माँ टेरेसा : करुणा की देवी

मदर टेरेसा

लोग उन्हें ‘मदर टेरेसा’ के नाम से पुकारते हैं किन्तु ‘माँ’ कहने पर ही उस करुणा की देवी की सही छवि मेरे मन पर में अंकित हो पाती है। हम भारतीयों का हृदय ही कुछ ऐसा है जो ‘माँ’ और ‘मदर’  में भी अर्थभेद करता है।

भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला ने ‘मदर टेरेसा : द अथराइज्ड बॉयोग्राफी’ शीर्षक से माँ टेरेसा ( 27.8.1910 – 5.9.1997) की जीवनी लिखी है। माँ टेरेसा पर लिखी जाने वाली पुस्तकों में यह सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक है। चौदह भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है।

माँ टेरेसा से उनकी पहली मुलाकात 1975 में हुई थी जब वे दिल्ली के उपराज्यपाल किशन चंद के सचिव हुआ करते थे। माँ टेरेसा ने अपनी एक संस्था का उद्घाटन करने के लिए उपराज्यपाल को आमंत्रित किया था। नवीन चावला ने बीबीसी को बताया, “मैंने एक चीज़ नोट किया कि मदर टेरेसा की साड़ी वैसे तो बहुत साफ़ थी, लेकिन उसको जगह- जगह रफ़ू किया गया था ताकि ये न दिख सके कि वह फटी हुई है। मैंने किसी सिस्टर से पूछा कि मदर की साड़ी में इतनी जगह रफ़ू क्यों किया गया है? उन्होंने बताया कि हमारा नियम है कि हमारे पास सिर्फ़ तीन साड़ियाँ होती हैं। एक हम पहनते हैं। एक हम रखते हैं धोने के लिए और तीसरी हम रखते हैं ख़ास मौकों के लिए। तो मदर के पास भी सिर्फ़ तीन ही साड़ियाँ हैं।”

नवीन चावला माँ टेरेसा से बातचीत का एक प्रसंग सुनाते हैं, “एक बार मैंने उनसे (मदर से) पूछा कि आपने अपने जीवन में सबसे दुखदाई प्रसंग कौन सा देखा है ? “उन्होंने कहा, “एक बार मैं और मेरे साथ एक सिस्टर कोलकाता में सड़क पर जा रहे थे। मुझे एक ढलाव पर हल्की सी आवाज़ सुनाई दी। जब हम पीछे गए तो हमने देखा वहाँ एक महिला कूड़े के ढेर पर पड़ी हुई थी। उसके ऊपर चूहे और कॉकरोच घूम रहे थे। वो मरने के कगार पर थीं। हमने उसे उठाया और ‘होम फ़ॉर डाइंग’ में ले गईं। हमने उसे साफ़ किया। उसकी साड़ी बदली और डिसइंफ़ेक्ट किया। फिर मैंने पूछा किसने तुम्हारे साथ ऐसा किया? महिला ने जवाब दिया मेरे अपने बेटे ने।”

नवीन बताते हैं, “मदर ने उस महिला से कहा तुम उसे माफ़ कर दो क्योंकि ये अब कुछ पलों की बात है। तुम्हारी आत्मा अपने भगवान के साथ मिलेगी। आप अपने भगवान से प्रार्थना करिए। मैं अपने भगवान से प्रार्थना करूँगी। आप अपने भगवान के पास हल्के हृदय के साथ जाइए। उसने कहा माँ मैं उसे माफ़ नहीं कर सकती। मैंने उसके लिए इतना कुछ किया। उसे पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया। अंत में जब मैंने अपनी प्रॉपर्टी उसके नाम कर दी तो वह मुझे अपने हाथों से यहाँ छोड़ कर गया। 

मदर ने फिर ज़ोर दिया। इसके बाद दो चार मिनट तक वो औरत कुछ नहीं बोली। फिर उसने अपनी आँखें खोली। मुस्कराई और बोली कि मैंने उसे माफ़ कर दिया। यह कह कर वह मर गई।”

माँ टेरेसा का असली नाम ‘अग्नेस गोंझा बोजाक्झ्यु’ (Agnes Gonxha Bojaxhiu ) था। अल्बेनियाई भाषा में गोंझा का मतलब ‘कली’ होता है। उनका जन्म 27 अगस्त, 1910 को मेसिडोनिया की राजधानी स्कोप्जे शहर (Skopje, capital of the Republic of Macedonia) में हुआ था। उनके पिता का नाम निकोला बोजाक्झ्यु और माता का नाम द्राना बोजाक्झ्यु था।

