ईएमएस नंबूदिरीपाद : दुनिया की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार के मुख्यमंत्री

ई० एम० एस० नंबूदिरीपाद

भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के सर्वश्रेष्ठ नेताओं में से एक, देश के प्रमुख मार्क्सवादी चिंतक और आधुनिक केरल के निर्माता, भारत की पहली लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई मार्क्सवादी सरकार के मुख्यमंत्री, दर्शन, सौंदर्यशास्त्र, भाषाशास्त्र, इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनीति जैसे विविध अनुशासनों में नब्बे से ज़्यादा उल्लेखनीय पुस्तकों के लेखक एलमकुलम मनक्कल शंकरन नंबूदिरीपाद (13.6.1909-19.3.1998) ने आधी सदी तक कम्युनिस्ट पार्टी की दिशा तय करने में केन्द्रीय भूमिका निभायी। उन्होंने मार्क्सवादी विचारों को भारत में पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से जमीन पर उतारने का महान काम किया। उन्हें संक्षेप में ईएमएस नंबूदिरीपाद या सिर्फ ईएमएस भी कहा जाता है।

ईएमएस के संघर्षों का ही फल है कि उनके ‘ऐक्य केरलम’ योजना के फलस्वरूप केरल राज्य का गठन हुआ और वह भारत का पहला पूर्ण साक्षर राज्य बना। आज भी केरल में शिशु मृत्युदर सबसे कम है। स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार और सम्मान प्राप्त है। इसी का परिणाम है कि केरल में स्त्रियों की संख्या, पुरुषों से अधिक है। वहाँ अन्य राज्यों की तुलना में आबादी की वृद्धिदर भी सबसे कम है क्योंकि यहाँ के लोगों में नागरिकताबोध है। केरल में पूर्ण साम्प्रदायिक सौहार्द है। 2018 में आई भयंकर बाढ़ का मुकाबला केरल ने पूरे धैर्य के साथ किया और नागरिकों को सुविधा देने और उन्हें बचाने की दिशा में वहाँ के नागरिकों ने सरकार का भरपूर साथ दिया और आदर्श नागरिक का दायित्व निभाया। इसी तरह 2020 में आने वाले कोरोना संकट के दौरान भी देखा गया कि आरंभ में जहाँ केरल कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित था वहाँ उसने सूक्ष- बूझ का परिचय दिया और अपनी सटीक और सुनियोजित योजना का सफलतापूर्वक संचालन करते हुए दूसरे राज्यों की तुलना में शीघ्र उसपर काबू पा लिया।

केरल के वर्तमान स्वरूप को निर्मित करने में ईएमएस नंबूदरीपाद की मुख्य भूमिका है। ईएमएस का जन्म केरल के पेरिंथलामन्ना तालुक के एलमकुलम गाँव में एक उच्च जाति के नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता परमेश्वरन एक बड़े जमींदार थे। ईएमएस नंबूदिरीपाद अपने पिता की चौथी संतान थे। बचपन में ही पिता का निधन हो गया और पालन-पोषण इनकी माँ ने किया। माँ इन्हें संस्कृत की शिक्षा दिलाना चाहती थीं और ऋग्वेद पढ़ाना चाहती थीं। कई वर्ष तक नंबूदरीपाद संस्कृत का अध्ययन करते रहे किन्तु संस्कृत पढ़ने में उनका मन नही लगता था। वे कहा करते थे कि वेदों का मतलब समझे बगैर रटने से क्या फायदा ? इनकी प्रारंभिक शिक्षा पलघाट और त्रिचूर में हुई। इनका विवाह आर्या अंतरजनम से हुआ।

