हिंदी में विश्व कविता – हरिमोहन शर्मा

पिछले दिनों हिन्दी में अनूदित विश्व कविता का तीन खंडों में संचयन आया है। सुरुचिपूर्ण और सुंदर। हुआ यह कि अचानक एक दिन कवि वंशी माहेश्वरी से संपर्क हुआ और उन्होंने बताया कि विश्व साहित्य के अनुवाद वाली उनकी पत्रिका ‘तनाव’ में जो विदेशी कवियों के पिछले 40- 42 सालों में अनुवाद प्रकाशित हुए थे, उनका संचयन छप गया है। यह मेरे लिए बढ़िया खबर थी, थोड़ी उत्सुकता जगाने वाली भी क्योंकि बीस – पच्चीस साल पहले मैंने भी उस पत्रिका के लिए पोलिश कविता के कुछ अनुवाद किए थे और वे उस में प्रकाशित भी हुए थे।उन्होंने ये संचयन मुझे भिजवाये। कविता के अनुवादों को सुसज्जित ढंग से पुस्तक रूप में पाकर निश्चय ही प्रीतिकर अनुभव हुआ । यह पुस्तक रजा़ फाउंडेशन के सहयोग से प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक के विषय में कहा गया है :” विश्व कविता का हिंदी अनुवाद में यह सबसे बड़ा संचयन है। संचयन में लगभग 33 देशों की 28 भाषाओं के एक सौ तीन कवियों की कविताओं के 48 कवियों व विद्वानों द्वारा किए गए, हिंदी अनुवाद शामिल हैं। यह अत्यंत मूल्यवान सामग्री पत्रिका के रूप में खो न जाए इस ख्याल से हमने वंशी माहेश्वरी से आग्रह किया कि वे अब तक ‘तनाव’ में प्रकाशित सभी अनुवादों से चयन कर उन्हें तीन खंडों में पुस्तकाकार एकत्र और संयोजित कर दें।”(आमुख)
इससे पहले कि इन पुस्तकों के बारे में कुछ कहा जाए मैं बीसवीं शताब्दी के सातवें – आठवें दशक में निकलने वाली अव्यावसायिक लघु पत्रिका ‘तनाव’ के प्रकाशित होने की थोड़ी पृष्ठभूमि, साहित्य – संस्कृति के तब के परिदृश्य और अनुवाद की पत्रिका होने की अहमियत पर कुछ बात करना चाहता हूं।कह सकते हैं कि उस समय के साहित्यिक सांस्कृतिक इतिहास पर संक्षिप्त दृष्टि डालना चाहता हूं।

वह लघु पत्रिकाओं के आंदोलन का दौर था। उस समय वंशी माहेश्वरी ने अपने युवा काल में ‘तनाव’ नामक पत्रिका निकालने का निश्चय किया।सभी जानते हैं कि हिंदी की अव्यावसायिक लघु पत्रिकाएं प्रायः अल्प जीवी होती हैं। मगर यह कहा जाये कि यह हिंदी की एक ऐसी लघु पत्रिका है -‘ तनाव’ जो अपने उद्यम से लगभग 45-50 साल से आज भी निकल रही है तो अजूबा जैसा लग सकता है । वह चुपचाप आज भी अपना जीवन बचाए हुए है – यह अचरज का विषय तो है ही।

यह ठीक है कि यह कोई विचार – विमर्श की या महत्वपूर्ण विद्वानों द्वारा संपादित पत्रिका नहीं है। यहां मैं प्रगतिशील विचारधारा वाली पत्रिका -‘पहल’की चर्चा भी नहीं कर रहा हूं। यह हिंदी की एक सृजनात्मक सरोकारों से जुड़ी साधारण सी पत्रिका रही है जिसे कामर्स के एक कवि हृदय विद्यार्थी ने अपने हिन्दी के अध्यापक से प्रेरित होकर निकालने की सोची। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अपने सीमित संसाधनों से निकलने वाली यह पत्रिका आज तो फिर भी अच्छे आकार प्रकार में है, तब हैंडमेड कागज पर निकलने वाली एकदम सादगीपूर्ण छोटी सी पत्रिका होती थी।

