हिमाचल प्रदेश की सुकेत रियासत के राजाओं का शासन बेहद क्रूर और आम जनता का शोषण करने वाला रहा है। 8वीं शताब्दी में बंगाल से आए सेन वंशी राजाओं ने यहां पर निवास करने वाली डूंगर जाति का नरसंहार कर अपनी रियासत की स्थापना की थी। स्थानीय राजाओं, ठाकुरों को उन्होंने आपसी फूट के कारण हरा दिया था। लगभग 1300 सालों सुकेत रियासत में राजाओं का शासन रहा। इसके खिलाफ बहुत सारे लोग लड़े, इन्हीं में सो दो विद्रोही क्रांतिकारी हुए हैं भनेरा गांव के तांती राम और न्हारू राम, जिनका जिक्र न तो हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा जारी पुस्तक में है न उनको कभी स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र मिला।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि राजाओं के शासन काल में आम जनता पर खूब अत्याचार होते थे। इन अत्याचारों में राजाओं के कारकुन, प्यादे, चौधरी, नंबरदार आदि अपनी भूमिका बड़ी निर्दयता से अदा करते थे। राजाओं द्वारा लगाया गया लगान जहां आम जनमानस के लिए अभिशाप था। वहीं इन प्यादों के लिए आमदनी का स्त्रोत भी था। प्यादे इन गरीब लोगों पर खूब अत्याचार कर रहे थे। बुजुर्ग लोगों से बात करने पर पता चला कि राजा के प्यादे लोगों को खेती करने से भी रोकते थे। लोग जब खेतों में बीज बो रहे होते थे तो गाँव के प्यादे उन्हें हल छोड़ कर किसी और काम लिए बुला लेते थे ताकि वह आदमी अपनी खेती न कर सके। अगर वह आदमी जाने से मना कर देता था तो उसे बाँध कर लाया जाता और फिर उसे दंड दिया जाता था। या फिर उसे सुंदरनगर बेगार के लिए भेज दिया जाता था। यहाँ तक कि लोगों को रातों में हल जोत कर अपने खेतों में बीज बोना पड़ता था। पूरे गाँव के लोग इस बात से बहुत दुखी थे। परन्तु सजा और राजा के डर से वे कुछ नहीं कर पा रहे थे। लोगों की समस्या उस समय और भी गम्भीर हो जाती थी जब सूखा पड़ता या बारिश कम होती थी। राजा द्वारा वसूला जाने वाला लगान इतना अधिक था कि उसे चुकाने के लिए किसान साहूकारों के पास जाकर कर्ज उठाते थे। अकाल के समय भी राजा के लगान में किसी प्रकार की कोई छूट नहीं मिलती थी, राजशाही चाहती थी कि लोगों की हालत हमेशा ही खराब रहे ताकि वो राजसत्ता को चुनोती न दे सकें। प्यादे लोगों को खूब निचोड़ते और गरीब जनता की कमाई से अपना घर भर कर ऐश करते थे। इससे अगर कोई बहुत प्रभावित था तो वह था ऐसा वर्ग जिसके पास न तो अच्छी जमीन थी और न ही कमाई का कोई और साधन। इस वर्ग को समाज में अछूत का दर्जा प्राप्त था। शिक्षा के क्षेत्र में तो ये हाशिए से ही बाहर थे, इसी लिए इन लोगों का न तो कोई जन्म का प्रमाण मिलता है न ही मृत्यु का।
राजा के शोषण अत्याचार से तंग आकर सुकेत रियासत की जनता ने 1948 में सुकेत विद्रोह का बिगुल फूंका था। इस में भाग लेने वाले क्रान्तिकारी तांती राम सुपुत्र आल्मु राम और न्हारू राम सुपुत्र अछरु राम का जन्म भनेरा नामक गांव में हुआ था। यह गांव मंडी जिला, तहसिल करसोग में पड़ता है। दोनों क्रान्तिकारी साथ-साथ पले-बढ़े थे और गांव में दोनों का काफी मान सम्मान था। बचपन से ही दोनों अपने लोगों पर रियासती अत्याचारों को देख रहे थे और सहन कर रहे थे। दोनों को पता था कि किस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी उनका शोषण किया जा रहा था। न तो साहूकारों का मूल खत्म होता था और न ही जमीनों में फसल अच्छी होती थी। जहां समाज में छुआछूत चरम सीमा पर थी, वहीं राजा और उनके प्यादों की बेगारी ने इन लोगों का दम तोड़ दिया था। राजा के अत्याचारों से तंग आ कर इन्होंने राजशाही से लोहा लेने की ठान ली और बड़े होने पर दोनों ने समय-समय पर सुकेत सत्याग्रह से जुड़ी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया। दोनों सुकेत प्रजामंडल के सदस्य बन गए। पूरा गाँव इनकी इस गतिविधि को सही मान रहा था और इस कार्य के लिए इनकी प्रशंशा भी कर रहा था।
इसी बीच राजा के प्यादों द्वारा राजा की पुलिस को दोनों की गतिविधियों की सुचना दी गई। सुचना पाकर दोनों को पकड़ने के लिए सब-इंस्पेक्टर लाला मंगत राम ने दो-दो सिपाही भेजे। सिपाहियों को दोनों ने मार-मार कर भगा दिया। फिर पुनः थानेदार ने और सिपाही हथकड़ी लेकर भेजे, परन्तु उन्हें भी उन दोनों ने मार भगाया और उनकी हथकड़ीयों को अपने घर की शहतीरों में टांग दिया। इस से तंग आ कर थानेदार ने हथियारबंद सिपाही भेजे और दोनों को गिरफ्तार कर लिया। कुछ समय बाद दोनों को जमानत पर छोड़ दिया गया और उन पर नजर रखी गयी।
इसी बीच सुकेत विद्रोह जोर पकड़ता गया। कुछ समय बाद सुकेत विद्रोहियों का एक जत्था केलोधार-बखरुनडा होता हुआ जरोडादड़ नामक (वर्तमान में महाविद्यालय करसोग) स्थान पर इकट्ठा हो गया। इस में लगभग 250 लोग थे जिसमें तांती राम और न्हारू राम भी शामिल थे। इन दोनों को पुलिस ने पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1947 के अधीन हिरासत में ले लिया। इस केस में “थाना करसोग रियासत सुकेत” की रिपोर्ट संख्या 24 72004 में इन दोनों को 15 -15 दिन की सजा हुई जो की करसोग मजिस्ट्रेट द्वारा सुनाई गयी। इस में इन दोनों को बाकि लोगों के साथ सुन्दरनगर जेल भेज दिया गया। 15 दिन के कारावास दोनों 02-11-1947 से 16-11-1947 तक जेल में रहे वहाँ पर इन दोनों को बहुत यातनायें दी गई। गांव के बुजुर्गों मदन लाल, घोलू राम, मान दास और ओमप्रकाश उर्फ काशी का कहना है कि न्हारू राम को काँटों पर सुलाया गया और उनकी पीठ पर सिपाही चलवाए गए जिसकी वजह से न्हारू राम की मृत्य जेल से आने के 3 वर्ष के भीतर ही हो गयी थी। जेल से रिहा होने के बाद भी दोनों आंदोलन से जुड़े रहे तथा सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार 16-11-1947 से 15-02-1948 तक दोनों भूमिगत हो गए और दोनों चुपचाप अपनी गतिविधियों में लगे रहे। साथ ही श्री यशवंत परमार जी के सम्पर्क में जुड़े रहे।
अंततः ये दोनों उन सत्याग्रहीयों में शामिल हो गए जिन्होंने 17 फरवरी 1948 को आंदोलन का बिगुल फूंका था। इन दोनों ने तभी चैन की साँस ली जब सुकेत रियासत भारत का अंग बन गयी और राजशाही से मुक्ति मिल गई। 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल असितत्व में आया परन्तु समाज की चालाकियों से कोसों दूर दोनों सत्याग्रही अपना नाम स्वतंत्रता सेनानियों में दर्ज तक नहीं करवा पाए। दोनों ने गुलामी और शोषण से मुक्ति व आजादी को ही अपना लक्ष्य समझा और पूरी ताकत से उसको हासिल करने के लिए जुटे रहे। आज तक भी इन दोनों परिवारों को किसी भी तरह का न तो सम्मान दिया गया और न ही इनका नाम सत्याग्रहीयों में शामिल किया गया, जबकि इनकी गवाही खुद नामजद सत्याग्रहीयों ने दी है और गाँव के बड़े बुजुर्गों से आज भी आप इनके बारे में सुन सकते हैं।
स्वतंत्रता सेनानियों में अपना नाम जुड़वाने के लिए दोनों ने 1985 में मंडी जिला उपायुक्त को अपने दस्तावेज सौंपे थे, लेकिन दुर्भाग्य से इनका नाम शामिल नहीं हो सका, इसके बाद 2005 में इनके परिजनों ने फिर अपने दस्तावेज सरकारी अधिकारियों को भेजे लेकिन प्रशासन ने इनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया। जीते जी सरकार ने इनको जो सम्मान नहीं दिया कम से कम मरने के बाद तो सरकार द्वारा इन की सुध ली जानी चाहिए।
लेखक – मनदीप कुमार, गांव भनेरा, तहसिल करसोग, जिला मंडी, 7018233542, Mandeepkumar974@gmail.com