प्रसादजी से मेरा केवल बौद्धिक संबंध ही नहीं, हृदय का नाता भी जुड़ा हुआ है। महाकवि के चरणों में बैठकर साहित्य के संस्कार भी पाए हैं और दुनियादारी का व्यावहारिक ज्ञान भी। पिता की मृत्यु के बाद जब बनारस में उनसे मिला था, तब उन्होंने कहा था, “भाइयों के सुख में ही अपने सुख को देखना। हिसाब-किताब साफ रखना। तभी घर के बड़े कहलाओगे।” इसी बात को लेकर प्रसादजी आज भी मेरे जीवन के निकटतम हैं। यों बरसों उनके साथ रहकर अपनापन पाने का सौभाग्य मुझे नहीं प्राप्त हुआ। सब मिलाकर बीस-पच्चीस बार भेंट हुई होगी। आदरणीय भाई विनोदशंकर जी व्यास के कारण ही उनके निकट पहुँच सका। साहित्य की उस गंभीर मूर्ति को खिलखिलाकर हँसते हुए देखा है। चिंतन के गहरे समुद्र को चीरकर निकली हुई सरल हँसी उनके सहज सामर्थ्य की थाह बतलाई थी। यही उनका परिचय है जो मैंने पाया है। प्रसाद आशावादी थे और उनकी आशावादिता का अडिग आधार-स्तंभ थी उनकी आस्तिकता।
मेरा मन जड़ होकर भी अभी चेतना से दूर नहीं गया। पिछली ज्ञान-कमाई के संस्कार नए जीवन के लिए आज भी बल देते हैं। चारों ओर फैली हुई निराशा और मेरे मन के अवसाद को पीछे ढकेलकर महाकवि का स्वर मेरी क्रियाशीलता को हौसला दिलाता है :
कर्म यज्ञ से जीवन के
सपनों का स्वर्ग मिलेगा;
इसी विपिन में मानस की
आशा का कुसुम खिलेगा।
प्रसाद जी के इस दृढ़ विश्वास की पृष्ठभूमि में उनके जीवन की गंभीर साधना बोल रही है। परिक्षा की कठिनतम घड़ियों में भी उनकी आशावादिता अडिग रही, उनका कर्मयज्ञ अटूट क्रम से चलता रहा। पिता और बड़े भाई के स्वर्गवास के बाद दुनियादारी के क्षेत्र में उन्हें कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। पुराने घराने के नाम और साख का प्रश्न, कर्ज का बड़ा बोझ, कुटुंबियों के कुचक्रों की दुश्चिंता – इन कठिन समस्याओं के जाल में जकड़े हुए सत्रह वर्ष के युवक प्रसाद को जो शक्ति उबारती रही, वह थी उनकी अनवरत साहित्य-साधना, उनकी निष्ठा। विषम परिस्थितियों के रहते हुए भी प्रसाद पागल न हुए; कुचक्रियों से वैर साधने के लिए स्वयं कुचक्री भी न बने, दुनियादारी के दलदल में पूरी तौर पर फँसकर भी हिम्मत न हारे और अपनी ‘स्पिरिट’ को तरोताजा रखने के लिए उन्होंने पठन-पाठन और साहित्य-रचना की वृत्ति को अपनाया – इस बात को समझने के लिए हमें उनके वातावरण और उनके संस्कारों को समझना होगा।
धनी और कीर्तिशाली घराने में उन्होंने जन्म पाया। दानियों के घर में जन्म लेनेवाला युवक किसी के आगे हाथ नहीं पसार सकता। इसलिए विषम परिस्थितियों ने घेरकर उन्हें स्वावलंबी बनाया। इसके लिए सौभाग्यवश उन्हें बचपन में अच्छे संस्कार प्राप्त हो चुके थे। अच्छे शिक्षक द्वारा वेदों-उपनिषदों का अध्ययन काशी के धर्मनिष्ठ घराने के छोटे उत्तराधिकारी के एकांत क्षणों को विचारों की स्फूर्ति से भरता रहा। बुरे समय में आस्तिक मनुष्य स्वाभाविक रूप से उदारचेता हो जाता है। उसकी करुणा भक्ति का रूप धारण कर विश्वात्मा के प्रति समर्पित