कुछ लोगों तथा संस्थाओं की ओर से मुझसे राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे गये हैं। इनका उत्तर में लिखित रूप में नीचे दे रहा हूं।
यूनियन के सरकारी कामों के लिए जहां तक हो सके हिन्दी को अंग्रेजी का स्थान देना चाहिए और कदम ऐसा उठाया जाय जिसमें दस साल के भीतर अंग्रेजी का स्थान हिन्दी ले ले। हमारे और विदेशी दूतावासों के साथ लिखा पढ़ी में इंगलिश का प्रयोग करना राष्ट्रीय अपमान की बात है, जिसे आप इंगलैंड और अमरीका को छोड़ किसी भी दूसरे देश के आदमी से जान सकते हैं।
यूनियन और हिन्दीभाषी राज्यों के बीच में सारी लिखा-पढ़ी हिन्दी में होनी चाहिए। हां, जिन राज्यों की सरकारों को इसमें आपत्ति है, उनके लिए तब तक के लिए अंग्रेजी रख सकते हैं जब तक कि उनकी भाषा में अनुवादित करके भेजने या वहां से आये पत्र-व्यवहारों को हिन्दी में करने का प्रबन्ध नहीं कर सकते। प्रादेशिक भाषाओं और हिन्दी का सम्बन्ध इतना घनिष्ठ है कि अनुवाद में कोई कठिनाई नहीं हो सकती।
हिन्दी वाले राज्यों को आपस में सारा पत्र-व्यवहार हिन्दी में करना चाहिए, हिन्दी और अहिन्दी राज्य इस काम को अनुवाद द्वारा कर सकते हैं। उन्हें अंग्रेजी को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए। हर हालत में अंग्रेजी को दस साल के बाद हमारे सरकारी कारोबार में स्थान नहीं मिलना चाहिए। उसके लिए जहां तक हो सके हिन्दी का व्यवहार किया जाय और यदि उसके लिए किसी प्रकार की कठिनाई हो तो प्रादेशिक भाषाओं के रूप में सब काम हो।
हमारे उत्तर प्रदेश में अभी हिन्दी के प्रयोग में जबानी-जमाखर्च से काम लिया जा रहा है। फार्मों और कैशमेमों पर हिन्दी में हेडिंग छपे रहने पर भी हमारे अफसर लोग उस पर अंग्रेजी में लिख कर भेजते हैं। मसूरी नगरपालिका तो अंग्रेजी के व्यवहार में और भी चुस्त है। जिसको नोटिस दिया जा रहा हो उसकी समझ में आये या न आये, लेकिन उसे नोटिस अंग्रेजी में ही दिया जायेगा। सारी कार्यवाही अंग्रेजी में ही होती है। राज्य में सिवाय ग्राम-पंचायतों के, सब जगह अंग्रेजी का ही बोलबाला है।
अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी के आने से सांस्कृतिक और वैज्ञानिक प्रगति में बड़ी सहायता मिलेगी, क्योंकि इससे ज्ञान-विज्ञान सीखने में बहुत आसानी होगी और राष्ट्रीय आत्माभिमान बढ़ेगा। औद्योगिक क्षेत्र में अपनी राष्ट्रीय भाषा के आने से यदि क्षति हो और अंग्रेजी से ही कल्याण होता हो, तो अंग्रेजी-भिन्न भाषा वाले देशों को सबसे पिछड़ा रहना चाहिए।
अंग्रेजी के परित्याग से और अपनी भाषा के ग्रहण से दूसरे देशों के सम्बंध में क्या अड़चन पैदा हो सकती है? इंगलैंड और उसके उपनिवेशों तथा अमरीका को छोड़ कर सभी देश अपनी ही भाषा द्वारा सारा काम करते हैं। अड़चन सिर्फ नौकरशाहों को हो सकती है, लेकिन यदि उनके सुभीते को देखा जाय तो अंग्रेजी की गुलामी से पिण्ड नहीं छूटेगा।
यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षाओं में हिन्दी को प्रथम स्थान मिलना चाहिए। उनके लिए जिन्हें वैदेशिक विभाग में काम करना है, अंग्रेजी को ही नहीं बल्कि संसार की यूरोपीय और एशियाई पांच-छ: भाषाओं को भी परीक्षा में स्थान मिलना चाहिए। परीक्षार्थियों को अभी कितने ही वर्षों तक यह छूट रहनी चाहिए कि वे हिन्दी या किसी भी हमारी प्रादेशिक भाषा को अपना माध्यम चुन लें। जो हिन्दी के माध्यम से परीक्षा देना नहीं चाहते, उनके लिए हिन्दी के परिचय का एक मामूली प्रश्नपत्र होना चाहिए या उन्हें परीक्षा पास करने के बाद हिन्दी के सामान्य ज्ञान की परीक्षा देने का नियम होना चाहिए। हर हालत में हिन्दी का ज्ञान न होने के कारण किसी को इन सेवाओं के अयोग्य नहीं समझना चाहिए। यह तो निश्चित है कि जिनको हिन्दी का ज्ञान बहुत अच्छा है, वही हिन्दीभाषी राज्यों और केन्द्र में काम कर सकेंगे। सेवाओं में काम करते हुए भी पारितोषिक देकर और दूसरी तरह से हिन्दी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। हिन्दी न जानने के कारण किसी के रास्ते में रुकावट नहीं होनी चाहिए, यदि वह और विषयों में तथा देश की किसी एक भाषा में निपुण हो।
अनेक भाषाओं में परीक्षा लेने पर एक-सा स्टैण्डर्ड उसी तरह कायम किया जा सकता है, जैसे हमारे हाईस्कूलों और यूनिवर्सिटियों की परीक्षाओं में है। भाषा को छोड़ कर शेष विषयों में परीक्षा-माध्यम के तौर पर भिन्न-भिन्न भाषाओं के होने पर भी स्टैण्डर्ड कायम करने में दिक्कत नहीं हो सकती।
अहिन्दीभाषी राज्य में हिन्दी का व्यवहार नहीं होने देना चाहिए। ऐसे राज्यों में हिन्दी को बलात् लाद देने में हिन्दी के प्रति अहिन्दीभाषियों में वैमनस्य पैदा होगा। कोई राज्य अनेक भाषाभाषी है, वहां भी हिन्दी को नहीं घुसने देना चाहिए। वहां भाषाओं के क्षेत्र तो अलग-अलग होंगे ही और अपने क्षेत्र में अपनी भाषा का व्यवहार उचित है।
हिन्दी का पर्याप्त ज्ञान ( 1965 तक) सभी हिन्दीभाषी राज्यों के अधिकारी प्राप्त कर सकते हैं, यदि अंग्रेजी को रखने का आग्रह न किया जाय। अहिन्दी राज्यों के लिए उसकी अनिवार्यता नहीं हो, पर प्रोत्साहन दिया जा सकता है। केन्द्र, हिन्दीभाषी राज्यों और दूतावासों में काम करने के लिए हिन्दी के पर्याप्त ज्ञान की अनिवार्यता होने पर लोगों को स्वयं हिन्दी पर अधिकार प्राप्त करने की प्रेरणा मिलेगी। इन सेवाओं में न जाने से आर्थिक तौर से घाटे में रहने का सवाल नहीं है, इसलिए कोई आपत्ति भी नहीं हो सकती।
संक्रान्ति-काल में अंग्रेजी को वैकल्पिक रूप से व्यवहार करने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, किन्तु यदि संक्रान्ति-काल इतना बड़ा है जितने में कि हमारे आज के राष्ट्र-संचालक इस दुनिया में नहीं रहें, तो इसका अर्थ संक्रान्ति काल नहीं, बल्कि अनन्त काल है।
प्रादेशिक भाषाओं को ही अपने राज्य में ग्राम पंचायतों से हाईकोर्ट तक व्यवहार की भाषा के रूप में स्वीकृत किया जाना चाहिए। अहिन्दीभाषी किसी राज्य में भी हिन्दी को हाईकोर्ट की भाषा के तौर पर भी स्वीकृत नहीं किया जाना चाहिए। हिन्दीभाषी राज्यों और सुप्रीम कोर्ट की भाषा हिन्दी होनी चाहिए। हिन्दी या प्रादेशिक भाषाओं में ऐसा करने के लिए सिर्फ पारिभाषिक शब्दों की कमी है जिन्हें एक साल में तैयार किया जा सकता है। संविधान के अनुवाद की तरह हमारी सारी कानूनी परिभाषाएं देश भर के लिए एक होनी चाहिए। इनकी संख्या तीस हजार से अधिक नहीं होगी। इन परिभाषाओं के बन जाने पर हिन्दी, बंगला, मराठी, गुजराती, आदि, सभी भाषाएं उच्चतम न्यायालय तक के काम के उपयुक्त हो जायेंगी।