वंशी माहेश्वरी

महत्वपूर्ण यह है कि सन 1972 के आसपास कविता में रुचि रखने वाला एक नौजवान पत्रिका निकालने की हिम्मत जुटाता है। वह भी मध्यप्रदेश के पचमढ़ी के रास्ते में पड़ने वाले एक छोटे से कस्बे पिपरिया से। इस विषय में इसके संपादक वंशी माहेश्वरी से उनकी बात सुनते हैं – ” बात उन दिनों की है जब पिपरिया महाविद्यालय में अपने समय के मूर्धन्य कवि चंद्रकांत जी देवताले हिंदी व्याख्याता के रूप में आए। संयोगवश मैंने अपनी तितर-बितर जिज्ञासाओं के साथ, प्रथम वर्ष कॉमर्स में दाखिला लिया था। उस समय बेहरेपन की तरह देवताले जी का नाम भर सुना था कि वे कविताएं लिखते हैं। उन दिनों मैं भी कविता लिखता था। कविता क्या गीतनुमा तुकतान और उसी रस में विभोर हो जाता था। पिपरिया में यही तुक्कड़ माहौल व्याप्त था। कॉलेज में देवताले जी से आमना-सामना नहीं हो पा रहा था। मन में संकोच उथल-पुथल मचा रहा था। दूर से ही उनकी छवि को देखता रहता था। परिचय कराने वाला भी कोई नहीं था। लेकिन, अचानक एक अद्वितीय दिन आया कि वह हमारी दुकान( कपड़ों सहित जनरल दुकान) में प्रकट हो गए। उस दिन उस समय मेरी दुकान में ड्यूटी लगी थी। हड़बड़ा गया। साहस बटोर कर लगभग हकलाते हुए अपना परिचय दिया – “सर, आप कविता लिखते हैं इतना ही ज्ञात है लेकिन आपकी एक भी कविता मैंने नहीं पढ़ी।” उन्होंने छूटते ही कहा – “घर आ जाओ”.. फिर क्या था निसंकोच उनके घर पहुंच गया। छोटा सा घर बैठक के रूम में किताबें भरी पड़ी थीं और कई किस्म की लघु पत्रिकाएं फैली हुई थी। पहली बार इतनी किताबें और पत्रिकाएं देखने का योग बना। ‘ज्ञानोदय’, ‘माध्यम’, ‘कृति’, ‘कल्पना’, ‘बिंदु’, ‘वातायन’, ‘ओरांग उटांग’, ‘कृति परिचय’ नानाविध पत्रिकाएं सामने थीं और देखने पढ़ने को मिलीं। इन पत्रिकाओं के सान्निध्य में आते ही मन में पत्रिका निकालने का भावबोध जाग उठा। देवताले जी लगभग ढाई तीन वर्ष रहे। उन्होंने साहित्यिक फिजां का कायाकल्प कर दिया और पत्रिका का बीज बो कर चले गए।”(संचयन – 1पृष्ठ 10)

देवताले जी पत्रिका निकालने का बीज तो बो गए पर पौधा अंकुरित होने के लिए अनुकूल वातावरण चाहिए। उसे जीवित रखने के भौतिक संसाधन भी। वह कहां से आएंगे – एक बड़ी समस्या होती है किसी भी पत्रिका को जीवित रखने के लिए।यह सोचा नहीं। इसीलिए लघु पत्रिकाएं अक्सर अकाल – कवलित हो जाती हैं। तब पत्रिका के नौजवान संपादक को यह पता नहीं था कि पत्रिका कैसे निकालनी है ? वहां तो कोई ठीक ठिकाने की प्रिंटिंग प्रैस भी नहीं थी। पैसे का कोई जुगाड़ नहीं था। एक साप्ताहिक अखबार निकालने वाले की अपनी प्रैस थी।पर उसे देने के लिए पैसे नहीं थे । ऊपर से कविनुमा नौजवान। जैसे- तैसे ले- देकर इकट्ठा किया हुआ धन एक अंक में खर्च हो गया।आगे के अंक कैसे निकलें? इस विषय में वंशी लिखते हैं – ” प्रेस की उधारी पटाने के पश्चात गांठ में पैसा नहीं और आंखों में आगत के सपने तैर रहे थे। ‘तनाव’ की खुरदरी मुसीबतें कंधा से कंधा मिलाकर चल रही थीं। सौभाग्य के गले में दुर्भाग्य सरेआम हाथ डाले घूम रहा था। इस स्थाई भाव – संचार के चलते कभी हार नहीं मानी। ‘मरता क्या न करता’ का भाव उदित हुआ। ‘तनाव’ की पिछली और अभी की प्रतियों को बेचने की प्रेरणा ने बिक्री अभियान प्रतिपादित किया। और निकल पड़े घर- घर, दुकान – दुकान, पास – पड़ोस, मोहल्ला दर मोहल्ला। जहां जहां संभावना का उजाला था वहां – वहां गए”। (उपर्युक्त पृष्ठ 11)पर ऐसे क्या कोई नियमित पत्रिका निकल सकती है? जहाँ पैसों का नियमित जुगाड़ नहीं, आस- पास कोई अच्छी प्रिंटिंग प्रेस नहीं जो कविता की पत्रिका को प्रकाशित कर सके। इसके लिए सबसे पहले तो पैसों की तंगी को दूर करना आवश्यक था। वंशी बताते हैं-” आर्थिक कष्टों की पूर्ति अर्थात पैसे जुटाने के साधन कमतर रहे। जेब खर्च का लिथड़ा – सा अंश, आकाशवाणी और दूरदर्शन से, गोष्ठियों से पारिश्रमिक, वार्षिक ग्राहकी के चंदे( हालांकि इसका ताना-बाना जीर्ण शीर्ण ही रहा) यदा-कदा, कभी- कभार परोपकारी चेक, विज्ञापन, बद्री विशाल पित्ती ट्रस्ट से सहकार इत्यादि स्रोतों से। फिर भी पशोपेश और माली हालत का स्थापत्य हमेशा अभिन्न अंग बने रहे, लेकिन भाग्यवश मध्यप्रदेश शासन में संस्कृति सचिव अशोक वाजपेयी जी आए तो उन्होंने लगभग तमाम पत्रिकाओं को विज्ञापन के माध्यम से आर्थिक सहकार किया। “(उपर्युक्त पृष्ठ 12)
कहा गया है कि पिपरिया में प्रिंटिंग प्रेस बहुत ही कम थे। थे भी तो बाबा आदम के जमाने के। फिर वे ‘तनाव’ पत्रिका को छापें- यह उनकी प्राथमिकता नहीं थी। इसप्रकार जैसे तैसे पत्रिका के 13 – 14 अंक छपे थे। कुछ समय बाद संपादक को एक ऐसे व्यक्ति मिले जिन्होंने ऐसे गाढ़े समय में इनका हाथ थामा। उन्हीं के शब्दों में – ” ‘तनाव’ की अंतिम प्रेस की अंतिम घटना यही थी कि वे आगे से पत्रिका नहीं छापेंगे। संकट की इसी धुंध में जनाब जुम्मन खां( जिन्हें हम अब्बा कहते थे) मिल गए। उन्होंने अपनी प्रेस के बारे में बताया( वे और उनके बेटे कंपोजिटर थे) हमारी खुशी गेंद की तरह उछली। अंधे को क्या चाहिए दो आंखें (दो नहीं तो एक ही मिल जाए देखने तो लगेगा) सो हम उनके जीर्ण-शीर्ण घरनुमा दुकान में घुसे। बाबा आदम के जमाने की सिलाई मशीन की तरह पैरों से चलने वाली बालस्वरूप प्रेस देख कर उसे गले लगाने का मन हुआ। मन के आवेश को रोका – यह प्रेस सिर्फ एक पेज ही छापती थी। टाइप फोंट भी दो तीन प्रकार के ही थे। कटिंग मशीन का तो सवाल ही नहीं उठता। हाथ से चलने वाले तेज़ चक्कानुमा औजार से कटिंग होती थी। प्रैस का नाम था कादरी प्रिंटर्स । इसी प्रेस से, इसी मशीन से, पाब्लो नेरुदा का अंक (जून 1980) प्रकाशित हुआ। एक – दो अंकों के बाद प्रेस की समृद्धि और विस्तार हुआ तब से अब तक इन 40 वर्षों में ‘तनाव’ यहीं से प्रकाशित है।”(उपर्युक्त पृष्ठ 13)