होती रहती है। सत्रह वर्ष की अवस्था में जब प्रसाद जी घर के बड़े बनकर दुनियादारी की कठिन कसौटी पर चढ़े, तब उनके विद्याभ्यास का क्रम चल ही रहा था। पढ़ा हुआ पाठ तत्काल ही मन भरने के काम आ गया। उनका चिंतन ठोस बना। कामायनी के महाकवि का परमोत्कर्ष जीवन की पहली कठिनाइयों की शिला पर विधना की लेखनी की तरह अंकित हो गया था। उनका दार्शनिक रूप, उनका कवि-हृदय और कठिन साहित्य-साधना का प्रारंभिक अभ्यास इन्हीं बुरे दिनों में विकसित हुआ।
प्रसाद जी की कविता चोरी-छिपे शुरू हुई। उन दिनों बड़े घर के लड़कों का कविता आदि करना बड़ा खराब माना जाता था। लोगों का ख्याल था कि इससे लोग बरबाद हो जाते हैं और वाकई बरबाद ही हो जाते थे। रीतिकाल अवसान के समय ब्रजभाषा के अधिकांश कवियों के पास काव्य के नाम पर कामिनियों के कुचों और कटाक्षों के अलावा और बच ही क्या रहा था। ऐसे कवियों में जो गरीब होते थे, वे मौके-झप्पे से अपनी नायिकाओं को हथियाने की कोशिश करते थे और अमीर हुए तो फिर पूछना क्या! रुपयों के रथ पर चढ़कर नायिकाएँ क्या, उनके माँ-बाप, हवाली-मवाली तक सब कविजी के दरबार में जुट जाते थे। इसलिए बड़े भाई शंभूरत्नजी ने इन्हें कविता करने से बरजा, परंतु प्रसाद की काव्य-प्रेरणा में कोरा जवानी का रोमांस ही नहीं था, उपनिषदों के अध्ययन के कारण ज्ञान से उमगी हुई भावुकता भी थी। इन्हीं दोनों विशेषताओं ने प्रसाद को आगे चलकर रहस्यवादी कवि बनाया, परंतु रहस्यवादी के नाते वे उलझे हुए नहीं थे। प्रसाद का एक सीधा-सादा मार्ग था जिस पर चलकर उन्होंने अपनी महाभावना का स्पर्श पाया।
प्रसाद चोरी से कविताएँ किया करते थे, इससे यह सिद्ध होता है कि उन्हें अपनी लगन की बातों को चुराकर अपने तक ही रखने की आदत थी। यह आदत सुसंस्कारों का प्रभाव पाकर मनुष्य को अपनी लगन में एकांत निष्ठा प्रदान करती है। प्रसाद की साहित्य-साधना में हर जगह निष्ठा की पक्की छाप है। कवि, नाटककार, कहानी-उपन्यास-लेखक और गंभीर निबंध-लेखक – किसी भी रूप में प्रसाद को देखिए – उनकी चिंतन-शक्ति साहित्य के सब अंगों को समान रूप से मिली है। रचना छोटी हो या बड़ी, निष्ठावान साहित्यिक के लिए सबका महत्व एक-सा है।
बीसवीं शताब्दी के पहले दस-बारह वर्ष भारत में राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना की दृष्टि से बड़े महत्वपूर्ण थे। वह सारा महत्व युवक प्रसाद के भावुक हृदय और उर्वर मस्तिष्क ने ग्रहण कर लिया था। विशेष प्रकार के संस्कारों में पलने वाले युवक ऐसी अवस्था में आमतौर पर अतीत के गौरव से भर उठते हैं। वैसे तो हर जगह के निवासी को अपने देश और उसके इतिहास से बहुत प्यार होता है; पर इस देश में एक अजीब जादू है। हमारे इतिहास की परंपरा महान है; जीवन की अनेक दिशाओं में हम अपने ढंग से पूर्णता को प्राप्त कर चुके हैं। यह चेतना बीसवीं शताब्दी के शैशवकाल में स्वातंत्र्य गंगा की नई लहर से प्रसाद ऐसे मनीषी महाकवि का हृदय अभिषिक्त न करती तो और किसका करती?
