पिछले दिनों एक दलित लेखक ने अपनी फेसबुक वॉल पर एक संक्षिप्त पोस्ट डाली, जिसमें उन्होंने लिखा- “मुझे आज तक यह पता नहीं चल पाया कि मेरे हिंदू पड़ोसी वसुंधरा, गाजियाबाद जैसी पॉश कॉलोनी में भी मुझसे क्यों नफरत करते हैं?”
पॉश कॉलोनियों के लोग घृणा नाम की वंशवादी बीमारी के कायल नहीं हैं। घृणावादी या वर्णवादी पॉश कॉलोनी में रहने से सुधरते होते तो यह बहुत आसानी से सुलझने वाली समस्या थी, लेकिन इस बीमारी की जड़ें तो बहुत गहरी हैं। जिसका पॉश कॉलोनी या जे.जे. कालोनी से कोई संबंध नहीं। लेखक को अपने साथ बरती गई घृणा का पूरा ब्यौरा लिखना चाहिए था। असल में, कथित पॉश कॉलोनियों में रहने वाले तो इसी बात से कुढ़े रहते हैं कि कोई दलित कैसे इनके बीच रहने पहुंच गया। वह भी दलितों में दलित कही जा रही जाति का टाइटल अपने नाम के साथ लगा कर। पॉश कॉलोनियों में नफरती तत्व आप से नफरत ही इसलिए करेंगे कि आप वहां से अपना बोरिया बिस्तर समेट कर भाग जाएं।
इन घृणावादियों के बारे में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने लिखा है, ‘पुराने रूढ़िवादी हिंदू तो इसकी कल्पना भी नहीं करते कि छुआछूत बरतने में कोई दोष भी है। वे इसे सामान्य और स्वाभाविक कहते हैं और न इसका उन्हें कोई पछतावा है और न ही उनके पास इसका कोई स्पष्टीकरण है।'(1)
इन्होंने सोच भी कैसे लिया कि ये सुधर गए हैं? डॉ. अंबेडकर इस मामले में लिखते हैं, ‘नये जमाने का हिंदू गलती का अहसास करता है परंतु वह सार्वजनिक रूप से इस पर चर्चा करने से कतराता है कि कहीं विदेशियों के सामने हिंदू सभ्यता की पोल ना खुल जाए कि यह ऐसी निंदनीय तथा विषैली सामाजिक व्यवस्था है अथवा जो छुआछूत जैसी नृशंसता की जननी है।'(2) असल में, डॉ. अंबेडकर ‘पुराने रूढ़िवादी हिंदू’ और ‘नए जमाने का हिंदू’ जैसी शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं। इन से घृणा बरतने वाले हिंदू तो डॉ. अंबेडकर के नए जमाने के हिंदू से भी ज्यादा नए हिंदू हैं।
दलितों से जुड़ी हर समस्या के समाधान में ‘आजीवक चिंतन’ बहुत आगे बढ़ा हुआ है। घृणा, अस्पृश्यता, छुआछूत, नस्लवाद और भेदभाव हिंदू अर्थात ब्राह्मण धर्म की आंतरिक व्यवस्था है। इस बारे में आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर बताते हैं, ‘हिंदू के लिए मुसलमान कौन हैं? हिंदू के लिए मुसलमान शूद्र हैं। ऐसे ही हिंदू के लिए ईसाई, पारसी और यहूदी शूद्र हैं। अपने बर्तनों को लेकर वह उन्हें अछूत भी कह सकता है। लेकिन यही परिभाषा हिंदू के लिए दलित की है। दलित हिंदुओं के लिए उतनी ही दूर का आदमी है जितनी दूर का कोई मुसलमान, ईसाई, यहूदी या पारसी है। हिंदू इन्हें अपनी वर्ण-व्यवस्था में शूद्र के रूप में ही स्वीकार कर सकता है, किसी अन्य वर्ण में नहीं। वास्तव में, दलित वर्ग हिंदू नहीं है।'(3)