ये थीं डिजिटल होने से पहले की प्रिंटिंग प्रणाली और इससे होने वाली कठिनाइयों के बारे में जानकारी। यह दी इसलिए जा रही है कि आज के नौजवान कल्पना कर सकें कि तब पत्रिका निकालना कितना जहमत का काम होता था। पत्रिका सिर्फ जुनून के जोर से निकलती थी। संकल्प शक्ति और निष्ठा के बिना हिन्दी की लघु पत्रिका का निकल पाना लगभग असंभव था।

खैर यहां पत्रिका निकालने की घटनाओं को सुनाना उद्देश्य नहीं। बल्कि यह बताना था कि पिपरिया जैसी छोटी जगह से निकलने वाली पत्रिका ‘तनाव’ धीरे-धीरे कैसे हिन्दी साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान वाली पत्रिका बन सकी। अनुवाद के क्षेत्र में तो यह बाद में आई। हुआ यह कि छह-सात साल पत्रिका निकालने के बाद कवि वंशी माहेश्वरी ने सोचा कि इसे विश्व साहित्य के हिन्दी अनुवाद से जोड़ा जाए। हिन्दी में अनुवाद करना कराना वैसे भी कठिन काम है। वह भी कविता का। पर धीरे-धीरे वंशी भाई द्वारा अनुवाद के लिए प्रयास किये जाने लगे। तब एक जनवरी 1979 से यह विश्व साहित्य के हिन्दी अनुवाद से जुड़ने वाली पत्रिका बन गयी-‘तनाव’।

अब शुरू होती है हिंदी में अनुवाद करने वाले सुधी साधकों – अनुवादकों की खोज। अनुवाद करना, अनुवाद कराना थोड़ा बेढब मामला है। इसमें एक भाषा – संस्कृति नहीं, दो भाषाओं – संस्कृतियों को गहराई से जानने वाला, उसमें रमने वाला संवेदनशील साहित्यिक चाहिए। यदि अंग्रेजी से अनुवाद किए जाने हैं तो अंग्रेजी साहित्य से दिलचस्पी के साथ साथ उसकी गहरी जानकारी और हिन्दी से लगाव या अनुरक्ति होना आवश्यक है। वैसे भी हमारी भाषा में अनुवाद को एक दोयम दर्जे का काम माना जाता है। इससे तो सर्जक की प्रतिष्ठा बेहतर होती है। जबकि अनुवाद करना दुगुनी मेहनत का काम है। पहचान कुछ नहीं। अच्छे अनुवादक मिलते नहीं हैं। इनकी खोज ‘तनाव’ पत्रिका के संपादक को भी निरंतर बनी रहती। इस विषय में वंशी माहेश्वरी की टिप्पणी रोचक है :”इधर मैं भी अनुवादक की टोह में रहता। जैसे ही कहीं से अनुवादक का पता चलता मैं अनुवादक महोदय के पीछे प्रेत की तरह मंडराने लगता। (उस समय पहुंच के सीमित साधन थे) मेरी गुहार उनसे असंख्य बार हो जाती थी। अंततः वे भी प्रेत मुक्ति चाहते थे और इस तरह पांडुलिपि मिल जाती।”तो यह है कहानी अच्छे अनुवादक के खोज की और इसप्रकार ‘तनाव’ पत्रिका के द्वारा हिन्दी में विश्व कविता का अनुवाद छापना संभव होता है।

