पेरियार ई.वी.रामासामी : उसूलों पर अडिग महातार्किक – अमरनाथ

पेरियार

दक्षिण में हिन्दी विरोध, ब्राह्मणवाद विरोध, वेद विरोध, गीता विरोध, रामायण विरोध, धर्म विरोध आदि को नेतृत्व प्रदान करने वाले पेरियार ईरोड वेंकटप्पा रामासामी नायकर (17.9.1879- 24.12.1973) को यूनेस्को ने 27 जून 1970 को ‘नए युग का संत’, ‘दक्षिण-पूर्व एशिया का सुकरात’ और ‘समाज –सुधार आन्दोलन का जनक’ कहकर सम्मानित किया था। मात्र चौथी कक्षा तक पढ़ाई करने वाले और दस साल की उम्र में सदा के लिए स्कूल छोड़ देने वाले इस नास्तिक महानायक का दक्षिण में महात्मा ज्योतिराव फुले और डॉ. भीमराव अंबेडकर की तरह ही सम्मान और प्रभाव है। पेरियार रामासामी नायकर को सम्मान में ‘थंथई पेरियार’ अर्थात् ‘आधुनिक तमिलनाडु का पिता’ कहा जाता है। तमिल अस्मिता को उभारने और उसे स्थाई आकार देने वाले केन्द्रीय पुरुष पेरियार रामासामी नायकर ही हैं।

पेरियार रामासामी नायकर का जन्म तमिलनाडु के ‘ईरोड’ नामक कस्बे में, ‘धनकर’(चरवाहा) नामक दलित हिन्दू जाति में हुआ था। इनके पिता वेंकटप्पा नायकर व्यवसायी थे और धार्मिक स्वभाव के थे। घर में धार्मिक अनुष्ठान, प्रवचन आदि हमेशा होते रहते थे। इसके विपरीत रामासामी नायकर बचपन से ही तार्किक स्वभाव के थे।

रामासामी नायकर की औपचारिक शिक्षा दर्जा चार तक ही हुई और दस साल की उम्र में ही उन्होंने सदा के लिए स्कूली पढ़ाई छोड़ दी और अपने पिता के व्यापार में हाथ बँटाने लगे। 19 वर्ष की उम्र में उनका विवाह नागम्मई के साथ हो गया। उम्र बढ़ने के साथ–साथ रामासामी अपनी वैज्ञानिक सोच पर दृढ़ से दृढ़तर होते गये। परिवार में फल-फूल रहे अन्धविश्वास और ढकोसले उनके प्रहार का निशाना बनने लगे। अपने घर में उन्हें जो भी तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता, उसे अवश्य ही बन्द करने का प्रयत्न करते। इसके कारण पिताजी से इनके रिश्ते धीरे -धीरे खराब होने लगे। अन्ततः रामासामी ने पिता का घर छोड़ देने का निश्चय कर लिया। गृह त्याग के पश्चात् रामासामी कुछ दिनों तक इधर–उधर घूमते रहे। बहुत दिनों तक वे संन्यासियों के साथ संन्यासी बनकर रहे किन्तु अन्ततः वे पुनः अपने घर लौट आए।

इस बीच 1904 में एक ऐसी घटना घटी कि रामासामी को फिर से घर छोड़ देना पड़ा। रामासामी के पिता के एक ब्राह्मण मित्र थे, जिनपर किसी तरह का आपराधिक मुकदमा चल रहा था। इस दौरान रामासामी ने उनकी गिरफ्तारी में पुलिस की मदद की। रामासामी के पिता को जब यह पता चला तो वे बहुत क्रुद्ध हुए और सबके सामने उनकी पिटाई कर दी। इस बात से रामासामी बहुत आहत हुए और घर छोड़ दिया। इस बार वे काशी चले गए क्योंकि विद्वानों की नगरी काशी के दर्शन की उन्हें बड़ी लालसा थी। काशी में एक जगह नि:शुल्क भोज का आयोजन था। रामासामी को भी भोज में सम्मिलित होने की इच्छा हुई। लेकिन जब वे भोज में शामिल होने गए तो उन्हें पता चला कि उस भोज में सिर्फ ब्राह्मण ही शामिल हो सकते थे। इसी वजह से भोज में उन्हें शामिल नहीं होने दिया गया और वे भूखे रह गए।

