बंगाल के भीषण अकाल (1943 ई.) में तीस लाख से भी अधिक लोग भूख से मर गए थे। उस समय अमर्त्य सेन (जन्म-3.11.1933) दस साल के बालक थे और ढाका में थे। अपने घर के सामने उन्होंने एक-एक दाने के लिए गिड़गिड़ाते और भूख से दम तोड़ते लोगों को देखा था। हजारों परिवार उजड़ गए थे। मरने वालों में अधिकांश गरीब थे, जबकि उस समय अमीरों के घर धन से भरे हुए थे।
यह सब देखकर अमर्त्य का बाल-मन रो उठा। अमर्त्य जानते थे कि अमीर अगर अपने आस-पास रह रहे गरीबों के प्रति थोड़ी-सी भी सहृदयता दिखाते तो हजारों जानें बचाई जा सकती थीं। इस घटना का अमर्त्य सेन के जीवन पर गहरा असर पड़ा। उनके मन में गरीब लोगों के लिए काम करने की ललक बढ़ी और अंतत: उन्हें लोक कल्याणकारी अर्थशास्त्र की अवधारणा के प्रतिपादन के लिए 1998 का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। उन्होंने लोक कल्याण और विकास के विभिन्न पक्षों पर अनेक पुस्तकें तथा शोध पत्र लिखे। उन्होंने घोषित किया कि, ‘मानव जाति के विकास में निवेश किए बिना किसी भी अर्थतंत्र का उदय संभव नहीं है।’ नोबेल पुरस्कार देने वाली समिति ने उनके बारे में कहा कि-
“प्रोफेसर सेन ने कल्याणकारी अर्थशास्त्र की बुनियादी समस्याओं के शोध में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।”
प्रो. अमर्त्य सेन का जन्म गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की कर्मस्थली शान्ति निकेतन में हुआ था, जहाँ उनके नाना और प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान आचार्य क्षितिमोहन सेन शिक्षक थे। आचार्य क्षितिमोहन सेन का गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से घनिष्ठ संबंध था। उनके पिता आशुतोष सेन ढाका विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र के प्रोफेसर थे और माँ अमिता सेन भी विदुषी महिला थीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही नामकरण संस्कार के दौरान उनका ‘अमर्त्य’ नाम दिया था। अमर्त्य सेन की शिक्षा की शुरुआत 1940 में ढाका के सेंट ग्रेगरी स्कूल से हुई। कुछ वर्ष उन्होंने मांडले (आज के म्यांमार में स्थित ) में भी बिताए। सन् 1945 में अमर्त्य सेन के माता- पिता परिवार के साथ शान्तिनिकेतन आ गए। उनके पिता कुछ वर्ष तक लोक सेवा आयोग, पश्चिम बंगाल के अध्यक्ष थे। बाद में उन्होंने संघ लोक सेवा आयोग में भी अपनी सेवाएं दीं थीं।
ढाका और वर्मा से लौटने के बाद अमर्त्य सेन ने विश्वभारती से आई.एस-सी. परीक्षा पास की और उसमें प्रथम आये। उसके बाद उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया और वहां से अर्थशास्त्र और गणित विषय लेकर बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। बी.ए. करने के बाद 1953 में वे कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में अध्ययन करने के लिए चले गए जहाँ से उन्होंने अर्थशास्त्र में दोबारा बी.ए. किया और अपनी कक्षा में प्रथम रहे। 1959 में उन्हें ट्रिनिटी कॉलेज से डॉक्टोरेट की उपाधि मिली।