ईएमएस बचपन में ही नंबूदरी समुदाय में व्याप्त जातिभेद और रूढि़वाद के खिलाफ लड़ने वाले वी.टी. भट्टाथिरिपाद तथा एम. आर. भट्टाथिरपाद जैसे साथियों के संपर्क में आ गए। इस तरह उच्च कोटि के ब्राह्मण समुदाय में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत जाति-प्रथा के खिलाफ आंदोलन से की। उन्होंने अपने दोनो साथियों के साथ मिलकर ‘उन्नीनंबूथिरी’ नाम से एक पत्रिका निकाली जिसमें वे अपने विचार लिखते थे। नंबूदिरी समाज में किसी विधवा की दोबारा शादी करने की कोशिश 1931 में नंबूदिरीपाद ने ही की थी। तब उनकी उम्र महज़ 16 साल थी। इसके लिए वे अपने समाज से बहिष्कृत कर दिए गए थे। ईएमएस युवकों के एक संगठन ‘वाल्लुवानाडु योगक्षेम सभा’ से भी जुड़ गए जिसका उद्देश्य नंबूदिरी समुदाय के भीतर की रूढ़ियों का विरोध करना था। इस तरह एक कट्टर ब्राह्मण परिवार से आने के बावजूद नंबूदिरीपाद ने अपने जीवन की शुरुआत ही जाति-पाँति, कर्मकांड, मिथ्याचार, छुआछूत आदि के खिलाफ लड़ने से की।

 जिस समय नंबूदरीपाद बी. ए. में पढ़ रहे थे उसी समय वे भारत में चल रहे स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय रूप से जुड़ गए। 1932 में वे गाँधी जी के ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ में शामिल हुए। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी पढ़ाई छूट गई। उन्हें इस अपराध में तीन वर्ष की सजा सुनाई गई, किंतु उन्हें 1933 में ही रिहा कर दिया गया। बाद के दिनों में ब्रिटिश सरकार ईएमएस से इतनी तंग आ गई थी कि इनके दो ही ठिकाने थे, जेल या अंडरग्राउंड। जेल में रहते हुए ही वे कांग्रेस के उन नेताओं के करीब आए जिनका झुकाव समाजवाद की तरफ था। 1934 में नंबूदिरीपाद ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ज्वाइन कर ली। कम्युनिस्ट आन्दोलन में नंबूदरीपाद का पदार्पण कांग्रेस-समाजवादी आन्दोलन के रास्ते से ही हुआ था। केरल में कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी की नींव रखने के बाद 1934 में वे उसके अखिल भारतीय संयुक्त सचिव बने। 1936 में उन्होंने अपने चार साथियों के साथ मिल कर केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की।

       1936 में ही बने अखिल भारतीय किसान सभा के वे संस्थापक सदस्यों में से थे। आज़ादी के बाद भारत में वामपंथी दलों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। नंबूदिरीपाद दोबारा तीन साल तक भूमिगत हो गए। तब उनके सिर पर 1000 रुपए का ईनाम रख दिया गया था। उल्लेखनीय है कि उन दिनों यह रकम आज के लाखों रुपए के बराबर थी।

 भूमिगत रहते हुए भी ईएमएस एक दिन भी शान्त नहीं रहे। केरल में कम्युनिस्ट आंदोलन खड़ा करने में उन्होंने अपना सबकुछ दाँव पर लगा दिया। वे बड़े ही समृद्ध जमींदार परिवार के थे। उन्होंने अपनी संपूर्ण जायदाद बेंच दी और इससे जो पैसा आया उसे उन्होंने केरल की कम्युनिस्ट पार्टी को दान कर दिया ताकि वहाँ पार्टी खड़ी की जा सके। इसी धन से पार्टी के अखबार ‘देशाभिमानी’ को भी दोबारा शुरू किया गया, जिसपर 1942 में अंग्रेज़ों ने प्रतिबंध लगा दिया था।

1957 में हुए केरल विधान सभा के लिए पहले आम चुनाव में नंबूदिरीपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने ज़बरदस्त जीत हासिल की। उस समय उनकी सरकार पूरी दुनिया में पहली चुनी हुई वामपंथी सरकार थी। पूरे देश में कांग्रेस की सरकार और सिर्फ एक प्रान्त केरल में वामदल की। नेहरू सरकार इसे एक चुनौती की तरह देखती थी।