इस घटना ने रामासामी की सोच की दिशा बदल दी। उन्हें सामाजिक असमानता की जड़ों के बारे में पता चला। वे ब्राह्मणों और ब्राह्मण धर्म के स्थाई शत्रु हो गए। दक्षिण लौटने पर उन्होंने समाज के प्रति अपने व्यवहार और कार्यपद्धति में बहुत परिवर्तन किया। धीरे- धीरे समाज में उनकी छवि एक नि:स्वार्थ समाज सेवक की होने लगी।

इसी बीच उन्हें ईरोड के नगर निगम का अध्यक्ष चुना गया और उन्होंने अपना दायित्व बहुत सफलता के साथ निभाया। यह आजादी के आन्दोलन का दौर था। धीरे- धीरे उनका झुकाव कांग्रेस की ओर हुआ। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पहल पर सन 1919 में वे कांग्रेस के सदस्य बन गए। सन् 1920 ई. में उन्हें गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन का दक्षिण भारत के नेतृत्व का दायित्व सौंपा गया। रामासामी ने इस दायित्व को पूरी गंभीरता से लिया। उन्होंने इस दायित्व को निष्ठापूर्वक निभाने के लिए पारिवारिक दायित्वों सहित अन्य सभी उत्तरदायित्वों से अपने को पूर्णतः मुक्त कर लिया। वे अब कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ता बन गए। महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के दौरान वे गिरफ्तार भी हुए। इसी तरह उन्होंने कांग्रेस द्वारा चलाये गये नशाबंदी आंदोलन के कारण अपने बाग के एक हजार से भी अधिक ताड़ के पेड़ कटवा दिया, क्योंकि नशाबंदी आंदोलन के नेतृत्वकर्ता का ताड़ के पेड़ों का मालिक बने रहना नैतिकता के प्रतिकूल था।

केरल का वायकॉम -आन्दोलन भी रामासामी के जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह आन्दोलन 1924 में हुआ था। त्रावणकोर के राजा के मंदिर की ओर जाने वाले रास्ते पर दलितों का प्रवेश प्रतिबंधित था जिसका दलितों ने विरोध किया। विरोध करने वाले नेताओं को राजा के आदेश से गिरफ़्तार कर लिया गया। अब इस आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए कोई नेतृत्व नहीं था। केरल के कांग्रेसी नेताओं के निवेदन पर रामासामी ने वायकॉम- आन्दोलन का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। इस आन्दोलन में उनकी गिरफ्तारी के बाद आन्दोलन की बागडोर उनकी पत्नी नागम्मई और एस.रामनाथन ने संभाला। यह आन्दोलन सफल रहा और इसके परिणामस्वरूप अछूतों के अधिकारों को स्वीकार किया गया और उनके स्वतंत्र आवागमन पर लगे सारे प्रतिबंध हटा लिए गए।

इसी दौरान कांग्रेस ने युवाओं के लिए एक प्रशिक्षण शिविर चलाया था। प्रशिक्षण शिविर में एक ब्राह्मण प्रशिक्षक द्वारा गैर-ब्राह्मण छात्रों के साथ भेदभाव बरतते देख रामासामी ने उसका विरोध किया और इसकी शिकायत ऊपर के पदाधिकारियों से की। उन्होंने देखा कि उनकी शिकायत पर कांग्रेस के पदाधिकारियों ने कोई खास नोटिस नहीं ली। कांग्रेस के इस रवैये से रामासामी दुखी हुए और उन्होंने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया। इसके पूर्व उन्होंने कांग्रेस के नेताओं के सामने तमिलनाडु के मूल निवासी बहुजनों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव भी रखा था जिसे मंजूरी नहीं मिली थी।

कांग्रेस से संबंध टूटने के बाद 1925 में उन्होंने अपना संबंध जस्टिस पार्टी से जोड़ा जो वहाँ की एक गैर-ब्राह्मण पार्टी थी। वहाँ रहकर उन्होंने समाज से असमानता कम करने के लिए अधिकारियों और सरकार पर सदैव दबाव बनाया। इसे ‘आत्म सम्मान आन्दोलन’ कहा जाता है। इस आन्दोलन का मुख्य लक्ष्य था गैर-ब्राह्मण द्रविड़ों को उनके सुनहरे अतीत का गौरवबोध कराना। उन्होंने ‘आत्म सम्मान आन्दोलन’ के प्रचार के लिए एक तमिल साप्ताहिक ‘कुडि अरासु’ और अंग्रेजी जर्नल ‘रिवोल्ट’ का प्रकाशन शुरू किया गया। इस आन्दोलन का लक्ष्य समाज में बदलाव लाना था। 1929 में उन्होंने अपना उपनाम ‘नायकर’ का परित्याग कर दिया।