अब संचयन के तीन खंडों में प्रकाशित कविताओं के विषय में कुछ बातें। विश्व कविता संचयन- एक का शीर्षक दिया गया है :’दरवाजे में कोई चाबी नहीं’। इसमें यूनान, तुर्की, पोलैंड से लेकर ईरान, अर्जेंटीना आदि अनेक देशों की कविताएं संकलित हुई हैं। हिंदी के अनेक वरिष्ठ कवि जैसे रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी से लेकर मंगलेश डबराल आदि महत्वपूर्ण कवियों तथा कुछ अन्य विद्वानों ने विदेशी भाषा के कुछ महत्वपूर्ण कवियों के सुंदर अनुवाद किये हैं । अच्छी कविताएं तो अनेक हैं पर उनमें से कुछ के माध्यम से बातें की जा सकती हैं और अनुदित कविताओं को उद्धृत किया जा सकता है । उदाहरण के लिए तुर्की जिसका कुछ हिस्सा एशिया तो कुछ हिस्सा यूरोप में पड़ता है, यहां के कवि बुलेंद एजेविद का रघुवीर सहाय द्वारा किया गया अनुवाद महत्वपूर्ण है। रघुवीर सहाय बुलेंद एजेविद(1925) का संक्षिप्त परिचय देते हुए कहते हैं कि बुलेंद तुर्की के भूतपूर्व प्रधानमंत्री रहे। कला और राजनीति पर उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘गीतांजलि’, टी एस इलियट की ‘कॉकटेल पार्टी’ तथा इसी प्रकार डायलन टॉमस आदि की कविताओं का उन्होंने तुर्की में अनुवाद किया है। अपनी कविता ‘नियम’ में वह सादगी से कहते हैं कि संसार में मनुष्य जीवन का सार क्या है:

“अनुच्छेद एक
इंसान का संसार में अनिवार्य आना है।

अनुच्छेद दो
इंसान को अनिवार्य है देना
व पाना प्यार
अनिवार्य है जग को
समझना स्वर्ग

अनुच्छेद तीन
ह्रदय में चाह जीने की लिए
जाना उसे अनिवार्य है इक दिन
उसे पहचानना है सेब का वह स्वाद कड़ुवा जीभ पर उस दिन

अनुच्छेद चार
(स्पष्ट पढ़ा नहीं जा रहा है )
इस नियम का नियामक अज्ञात है
व्यर्थ है अज्ञात हाथों का विरोध। “
(उपर्युक्त पृष्ठ 168)

अथवा ईरान जैसे देश में जहां कट्टरपंथ का वर्चस्व है। स्त्रियों को आजादी स्वल्प है। वहां की एक कवयित्री फरुग फरुखजाद कवि होने के लिए, अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति पाने के लिए अपने स्त्री नाम को ढककर एक छद्म पुरुष नाम धारण करती हैं जिससे कि वह अपनी बात कह सकें। वे अपने देश की स्त्रियों की आवाज में आवाज मिलाकर कहती हैं:

“मेरा भाग है एक आसमान
जो पर्दा गिरते ही
मुझसे छिन जाता है।”

कवयित्री अपने भीतर के स्त्री मन को किसी आवरण में छुपाने से इनकार करते हुए कहती हैं कि वे ‘अपनी खिड़की की छाया में सूरज से नाता’ जोड़ रही हैं।

इस कवि और उसकी कविता का परिचय देती हुई अनुवादक राजुला शाह कहती हैं कि फरुग की स्वतंत्र आवाज़ को वहां की व्यवस्था पसंद नहीं करती । स्पष्ट है कि उन्हें अनेक परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। पर वे अपने देश को छोड़कर और कहीं नहीं जाना चाहतीं। उन्हें अपना देश बहुत प्यारा है। उनके शब्दों में :”जैसा भी है, मुझे तेहरान प्यारा है। मैं इससे बहुत प्रेम करती हूं। यहीं मेरे जीवन को ध्येय मिलता है, जिससे फिर उसमें जीने लायक कुछ की आहट भी। मुझे प्यार है उस तीखी चुटीली धूप से, उन भारी भरकम सूर्यास्तों से, उन धूल भरी गलियों से और उन अधम, अभागे, अभिशप्त और पतित जनों से।” (उपर्युक्त पृष्ठ 250)

उनके लिए कवि और इंसान होना दो बातें नहीं हैं। वे किसी भी प्रकार के दिखावे या छल-छद्म में विश्वास नहीं रखतीं। व्यक्तिगत जीवन में किसी सुख – सुविधा की उन्हें चाहत नहीं। अनुवादक राजुला शाह उनका एक वक्तव्य उद्धृत करती हैं जिसमें वह अपने समय के कवियों के आडंबरपूर्ण व्यवहार को तार तार करते हुए कहती हैं- “मैं जीवन के हर क्षण में कवि होने में विश्वास करती हूं। कवि होने का अर्थ है मनुष्य होना। मैं कुछ ऐसे कवियों को जानती हूं जिनके दिन – रात के व्यवहार का उनकी कविता से कोई लेना – देना नहीं है। दूसरे शब्दों में, वह सिर्फ कविता लिखते वक्त ही कवि होते हैं। फिर वो लिख लेते हैं और उसके बाहर आते ही लालची, तंगदिल, अभागे, ईर्ष्यालु लोगों में तब्दील हो जाते हैं। मेरे लिए उनकी कविता में विश्वास कर पाना कठिन है। मैं जीवन की सच्चाइयों की कद्र करती हूं और जब इन्हें अपनी कविता, लेख आदि में मुट्ठियां तानकर बड़े-बड़े दावे करते सुनती हूं तो मन भारी हो जाता है। मुझे उनके ईमान पर शुबहा होता है। मैं अपने आपसे कहती हूं ‘शायद ये सिर्फ एक तश्तरी भर चावल के लिए ही चीख रहे हैं।”(उपर्युक्त पृष्ठ 250)इससे उन्हें कोफ्त होती है।
वे अपनी कविता में अपने देश – समाज की संतप्त व दबी-कुचली आधी आबादी के विषय में अपनी कविता में प्रश्न करती हैं :

” वह स्त्री जो
अपनी पवित्रता
और प्रतीक्षा के पर्दे में
धूमिल हो गई
वही क्या नहीं थी
मेरी जवानी?