भारत लौटने पर डॉ. अमर्त्य सेन यादवपुर विश्वविद्यालय कलकत्ता ( संप्रति कोलकाता) में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए। सन 1960-61 के दौरान वे अमेरिका के मेसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ में विजिटिंग प्रोफेसर रहे। सन 1963 और 1971 के मध्य उन्होंने ‘दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स’ में अध्यापन कार्य किया। इस दौरान वे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, भारतीय सांख्यिकी संस्थान, सेण्टर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, गोखले इंस्टिट्यूट ऑफ़ पॉलिटिक्स एंड इकोनॉमिक्स और सेण्टर फॉर स्टडीज इन सोशल साइंसेज जैसे प्रतिष्ठित भारतीय शैक्षणिक संस्थानों से भी जुड़े रहे। इसी दौरान मनमोहन सिंह, के.एन.राज और जगदीश भगवती जैसे विद्वान भी ‘दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ में पढ़ा रहे थे। सन 1972 में वे ‘लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स’ चले गए और सन 1977 तक वहां रहे। सन 1977-86 के मध्य उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालाय में पढाया। सन 1987 में वे हार्वर्ड चले गए और सन 1998 में उन्हें ट्रिनिटी कॉलेज, कैंब्रिज का मास्टर बना दिया गया।
सन 2007 में उन्हें ‘नालंदा मेंटर ग्रुप’ का अध्यक्ष बनाया गया। इसका उद्देश्य था प्राचीन काल में स्थित इस शिक्षण केंद्र की पुनर्स्थापना। सन 2012 में सेन को इस विश्वविद्यालय का चांसलर मनोनीत किया गया और अगस्त 2014 में विश्वविद्यालय में शैक्षणिक कार्यक्रम का प्रारंभ हुआ, पर फरवरी 2015 में प्रो. अमर्त्य सेन ने दूसरे कार्यकाल के लिए अपना नाम वापस ले लिया।
सन 1960 और 1970 के दशक में प्रो. अमर्त्य सेन ने अपने शोध-पत्रों के माध्यम से ‘सोशल चॉइस’ के सिद्धांत को बढ़ावा दिया। अमेरिकी अर्थशास्त्री केनेथ ऐरो ने इस सिद्धांत को अपने कार्यों के माध्यम से पहचान दिलाया था। सन 1981 में उनकी चर्चित पुस्तक ‘पावर्टी एंड फेमिनेस : ऐन एस्से ऑन एनटाइटेलमेंट एंड डीप्राइवेशन’ प्रकाशित हुई। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने बताया कि अकाल सिर्फ भोजन की कमी से नहीं बल्कि खाद्यान्नों के वितरण में असमानता के कारण भी होता है। उन्होंने यह तर्क दिया कि ‘सन 1943 का बंगाल अकाल’ अप्रत्याशित शहरी विकास (जिसने वस्तुओं की कीमतें बढ़ा दीं) के कारण हुआ। इसके कारण लाखों ग्रामीण मजदूर भूखमरी के शिकार हुए क्योंकि उनकी मजदूरी और वस्तुओं की कीमतों में भीषण असमानता थी।
अकाल के कारणों पर उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों के अलावा ‘डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स’ के क्षेत्र में भी प्रो. अमर्त्य सेन का बड़ा योगदान है। प्रो. सेन के कार्यों से ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ के ‘मानव विकास रिपोर्ट’ के प्रतिपादन पर भी विशेष प्रभाव पड़ा। ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ की ‘मानव विकास रिपोर्ट’ एक वार्षिक रिपोर्ट है, जो विभिन प्रकार के सामाजिक और आर्थिक सूचकों के आधार पर विश्व के देशों को रैंक (स्थान) प्रदान करती है। डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स और सामाजिक सूचकों में प्रो. अमर्त्य सेन का सबसे महत्वपूर्ण और क्रन्तिकारी योगदान है ‘कैपेबिलिटी’ का सिद्धांत, जो उन्होंने अपने लेख ‘इक्वेलिटी ऑफ़ ह्वाट’ में प्रतिपादित किया।