1931 में उन्होंने रूस, जर्मनी, इंग्लैण्ड, स्पेन, फ्रांस तथा मध्यपूर्व के अन्य देशों की यात्रा की। उन्होंने रूस के कल–कारखाने, कृषि–फार्म, स्कूल, अस्पताल, मजदूर संगठन, वैज्ञानिक शोध केन्द्र, उत्तम कला केन्द्र आदि संस्थाओं का बारीकी से निरीक्षण किया और बहुत प्रभावित हुए।

सन 1937 में सी. राजगोपालाचारी जब मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने गाँधीजी से प्रभावित होकर तमिलनाडु में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य कर दी। इस निर्णय का रामासामी ने जमकर विरोध किया। तमिल राष्ट्रवादी नेताओं और जस्टिस पार्टी ने भी पेरियार के इस हिंदी-विरोधी आंदोलनों में साथ दिया जिसके फलस्वरूप सन 1938 में बहुत से लोग गिरफ्तार किए गए। इस आन्दोलन में अपनी राजनैतिक विचारधाराओं के आग्रह से मुक्त होकर सभी दक्षिण भारतीय दलों ने रामासामी का साथ दिया। हिंदी के विरोध में खड़े होने के कारण द्रविड़ों में उनकी गहरी पैठ बन गयी।

1938 में उन्हें सर्वसम्मति से जस्टिस पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। कुछ समय के लिए स्वाभिमान आंदोलन और जस्टिस पार्टी ने एक–दूसरे के साथ मिलकर कार्य किया। 1944 में उन्होंने स्वाभिमान आंदोलन और जस्टिस पार्टी के गठबंधन से ‘द्रविड़ कडगम’ की स्थापना की।

1948 में उन्होनें अपने से 20 साल की कम उम्र की महिला मनिअम्मई से विवाह किया। इस बात को लेकर उनकी पार्टी में विद्रोह शुरू हो गया और बहुत से उनके समर्थक उनसे अलग हो गए, जिसके बाद एक नयी पार्टी का उदय हुआ जिसका नाम डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कडगम) रखा गया। उल्लेखनीय है कि 1933 में उनकी पहली पत्नी नागाम्मई का निधन हो गया था।

आधुनिक भारत में महात्मा ज्योतिराव फुले ने राजनैतिक क्षेत्र में दलितों एवं शूद्रों के लिए प्रतिनिधित्व की माँग की थी। पेरियार रामासामी भी दलितों एवं शूद्रों के लिए राजनैतिक क्षेत्र में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिलाना चाहते थे। स्वतंत्रता आंदोलन के समय रामासामी पेरियार ने कांग्रेस के सम्मेलन में जनसंख्या के अनुपात में नौकरियों में प्रतिनिधित्व संबंधी प्रस्ताव स्वीकृत कराने का प्रयास किया। 1950 में तत्कालीन मद्रास सरकार ने पेरियार की सलाह पर नौकरियों में दलितों–पिछड़ों के लिए 50 प्रतिशत स्थान सुरक्षित करने का निर्णय लिया। मद्रास सरकार के इस निर्णय को उच्च वर्णीय व्यक्तियों द्वारा मद्रास उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी। मद्रास उच्च न्यायालय ने मद्रास सरकार के उक्त निर्णय को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उक्त निर्णय एक नागरिक के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय का समर्थन किया। यह याचिका मद्रास राज्य बनाम चम्पक दुरई राजन के नाम से जानी जाती है। रामासामी पेरियार ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध व्यापक आंदोलन चलाया और संविधान में संशोधन की माँग की। फलस्वरूप संविधान में प्रथम संशोधन 18 जून 1951 को हुआ जिसमें अनुच्छेद 15 व 16 को संशोधित किया गया।