 देश के पहले ग़ैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री की हैसियत से उन्होंने अनेक ऐतिहासिक काम किए। प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को उन्होंने बदल डाला। उनके नेतृत्व में भूमि सुधार हुए, जन-स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार हुआ, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का पुनर्गठन हुआ, न्यूनतम वेतन का निर्धारण हुआ जिसमें शारीरिक श्रम करने वालों को भी सम्मानजनक अवसर दिया गया और सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ किया गया। इन सारी योजनाओं ने केरल समाज की तस्वीर बदलने की शुरुआत कर दी। अभी उनके सुधार के कार्यक्रम चल ही रहे थे कि 1959 में केंद्र की नेहरू सरकार ने केरल के तब के राज्यपाल वी.वी. गिरि के ज़रिए नंबूदिरीपाद की सरकार गिरा दी। इसके लिए केंद्र सरकार ने संविधान के आर्टिकल 356 का सहारा लिया। भारत में किसी चुनी हुई सरकार के इस तरह गिराए जाने का यह पहला मामला था। नेहरू के इस कदम की खूब आलोचना हुई थी। यहाँ तक कि खुद उनके दामाद फिरोज़ गांधी ने भी उनके इस कदम का विरोध किया था।

ईएमएस भी हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने अपना सारा ध्यान पार्टी को मजबूत करने में लगाया। 1967 में सात पार्टियों के गठजोड़ के नेता के तौर पर ईएमएस दोबारा सत्तारूढ़ हुए और तब उन्होंने अपने सभी पुराने अधूरे कार्यक्रम लागू किए। उसमें भूमि सुधार जैसे ऐतिहासिक कार्यक्रम भी थे। इसी के बाद केरल की राजनीति, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चलने वाली दो गठजोड़ों की प्रतियोगिता बनती चली गयी। सत्ता में न रहने पर नंबूदिरीपाद ने विधान सभा में विपक्ष के नेता के रूप में गठजोड़ की राजनीति की भी शानदार पारी खेली। भारतीय संसदीय राजनीति तथा कम्युनिस्ट आंदोलन में भी संयुक्त मोर्चे की रणनीति विकसित करने में उनका ऐतिहासिक योगदान सदा याद रखा जाएगा। विचारधारा के स्तर पर नास्तिक होते हुए भी नंबूदिरीपाद ने केरल के मुसलमान और ईसाई समुदायों के साथ जीवंत संवाद बनाये रखने की परम्परा डाली। उनके गठजोड़ में मुस्लिम लीग की मौजूदगी इसकी व्यावहारिक परिणति थी। केरल के प्रमुख लिबरेशन थियोलोजिस्ट और सीरियन चर्च के बिशप के साथ उनकी दोस्ती जगजाहिर है।

आम कम्युनिस्ट सिद्धान्तकारों से अलग समाज के यथार्थ को देखते हुए ईएमएस ने केरल के समाज के विश्लेषण की एक सर्वथा नई अवधारणा पेश की। उन्होंने केरल की सामाजिक संरचना का विश्लेषण ‘जाति-जनमी-नेदुवाझी मेधावितम’ के रूप में किया। अपनी पहली उल्लेखनीय रचना ‘केरला : मलयालीकालुडे मातृभूमि’ में उन्होंने दिखाया कि सामाजिक संबंधों पर ऊँची जातियाँ प्रभावी हैं, उत्पादन संबंध जनमा यानी जन्म से ऊंची मानी जाने वाली जाति के ज़मींदारों के हाथों में हैं और प्रशासन की बागडोर नेदुवाझियों यानी स्थानीय प्रभुओं के कब्ज़े में है। उन्होंने बताया कि केरल की अधिकांश जनता की गरीबी और पिछड़ेपन का कारण यही सामाजिक ताना-बाना है।

ईएमएस ने जोर दे कर कहा था कि जातिगत शोषण ने केरल की नंबूदिरी जैसी शीर्ष ब्राह्मण जाति तक का अमानवीयकरण कर दिया है। उन्होंने ‘नंबूदिरी को इंसान बनाओ’ का नारा देते हुए ब्राह्मण समुदाय के लोकतंत्रीकरण की मुहिम चलाई। यह तथ्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वे खुद इसी जाति से आते थे। अपने इसी विश्लेषण के आधार पर ईएमएस ने केरल में ‘जाति-जनमी-नेदुवाझी मेधावितम’ का गठजोड़ तोड़ने के लिए वामपंथ का एजेंडा तैयार किया, जिसके केंद्र में समाज सुधार और जाति-विरोधी आंदोलन था।