अग्नेस जब 8 साल की थीं तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। बाद में उनका लालन-पालन उनकी माता ने किया। उनकी माँ एक धर्मपरायण और आदर्श गृहिणी थीं। उन्होंने कभी अपने बच्चों को पिता की कमी का अहसास नहीं होने दिया। बच्चों में अच्छे संस्कार डालने का वे हमेशा प्रयत्न करती रहती थीं। वे संतों और महापुरुषों के जीवन की गाथाओं को सरल और रोचक कहानियों के रूप में सुनाकर बच्चों को भी वैसा ही बनने के लिए प्रेरित करती रहती थीं।  पाँच भाई-बहनों में अग्नेस सबसे छोटी थीं किन्तु अपनी माँ की इन शिक्षाओं का उनपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। जब वे मात्र 12 साल की थीं तभी उन्होंने तय कर लिया था कि वे अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगाएंगी। सरकारी स्कूल में पढ़ते समय वे सोडालिटी की बाल सदस्या बन गईं। सोडालिटी मानव सेवा के लिए समर्पित ईसाई संस्था का एक अंग थी जिसका प्रमुख कार्य लोगों, विशेषकर विद्यार्थियों को स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं के रूप में तैयार करना था।

उन दिनों यूगोस्लाविया के बहुत से जेसुइट ( ईसाई धर्म के प्रचारक और कार्यकर्ता) भारत में कर्सिंयांग और कोलकाता में रहकर सेवाकार्य करते थे। ये लोग समय समय पर अपने अनुभव और कार्यों के विषय में पत्रों में लिखकर आयरलैंड के लोरेटो संप्रदाय के मुख्यालय में भेजते रहते थे। सोडालिटी के सदस्यों के बीच इन पत्रों को नियमित रूप से पढ़कर सुनाया जाता था।

उन्ही दिनों यूगोस्लाविया के जेसुइट लोगों ने कोलकाता आर्कडायसिस योजना पर काम करने के लिए 30 दिसंबर 1925 को जेसुइटों का एक दल कोलकाता भेजा। इस दल में से कर्सियांग गए एक जेसुइट ने कोलकाता के दीन दुखियों की दशा और इस संबंध में किए जा रहे जेसुइटों के कार्यों का विवरण बड़े विस्तार और प्रभावशाली ढंग से लिखकर भेजा। इस पत्र के वृत्तांत को सुनकर 15 साल की छात्रा अग्नेस गोंझा का मन कोलकाता जाने के लिए मचल उठा। जब उन्होंने अपने शिक्षकों को अपनी इच्छा से अवगत कराया तो उनकी भावना का सम्मान करते हुए उन्हें आयरलैंड के लोरेटो मठ की सन्यासिनियों के संपर्क में भेज दिया गया ताकि वे सेवा भाव के प्रशिक्षण के साथ ही अंग्रेजी भाषा का ज्ञान भी प्राप्त कर लें। यहां आने के बाद इस मठ की सन्यासिनियों और मिशनरी कार्यकर्ताओं के त्यागपूर्ण जीवन और सेवा की भावना को देखकर अग्नेस अभिभूत हो गईं।

लोरेटो मठ के सन्यासी जीवन के साथ -साथ उनपर स्पेन की महान संत टेरेसा का भी गहरा प्रभाव पड़ा। यह भी महज संयोग ही है कि स्पेन की महान संत टेरेसा ने भी जीवन के 18वें वर्ष में सन्यासी जीवन अपनाया था और अग्नेस ने भी 29 नवंबर 1928 को अपने जीवन के 18वें साल में ही सन्यास लिया। उन्होंने अपने आदर्श महान संत टेरेसा के पदचिह्नों पर चलने का प्रण लेते हुए अपना नया नामकरण ‘टेरेसा’ कर लिया।

सिस्टर टेरेसा तीन अन्य सिस्टरों के साथ आयरलैंड से एक जहाज में बैठकर 6 जनवरी 1929 को कोलकाता के ‘लोरेटो कान्वेंट’ पहुंचीं और वहाँ से कोलकाता के इंटाली के सेंट मैरी स्कूल में भूगोल की अध्यापिका के रूप में कार्य करने लगीं। 1944 में वे वहाँ हेड मिस्ट्रेस बनीं।