प्रसाद जी ने मुझे भी एक ऐतिहासिक प्लाट उपन्यास लिखने के लिए दिया था। उस दिन दो-ढाई घंटे तक बातें होती रहीं। भाई ज्ञानचंद जैन भी मेरे साथ थे। उपन्यास, नाटक और कहानियों में घटनाओं, चरित्रों या चित्रों के घात-प्रतिघात की प्रणाली मनोवैज्ञानिक आधार पाकर किस प्रकार सप्राण हो उठती है, यह उस दिन प्रसाद जी की बातों से जाना। वे बातों को बड़ी सहूलियत के साथ समझाते थे। उन्होंने किसी पुस्तक से खोजकर कलियुग राज वृत्तांत नामक ग्रंथ से कुछ श्लोक सुनाए और लिखवा दिए। उन दिनों वे ‘इरावती’ लिख रहे थे। वे रूलदार मोटे कागज पर लिख रहे थे। फुलस्केप कागज को बीच से कटाकर उन्होंने लंबी स्लिपें बनाई थीं। उन्हीं स्लिपों में से एक पर वे श्लोक मैंने लिख लिए। चंद्रगुप्त प्रथम का कुमार देवी और नेपालाधीश की सुता के साथ विवाह होने का राजनीतिक इतिहास ही उन श्लोकों में अंकित था।
मैंने उत्साह में भरकर उन्हें वचन दिया कि जाते ही लिखने बैठ जाऊँगा।
सन छत्तीस में जब वे प्रदर्शनी देखने के लिए लखनऊ आए, तब मैं उनसे मिला था। मेरे वचन देने के लगभग साल-भर बाद उनसे यह पहली भेंट हुई थी। उस साल उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था – भरा हुआ मुँह, कांतियुक्त गौर वर्ण, चश्मे और माथे की रेखाओं की गंभीरता उनकी सरल हँसी के साथ घुल-मिलकर दिव्य रूप धारण करती थी। मैंने प्रणाम किया, उन्होंने हँसते हुए उत्तर में कहा, ”कहिए, मौज ले रहे हैं?”
यह मेरी जोशीली प्रतिज्ञा का ठंडा पुरस्कार था। बरसों बाद एक फिल्म-कंपनी के लिए उस प्लाट के आधार पर मैंने एक सिनेरियो तैयार किया था। जहाँ तक मेरी धारणा है, कहानी अच्छी बनी थी। सन 45 में लड़ाई खत्म होते ही कास्ट्यूम पिक्चरों का निर्माण कार्य एकदम से बंद पड़ गया। वह कहानी उनके तात्कालिक उपयोग की वस्तु न रही। इसके साथ ही साथ वह मेरे किसी काम की न रही। वह बिक चुकी थी। अपना वचन न निभा पाने की लज्जा से आज भी मेरा मस्तक नत है। शायद यह लज्जा किसी दिन मुझे कर्तव्य ज्ञान करा ही देगी और मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा।
प्रसाद जी जैसे उदार महापुरुष की याद आज के दिनों में और भी अधिक आती है जब कि दूसरी लड़ाई के अंत में नाटकीय रूप से अवतरित होकर एटम बम ने सबसे पहले मानव-हृदय की उदारता का ही संहार कर डाला। इसी एटम बम की संस्कृति में पले हुए मुनाफाखोरी और एक सत्ताधिकार के संस्कार आज जन-मन पर शासन कर रहे हैं, पुस्तकालय सूने पड़े हैं। सिनेमाहाल मनोरंजन के राष्ट्रीय तीर्थ बन गए हैं। गली-मोहल्लों में प्रेम का सस्ता संस्करण फैल गया है। एक युग पहले तक जहाँ मैथिलीशरण की भारत-भारती और प्रसाद के आँसू की पंक्तियाँ गाते-गुनगुनाते हुए लोग शिक्षित मध्यम वर्ग के नवयुवकों में अक्सर मिल जाते थे, वहाँ अब प्रसाद का साहित्य पढ़ने वाले शायद मुश्किल से मिलें, उनकी बात जाने दीजिए जिन्हें परीक्षा से मजबूर होकर प्रसाद को पढ़ना ही पड़ता है। एटम बम की संस्कृति का हमारी सभ्यता पर यह प्रभाव पड़ा है।एटम बम की संस्कृति का हमारी सभ्यता पर यह प्रभाव पड़ा है।
(1950 , ‘जिनके साथ जिया’ में संकलित)