वे उत्सुक सीढ़ियाँ
क्या दुबारा चढ़ूंगी मैं
उस भले देवता को भेंटने
जो टहलता होगा
मेरे घर की छत पर?

मुझे लगता है
समय मुझसे आगे निकल गया है
मुझे लगता है यही क्षण
इतिहास के पन्नों में दबा
मेरा भाग है। “
(उपर्युक्त पृष्ठ 254)

संचयन के खंड दो’प्यास से मरती एक नदी’ में यूनान, फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड, हंगरी, इजराइल, फिलिस्तीन आदि अनेक देशों की कविताएं संकलित हुई हैं। प्रसिद्ध यूनानी कवि कौनस्टैन्टिन कवाफी जो अधिकांशतः मिस्र में रहे, उनकी कुछ कविताएं इस संचयन में संग्रहीत हैं। इनके अनुवाद वरिष्ठ कवि कुंवरनारायण जी ने किए हैं। इन कविताओं में मनुष्य जीवन की आंतरिक और बाह्य वास्तविकताओं को बहुत अच्छे ढंग से उभारा गया है। अनुवादक कुंवर नारायण जी के अनुसार “कवाफी की दृष्टि केवल जीवन के कुत्सित और दुर्बल पक्ष पर ही नहीं थी उनकी रचनाओं में जीवन एक सशक्त आकर्षण, जिसमें साहस और उत्साह के तत्व हैं, के रूप में भी प्रतिष्ठित हुआ है।

प्राचीन ग्रीक आदर्शों के अनुसार उसने जीवन को सहर्ष स्वीकारा– नगण्य परिस्थितियों तक को संवारा।”उदाहरण के लिए उनकी कविता ‘विजेताओं की प्रतीक्षा’ इसका प्रमाण प्रस्तुत करती है–

” न्यायालय में इकठ्ठा हम सब किसकी प्रतीक्षा में हैं?
आज विजेता आने वाले हैं।

राज्यसभा में सब चुप क्यों बैठे हैं?
सभासद कानून क्यों नहीं बना रहे?
क्योंकि आज विजेता आने वाले हैं।

सभासद अब क्या कानून बनाएं?
जब विजेता आएंगे वही कानून भी बनाएंगे।”
(संचयन – 2 पृष्ठ 66)

कथनीय है कि इस कविता में अभिव्यक्त सत्य सार्वदेशिक – सार्वकालिक है। सत्ता किसी के बारे में नहीं सिर्फ अपने बारे में सोचती है। अपने कानून बनाती है। उन्हें ही सही भी ठहराती है। बल्कि कहें कि इसमें आज के समय की अनुगूंज भी सुनी जा सकती है। कवाफी जीवन की वास्तविकता का बड़ी सहृदयता व सूक्ष्मता से चित्रण करते हैं। वे वृद्ध लोगों के जीवन को अपनी एक अन्य कविता में इस प्रकार दिखाते हैं कि वृद्ध लोगों की जिंदगी हमारी आंखों के सामने साकार हो जाती है। आज तो समाज में सामूहिकता, सामुदायिकता का क्षय और वैयक्तिकता के आग्रह ने कमजोर लोगों, बूढ़ों को हताश और निराशा की हद तक जर्जर कर दिया है। कवाफी ‘बूढ़े लोगों की आत्माएं’ कविता में बिना किसी भावुकता के उनका पूरा दृश्य उपस्थित करते हैं–

“अपने खिरे हुए, जरायमान जिस्मों में
बैठी हैं बूढ़े लोगों की आत्माएं।
कितने लाचार, कितनी बेचारे हैं वे,
जर्जर जीवन के कितने थके हारे जिसे वे हैं ढोते।
कैसे हैं वे कांप जाते इसे
खोने मात्र के ख्याल से, और कैसे वे इसे करते हैं प्रेम
अस्त-व्यस्त और असंगत वे
आत्माएं, बैठी हुई – कुछ-कुछ त्रासद, कुछ-कुछ खिलंदड़ी-
अपनी बूढ़ी और तार-तार त्वचाओं में।”
(उपर्युक्त पृष्ठ 89)

इसी प्रकार कविता को प्रतिरोध की कार्रवाई मानने वाले फिलिस्तीन के महत्वपूर्ण कवि महमूद दरवेश की कविताएं फिलिस्तीनी जनता के दुख दर्द का आईना हैं। सब जानते हैं कि फिलिस्तीनी जनता इसराइली सैन्य शक्ति से निरंतर जूझ रही है। दुख तकलीफ झेल रही है। ऐसे में कवि अपने होने का मकसद ढूंढ रहा है। वह कविता क्यों लिखता है? उसके लिखे से क्या होगा? ऐसे प्रश्न उसे मथते रहते हैं। उसे परेशान करते हैं। अपने कविता के एक अंश में वे कहते हैं :
“आशय, याने कि मकसद तक का रास्ता – हालांकि लंबा है
और उसमें से कई पगडंडियाँ फूटती हैं- यही सफर है कवि का।
जब छायाएं भटकाती हैं, वह वापसी का रास्ता तलाशता है।

आशय, याने कि मकसद क्या है? मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे
यह जानना होगा कि उसका विलोम क्या है: सोचना, कि
नगण्यता बर्दाश्त करना आसान है।

दुख, तकलीफ कोई योग्यता नहीं, यह योग्यता का इम्तिहान है,
और यह या तो योग्यता को मात देता है, या उससे मात खाता है।

सारी खूबसूरत कविता प्रतिरोध की एक कार्रवाई है।”(उपर्युक्त पृष्ठ 346)

