म नहीं होंगे।
साभार : जाति व्यवस्था और पितृसत्ता – पेरियार ई. वी. रामासामी
(रिपब्लिक, ( कुदी आरसु) सम्पादकीय – 30 नवम्बर, 1930)
(अंग्रेजी से अनुवाद : पूजा सिंह)