 इस तरह ईएमएस के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने एक तरफ़ तो जाति-सुधार आंदोलनों और सवर्ण विरोधी आंदोलन को समर्थन दिया और दूसरी तरफ़ जातिगत दायरे से परे जाते हुए वर्गीय जन-संगठन खड़े किये। इस तरह केरल में सामंतवाद विरोधी लोकतांत्रिक जनसंघर्षों की ज़मीन तैयार हुई। ईएमएस ने दक्षिण केरल की ट्रावणकोर और कोचीन रियासतों में सामंतवाद विरोधी संघर्ष और ब्रिटिश शासित इलाकों में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का सम्मिलित मोर्चा तैयार किया। बाद में उन्होंने जनांदोलनों और जाति-आंदोलनों को अलग-अलग करके देखना शुरू किया। पचास के दशक में उन्होंने पिछड़ी जातियों की जनता और पिछड़े समुदायों से निकले पूँजीपति वर्ग के बीच फ़र्क करके ज़बरदस्त बहस छेड़ दी थी।

भूमि सुधार के क्षेत्र में नंबूदिरीपाद की पुस्तक ‘ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ द पीज़ेंट मूवमेंट इन केरल’ की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनका कृषि सुधार कार्यक्रम 1957 से 1971 तक चला। कृषि सुधार के कार्यक्रम द्वारा उन्होंने केरल से पारम्परिक जनमी प्रणाली (ज़मींदारी) का सदा के लिए ख़ात्मा कर दिया।

केरल का जो नक्शा आज हम देखते हैं, उसे बनाने में भी ईएमएस का ही हाथ था। आज़ादी मिलने से ठीक पहले 1945 में नंबूदिरीपाद ने ‘ए करोड़ ऐंड क्वार्टर मलयाली’ शीर्षक से एक पुस्तिका लिखी थी। उस समय तक केरल की जनता कोचीन, त्रावणकोर और मालाबार इलाकों में बँटी हुई थी। यह पुस्तिका ‘एक्य केरलम’ का आधार बनी। 1952 में ‘द नेशनल क्वेश्चन इन केरला’ लिख कर नंबूदिरीपाद ने सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। इस रचना के ज़रिये उन्होंने केरल में जाति आधारित संबंधों की विवेचना तो की ही, साथ ही उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दौर में पनपी मलयाली अस्मिता की लोकतांत्रिक दावेदारी भी पेश की। उन्होंने भाषा के आधार पर एकीकृत केरल राज्य की माँग पर जोर दिया। नंबूदिरीपाद ने भाषा को राष्ट्रीय एकता के लिए महत्वपूर्ण माना। उन्होंने ‘ऐक्य केरलम’ की मुहिम चलाई। उनका मानना था कि देश में राज्यों का पुनर्गठन सिर्फ भाषा के आधार पर होना चाहिए। इसलिए इनकी माँग थी कि त्रावणकोर, कोचिन और ब्रिटिश मालाबार के इलाके एक राज्य में रहें।  बाद में भारत में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की जो माँग हुई, उसमें नंबूदरीपाद के विचारों की अहम भूमिका थी। उन्होंने केरल में शक्ति के विकेन्द्रीकरण की दिशा में भी बड़ा काम किया था।

नंबूदिरीपाद 1941 में कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय कमेटी के सदस्य चुने गये और 1950 में वे पोलित ब्यूरो में शामिल हुए। पार्टी के भीतर होने वाली बहसों में भाग लेते हुए उन्होंने भारतीय समाज और राज्य के प्रति पार्टी के रवैये का सूत्रीकरण किया। 1962 में उन्हें पार्टी का महासचिव चुना गया। 1964 में पार्टी का विभाजन होने पर वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी) के साथ चले गये और सातवीं कांग्रेस में नये दल की केंद्रीय कमेटी तथा पोलित ब्यूरो के सदस्य बने। 1977 में वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी) के महासचिव बने और 1992 की चौदहवीं कांग्रेस में ख़राब स्वास्थ्य के कारण पद छोड़ने से पहले तक लगातार इस पद पर काम करते रहे।