कथनीय है कि कभी-कभी ऐसा दौर आता है जब कवि उदास- हताश होता है। उसे जब दिखाई देता है कि सत्ताएं सर्वतंत्र – स्वतंत्र हो जनता के दुख-दर्द से बेपरवाह अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रही हैं, अपने अहं पर अड़ जाती हैं तो वह उदासीनता के दार्शनिक अंदाज़ को धारण करके आत्मालाप की शैली में कहता है-
” एक दिन मैंने तैश में आकर कहा, ‘कल तुम्हारा गुजारा कैसे होगा?’
उसने कहा, ‘कल में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं। मैं ख्याली पुलाव नहीं पकाता। मैं जो हूं वही हूं। कोई चीज मुझे बदल नहीं सकती, जैसे मैं किसी चीज को बदल नहीं सकता। लिहाजा मैं अपने हाल में खुश हूं।
मैंने उससे कहा,’ न मैं सिकंदर महान हूं,
न दायोजेनस(ग्रीक दार्शनिक)। ‘
उसने कहा, ‘मगर उदासीनता भी एक फलसफा है….
उम्मीद का एक पहलू। “
(उपर्युक्त पृष्ठ 341)

फिलिस्तीन व इजराइल भौगोलिक के साथ साथ भौतिक दुख-दर्द की दृष्टि से भी गहरे जुड़े हुए हैं। पर यह नहीं है कि इजरायली अधिकांश जनता या इजरायली कवि इन मानवीय संबंधों में आई दरार या इस मानवीय पीड़ा को नहीं समझते। नहीं महसूस करते। पर सत्ता के चरित्र व उसके अहम के सामने विवश हैं। इजराइली कवि यहूदा अमिखाई कहते हैं:

” जब तक हम सब साथ साथ थे
कैंची की तरह थे
आते थे काम
एक कैंची की तरह ही

जब से हुए अलग
बन गए फिर से
दो धारदार चाकू
धंसे हुए दुनिया
की देह में
अपनी अपनी जगह।”
(उपर्युक्त पृष्ठ 356)

पर क्या करें। सत्ता संरचना ही ऐसी है कि अनेक तरह से उन्हें दुश्मन बना दिया गया है। फिर आज कीउपभोक्तावादी दुनिया में सब कुछ बदल गया है। दरवेश इसे रेखांकित करते हुए अपनी एक कविता:’ प्यास से मरती एक नदी’में कहते हैं–

“यहां एक नदी थी और उसके दो किनारे थे और एक आसमानी मां
जिसने बादलों से टपकते कतरों से इसकी परवरिश की
एक नन्ही नदी आहिस्ता आहिस्ता बढती हुई
पहाड़ की चोटियों से उतरती हुई
गांवों और खेमों को
किसी खूबसूरत जिन्दादिल मेहमान के मानिंद
निहाल करती हुई….

मगर उन्होंने इसकी मां का अपहरण करलिया लिहाजा, पानी की कमी से
प्यास से छटपटाते
दम तोड़ दी इसने
आहिस्ता आहिस्ता।..”
(उपर्युक्त पृष्ठ 324-325)

दर असल अपनी अकूत शक्ति से चूर आज की उपभोक्तावादी दुनिया ने आदमी को आदमी से दूर या आदमी को आदमी का अधीनस्थ बना दिया है। वह प्रकृति के संसाधनों को अपने लाभ के लिए निचोड़ लेना चाहता है। आम आदमी की उसे परवाह नहीं। उसने नदी नालों को बांध दिया है। अब वह पुरानी भरी-पूरी नदी नहीं रह गई है। वह सूख कर नदी का अहसास भर रह गयी है। कवि संभवतः इसीलिए कहता है कि हमने मां का अपहरण कर लिया है। लोग बाग पानी के अभाव में छटपटा रहे हैं। मर रहे हैं। पर व्यवस्थापक इससे बेपरवाह अपने मुनाफे में मस्त हैं।जनता की परवाह किसे है?

इसी खंड में पोलैंड की नोबेल पुरस्कार विजेता कवयित्री विश्वावा शिंबोर्स्का की कविताएं संकलित हुई हैं। शिंबोर्स्का ने अपने युवा काल में द्वितीय विश्व युद्ध, पोलैंड पर जर्मनी और सोवियत संघ जैसे बड़े देशों का कब्जा, उनसे संघर्ष, हिटलर द्वारा यहूदियों, जिप्सियों तथा अन्य जातियों का नरसंहार तथा बाद में लाल सेना द्वारा नाजियों से मुक्ति इन सब अनुभवों को आत्मसात कर अपनी कविता संरचना का निर्माण किया है। बाद में साम्यवादी विचारधारा से कुछ उम्मीद बंधी थी। पर अंत में इसके भी अधिनायकवादी रवैये से उनका मोहभंग तथा पूंजीवादी लोकतंत्र की विषमता -अपर्याप्तता – इन सब से सामान्य – साधारण जन के जीवन में आने वाले अकूत कष्टों के अनेक कामकाजी बिंब वे अपनी कविता में प्रस्तुत करती हैं। हालांकि इतिहास को वह अपनी कविता का विषय नहीं बनातीं , पर वे जोअपनी कविता में अभिव्यक्त करती हैं वह हमारे युग, हमारे आज के समय की कठोर वास्तविकता का सार है। सभ्यता समीक्षा है। पिछली शताब्दी के अंत पर उन्होंने अपनी एक महत्वपूर्ण कविता लिखी। इसमें वे कहती हैं :