संक्रान्ति-काल में अंग्रेजी को वैकल्पिक भाषा के तौर पर रखा जा सकता है। उससे भी अच्छा हो, यदि न्यायाधीश अपने फैसले को अपनी भाषा में डिक्टेट करायें और केवल परिभाषाओं को अंग्रेजी में रखें जिनको तैयार कोश के सहारे देशी परिभाषाओं के रूप में बदलना कठिन नहीं होगा। संक्रान्ति काल में सुप्रीम कोर्ट के जजों को भाषा-क्षेत्र के अनुसार भी काम दिया जा सकता है। हाईकोर्ट में राज्य की भाषा से अनभिज्ञ जज को रखना ही नहीं चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की भाषा अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी होनी चाहिए, पर इससे पहले ही हाईकोर्ट की भाषा राज्य की भाषा हो जानी चाहिए। शासन लोगों के लाभ के लिए होना चाहिए, न कि लोग शासकों की सुविधा के लिए तकलीफ उठायें।
पार्लियामेंट की भाषा वे सभी भाषाएं हो सकती हैं जिनमें अपने विचार पूरी तरह से जनता के प्रतिनिधि प्रकट कर सकते हैं। उसे अनुवाद करके दूसरे सदस्यों तक पहुंचाने का काम सरकार का है। इस विषय में हम सोवियत देश की पालियामेंट से शिक्षा ले सकते हैं। वहां प्रत्येक सदस्य अपनी भाषा में अपने विचारों को प्रकट कर सकता है। पार्लियामेंट की कार्यवाही वहां संघ की सोलह सर्वप्रभुत्व-सम्पन्न गणराज्यों की भाषाओं में प्रकाशित होती है। हम भी यहां हिन्दी, बंगला, असमिया, उड़िया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, कश्मीरी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड तथा उर्द में अपनी कार्यवाहियों को प्रकाशित कर सकते हैं। यदि इसमें अधिक कठिनाई हो, तो जिस भाषा में संसद में व्याख्यान दिया जाय उसमें तथा उसके हिन्दी अनुवाद को प्रकाशित करके काम को आसान कर सकते हैं। राज्यों की विधान-सभाओं में केवल उस राज्य की “भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए, यदि कोई उस भाषा में अपने विचारों को अच्छी तरह प्रकट नहीं कर सकता तो उसे किसी दूसरी भाषा की छूट देनी चाहिए जिसमें अंग्रेजी शामिल है, क्योंकि हमारे यहां अंग्रेजीभाषी एंग्लो इंडियन नागरिक भी हैं।
हिन्दीभाषी राज्यों में हिन्दी ने विश्वविद्यालय तक की शिक्षा का माध्यम बनने में अपने बल पर सफलता प्राप्त की है। हमारे बड़े शिक्षाधिकारी कम-से-कम यूनिवर्सिटियों में अंग्रेजी को अक्षुण्ण रखने की पूरी कोशिश करते रहे हैं और अब भी कर रहे हैं। पर देश के स्वतन्त्र होने के बाद अपनी भाषा और उसके साहित्य के अध्ययन में विद्यार्थी अधिक समय देने लगे हैं। हाईस्कूलों के कितने ही विषय, जो पहले अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाये जाते थे, अब हिन्दी के माध्यम से पढ़ाये जाते हैं। अब विद्यार्थी अंग्रेजी के लिए पहले जितना.