ऐसे में कैसे मान कर चल रहे हैं कि ये हिंदू अपने धर्म का धार्मिक व्यवहार छोड़ देंगे? अपने नाम के साथ जो पेशागत टाइटल लगा कर चलते हैं जिससे सनातनी सर्वाधिक घृणा करते हैं। नाम के साथ पेशागत टाइटल लगा लेने से अछूतवादी बैकफुट पर चले जाएंगे और इनसे नफरत नहीं करेंगे।अपनी पहचान के लिए अपने नाम के साथ अपना पारंपरिक थोपा हुआ पेशागत टाइटल जोड़ रखा है। लेकिन, इससे इन्हें इतना तो समझ जाना चाहिए कि यह कोई पहचान का मामला नहीं है।
इन आर्य छुआछूतवादियों ने दलित जातियों के प्रति अपने और अपनी संतान के दिमाग में घृणा के बीज बोए हुए हैं। इस घृणा का सामना ये कैसे कर पाएंगे? हमारे कुछ साहित्यकारों ने द्विजों की इस घृणा से बचने के लिए अपने नाम के साथ ब्राह्मण वाल्मीकि का नाम भी जोड़ने की जुगत भिड़ाई है। यहां तक कि इन्होंने तथाकथित वाल्मीकिन धर्म चलाने का दावा भी किया है।
इस पोस्ट पर कुछ लोग लिख रहे थे कि अपने नाम के साथ पेशागत टाइटल लगाने के कारण ही लोग इनसे नफरत करते हैं। एक ने इनकी पोस्ट पर अपने कमेंट में लिखा, ‘ब्राह्मण के हाथ में झाड़ू पकड़ा दो बिना सरनेम के काम दिलवा दो, खुद अनजान ब्राह्मण भी घर में घुसने ना दे उसे… दलित के हाथ में पोथी पकड़ा दो भगवा धारण करवा दो बिना सरनेम के कथा करवा तो ब्राह्मण स्वयं आशीर्वाद लेगा पैर पकड़कर।’ (4) अब इस कथन पर क्या कहा जा सकता है? बस इतना ही कहा जा सकता है, डॉ. अंबेडकर तो बहुत पढ़े लिखे थे, उनके हाथ में तो आज भी किताब ही दिखाई देती है। लेकिन उस समय भी और आज भी दलितों से घृणा करने वाले डॉ. अंबेडकर से उतनी ही घृणा करते रहे। इन घृणा करने वालों की मानसिक बुनावट ही ऐसी है कि भगवान भी आ कर इन के दिमाग से घृणा के इस बीज को नहीं निकाल सकता। ये घृणावादी तो दलितों की हर जाति से घृणा करते देखे जा सकते हैं।
II
पॉश कॉलोनियों में रहने वाले जातिवादी आर्यों का व्यवहार सुधर गया होगा? पॉश कालोनियों में रहने वाले ये उसी चपरासी की संतान ही तो हैं जो बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को बड़ौदा रियासत में ‘मेज पर दूर से ही फाइलें फेंका करते थे।'(5)
डॉ. अंबेडकर ने इस घृणा या अस्पृश्यता के खिलाफ क्या किया था। डॉ. अंबेडकर ने इसी अस्पृश्यता के खिलाफ ही तो महायुद्ध लड़ा है। इसके विरुद्ध संवैधानिक व्यवस्था में कानूनों का निर्माण तक करवाया है। यह अलग बात है कि ये अस्पृश्यतावादी अभी भी सुधरने का नाम नहीं ले रहे। बल्कि, ये तो जातीय उत्पीड़न के खिलाफ बने कानूनों को रद्द करवाने की फिराक में लगे रहते हैं।