हमारी बीसवीं सदी पहली से बेहतर होनी थी जो अब कभी नहीं होगी
बचे हैं इसके गिनती के साल
डांवाडोल है इसकी चाल
सांसे बची हैं कम।

बहुत चीजें घटी हैं
जो नहीं घटनी चाहिए थीं
और जो होना चाहिए था, नहीं हुआ।

खुशी और बसंत – दूसरी चीज़ों के बजाय नज़दीक आने चाहिए थे।
डर पहाड़ों घाटियों से दूर भागना चाहिए था सच को जीतना, झूठ के ऊपर।

कुछ एक परेशानियां नहीं आनी थीं
जैसे भूख, युद्ध वगैरह
असहाय लोगों की असहायता का
आदर होना था
विश्वास या कुछ इसी तरह का कुछ और।

कथनीय है कि हमने इस प्रकार की संस्कृति और सर्व समावेशी समाज का निर्माण नहीं किया। इसलिए कवयित्री को मजबूर होकर इसी कविता के अंतिम अंश में लिखना पड़ा :

ईश्वर सोच रहा था अंततः
आदमी अच्छा और मजबूत दोनों है
पर अच्छा और मजबूत –
अभी भी दो अलग-अलग आदमी हैं।

‘हम कैसे रहे’? किसी ने मुझसे पूछा चिट्ठी में
मैं भी उससे पूछना चाहती थी /वही प्रश्न।

बार-बार, हमेशा की तरह
जैसा कि हमने देखा है
सबसे मुश्किल सवाल
सबसे सीधे होते हैं।
(उपर्युक्त पृष्ठ182-183)

संचयन के खंड तीन ‘सूखी नदी पर खाली नाव’ में पूर्वी एशिया के चीन, जापान, कोरिया, वियतनाम, रूस से लेकर अफ्रीका, क्यूबा, अर्जेंटीना आदि देशों के कवियों की कविताओं का संकलन किया गया है। त्रिनेत्र जोशी ने चीन के प्राचीन और आधुनिक कवियों के अनुवाद प्रस्तुत किए हैं। आधुनिक काल में चीन के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कवि हैं: आई छिंग। सत्ता से उनकी कभी पटरी नहीं बैठी ।कभी वे वामपंथ तो कभी दक्षिण पंथ के नाम पर प्रताड़ित किए गए। प्रतिरोध के कारण उत्तर पूर्व चीन में 16 वर्षों तक उन्हें श्रम सुधार के लिए भेज दिया गया । अपनी एक कविता ‘ऐसे भी प्राणी हैं जो प्रकाश से डरते हैं’ में वे तथाकथित शक्तिशाली लोगों के बारे में लिखते हैं:
” वे सभी, जो दूसरों को दबाते हैं,
लोगों को क्षमताविहीन बनाना चाहते हैं,
चीं तक न करने देने की हद तक,
ताकि वे देवताओं की तरह राज कर सकें।

वे जो लोगों का शोषण करते हैं
हर किसी को बेवकूफ देखना चाहते हैं
इतना बेवकूफ कि वे चीजों को न समझ सकें
इतना भी कि एक और एक क्या होता है।

वे केवल गुलाम चाहते हैं।
बेजुबान कामकाजी औजार।
वे केवल आदेशपालक पशु चाहते हैं:
वे इच्छायुक्त लोगों से घबराते हैं ।
वे आग को शमित करना चाहते हैं
ताकि घने अंधेरे में
अपने पत्थरों के किलों में
वे अपने खूंरेज शासन बरकरार रख सकें ।
वे शक्तिशाली गद्दियां हथिया लेते हैं,
एक हाथ में पदक और दूसरे हाथ में कोड़ा। “
(संचयन 3 पृष्ठ 170-171)

इसी प्रकार वियतनाम में युग प्रवर्तक राजनीतिज्ञ और संवेदनशील कवि हो ची मिन्ह हुए हैं जिन्होंने न केवल अपने देश वरन तीसरी दुनिया के शोषित पीड़ित जनता के लिए अपनी आवाज उठाई। नृशंस पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ जनता को जगाया तथा उनके स्वाधीनता के अधिकार के लिए वे आजीवन जूझते रहे। 1990 में उनकी जन्मशती के अवसर पर जेल डायरी नाम से उनकी 101 कविताओं से कुछ अनुवाद भारत भारद्वाज ने प्रस्तुत किए । ‘जेल में जुआरी’ शीर्षक कविता में हो ची मिन्ह लिखते हैं:

“सरकार,
जुआरी को जेल में खाना नहीं देती है

जुआरी
चाहें तो जल्दी से अपने को सुधार सकते हैं।

संपन्न कैदी हर रोज अच्छा खाना खा सकते हैं गरीब
भूख एवं प्यास के आंसू पी सकते हैं!”
(उपर्युक्त पृष्ठ 221)

क्यूबा के अश्वेत कवि मार्टिन कार्टर ने ब्रितानी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। दुख और पीड़ा के रूप अनंत हैं जो उन्हें कचोटते रहे हैं । उनकी कविताओं की विशेषताएँ रेखांकित करते हुए अनुवादक लिखता है”मनुष्य होने की पीड़ा, इंसानी रिश्तों के सरोकार, अश्वेत रंगभेद नीति, आर्थिक शोषण, सामाजिक न्याय के साथ-साथ मानवीय तीव्रता का अहसास इन कविताओं के मुख्य स्वर हैं।” भले ही आज उपनिवेशवाद खत्म हो गया हो परंतु इनकी कविताओं में उपनिवेशवाद के अनेक रंग दिखाई दे जाते हैं क्योंकि मानसिकता इतनी जल्दी बदलती कहाँ है। ‘नीग्रो बस्ती’ इनकी एक प्रमुख कविता है। उसके एक अंश में वह दिखाते हैं कि आततायियों ने उनकी आत्मा को जख्मी कर दिया है :