समय नहीं देते। इसका फल हुआ है – विद्यार्थी की अंग्रेजी की योग्यता में कमी। यदि पुराने स्टैण्डर्ड को अंग्रेजी के बारे में स्वीकार किया जाय तो हाईस्कूल की परीक्षा में दस सैकड़े विद्यार्थी भी उत्तीर्ण नहीं हो सकते। लाचार होकर अंग्रेजी के स्टैण्डर्ड को कायम रखने में उपेक्षा करनी पड़ी। यदि इस तरह के विद्याथियों को कालेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ाना होता है तो विद्यार्थी अपने अध्यापकों को यह कह कर हिन्दी में लेक्चर देने के लिए मजबूर कर रहे हैं कि हमें उत्तर तो हिन्दी में देना है, फिर अंग्रेजी का अधकचरा लेक्चर हमारे किस काम आयेगा ? आगरा विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में बैठने वाले 90 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी हिन्दी में ही उत्तर देते हैं। अब इस विश्वविद्यालय ने निश्चय किया है कि प्रश्नपत्र हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में हो। केन्द्रीय और राज्यों के सेवा-आयोगों में अंग्रेजी के पक्षपाती भी अभी अंग्रेजी को बरकरार रखे हुए हैं। इसी पक्षपात के कारण अभी अंग्रेजी माध्यम वाले यूरोपियन स्कूल ही फल-फूल रहे हैं। लेकिन यह पक्षपात भयंकर साबित हो सकता है, क्योंकि उच्च पद वाली नौकरियां उन्हीं के हाथों में चली जा रही हैं जो अपने लड़कों को कान्वेन्ट और यूरोपियन स्कूलों में पढ़ाने की क्षमता रखते हैं । उच्च सेवाओं की इजारे दारी कुछ परिवारों के हाथों में चली जा रही है, इसे दूसरे लोग चुपचाप नहीं देख सकते । भारत की सारी प्रतिभाएं कान्वेन्टों और यूरोपियन स्कूलों से आती हैं, इसको कोई नहीं मान सकता और इसके विरुद्ध प्रमाण प्रत्येक क्षेत्र के प्रतिभाशाली पुरुष हैं।
प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी भाषा के अतिरिक्त एक और भारतीय भाषा को अवश्य पढ़ना चाहिए। इस नियम के अनुसार अहिन्दीभाषी विद्यार्थी को यथाशक्य हिन्दी नहीं तो किसी दूसरी एक भाषा को और हिन्दीभाषी विद्यार्थी को एक और भाषा सीखनी चाहिए। दूसरी भाषा का आरम्भ दस साल की उम्र में होना चाहिए। अनेक यूरोपीय देशों की तरह हाईस्कूल तक हमारे यहां भी संसार की दो भाषाओं को द्वितीय भाषा के तौर पर पढ़ना चाहिए । सुविधानुसार वह अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, आदि, हो सकती है। एक विदेशी भाषा लेने वाले संस्कृत को भी ले सकते हैं। इस प्रकार हमारे हाईस्कूल पास विद्यार्थी को अपनी भाषा के अतिरिक्त एक प्रादेशिक भाषा और दोनों विदेशी या एक विदेशी और एक संस्कृत इन चार भाषाओं को पढ़ना चाहिए। किसी-किसी विद्यार्थी को ऐसी अनिवार्यता से मुक्त भी किया जा सकता है।
ऊपर के सारे विरोधों के रहते, हमारे उत्तर प्रदेश में यूनिवसिटी तक की शिक्षा का माध्यम बहुत कुछ हिन्दी हो चुकी है। पाठ्य-पुस्तकों की बी. ए. और बी. एस-सी. तक कोई दिक्कत नहीं है। विज्ञान में कुछ दिक्कत है तो वह इसीलिए कि अंग्रेजी का उसके लिए पक्षपात किया जाता है। तो भी, भौतिक, रसायन विज्ञान जैसे विषयों पर भी पाठ्य-पुस्तकें तैयार हो गयी हैं। पढ़ने वाले तैयार हैं, लेखक और प्रकाशक के लिए यह लाभ का सौदा है, इसलिए वे क्यों नहीं तैयार होंगे? परिभाषाओं की अड़चनें भी उतनी ज्यादा नहीं। हां, यह