पूछना यह भी है, बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर और इनसे बरती गई घृणा में क्या कोई किसी तरह का विभेद है? दोनों में रत्ती भर का भी फर्क नहीं है। हां; डॉ. अंबेडकर से सीधे तौर पर अस्पृश्यता बरती गई, इधर इनके साथ चेहरों के हाव भाव से घृणा बरती गई लगती है, जो बेहद खतरनाक है। असल में, द्विजों के घर अस्पृश्यता सीखाने की पाठशाला हैं। जहां अस्पृश्यता इनकी संतानों की नस-नस में भर दी जाती है। इसी घृणा का शिकार हर दलित देर-सवेर होता है। इसी अ-देखी घृणा के कारण दलितों के सैकड़ों-हजारों बच्चे हर साल मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज छोड़ देते हैं। बहुतों को तो रोहित वेमुला और पायल तड़बी की तरह आत्महत्या को मजबूर कर दिया जाता है।
एक महोदय इनकी लिखत पर अपनी फेसबुक पोस्ट में पूछ रहे हैं, ‘साहित्यकार ….. दिल्ली के पास गाजियाबाद की पॉश कॉलोनी में रहते हैं। उनके इस सवाल का जवाब है आपके पास?’ इन्हें ब्राह्मण के ‘अस्पृश्यता के सिद्धांत’ और इसे ध्वस्त करता महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर का ‘जारकर्म का सिद्धांत’ बताना पड़ेगा। असल में, वर्णवादियों अर्थात द्विजों का अस्पृश्यता का सिद्धांत क्या है? इस सिद्धांत के अनुसार दलित पुरुष से अस्पृश्यता अर्थात घृणा बरती जाती है और दलित स्त्री से जारकर्म (बलात्कार और जारकर्म) किया जाता है।
यहां पूछने वाली बात यह भी है, अगर इनकी जगह कोई दलित लेखिका होती तो क्या कथित पॉश कॉलोनी में उसके साथ भी ऐसे ही घृणा बरती गई होती? असल में इसी सवाल में ‘कफन’ कहानी का रहस्य छुपा है। घीसू-माधव से अस्पृश्यता बरतो और बुधिया से जारकर्म में संलिप्त रहो। महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर इसे कुछ इस तरह बताते हैं, ‘दलित की मुसीबतों का एक पूरा दलित शास्त्र हुआ करता है। यह दलित शास्त्र क्या है और यह किस हद तक लागू होता है? मोटे रूप में यह शास्त्र दो चीजों से बना है। इसका पहला भाग अस्पृश्यता का है और दूसरा भाग ‘बलात्कार और जारकर्म’ का है। दलित पुरुषों के साथ अस्पृश्यता और दलित नारियों के साथ बलात्कार और जारकर्म – ये इस के दो बड़े विभाजन हैं।'(6) यही इन वर्णवादी- अस्पृश्यतावादियों की सोची समझी गई रणनीति है।
संदर्भ :
1, 2 . अछूत- वह कौन थे और अछूत कैसे हो गए?, बाबा साहेब डॉ.अंबेडकर, संपूर्ण वांग्मय : खंड 14, डॉ.अंबेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली- 110 001, तीसरा संस्करण : 2013, पृष्ठ-III
3. दलित चिंतन का विकास : अभिशप्त चिंतन से इतिहास चिंतन की ओर, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली 110 002, प्रथम संस्करण : 2008, पृष्ठ-18
4. फेसबुक पोस्ट पर एक कमेंट।
5. बाबा साहेब डॉ.अंबेडकर, मोहनदास नैमिशराय, मिशन जय भीम, हाउस न. 590, जाटव मौहल्ला गांव बादली, दिल्ली-110 042, पृष्ठ-23
6. प्रेमचंद – सामंत का मुंशी, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली-110 002, संस्करण : 2007, पृष्ठ- 19.
लेख का दूसरा पैरा ऐसे शुरू होता है– इन्होंने कैसे मान लिया कि पॉश कालोनियों के लोग घृणा नाम कि वंशवादी बीमारी का कायल नहीं हैं?