नंबूदिरीपाद न सिर्फ राजनीतिक आंदोलनों से जुड़े थे बल्कि साहित्य और कला के आंदोलन से भी लगातार जुड़े हुए थे। राजनीति और कला उनके लिए अलग-अलग विषय नहीं थे। केरल में प्रगतिशील साहित्यिक-साँस्कृतिक आंदोलन की शुरुआत करने और उसके विकास में भी ईएमएस की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने केसरी बालाकृष्ण पिल्लै, जोसेफ मुण्डस्सेरी, एम.पी.पाल तथा के.दामोदरन के साथ मिलकर मलयालम में ‘जीवत साहित्य प्रस्थानम’ ( कला और साहित्य का प्रगतिशील संगठन ) का निर्माण किया। बाद में विचारधारा के स्तर पर संगठन में विवाद भी हुआ जिसके कारण केसरी बालाकृष्ण पिल्लै को नंबूदिरीपाद ने सार्वजनिक रूप से ‘पैट्टी बुर्जुआ’ तक कहा। यह विवाद मलयालम साहित्य में ‘रूप भद्रता विवादम’ के नाम से बहुत मशहूर है।

 ईएमएस बहुत मुखर और निर्भीक नेता थे। मुस्लिम समाज के विरोध की परवाह किए बगैर वे कहा करते थे कि शरिया कानून में सुधार की ज़रूरत है। उन्होंने महात्मा गाँधी तक को भी ‘फंडामेंटलिस्ट’ कहा है। उनके प्रयासों से मलयाली समाज में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया विकसित हुई।   

ईएमएस अपने आखिरी दिन तक काम करते रहे। अपनी मौत के कुछ घंटे पहले उन्होंने अपने असिस्टेंट को दो लेख डिक्टेट किए थे। उनका देहांत 19 मार्च 1998 को तिरुवनंतपुरम में निमोनिया से हो गया। उस समय उनकी उम्र 88 वर्ष की थी।

नंबूदिरीपाद ने लगभग नब्बे पुस्तकों की रचना की है।1968 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा आधुनिक मलयालम की एक बेहतरीन गद्यकृति मानी जाती है। उनकी कुछ पुस्तकें मलयालम और ज्यादातर अंग्रेजी में हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं, ‘केरला : मलयालीकालुडे मातृभूमि’ (1948),’द नेशनल क्वेश्चन इन केरला ‘(1952),  ‘द महात्मा एंड द इज्म’ (1958), ‘इकॉनॉमिक ऐंड पॉलिटिक्स ऑफ़ इण्डियाज़ सोशलिस्टिक पैटर्न'(1966), ‘इण्डिया अंडर कांग्रेस रूल'(1967), ‘केरला : एस्टरडे, टुडे एंड टुमारो’(1967), ‘कान्फ्लिक्ट्स ऐंड क्राइसिस’ (1974), ‘इण्डियन प्लानिंग इन क्राइसिस’ (1974),  ‘केरला सोसाइटी ऐंड पॉलिटिक्स : ए हिस्टोरिकल सर्वे’ (1984), ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ इण्डियन फ़्रीडम स्ट्रगल’ (1986), ‘नेहरू : आइडियॉलॅजी ऐंड प्रेक्टिस’ (1988) आदि।

 इसके अलावा अस्सी के दशक में चार खण्डों में प्रकाशित ‘कम्युनिस्ट पार्टी केरालिथल’ (केरल में कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास) खास तौर पर उल्लेखनीय है। 1998 में देहांत के ठीक पहले वे ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया फ़्रॉम 1920 टू 1998’ पूरी करने में व्यस्त थे। बाद में यह रचना पार्टी के पत्र ‘देशाभिमानी में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुई। एक पत्रकार के रूप में भी उनकी अच्छी ख्याति थी।

ईएमएस नंबूदिरीपाद की संपूर्ण रचनाएँ मलयालम में चिन्ता पब्लिशर्स, तिरुवनंतपुरम् द्वारा 30 खंडों में प्रकाशित हैं। इनका संपादन गोविन्द पिल्लै ने किया हैं।

( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।)

डॉ. अमरनाथ

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