जरूर है कि यदि केन्द्रीय सरकार या यूनिवर्सिटियां मिल कर परिभाषाएं बनवा देतीं, तो उनमें एकरूपता रहती। भिन्न-भिन्न लेखक कोशिश तो करते हैं, पर उनकी परिभाषाएं कभी-कभी एक दूसरे से भिन्न हो जाती हैं। ब्रैकेट या फुटनोट में अंग्रेजी परिभाषाएं भी दे दी जाती हैं जिससे समझने में दिक्कत नहीं होती। हिन्दी में लेक्चर देने वाले अध्यापक भी अंग्रेजी परिभाषाओं से अपना काम चला लेते हैं। अपने व्यवहार से उन्होंने संक्रान्ति-काल के लिए रास्ता निकाल लिया है -आवश्यकता हो तो अंग्रेजी परिभाषाओं के साथ चलाया जाय। हिन्दी-क्षेत्र में बहुत-सी यूनिवर्सिटियां हैं, इसीलिए विद्यार्थियों को एक जगह से दूसरी जगह जाने में भाषा की कोई दिक्कत नहीं होती। हां, अहिन्दीभाषी विद्यार्थियों के लिए इसमें दिक्कत हो सकती है। इसका एक ही रास्ता है-सभी परिभाषाओं को जल्दी से तैयार कर लिया जाय जिनकी संख्या, मेडिकल साइन्स को छोड़कर, एक लाख से ज्यादा नहीं होगी। इसके लिए एक विशेष संस्था की आवश्यकता है जो शीघ्र-से-शीघ्र इस काम को करे। साइन्स के विकास और विस्तार के साथ परिभाषाएं भी बढ़ती हैं, इसलिए ऐसी केन्द्रीय संस्था का स्थायी होना भी जरूरी है। इसके लिए रूसी साइन्स अकादमी का उदाहरण हमारे सामने है।
जहां शिक्षा का माध्यम हिन्दी नहीं है, वहां हिन्दी के साधारण ज्ञान को द्वितीय भाषा के तौर पर प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन होना चाहिए। परिभाषाएं सारे देश की एक होने तथा हिन्दी के साधारण ज्ञान के प्राप्त कर लेने पर विद्यार्थियों को भारत के किसी भी विश्वविद्यालय में जाकर पढ़ने में दिक्कत नहीं होगी, किन्तु हिन्दी सीखने की ऐसी अनिवार्यता किसी भी अहिन्दीभाषी विद्यार्थी के लिए नहीं रहनी चाहिए जिससे उसके आगे बढ़ने में दिक्कत हो।
परिभाषाओं के निर्माण में, संविधान के अनुवाद के समय को छोड़ कर, बहुत ही ढिलाई से काम लिया जा रहा है । केन्द्रीय शिक्षा-विभाग तो, मालूम होता है, इसमें रोड़ा अटकाने के लिए कटिबद्ध हो गया है। वह न अपने ही इस काम को जल्दी करना चाहता है और न रास्ता छोड़ता है। हिन्दी को संघ की भाषा स्वीकार किये कतिपय वर्ष हो गये हैं, लेकिन अभी तक पांच हजार के करीब परिभाषाएं बनाई गयी हैं, जो अभी भी स्वीकृत नहीं, केवल विचारार्थ प्रकाशित की गयी हैं। सारे ज्ञान-विज्ञान के लिए पांच लाख परिभाषाओं की आवश्यकता होगी। इसके लिए शिक्षा मन्त्रालय के लिए 2000 ई. तक का समय भी पर्याप्त नहीं होगा। यह अत्यावश्यक है कि परिभाषाओं के निर्माण तथा कितने ही उपयोगी सरकारी अभिलेखों के अनुवाद के लिए अलग केन्द्रीय प्रतिष्ठान कायम किया जाय जिसके लिए राज्यों की सरकारों, उच्च न्यायालयों, विश्वविद्यालयों और विशेषज्ञों से सहायता ली जाय । परिभाषाओं के निर्माण का काम ऐसी गति से किया जाय जिसमें 1960 ई. तक वे पूरी तैयार हो जायें। परिभाषाएं देश की सभी भाषायों में एक होनी चाहिएं।
अहिन्दीभाषियों के लिए हिन्दी का व्याकरण सुगम होना चाहिए, जो काम शिक्षा-मन्त्रालय द्वारा तैयार कराये गये हिन्दी व्याकरण से हो सकता है। हिन्दी और देश की अन्य भाषाओं का जो सम्मिलित शब्द-भण्डार है, उसका अधिक-से-अधिक प्रयोग हिन्दी पुस्तकों में होना चाहिए।