दूसरे विश्व युद्ध के साये में बंगाल भयंकर अकाल के दौर से जूझ रहा था। यह अकाल सरकार की गलत नीतियों और लापरवाही का नतीजा था। इस अकाल में लाखों लोग भूख से मर गए। सिस्टर टेरेसा ने भूखों और पीड़ितों की मदद में रात दिन एक कर दिया।   

कुछ दिन बाद ही देश का बँटवारा हुआ और मानव इतिहास में इंसानों की सबसे बड़ी अदला-बदली हुई। लाखों लोगों की दरिद्रता और लाचारी देखकर टेरेसा का मन बहुत अशांत हो गया। उन्होंने लोरेटो कॉन्वेन्ट और उनके द्वारा मिल रही सभी सुख- सुविधाओं को छोड़ दिया और दुखियों पीड़ितों के कल्याण के लिए निकल पड़ी। उन्होंने अपने कीमती वस्त्र त्याग दिए और पूरे आस्तीन की ब्लाउज तथा सफेद साड़ी धारण कर ली। कैथोलिक सन्यासिनियों में टेरेसा पहली महिला थीं जिन्होंने भारतीय पोशाक साड़ी को अपने मिशन की पोशाक के रूप में धारण किया।

सेवा मार्ग पर चलने में प्रेम के साथ साथ चिकित्सा और औषधि का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने की बहुत जरूरत थी। लोरेटो को अलविदा कहकर टेरेसा अपनी नयी वेशभूषा में ही 18 अगस्त 1948 को नर्सिंग की ट्रेनिंग लेने के लिए पटना की अमेरिकी मेडिकल मिशनरी के पास गईं। वहाँ तीन महीने की ट्रेनिंग लेकर वे दिसंबर माह में कोलकाता लौट आईं और ‘लिटिल सिस्टर्स ऑफ द पूअर’ संस्था में आकर रहने लगीं।

अनाथ और पीड़ित बच्चों की सेवा में लगी ‘लिटिल सिस्टर्स ऑफ द पूअर’ नाम की यह संस्था अत्यंत दयनीय अवस्था में थी। टेरेसा के जीवन में 1948 का यह दौर बड़ी कठनाइयों से भरा था। उन्हें इसी वर्ष सियालदह के निकट मलिन बस्ती मोतीझील में पहला स्कूल खोलने की अनुमति भी मिली। मोतीझील बस्ती के गंदे और दुर्गंध युक्त वातावरण में एक उजाड़ जमीन पर मदर टेरेसा का पहला स्कूल स्थापित हुआ। उन्होंने आस पास की गंदगियों को साफ किया और गरीबों के कुछ मैले- कुचैले बच्चों को लेकर जमीन पर उन्हें पढ़ाने लगीं। उन दिनों टेरेसा की दशा बहुत दयनीय थी। किन्तु इसी साल उन्हें भारत की नागरिकता प्राप्त हुई। 1949 में उन्हें थोड़ी राहत मिली जब माइकल गोमेज नाम के एक सहृदय ईसाई व्यक्ति के घर में उन्हें रहने की जगह मिली। मोतीझील स्कूल से घर आते- जाते सिस्टर को जैसे ही सड़क किनारे पड़ा कोई रोगी अथवा पीड़ित व्यक्ति दिखाई देता तो वह उसे अपने साथ ले आतीं। माइकेल गोमेज ने भी सहर्ष टेरेसा के इस काम में भरपूर सहयोग दिया और अपने मकान को उसने निराश्रित और दुखी लोगों की पनाहगाह में बदल दिया। इस बीच सेंट टेरेसा चर्च के फादर ने सिस्टर की सेवा को अनुभव करते हुए उन्हे मेज- कुर्सी और दवाओं के साथ- साथ अपनी आउटडोर डिस्पेंसरी का एक कोना भी दे दिया।

7 अक्टूबर 1950 को 54-ए, आचार्य जगदीश चंद्र बोस रोड, कोलकाता में मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना हुई। माँ के मार्ग दर्शन में ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ की शाखाएं सारे भारत में खुलने लगीं। ‘निर्मल हृदय’ का ध्येय असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों की सेवा करना था जिन्हें समाज ने तिरस्कृत कर दिया हो। ‘निर्मला शिशु भवन’ की स्थापना अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता के लिए हुई। समाज के सबसे दलित और उपेक्षित लोगों के सिर पर अपना हाथ रख कर उन्होंने उन्हें मातृत्व का आभास कराया और न सिर्फ उनकी देखभाल की बल्कि उन्हें समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए भी प्रयास शुरू किया। हमारे यहाँ जन्म देने वाली माँ से भी ज्यादा पालने वाली माँ को सम्मान दिया जाता है। माँ टेरेसा ने हजारों बेसहारा और अनाथ बच्चों को माँ का सहारा दिया।