पेरियार कहते हैं, “इंग्लैंड में न कोई शूद्र है, और न परिया अछूत। रूस में आपको वर्णाश्रम धर्म या भाग्यवाद नहीं मिलेगा। अमरीका में, लोग ब्रह्मा के मुख से या पैरों से पैदा नहीं होते हैं। जर्मनी में भगवान भोग नहीं लगाते हैं। टर्की में देवता विवाह नहीं करते हैं। फ्रांस में देवताओं के पास 12 लाख रुपये का मुकुट नहीं है। इन देशों के लोग शिक्षित और बुद्धिमान हैं। वे अपना आत्मसम्मान खोने के लिए तैयार नहीं होते हैं। बल्कि, वे अपने हितों और अपने देश की सुरक्षा के लिए तैयार होते हैं। अकेले हमें क्यों बर्बर देवताओं और धार्मिक कट्टरवाद को मानना चाहिए ?“ 

पेरियार को ब्राह्मण विरोधी कहा जाता है। इसका विरोध करते हुए वे कहते हैं,

“मुझे ब्राह्मण प्रेस द्वारा ब्राह्मण-विरोधी के रूप में चित्रित किया गया है। किन्तु मैं व्यक्तिगत रूप से किसी भी ब्राह्मण का दुश्मन नहीं हूँ। एकमात्र तथ्य यह है कि मैं ब्राहमणवाद का धुर विरोधी हूँ। मैंने कभी नहीं कहा कि ब्राह्मणों को खत्म किया जाना चाहिए। मैं केवल यह कहता हूँ कि ब्राह्मणवाद को खत्म किया जाना चाहिए। ऐसा लगता है कि कोई ब्राह्मण स्पष्ट रूप से मेरी बात समझ नहीं पाता है।“ 

अपनी पार्टी के उद्देश्य के बारे में वे कहते है, ‘द्रविड़ कड़गम आंदोलन’ का क्या मतलब है? इसका केवल एक ही निशाना है कि इस आर्य ब्राह्मणवादी और वर्ण व्यवस्था का अंत कर देना, जिसके कारण समाज ऊँच और नीच जातियों में बाँटा गया है। ब्राह्मण हमें अंधविश्वास में निष्ठा रखने के लिए तैयार करता है। वह खुद आरामदायक जीवन जी रहा है। तुम्हे अछूत कहकर निंदा करता है। मैं आपको सावधान करता हूँ कि उनका विश्वास मत करो। सभी मनुष्य समान रूप से पैदा हुए हैं तो फिर अकेले ब्राह्मण उच्च व अन्य को नीच कैसे ठहराया जा सकता है? आप अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई क्यों इन मंदिरों में लुटाते हो? क्या कभी ब्राह्मणों ने इन मंदिरों, तालाबों या अन्य परोपकारी संस्थाओं के लिए एक रुपया भी दान दिया?“

पेरियार अपने को नास्तिक घोषित करते हैं और कहते हैं, “ईश्वर की सत्ता स्वीकारने में किसी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं पड़ती, लेकिन नास्तिकता के लिए बड़े साहस और दृढ विश्वास की जरुरत पड़ती है। यह स्थिति उन्हीं के लिए संभव है जिनके पास तर्क तथा बुद्धि की शक्ति हो।”

पेरियार ने समय -समय पर अनेक पत्र- पत्रिकाओं का संपादन किया जिसमें ‘कुडिआरासु’ ( पीपुल्स गवर्नमेंट,1925), ‘रिवाल्ट’ (अंग्रेजी,1928), ‘पुरात्ची’( रिवाल्यूशन, 1933), ‘पगुथरिवु’ (रेशनलिज्म,1934), ‘विदुथलाई’ (1935), ‘उन्माइ’ ( ट्रूथ,1970) आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा 1930 में उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण के लिए ‘फैमिली प्लानिंग’ नाम से पुस्तिका प्रकाशित की थी। 1950 में उनकी पुस्तक ‘पोन्मोझिगल’ ( गोल्डेन सेइंग्स) के प्रकाशित होने पर उन्हें जेल भी जाना पड़ा था।