जैसा कि अभी मैंने कहा, हिन्दी के प्रचार तथा परिभाषाओं के निर्माण के लिए एक केन्द्रीय स्थायी संस्था का बनना अत्यावश्यक है। इसकी मुख्य कमेटी बहुत बड़ी नहीं होनी चाहिए और उसमें हिन्दी के अतिरिक्त बंगला, असमिया, उड़िया, तेलुगु, तमिल, मलयालम, कन्नड़ और मराठी-गुजराती के एक-एक प्रतिनिधि जरूर होने चाहिए। बड़े निर्णय के लिए देश की सभी मान भाषाओं के दो-दो प्रतिनिधियों की एक कान्फ्रेंस समय-समय पर होती ही चाहिए जिससे किसी भी बड़े निर्णय को करने में उनकी सम्मति से लाभ उठाया जा सके।
अन्तर्राष्ट्रीय अंक भी भारतीय अंकों से ही निकले हैं और टाइपराइटर तथा छापेखाने में उनके प्रयोग में कोई दिक्कत नहीं है। उत्तरी भारत के महान आविष्कार इन अंकों को न स्वीकार कर दूर दक्षिण की भाषाएं हमारे पुराने अक्षर वाले अंक संकेत को ही अपनाये रहीं, जिसमें कुछ कठिनाइयां थीं। उन्होंने अंग्रेजी राज्यों में छापेखाने के आने के बाद अपने पुराने अंकों को स्वीकार कर लिया जो वहां आजकल चल रहे हैं। पर इन भाषाओं को छोड़कर शेष भाषाओं के अपने अंक हैं। सुन्दर अक्षर लिखने में हिन्दी और दूसरी भाषाओं में भी अपनी खास तरह से कटी कलम का प्रयोग करना पड़ता है। तिरछी कटी हुई हिन्दी कलम से अंग्रेजी के अंकों को सुन्दर नहीं, विकृत रूप में ही लिखा जाता है। हिन्दी वाले और उसी लिपि को व्यवहार करने वाले मराठीभाषी भी, यह पसन्द नहीं करते कि उनके अपने अंकों को हटा कर अंग्रेजी अंकों को लिया जाय। उनके ऊपर अंग्रेजी अंकों को लादना बुरा होगा। अच्छा है, इसे ऐच्छिक रखा जाय। जो चाहे अंग्रेजी-अंकों को व्यवहार में लाये, जो चाहे हिन्दी-अंकों को।
मैं पहले ही बता चुका हूं कि प्रत्येक विद्यार्थी को दस वर्ष की उम्र या चौथी श्रेणी से ऊपर अपनी भाषा के अतिरिक्त एक और भाषा को भी अनिवार्य रूप में पढ़ना चाहिए। हिन्दी वालों को उसी तरह एक दूसरी भाषा को पढ़ना चाहिए जिस तरह अहिन्दीभाषियों को हिन्दी या कोई दूसरी भाषा।
हाईस्कूल में संस्कृत को पाठ्य बनाना अनिवार्य तो नहीं, पर आवश्यक कर देना चाहिए । संस्कृत के अध्ययन को प्रोत्साहन देना चाहिए। पिछले दस सालों में बनारस और दूसरी जगहों पर संस्कृत के गम्भीर अध्ययन का जो रूप देखा जाता है, उससे बहुत चिन्ता हो रही है। संस्कृत के अध्यापकों को दूसरे विषयों के अधिकतम वेतन वाले ग्रेड में करके हम कुछ इस अवनति को रोक सकते हैं। इससे भी बढ़ कर एक भारतीय संस्कृत परिषद की स्थापना करने की आवश्यकता है, जिससे सारे देश के वास्तविक दिग्गज विद्वान परिषद में आ सकें। इसके लिए दिल्ली के विद्वानों का छोटा सा सम्मेलन और शास्त्रार्थ भी कराया जा सकता है। जब पारिषद्यों की संख्या बीस हो जाय, तो उन्हीं को नये पारिषदयों और उप-पारिषदयों के निर्वाचन का अधिकार दिया जाय। पारिषद्यों की संख्या बीस से अधिक न हो, और उप-पारिषद्यों की दस से अधिक न हो। साल में अधिक-से-अधिक तीन-साढ़े-तीन लाख रुपये खर्च होंगे बार इससे हम संस्कृत की गम्भीर विद्वत्ता की रक्षा कर सकेंगे।
(विविध प्रसंग से)