अमर्त्य सेन ने अपने लेखों और शोध के माध्यम से गरीबी मापने के ऐसे तरीके विकसित किए जिससे गरीबों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए उपयोगी जानकारी हासिल हो सकी। असमानता के मुद्दे पर उनके सिद्धांत ने इस बात की व्याख्या की कि भारत और चीन में महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की संख्या ज्यादा क्यों है जबकि पश्चिमी और दूसरे कुछ गरीब देशों में भी महिलाओं की संख्या पुरुषों से कुछ ज्यादा और मृत्यु दर भी कम है। सेन के अनुसार भारत और चीन जैसे देशों में महिलाओं की संख्या इसलिए कम है क्योंकि लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को बेहतर चिकित्सा उपलब्ध करायी जाती है और लिंग के आधार पर भ्रूण हत्या भी होती है।
सेन के अनुसार शिक्षा और जन चिकित्सा सुविधाओं में सुधार के बिना आर्थिक विकास संभव नहीं है। सन 2009 में अमर्त्य सेन की ‘द आईडिया ऑफ़ जस्टिस’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसके द्वारा उन्होंने अपना ‘न्याय का सिद्धांत’ प्रतिपादित किया।
प्रो. अमर्त्य सेन ने स्पष्ट घोषित किया कि अर्थशास्त्र का संबंध समाज के गरीब और उपेक्षित लोगों के सुधार से है। उनके अर्थशास्त्र के नियम आगे चलकर कल्याणकारी अर्थशास्त्र के रूप में विख्यात हुए। उन्हें इसी कल्याणकारी अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
प्रो. अमर्त्य सेन ने अपने अर्थशास्त्रीय विवेचन के दौरान समाज के निम्नतर व्यक्ति की आर्थिक व सामाजिक आवश्यकताओं को समझने व गरीबी के कारणों की समीक्षा करने पर भी पूरा ध्यान दिया। उन्होंने आय और उसके वितरण की स्थिति को दर्शाने के लिए निर्धनता सूचकांक विकसित किए। उन्होंने इसके लिए आय और उसके वितरण, आय में असमानता और विभिन्न आय-वितरणों में समाज की क्रय क्षमता के संबंधों की सूक्ष्म व्याख्या की और निर्धनता सूचकांक एवं अन्य कल्याण संकेतकों को परिभाषित किया। इससे निर्धनता के लक्षणों को समझना एवं उनका निराकरण आसान हो गया।
अमर्त्य सेन के अनुसार कल्याणकारी राज्य का कोई भी नागरिक स्वयं को उपेक्षित महसूस नहीं करता है। अकाल संबंधी अपने अध्ययन के दौरान वे इस चौंकाने वाले परिणाम पर पहुँचे कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में अकाल जैसी स्थितियों से निपटने की क्षमता अधिक होती है, क्योंकि जनता के प्रति जवाबदेही के कारण सरकारों के लिए जन- समस्याओं की अनदेखी कर पाना संभव नहीं होता।
भारत का उदाहरण देते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि यहाँ आजादी के बाद कई अवसर आए जब खाद्यान्न उत्पादन आवश्यकता से कम रहा। कई स्थानों पर बाढ़ एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण फसलों को काफी नुकसान हुआ, किन्तु सरकार ने वितरण- व्यवस्थाओं को चुस्त बनाकर अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न नहीं होने दी।
उन्होंने अकाट्य तर्कों द्वारा यह सिद्ध किया कि वर्ष 1943 का बंगाल का अकाल प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानव निर्मित था। तत्कालीन सरकार ने जन-आवश्यकताओं की उपेक्षा करके समस्त संसाधनों को विश्वयुद्ध में झोंक दिया था। इधर लोग दम तोड़ रहे थे, उधर सरकार युद्ध में मित्र सेनाओं की विजय की कामना करने में लगी थी।