पेरियार की सबसे विवादास्पद पुस्तक उनकी ‘सच्ची रामायण’ है. रामायण के बारे में उनका कहना है कि वह किसी ऐतिहासिक तथ्य पर आधारित पुस्तक नहीं है। वह एक कल्पना है। रावण, लंका यानी दक्षिण यानी तमिलनाडु के राजा थे, जिनकी हत्या राम ने की। राम में तमिल-सभ्यता (कुरल संस्कृति) का लेश मात्र भी नहीं है। रामायण में तमिलनाडु के पुरुषों और महिलाओं को बंदर और राक्षस कहकर उनका उपहास किया गया है। रामायण में जिस लड़ाई का वर्णन है, उसमें उत्तर का रहने वाला कोई भी आर्य नहीं मारा गया। वे सारे लोग, जो इस युद्ध में मारे गए, वे तमिल थे, जिन्हें राक्षस कहा गया।

राम की पत्नी सीता को रावण हर ले गया क्योंकि, राम ने उसकी बहन ‘शूर्पणखा’ का अंग-भंग किया व उसका रूप बिगाड़ दिया था। रावण के इस काम के कारण लंका क्यों जलाई गई ? लंका निवासी क्यों मारे गए? रामायण की कथा का उद्देश्य तमिलों को नीचा दिखाना है। राम या सीता के चरित्र में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे दैवी कहा जाए।

किन्तु रामायण की निन्दा करने में पेरियार दूसरे अतिरेक पर चले गए हैं। वे राम में तो खूब कमियाँ निकालते हैं किन्तु रावण में उन्हे कोई कमी नहीं दिखाई देती। सीताहरण तक के लिए भी वे रावण को दोषी नहीं ठहराते और कहते है कि सीता स्वेच्छा से उसके साथ चली गईं। निश्चित रूप से इसके पीछे उनकी प्रतिक्रियावादी दृष्टि है। उनका कहना था कि यह एक राजनीतिक पुस्तक है, जिसे ब्राह्मणों ने दक्षिणवासी अनार्यों पर उत्तर के आर्यों की विजय और प्रभुत्व को जायज ठहराने के लिए लिखा।

तमिल भाषा में उनकी पुस्तक का नाम ‘रामायण पादीरंगल’ है। उनकी यह पुस्तक 1944 में प्रकाशित हुई। इसका अंग्रेजी अनुवाद द्रविड़ कषगम पब्लिकेशन्स ने ‘द रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ नाम से 1959 में प्रकाशित किया। इसका हिंदी अनुवाद 1968 में ‘सच्ची रामायण’ नाम से किया गया। हिंदी अनुवाद के प्रकाशक ललई सिंह यादव और अनुवादक राम आधार थे।

9 दिसंबर, 1969 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘सच्ची रामायण’ पर प्रतिबंध लगा दिया। इसी के साथ पुस्तक की सभी प्रतियों को जब्त कर लिया गया। ललई सिंह यादव ने जब्ती के आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। वे हाईकोर्ट में मुकदमा जीत गए। सरकार ने हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

सुप्रीम कोर्ट में इस ऐतिहासिक मामले की सुनवाई तीन जजों की खंडपीठ ने की। 16 सितंबर 1976 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सर्वसम्मति से फैसला देते हुए राज्य सरकार की अपील को खारिज कर दिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में निर्णय सुनाया।

दरअसल एक महान चिन्तक और समाज सुधारक होने के बावजूद पेरियार ई.वी.रामासामी की छवि एक क्षेत्रीय नेता की ही बन सकी। समय की माँग जहाँ सबकुछ भूलकर आजादी के आन्दोलन में शामिल होने की थी, उन्होंने आजादी के आन्दोलन से अपने को अलग कर लिया और जाति- वर्ण को जड़ से मिटाने के लिए जुट गए। रामासामी की इच्छा थी कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने से पहले ही सामाजिक समानता स्थापित हो जानी चाहिए, अन्यथा स्वाधीनता का यह अभिप्राय होगा कि हमने विदेशी मालिकों की जगह भारतीय मालिकों को स्वीकार कर लिया है। उनका विचार था कि यदि इन समस्याओं का समाधान स्वाधीनता प्राप्ति के पहले नहीं किया गया तो जाति व्यवस्था और उसकी बुराइयाँ हमेशा बनी रहेंगी। इसीलिए राजनैतिक सुधार से पहले वे सामाजिक सुधार के पक्षधर थे। उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि जिस जाति-वर्ण को खत्म करने की उन्हें जल्दी है वे अंग्रेजों की तरह बाहर से नहीं आई हैं अपितु उनकी जड़ें हमारी संस्कृति में हैं और सदियों से हैं। उन्हें समाप्त होने में भी लम्बा समय लगेगा।