“यह सच है कि मैं आया हूं,
किसी अंधियारी नीग्रो बस्ती से
आततायियों की घृणा
और हीनता से प्रताड़ित।
अपनी आत्मा पर लगे घावों के साथ ही
अवतरित हुआ हूं, इस धरती पर मैं।

जख्मी है मेरा शरीर
परंतु, ललक रही है प्रलय
मेरे इन हाथों में।
मेरी निगाह घूमती है
कौमों के इतिहास पर
परखता हूं मैं सपनों की उस संपदा को,
चिनगारियों के उन झरनों को।
गौरव गाथाएं दे जाती हैं कुछ खुशी, लेकिन लोगों के कष्ट कर जाते हैं मुझको, दुखी।
मैं खुश हूं धनवानों की दौलत पर –
लेकिन परेशान, गरीबों की गरीबी से।”
(उपर्युक्त पृष्ठ 233-234)

विश्व कविता के इस संचयन में हैं तो अनेक कवि और उनकी विविधरूपा कविता। परंतु अधिकांश में अच्छी कविता संघर्ष की कविता है। उसके सभी रूपों का परिचय दिया जाना संभव नहीं । फिलहाल अपनी सीमाओं में अभी इतना ही। अंत में सोवियत संघ के एक प्रमुख कवि ओसिप मंदिलस्ताम का परिचय देना आवश्यक है। इनकी रचनाओं के प्रकाशन पर स्तालिन के समय में प्रतिबंध था। पर वे जनता के बीच लोकप्रिय कवि रहे। अब स्थितियां बदल गई हैं। उनकी कविताएं प्रकाशित हो गई हैं। उनके विषय में अनुवादक अशोक सेकसरिया लिखते हैं – “उन्हें पढ़कर मंदिलस्ताम की समग्रता, ऊंचाई और महानता का अनुमान होता है। कुछ न होने से तो बेहतर? मंदिलस्ताम के साथ स्तालिन ने ज्यादती की थी। स्तालिन मंदिलस्ताम के विरुद्ध था। यदि वह उनके विरुद्ध नहीं होता तो मंदिलस्ताम की नियति कुछ और होती।” इसी ओर संकेत करती अपनी लंबी कविता के एक अंश में वे लिखते हैं :

” तुमने तमाम समुद्र और आकाश छीन लिया। तुमने मेरे जूते की नाप की जमीन सींखचों से घिरी मुझे दे दी
इससे तुम कहां पहुंचे? कहीं नहीं।
मेरे होंठ मेरे ही पास छोड़ दिए, और वे चुप हों तब भी
शब्द गढ़ते हैं। “
(उपर्युक्त पृष्ठ 295)

इन संचयनों की विशेषता यह है कि इनमें विश्व के श्रेष्ठ कवि एक स्थान पर हिन्दी अनुवाद के माध्यम से उपस्थित हो गये हैं। फिर ये अनुवाद हिन्दी के वरिष्ठ कवियों, साहित्य प्रेमियों के द्वारा अथवा उन देशों में रह रहे हिंदी विद्वानों के द्वारा किये गये हैं । उदाहरण के लिए रूस में रह रहे अनिल जनविजय या चीन में रहे त्रिनेत्र जोशी जी ने मूल भाषा से हिंदी में अनुवाद प्रस्तुत किए हैं। मूल भाषा से किए किए अनुवाद में कविता की आत्मा की रक्षा की संभावना अधिक बनी रहती है। हालांकि ऐसा सब समय करना संभव नहीं होता। अधिकांश में अनुवाद अंग्रेजी भाषा से किए गए हैं। पर कविता प्रेमी विद्वानों द्वारा किए जाने के कारण ये अनुवाद अच्छे बन पड़े हैं।

कहने की आवश्यकता नहीं कि विश्व कविता के इन अनुवादों से हिंदी साहित्य का क्षितिज विस्तृत हुआ है। जैसा कि कवि अशोक वाजपेयी ने कहा कि ‘उम्मीद है कि रसिक वर्ग संसार में कविता का शैली, रूपाकार, कथ्य, शिल्प में जो अपार बहुलता, वैभव और विस्तार है उसे हिन्दी में अनुभव कर पायेगा।’ (आमुख) भले ही पूरा न सही उसकी बानगी भी इस संचयन में मिल जाए तो हिन्दी पाठकों की आत्मा तृप्त होगी – ऐसा मेरा विश्वास है। इसके लिए वर्षों से अभूतपूर्व उद्यम करने वाले इस संचयन के संपादक कविवर वंशी माहेश्वरी निश्चय ही बधाई के पात्र हैं।

विश्व कविता (अनुदित कविताओं का संचयन)-
संपादक वंशी माहेश्वरी, संभावना प्रकाशन, हापुड़ – 245101,रु.540

प्रोफेसर हरिमोहन शर्मा

समीक्षक – हरिमोहन शर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली के हिंदी विभाग में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष रहे हैं। समीक्षा के क्षेत्र में विशेष योगदान है।
संपर्क – ए 49 दिल्ली सिटिजन सोसाइटी सैक्टर 13 रोहिणी दिल्ली 110085
मोबाइल नंबर 9818443264

More From Author

कबीर : हमारे समय के झरोखे में

निराला

निराला : रचना सौष्ठव

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *