आर्यसमाज के अवदान को आज लोग भूल चुके हैं, किन्तु एक समय में हिन्दू समाज को कुरीतियों, कुप्रथाओं, अंधविश्वासों और कुसंस्कारों से मुक्त करने में आर्यसमाज की अप्रतिम भूमिका थी. आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज सुधारक और देशभक्त थे.
स्वामी दयानंद सरस्वती ने बताया कि आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है. उन्होंने वेदों की सत्ता को सर्वोपरि माना और वेदों के भाष्य भी किए. उन्होंने ही सबसे पहले 1876 ई. में ‘स्वराज’ का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया.
आर्यसमाज के प्रचार के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा किया और जहाँ-जहाँ वे गये प्राचीन परंपरा के पंडित और विद्वान उनसे हार मानते गये. उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भी भली-भाँति अध्ययन-मनन किया था. इसीलिए अपने शिष्यों के साथ मिल कर उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष किया. दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे किंतु तीसरा मोर्चा सनातनी हिंदुओं का था. दयानन्द सरस्वती ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी, उसका बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा. अपने महान ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में उन्होंने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया है. इसे उन्होंने हिन्दी में लिखा. शीघ्र ही आर्यसमाज की शाखाएं देश भर में फैल गईं. देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्यसमाज की बहुत बड़ी भूमिका रही है. हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक आडंबरों से छुटकारा मिला. वे एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे. उन्होंने जातिवाद, छुआछूत, सती प्रथा, बाल-विवाह, नर-बलि, धार्मिक संकीर्णता, अंधविश्वास आदि का जमकर विरोध किया तथा विधवा-विवाह, धार्मिक उदारता और आपसी भाईचारे को प्रोत्साहित किया. वे कहा करते थे, “मेरी आँख तो वह दिन देखने को तरस रही है जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे.“
स्वामी दयानंद का प्रभाव उस समय के देश के अनेक महापुरुषों पर भी पड़ा जिनमें मादाम भीकाजी कामा, सरदार भगत सिंह, पंडित लेखराम आर्य, स्वामी श्रद्धानंद, पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, रामप्रसाद बिस्मिल, महादेव गोविंद रानाडे, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय आदि प्रमुख हैं.
स्वामी दयानंद सरस्वती धार्मिक संकीर्णता और पाखंड के विरोधी थे. स्वाभाविक है, उनके दुश्मन भी बहुत थे. सन् 1883 में किसी ने दूध में काँच पीसकर उन्हें पिला दिया जिससे इस महापुरुष का निधन हो गया. उस समय वे जोधपुर नरेश महाराजा यशवंत सिंह के आमंत्रण पर उनके अतिथि के रूप में उपस्थित थे.
स्वामी दयानंद सरस्वती के जन्म के लगभग दो सौ वर्ष बाद उनकी ही विरासत को आगे बढ़ाने वाले, उनके अनन्य अनुयायी स्वामी अग्निवेश ( 21.09.1939- 11.09.2020) के ऊपर भी झारखंड के पाकुड़ जिले में संकीर्ण हिन्दुत्व के सैकड़ों झंडाबरदारों ने एक साथ हमला कर दिया. 79 वर्षीय स्वामी अग्निवेश हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते रहे किन्तु हमलावरों ने उन्हें जमीन पर गिराकर लात-घूँसों से जमकर पिटाई की. उनके कपड़े फाड़ डाले. वे मरते- मरते बचे. लगता है कि स्वामी दयानंद सरस्वती के समय हिन्दुत्व के भीतर जो जड़ता मौजूद थी उसमें आज भी कोई खास कमी नहीं आई है.
स्वामी अग्निवेश पर इसके पहले भी कई बार हमले हो चुके थे, किन्तु इस बार के हमले को वे नहीं झेल पाए. इस हमले में उनके शरीर पर तो चोट लगी ही, मन पर भी गहरा चोट लगा. डॉक्टरों के अनुसार तो स्वामी अग्निवेश का निधन इंस्टीच्यूट ऑफ लीवर एंड बायिलरी साइंसेज (आईएलबीएस ) दिल्ली में ‘लीवर सिरोसिस’ नामक बीमारी से हुआ किन्तु असली कारण तो वृद्धावस्था में उनके तन-मन पर किए गए पाकुड़ में ये गहरे घाव ही थे, जो उनके शब्दों में ‘प्रायोजित हमला’ था. सच है. हमारा समाज पूज्य का पूजन नहीं करता, वह दैत्यों, दानवों, लुटेरों, कातिलों, चोरों और बलात्कारियों का पूजन करता है. इतिहास पलटने से पता चलता है सत्य के पथ पर चलने वालों की दशा ऐसी ही होती है.
स्वामी अग्निवेश का जन्म आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम में एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके बचपन का नाम वेपा श्याम राव था. जब वे चार साल के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई. उनका लालन-पालन उनके नाना ने किया जो उन दिनों छत्तीसगढ़ में तत्कालीन ‘शक्ति’ रियासत में दीवान थे.
विधि और वाणिज्य में डिग्री लेने के बाद वे कोलकाता के प्रसिद्ध सेंट जेवियर्स कॉलेज में मैनेजमेंट के प्राध्यापक नियुक्त हो गए. इसके साथ ही कुछ दिनों तक उन्होंने प्रख्यात वकील सब्यसाची मुखर्जी के अधीन वकालत भी की. सव्यसाची मुखर्जी बाद में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने. अपने विद्यार्थी जीवन में ही स्वामी अग्निवेश आर्यसमाज के संपर्क में आ गए थे. सामाजिक कार्यों में उनकी बहुत रुचि थी. सामाजिक कार्यों में समय देने के उद्देश्य से उन्होंने 1968 में नौकरी छोड़ दी और हरियाणा जाकर आर्य समाज में शामिल हो गए. वहाँ उन्हें स्वामी इंद्रवेश का साथ मिला और उनका काम आगे बढ़ने लगा. अंतत: 25 मार्च 1970 को उन्होंने पूरी तरह संन्यास ले लिया और भगवा वस्त्र धारण कर लिया. सन्यास के साथ ही उन्होंने अपना नाम, परिवार, जाति, धर्म और अपनी संपूर्ण पारिवारिक संपत्ति का परित्याग कर दिया. अब उनका जीवन पूरी तरह समाज के दलितों-पीड़ितों और वंचितों के लिए समर्पित था. वे स्वामी अग्निवेश हो गए और भगवा वस्त्र के साथ उन्होंने पगड़ी धारण कर ली. अब यही उनका स्थाई वेश बन गया. ऐसा कहा जाता है कि झारखंड में जब उनपर हमले हुए और कपड़े फाड़ डाले गए तभी पहली बार लोगों ने उनका नंगा सिर देखा था.
अप्रैल 1970 में स्वामी इंद्रवेश के साथ मिलकर उन्होंने ‘आर्य सभा’ नाम की राजनीतिक पार्टी बनाई. यह पार्टी आर्य समाज के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर गठित की गयी थी. इसमें साम्यवाद और पूँजीवाद दोनो से अलग वैदिक समाजवाद के मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया गया था. इसे उन्होंने ‘सामाजिक अध्यात्मवाद’ कहा है. उनके विचारों पर स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ ही कार्ल मार्क्स तथा महात्मा गाँधी के दर्शनों का भी गहरा प्रभाव देखा जा सकता है.
स्वामी अग्निवेश ने हरियाणा में किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य दिलाने के लिये भी सफल आन्दोलन चलाया. उन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रान्ति के आन्दोलन में भी हिस्सा लिया था. इंदिरा गाँधी ने जब आपातकाल की घोषणा की तो वे भूमिगत हो गए थे, किन्तु बाद अपने साथियों के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 14 महीने की जेल की सजा हुई. 1977 के बाद जब चुनाव हुआ तो वे हरियाणा विधानसभा के लिए विधायक चुने गए और उन्हें हरियाणा सरकार में शिक्षा मंत्री बनाया गया. लेकिन कुछ दिनों बाद ही फरीदाबाद औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों पर हुई पुलिस फायरिंग की घटना के विरोध में, जिसमें लगभग दस मजदूरों की मौत हो गई थी, उन्होंने मंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया और अपनी ही सरकार से घटना की न्यायिक जाँच की माँग की. इसके बाद तो उन्होंने चुनावी राजनीति को ही अलविदा कह दिया.
1981 में स्वामी अग्निवेश ने ‘बँधुआ मुक्ति मोर्चा’ नाम के संगठन की नींव डाली. इसके जरिये उन्होंने पूरे देश में बँधुआ मजदूरों की मुक्ति के लिय़े आन्दोलन शुरू किया. हमारे देश में बँधुआ मजदूरी के खिलाफ कानून तो था किन्तु व्यवहार में उसका समुचित पालन नहीं होता था. ईंट -भट्टों पर, पत्थर तोड़ने में, निर्माण कार्यों आदि में लाखों बँधुआ मजदूर, जिनमें बच्चे भी शामिल थे, फँसे हुए थे. स्वामी अग्निवेश के नेतृत्व में उनके संगठन ने ऐसे लाखों मजदूरों को मुक्त कराया और उनका पुनर्वास भी कराया. 1987 में सती-प्रथा के खिलाफ उन्होंने दिल्ली से देवराला (राजस्थान) तक 18 दिन की पद-यात्रा की थी. बाद में भारत सरकार ने सती-प्रथा को रोकने के लिए कानून बनाया. उन्होंने गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों में भ्रूण-हत्याओं के खिलाफ जन जागरण अभियान चलाया. उल्लेखनीय है कि इन राज्यों में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों का अनुपात काफी कम है और यहाँ बच्चियों की भ्रूण- हत्याएं अधिक होती थीं. उन्होंने उदयपुर के समीप स्थित प्रसिद्ध श्रीनाथद्वारा मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिये भी आन्दोलन किया जिसमें उनकी गिरफ्तारी भी हुई. वे आजीवन सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ते रहे. जहाँ भी अन्याय के खिलाफ, दलितों और पीडितों के खिलाफ आन्दोलन होता था, स्वामी अग्निवेश उसका साथ देने के लिए तत्पर रहते थे. वे आल इंडिया असम स्टूडेंट्स यूनियन, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी बिहार, शेतकारी संगठन, तामिल नाडु का असंगठित मजदूर आन्दोलन, नर्मदा बचाओं आन्दोलन तथा आंध्र प्रदेश और हरियाणा में शराब के खिलाफ महिलाओं के आन्दोलन में उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते रहे. 2008 में जब कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर था, वे शान्ति स्थापना के उद्देश्य से वहाँ भी गए.
6 अप्रैल 2010 को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 76 जवानों को शहीद कर दिया था. इसके बाद शान्ति की कोशिश के लिए स्वामी अग्निवेश ने रायपुर से दंतेवाड़ा के बीच पैदल यात्रा की. इसको देखते हुए मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में गृहमंत्री पी. चिदंबरम की ओर से उन्हें माओवादियों से बात-चीत के लिये वार्ताकार नियुक्त किया गया.
स्वामी अग्निवेश को 31 मई को माओवादियों के प्रवक्ता चेरुकुरी राजकुमार आजाद का पत्र भी मिला था, जिसमें माओवादी बातचीत को तैयार थे. अभी बातचीत हो पाती, इससे पहले ही चेरुकुरी राजकुमार आजाद को पुलिस ने आंध्र प्रदेश में एक मुठभेड़ में मार गिराया. स्वामी अग्निवेश को इस वजह से धक्का लगा और वे मामले को लेकर सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए.
स्वामी अग्निवेश ने 2011 में जन लोक पाल बिल के लिए अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए आन्दोलन में भी हिस्सा लिया था. हालांकि बाद में मतभेदों के चलते वे इस आंदोलन से दूर हो गए थे. इस दौरान उनका एक कथित वीडियो भी वायरल हुआ था जिसमें कथित तौर पर वे किसी कपिल नाम के व्यक्ति से फोन पर बात कर रहे थे. वीडियो को लेकर दावा किया गया कि कपिल नाम का व्यक्ति तत्कालीन केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल थे. स्वामी अग्निवेश ने बाद में इस वीडियो को ‘डॉक्टर्ड’ बताया था.
स्वामी अग्निवेश ने रियलिटी शो ‘बिग बॉस’ में भी हिस्सा लिया था. वे 8 से 11 नवंबर के दौरान तीन दिन के लिए बिग बॉस हाउस में रुके थे.
स्वामी अग्निवेश का कहना है कि आज विश्व हिंसा की चपेट में है. धर्म, संप्रदाय, नस्ल और जाति के झगड़े दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे है. विश्व के अधिकांश देशों में राजनीति को धार्मिक कट्टरता और कॉरपोरेट की काली छाया ने ढँक लिया है. धार्मिक कट्टरपंथियों का मकसद लोगों को अंधविश्वास और पाखंड के मकड़जाल में फँसा कर अपना उल्लू सीधा करना है.
समूचे विश्व में सत्ता और कॉरपोरेट की मिली भगत से प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो रही है. जंगलों में रहने वाले आदिवासी समूहों को बेदखल किया जा रहा है. प्रकृति के अंधाधुंध दोहन से पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है. इस समय विश्व पर्यावरण भारी संकट में है. सदियों से प्रकृति के सहारे अपना जीवन यापन कर रहा आदिवासी समाज दर-दर की ठोकरें खा रहा है.
दुनिया भर के देश अपने पड़ोसी मुल्कों के साथ परस्पर सहयोग और शान्ति की भावना न रखकर शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर रहे है. इसके कारण आज विश्व के अधिकांश देशों में छद्म राष्ट्रवाद का जोर है, जो शासकों को बुनियादी मुद्दों को छोड़कर हथियारों की खरीद की तरफ ले जा रहा है. जबकि सच्चाई यह है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ‘नेशन स्टेट’ यानी, राष्ट्र- राज्य का कोई मतलब नहीं रह गया है. सब बाजार की शक्तियाँ तय कर रही हैं. आज बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इतनी शक्तिशाली हो गई हैं कि वे ही यह तय करती हैं कि अमुक देश का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री कौन होगा. इसके बाद भी उस देश को गुमान रहता है कि हम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री चुन रहे हैं.
स्वामी अग्निवेश ने कोलकाता के सेंट जेवियर कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी छोड़ कर सन्यास लिया था. स्वामी दयानंद सरस्वती के आदर्शों और विचारों ने उन्हें एक जीवन-दृष्टि दी थी, जिसके कारण सन्यासी जीवन स्वीकार करने के बाद भी उन्होंने किसी मठ या मंदिर में रहकर विलासिता का जीवन नहीं जिया बल्कि गरीबों की सेवा में अपना पूरा जीवन लगा दिया. वे आजीवन धार्मिक कट्टरता, पाखंड, अंधविश्वास, सामाजिक ऊँच -नीच और गैर-बराबरी के लिए संघर्ष करते रहे. वे मानते थे कि संसार में सांप्रदायिकता और नस्लवाद साम्राज्यवादी शक्तियों के हाथ के सबसे मजबूत हथियार हैं.
स्वामी अग्निवेश कहते हैं कि, “आज संपूर्ण धरती पर धर्म, संप्रदाय, जातिवाद को लेकर बढ़ती राजनीति और अमीर -गरीब के बीच चौड़ी होती खाई को देखा और महसूस किया जा सकता है. राजनीतिक और धार्मिक लोगों के पास इस समस्या का कोई समाधान नहीं है. ऐसे मे वेद के आदर्श ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना से घृणा और हिंसा की अमानवीय राजनीति को समाप्त किया जा सकता है.. ……..इस प्रकार एक ईश्वर का विचार मानवीय एकता की बुनियाद है. ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का विचार हमें धार्मिक कट्टरता से दूर तटस्थ दृष्टि और आध्यात्मिक विचार प्रदान करता है, जिसमें स्वामी दयानंद सरस्वती की साम्प्रदायिक सद्भाव की विरासत, कार्ल मार्क्स का चिन्तन, महात्मा गाँधी का सत्याग्रह और अंबेडकर का संघर्ष समाहित है. इस विचार को लोगों में रोप कर ही विश्व शान्ति की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है.” ( जनसत्ता, 13 अक्टूबर,2019 )
धार्मिक और आध्यात्मिक चिंतक के तौर पर स्वामी अग्निवेश ने अपने हिन्दुत्व को सामाजिक विश्वास के साथ जोड़ा. इसे वे वैदिक समाजवाद कहा करते थे. स्त्री भ्रूण हत्या से लेकर बाल-बँधुआ मजदूरी जैसे मुद्दों पर उन्होंने देशभर में अथक अभियान चलाया और ऐसा करते हुए उनपर कई बार घातक हमले हुए. हरियाणा के जींद में हिन्दू महासभा ने अग्निवेश का सिर कलम करके लाने वाले को पाँच लाख रूपए नकद इनाम देने की घोषणा की थी. महासभा ने इस संबंध में अपना तर्क रखते हुए कहा कि अग्निवेश को एक देशद्रोही की तरह देखना चाहिए. (श्रवण कुमार सैनी की रिपोर्ट, sanjeevnitoday.com April 24, 2015) उनके एक्टिविज्म ने उन्हें एकाधिक बार जेल की हवा खिलाई.
उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून-2019 का भी विरोध किया था और उसे देश की विरासत से खिलवाड़ कहा था. उन्होंने बताया कि, “देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय मुसलमान इस कानून से डरा और अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहा है. न सिर्फ मुसलमान, बल्कि पूर्वोत्तर के हिन्दू भी इस कानून को अपने हितों के खिलाफ बताते हुए इसका विरोध कर रहे हैं.” ( जनसत्ता, 19 दिसंबर, 2019)
आर्यसमाजी होने के कारण स्वामी अग्निवेश मूर्तिपूजा और धार्मिक कुरीतियों का विरोध करते थे. उन्होंने कई बार ऐसी बातें खुलकर कहीं, जो धार्मिक लोगों को नागवार गुजरती थीं. एक बार उन्होंने कहा था कि “धर्म के ठेकेदारों को राम और कृष्ण का अस्तित्व साबित करना चाहिए”. इसी तरह उनका सुझाव था कि पुरी जगन्नाथ मंदिर को गैर हिन्दुओं के लिए भी खोला जाना चाहिए. इसी तरह एक बार उन्होंने कहा था कि अमरनाथ में लिंगनुमा बर्फ जिसकी उपासना हर साल तीर्थ के दौरान करोड़ों शिव उपासक करते हैं, वह ‘महज बर्फ का टुकड़ा’ है.
इस्लाम पर भी टिप्पणी करने से वे डरते नहीं थे. उन्होंने कहा कि “नमाज पढ़ने के लिए आराम से सभी एक जगह आते हो और नीचे उतरते ही शेख-शैयद अपनी गली और धोबी -तेली अपनी गली चला जाता है. शिया-सुन्नी आपस में विवाह क्यों नहीं करते ? अल्लाह जब सुप्रीम है तो पैगंबर ( मैसेंजर) उससे बड़ा कैसे हो गया ? ( अमर उजाला, 18 दिसंबर 2015)
इन्ही सब कारणों से 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने स्वामी अग्निवेश को सुक्षाव दिया था कि, “बोलने से पहले अपने शब्दों को बारंबार तौलें ताकि उससे जनता की भावनाएं आहत न हों.”
स्वामी अग्निवेश साधारण सन्यासी नहीं थे. उन्होंने मात्र 29 साल की उम्र में संन्यास ले लिया था. हिन्दुत्व के स्वंयभू झंडाबरदारों की ओर से उनपर लगातार हमले होते रहे. वे ऐसे राजनेता थे जिन्होंने 31 साल की उम्र में राजनीतिक पार्टी बना ली, विधायक बने और प्रदेश के कैबिनेट मंत्री भी. वे ऐसे आर्य समाजी थे, जिन्होंने इसके सर्वोच्च अंतरराष्ट्रीय निकाय विश्व परिषद का एक दशक तक नेतृत्व किया. उन्होंने 1994 से 2004 तक समकालीन दास प्रथा के स्वरूपों पर बने युनाइटेड नेशंस वोलंटरी ट्रस्ट फंड के तीन बार चेयरपर्सन चुने गए. उन्होंने सती- प्रथा बंद करायी, कन्या भ्रूण हत्या बंद करायी, लाखों की संख्या में बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया जिसमें 95 फीसदी हिंदू दलित ही थे. फिर भी उन्हें हिन्दू -विरोधी के रूप में प्रचारित किया गया.
बँधुआ मज़दूरों के लिए लम्बी लड़ाई लड़ने वाले स्वामी अग्निवेश को नोबेल पुरस्कार जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘राइट लाइवलीहुड अवॉर्ड’ मिल चुका है.
उनकी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हैं, ‘एप्लॉयड स्पिरिचुअलिटी : ए स्पिरिचुअल विजन फॉर द डॉयलाग ऑफ रिलिजन्स’ तथा ‘हिन्दुइज्म इन द न्यू एज’.