29 मार्च 1931 को तमिल साप्ताहिक ‘कुडिआरासु’ ( पीपुल्स गवर्नमेंट)के संपादकीय में पेरियार ने भगतसिंह और गाँधी की तुलना करते हुए भगत सिंह के विचारों के साथ अपनी सहमति जतायी थी। उन्होंने लिखा है, “जिस दिन गाँधी ने कहा कि केवल ईश्वर ही उनका मार्गदर्शन करता है, दुनिया को चलाने में वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था ही उचित है और हर काम भगवान की इच्छा के अनुसार होता है, उसी दिन हम इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि गाँधीवाद और ब्राह्मणवाद में कोई अंतर नहीं है।“

निश्चित रूप से गाँधीजी के विषय में उनका उक्त निष्कर्ष भ्रामक है। गाँधीजी को ईश्वर में विश्वास है किन्तु वे न तो वर्णव्यवस्था के पोषक है और न सबकुछ भगवान के भरोसे छोड़ने वाले। गाँधी ने जाति प्रथा और वर्णव्यवस्था के विरुद्ध लड़ाई को आजादी की लड़ाई के साथ जोड़ दिया था। गाँधी का जीवन एक अद्भुत कर्मयोगी का जीवन है। वे कुछ भी भगवान की इच्छा पर नहीं छोड़ते, कर्म में विश्वास करते है। गाँधीवाद और ब्राह्मणवाद को एक मानना भी गलत है। गाँधी ने ब्राह्मणवाद का आजीवन विरोध किया है।

ई.वी.रामासामी ने विभाजन के समय मुस्लिम लीग का साथ दिया था और जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत का समर्थन किया था। इतिहास ने उनके इस स्टैंड को भी अनुचित सिद्ध कर दिया है।

हिन्दी के मुद्दे पर भी उनका स्टैंड अतिरेकपूर्ण था। उन्होंने हिंदी का विरोध करते हुए ‘तमिलनाडु तमिलों के लिए’ का नारा दिया। यह अलगाववादी दृष्टिकोण है। उनका मानना था कि हिंदी लागू होने के बाद तमिल संस्कृति नष्ट हो जाएगी और तमिल समुदाय उत्तर भारतीयों के अधीन हो जायेगा। जबकि गांधी केवल संपर्क भाषा के रूप में हिन्दुस्तानी का इस्तेमाल चाहते थे ताकि आजादी के बाद भी इस विशाल और विविध संस्कृतियों वाले देश में राजनैतिक और सांस्कृतिक एकता बनी रह सके। पेरियार रामासामी के हिन्दी विरोध का ही परिणाम था कि संविधान में जब राजभाषा संबंधी प्रावधान लागू हुआ तो उससे तमिलनाडु को अलग रखा गया। यह न तो देश के लिए उचित हुआ और न तमिलनाडु के लिए।

यहाँ इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि ई.वी.रामासामी के समय तमिलनाडु की सामाजिक संरचना उत्तर भारत की सामाजिक संरचना से काफी भिन्न थी। वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत शिखर पर बैठे वहाँ के ब्राह्मणों के पास सभी अधिकार केन्द्रित थे। शेष लगभग 93 प्रतिशत पिछड़ी व दलित जातियाँ सभी प्रकार के मानवीय अधिकारों से वंचित थीं। तमिलनाडु के क्षत्रियों की संख्या कुछ राजघरानों तथा वैश्यों की संख्या कुछ व्यापारिक परिवारों तक सीमित थीं। दक्षिण भारत में अस्पृश्यता अपने बीभत्स रूप में प्रचलित थी। इन सामाजिक परिस्थितियों में पेरियार के विचार और उनके आन्दोलन को व्यापक समर्थन मिलना स्वाभाविक था।

फिलहाल, पेरियार के चिन्तन और उनके कार्यों ने देश में सदियों से व्याप्त सामाजिक विषमता  को मिटाने में बड़ी भूमिका निभाई है। अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद वे आधुनिक भारत के स्वप्न द्रष्टा हैं। वैल्लोर के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम साँस ली थी।

डॉ. अमरनाथ

(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।)

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