प्रो. अमर्त्य सेन ने अर्थशास्त्र को कोरी बौद्धिकता के दायरे से हटाकर उसे मानवीय संवेदनाओं से जोड़ने का प्रयास किया है। उन्होंने अर्थशास्त्र को गणित से अधिक दर्शनशास्त्र के नजरिये से देखा है। वे आर्थिक भूमंडलीकरण के सिद्धांत की उपयोगिता को तो स्वीकार करते हैं किन्तु उनका मानना है कि मानव संसाधनों के विकास के बिना भूमंडलीकरण के लक्ष्यों को प्राप्त करना संभव नहीं है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक समानता के अभाव में भूमंडलीकरण अनेक परेशानियों का जनक भी बन सकता है। प्रो. अमर्त्य सेन ने शिक्षा, समानता, पोषण और कल्याण कार्यक्रमों में दुर्बल वर्ग की हिस्सेदारी की महत्ता दर्शाते हुए निर्धनता सूचकांकों को युक्तिसंगत बनाने की कोशिश की थी, जिसे आगे चलकर व्यापक स्वीकृति मिली। इन्हीं निर्धनता सूचकांक का उपयोग आजकल मानव विकास के अध्ययन में भी किया जाता है।
प्रो. दीपक नायर के अनुसार, “निर्धनता की रेखा की चर्चा अर्थशास्त्री अरसे से करते चले आ रहे हैं। हर कोई जानता है कि निर्धनता की रेखा भी कुछ होती है, किन्तु कोई व्यक्ति इस रेखा से कितना नीचे है, इसे मापने की विधि सेन ने ही बतलाई। इस तरह अमर्त्य सेन द्वारा की गई स्थापनाएं गरीबी की वास्तविक पड़ताल करने के साथ- साथ उन स्थितियों की ओर भी स्पष्ट संकेत करती हैं, जो गरीबी को बनाये रखने में सहायक सिद्ध होती है।“
प्रो. अमर्त्य सेन के व्यक्तित्व की एक विशेषता यह है कि वे अपने सिद्धांतों को लेकर कभी समझौता नहीं करते और आवश्यक होने पर सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की भी कटु आलोचना करने में तनिक भी नही हिचकते। इस दृष्टि से उनके सामने हमेशा लोकहित का ही लक्ष्य होता है। केन्द्र की भाजपा सरकार की नीतियों की कटु आलोचना करते हुए वे कहते हैं कि भारत ने सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था होने के बावजूद 2014 से ‘गलत दिशा में लम्बी छलांग’ लगाई है। उन्होंने कहा कि पीछे जाने के कारण देश इस क्षेत्र में दूसरा सबसे खराब देश है और हम तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में पीछे की तरफ जा रहे हैं।
उन्होंने उक्त बातें अपनी पुस्तक ‘भारत और उसके विरोधाभास’ के लोकार्पण के अवसर पर कही। उनकी यह पुस्तक ‘‘एन अनसर्टेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन’’ का हिन्दी संस्करण है। यह पुस्तक उन्होंने अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के साथ मिलकर लिखी है। उन्होंने कहा, ‘‘बीस साल पहले, छह देशों भारत, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका एवं भूटान में से भारत का स्थान श्रीलंका के बाद दूसरे सबसे बेहतर देश के रूप में था। अब यह दूसरा सबसे खराब देश है। पाकिस्तान ने हमें सबसे खराब होने से बचा रखा है। ’’
उन्होंने कहा कि, ‘यदि हम स्वास्थ्य की बात करें तो हम बांग्लादेश की खराब माली हालत के बावजूद उससे पीछे है और यह इसलिए क्योंकि बांग्लादेश की तुलना में भारत में इस क्षेत्र की ओर से ध्यान हट गया है।