वे असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों की स्वयं सेवा करती थीं। जिन्हें समाज ने बाहर निकाल दिया हो, ऐसे लोगों पर उन्होंने अपनी ममता व प्रेम लुटाकर सच्चाई और प्यार का परिचय दिया।  मानवता की सेवा के इस काम में देश- विदेश से आर्थिक सहयोग मिलने लगे। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी उन्हें भरपूर सहयोग दिया। मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना के मात्र 12 वर्ष में उन्हे भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ के सम्मान से नवाजा गया। इसके बाद माँ टेरेसा की ख्याति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी। एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय मिशनरीज ऑफ चैरिटी की लगभग 4500 शाखाएं 120 देशों में फैली हुई है।

माँ टेरेसा के सेवा कार्यों को देखते हुए 1979 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया। उन्होंने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि भी भारत के ग़रीबों और बेसहारों के लिए सदुपयोग करने का निर्णय लिया। 1980 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। उन्हें रोमन कैथोलिक चर्च ने भी कलकत्ता की ‘संत टेरेसा’ के नाम से नवाजा।

माँ टेरेसा की सेहत 1997 में खराब होने लगी। लगातार खराब सेहत के कारण 13 मार्च 1997 को उन्होंने मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी के मुखिया का पद अपनी सहयोगी सिस्टर निर्मला को दे दिया। 5 सितंबर 1997 को उनका निधन हुआ। पोप जॉन पॉल द्वितीय ने 19 अक्टूबर 2003 को रोम में उन्हें ‘धन्य’ घोषित किया और 15 मार्च 2016 को पोप फ्रांसेस ने कार्डेना परिषद में उन्हें ‘संत’ के सम्मान से विभूषित किया। 

मदर टेरेसा कैथोलिक थीं, लेकिन उन्हें भारत की नागरिकता मिली हुई थी। उन्हें भारत के साथ- साथ कई अन्य देशों की नागरिकता भी मिली हुई थी, जिसमें ऑटोमन, सर्बिया, बुल्गारिया और युगोस्लाविया शामिल हैं।

माँ टेरेसा के जीवन में प्रार्थना का विशेष स्थान था। इससे उन्हें कार्य करने की आध्यात्मिक शक्ति मिलती थी। उन्होंने अपनी शिष्याओं एवं धर्म−बहनों को भी ऐसी ही शिक्षा दी कि प्रेम की खातिर ही सब कुछ किया जाये। उनकी नजर में सारी मानव जाति ईश्वर का ही प्रतिरूप है। उन्होंने कभी भी अपने सेवा कार्य में धर्म पर आधारित भेदभाव को आड़े नहीं आने दिया। जब कोई उनसे पूछता कि ‘क्या आपने कभी किसी का धर्मांतरण किया है?’ वे कहती कि ‘हाँ, मैंने धर्मांतरण करवाया है, लेकिन मेरा धर्मांतरण हिंदुओं को बेहतर हिंदू, मुसलमानों को बेहतर मुसलमान और ईसाइयों को बेहतर ईसाई बनाने का ही रहा है।’ असल में वे हमेशा इंसान को बेहतर इंसान बनाने के मिशन में ही लगी रहीं।

माँ टेरेसा सुबह साढ़े पाँच बजे से प्रार्थना में लग जाती थीं। उसके बाद नाश्ता करके वे बाहर काम पर निकल जाती थीं। वे सहज और विनम्र थीं। अपने जीवन के अंतिम दिनों तक उन्होंने ग़रीबों के शौचालय अपने हाथों से साफ़ किए और अपनी नीली किनारे वाली साड़ी को ख़ुद अपने हाथों से धोया। सुबह से लेकर शाम तक वे अपनी मिशनरी बहनों के साथ व्यस्त रहा करती थीं। काम समाप्ति के बाद वे पत्र आदि पढ़ा करती थीं जो उनके पास आया करते थे। इतने काम के बावजूद उनके चेहरे पर मुस्कान बनी रहती थी और वे आमतौर पर हँसी के चुटकुले सुनाया करता थीं। वे कहती भी थीं कि वे ग़रीबों के पास उदास चेहरा ले कर नहीं जा सकती।

रोनल्ड रीगन, मिखाइल गोर्बाचोव, हेलमट कोल, यासिर अराफ़ात आदि दुनिया के अनेक राष्ट्राध्यक्षों का माँ टेरेसा के प्रति विशेष अनुराग था। नवीन चावला ने लिखा है, “मैंने एक बार ज्योति बसु से पूछा कि आप तो कम्युनिस्ट हैं, नास्तिक हैं। उनके लिए ईश्वर ही सब कुछ हैं, आप और मदर टेरेसा में क्या समानता है? तो ज्योति बसु ने हँसते हुए जवाब दिया, “हम दोनों ही ग़रीबों को प्यार करते हैं।”

उन्होंने लिखा है कि, “जब ज्योति बसु बीमार होते थे तो मदर उनके घर जाती थीं और उनके लिए प्रार्थना करती थीं जबकि ज्योति बसु का ईश्वर में विश्वास ही नहीं था।” इसी तरह नवीन चावला के शब्दों में “जब मदर टेरेसा बीमार थीं तो ज्योति बसु रोज़ अस्पताल जाते थे। उनसे मिलते नहीं थे, लेकिन अपनी हाज़िरी ज़रूर लगाते थे। कमाल का रिश्ता था दोनों का- ग़रीबी और अच्छाई पर आधारित।”

माँ टेरेसा के ऊपर हिन्दी में पुस्तक लिखने वाले कृपाशंकर चौबे के शब्दों में, “मदर टेरेसा का सबसे बड़ा अवदान यह है कि उन्होंने पूरी दुनिया में क्रूरता के सामने करुणा को खड़ा किया। मदर कहती थीं कि हिंसा, लड़ाई, युद्ध जैसे शब्दों को हमारी शब्दावली से बाहर कर देना चाहिए। हथियारों पर जो खर्च होता है, यदि वह गरीबों पर हो, तो कितनी समस्याएं घट जाएंगी। असली शत्रु तो गरीबी है। आज जब दुनिया में क्रूरता तेजी से बढ़ रही है, पूरी दुनिया में मदर टेरेसा के विचारों की प्रासंगिकता स्वतः बढ़ गई है।”

माँ टेरेसा को लेकर विवाद भी कम नहीं हैं। महान लोगों के साथ ऐसा होता ही है। एक ब्रिटिश भारतीय लेखक डॉक्टर अरूप चटर्जी ने ‘मदर टेरेसा : द अनटोल्ड स्टोरी’ शीर्षक अपनी पुस्तक में माँ टेरेसा और उनकी मिशनरीज ऑफ चैरिटी को लेकर कई प्रतिकूल टिप्पणियाँ की हैं। उन्होंने कुछ दस्तावेज़ जारी करते हुए माँ टेरेसा की संस्थाओं को मिलने वाले डोनेशन के साथ ही उनके बैंक अकाउंट्स में आने वाली रकम के स्रोतों को लेकर भी सवाल खड़े किए थे और कहा था कि जाली और चार सौ बीस लोग इन संस्थाओं में पैसा लगाते हैं।

ब्रिटिश अमेरिकी लेखक व पत्रकार क्रिस्टोफर हिचेन्स ने अपने टीवी शो और किताब ‘द मिशनरी पोज़िशन: मदर टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस’ में भी आरोप लगाए हैं कि मदर टेरेसा की संस्थाओं में मरने की हालत में पहुँचे मरीज़ों का अनैतिक ढंग से धर्म परिवर्तन किया जाता था।

80 के दशक में ब्रिटेन के चर्चित अखबार में छपे एक लेख में चर्चित नारीवादी और पत्रकार जर्मेन ग्रीअर ने भी कुछ ऐसी बातें कहीं थीं। ग्रीअर ने माँ टेरेसा को एक धार्मिक साम्राज्यवादी कहा था जिसने सेवा को मजबूर गरीबों में ईसाई धर्म फैलाने का जरिया बनाया।

माँ टेरेसा ने 1975 में इंदिरा गाँधी द्वारा आपातकाल की घोषणा का समर्थन किया था, जिसकी खूब आलोचना हुई थी। उनके सेवा कार्यों को देखते हुए 2012 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने उनकी पुण्यतिथि 5 सितंबर को ‘इंटरनेशनल चैरिटी डे’ के रूप मनाने का फैसला लिया है।

(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।)

डॉ. अमरनाथ

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