दलितों की आँखें खोलने वाला लेख। संविधान को छाती से चिपकाए दलित यह सोचते हैं कि संविधान से उन की सारी समस्याएं खत्म हो गई हैं। संविधान अपनी जगह है और सही भी है। संविधान में दलितों के लिए विशेष प्राविधान भी किए गए हैं जो स्वागत योग्य बात है। पर, धरातल पर देखा जाए तो दलित कौम की स्थिति आज भी जस की तस है।
संविधान इस देश में रह रहे सभी समाजों तथा धर्मों पर समान रूप से लागू है। संविधान के होते हुए भी इस देश के हिन्दू (ब्राह्मण) अपने दिन की शुरुआत वेद, महाभारत, रामायण पढ़ कर करते हैं। ऐसे ही इस देश में रह रहे मुसलमान, ईसाई भी अपने अपने धर्मग्रन्थ पढ़ कर ही दिन की शुरुआत करते हैं।
इस लेख में कैलाश दहिया जी ने एकदम सही लिखा है कि, घृणा, अस्पृश्यता, छुआछूत आदि हिन्दू अर्थात ब्राह्मण धर्म की आंतरिक व्यवस्था है। हिन्दू अर्थात ब्राह्मण धर्म के लिए जिस तरह से मुसलमान और ईसाई पराए हैं उसी तरह से दलित भी उन के लिए पराए हैं। चूंकि, मुसलमानों और ईसाइयों की अपनी खुद की धार्मिक पहचान है इसलिए ब्राह्मण धर्म की घृणा का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दलित बिना पहचान के रह रहे हैं इसलिए अपनी घृणा के चलते ब्राह्मण दलितों को घृणात्मक नामों से पुकारता है -शूद्र, अस्पृश्य, अछूत, हरिजन।
दलितों को यह सोचना चाहिए कि जब घृणा, अस्पृश्यता, छुआछूत ब्राह्मण धर्म की आंतरिक व्यवस्था है तो वह मिटने वाली नहीं। इसे खत्म करने के चक्कर में दलित न पड़ें। दलितों को ध्यान देना चाहिए कि ब्राह्मण धर्म द्वारा दलितों से छुआछूत और अस्पृश्यता बरतने का मतलब क्या है। मतलब यही है कि, दलितों की परम्परा, रीति रिवाज, सोच-विचारधारा ब्राह्मण धर्म की परम्परा और विचारधारा की नहीं है। तो, दलित ईसाइयों और मुसलमानों की तरह हिन्दू भी नहीं हैं। जिस दिन दलित अपनी धार्मिक पहचान के साथ खड़ा हो जाएगा उस दिन से हिन्दुओं अर्थात ब्राह्मणों की घृणा उस के लिए कोई मायने नहीं रह जायेगी। अपने लेख में कैलाश दहिया सर ने प्रश्न के रूप में बहुत गहरी बात लिखी है -“अगर इन की जगह कोई दलित लेखिका होती तो क्या कथित पाॅश कालोनी में उस के साथ भी ऐसे ही घृणा बरती गई होती? ” यह प्रश्न पूरी दलित कौम के लिए है।
अंत में, आजीवक चिंतन के क्रम में आये इस लेख को प्रकाशित करने के लिए संपादक महोदय का आभार। लेकिन जैसा कि कैलाश दहिया सर का लेख मैं पढ़ता आया हूँ, सर के लेख पूरी क्रमबद्धता और पूर्णता में आते हैं, इस लेख में क्रमबद्धता और पूर्णता का अभाव है। लेख पढ़ते समय लगा कि लेख अधूरा है। ऐसा प्रतीत होता है कि लेख को प्रकाशित करने के पहले संपादन के क्रम में संपादक महोदय से गड़बड़ी हो गई है।
अरुण आजीवक, इलाहाबाद।
8574793225
बेहतरीन लेख। अजीवक चिंतन हिंदू चिंतनवादियों मे से कैसे घृणा निकाल पाएगा? दूसरा, जारकर्म क्या अन्य चिंतनों में नहीं है क्या?
आजीवक चिंतन दलितों की समस्या का समाधान है। बाकी घृणा, अस्पृश्यता या छुआछूत हिन्दुओं की समस्याएं है, इसे वही जानें। आजीवकों का इससे कोई लेना देना नहीं। आजीवक कौम में जारकर्म अनुमत नहीं है। आजीवक धर्म में तलाक और पुनर्विवाह की व्यवस्था है जो जारकर्म पर रोक लगाती है।