इसी तरह अमर्त्य सेन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वे मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर देखना नहीं चाहेंगे। इस पर भाजपा के राज्यसभा सांसद चंदन मित्रा ने उन्हें आड़े हाथों लेते हुए ट्वीट किया था “अमर्त्य सेन को भारत रत्न लौटा देना चाहिए। वे भारत के मतदाता नहीं हैं और उन्हें भारतीय राजनीति के बारे में बोलने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है।” तब अमर्त्य सेन ने कहा था कि अगर अटलबिहारी वाजपेयी उनसे कहें तो वो भारत रत्न लौटा देंगे।
गौरतलब है कि 1999 में एनडीए के शासनकाल में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही उन्हें ‘भारत रत्न’ दिया गया था। विवाद इतना बढ़ गया था कि मोदी के समर्थकों ने अमर्त्य सेन की बेटी और फिल्म अभिनेत्री नंदिता सेन के बारे में सोशल साइट्स पर काफी अश्लील टिप्पणियां की थीं।
इसी तरह पश्चिम बंगाल के भाजपा अध्यक्ष दिलीप मित्र ने प्रो. अमर्त्य सेन को आड़े हाथों लेते हुए 2019 में कहा था, “हमेशा वाम विचारधारा का अनुसरण करने वाले सेन जैसे बुद्धिजीवी वास्तविकता से दूर हो रहे हैं।“ जबकि प्रो. अमर्त्य सेन वैचारिक स्तर पर वामपंथी नहीं हैं। वे केवल एक लोक कल्याणकारी राज्य के समर्थक हैं।
अमर्त्य सेन की तीन शादी हुई है। उनकी पहली पत्नी स्व. नवनीता देव सेन, प्रतिष्ठित लेखिका हैं। 1971 में लंदन जाने के तुरंत बाद उनकी यह शादी टूट गई थी। 1978 में सेन ने इतालवी अर्थशास्त्री ईवा कोलोरी से शादी की और इसके बाद 1991 में उन्होंने एम्मा जॉर्जीना रोथस्चल्ड से शादी की।
प्रो. अमर्त्य सेन को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार और भारत का सबसे बड़ा सम्मान ‘भारत रत्न’ मिल चुका है। इनसे बड़े पुरस्कार दुनिया में नहीं हैं। प्रो. अमर्त्य सेन आज भी सक्रिय और सृजनरत हैं। भारत को उनपर गर्व है।
कल्याणकारी अर्थशास्त्र पर आधारित अमर्त्य सेन के सैकड़ो शोध- पत्र दुनियाभर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने विभिन्न आर्थिक विषयों पर बीस से अधिक पुस्तकें लिखी हैं जिनमें ‘कलेक्टिव च्वायस एंड सोशल वेलफेयर’, ‘पावर्टी एंड फेमिनेस’, ‘ऑन एथिक्स एंड इकोनॉमिक्स’ , ‘कोमोडिटीज़ एंड केपेबिलिटीज़’, ‘हंगर एंड पब्लिक एक्शन’ (विथ ज्यां द्रेज ), ‘इनइक्वालिटी रीएक्जामिंड’ , ‘ऑन इकोनॉमिक इनइक्वालिटी’, ‘डेवलपमेंट एज़ फ़्रीडम’, ‘इंडिया : डेवलपमेंट एंड पार्टीसीपेशन’ (विथ ज्यां द्रेज ), ‘द आर्ग्युमेंटेंटिव इंडियन’, ‘आइडेंटिटी एंड वायलेन्स’, ‘च्वायस ऑफ टेक्निक्स’, ‘वेलफेयर एंड मैनेजमेंट’, ‘इंडिया-इकोनॉमिक डेवलपमेंट एंड सोशल अपॉर्च्युनिटी’, ‘द पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ हंगर’, ‘रिसोर्सेज-वैल्यू एंड डेवलपमेंट’ तथा ‘एंप्लॉयमेंट टेक्नॉलॉजी एंड डेवलपमेंट’ प्रमुख हैं।
उनकी कुछ पुस्तकों के हिन्दी अनुवाद बेहद चर्चित हैं। इनमें ‘गरीबी और अकाल’, ‘न्याय का स्वरूप’, ‘आर्थिक विकास और स्वातंत्र्य’, ‘आर्थिक विषमताएं’, ‘भारत विकास की दिशाएं’, ‘भारतीय अर्थतंत्र : इतिहास और संस्कृति’, ‘भारतीय राज्यों का विकास’, ‘विषमता का पुनर्विवेचन’, ‘हिंसा और अस्मिता का संकट’ आदि प्रमुख हैं।