इस लेख में वर्तमान हरियाणा की उच्च-शिक्षा से सम्बद्ध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और वर्तमान व्यवस्था पर एक नज़र डालते हुए उस की विवेचना का गम्भीर प्रयास किया गया है। राज्य के आधुनिक इतिहास के इस पड़ाव पर यह विवेचना इस लिए भी ज़रूरी है कि केन्द्र सरकार द्वारा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को लागू किए जाने को मंज़ूरी दे दी गई है। हरियाणा में शिक्षा के क्षेत्र में अब तक के अपने अनुभव और कारगुज़ारी के आत्म-विश्लेषण के आधार पर ही राज्य द्वारा भविष्य की सार्थक और ठोस योजना बनाई जा सकती है। किसी भी नीति को प्रभावशाली ढंग से लागू करने के लिए समकालीन व्यवस्था के गुणों एवं दोषों का मूल्यांकन अनिवार्य है ताकि इन्हें ध्यान में रखते हुए ही नयी नीति को लागू किया जाए। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति और उस के विभिन्न पहलुओं पर अलग से चर्चा की दरकार है लकिन इस लेख में हरियाणा में उच्च शिक्षा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और स्थितियों पर ही ध्यान केन्द्रित रहेगा।
हरियाणा में उच्च शिक्षा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
1 नवंबर 1966 को तत्कालीन पंजाब राज्य का विभाजन किए जाने पर वर्तमान हरियाणा राज्य अस्तित्व में आया। हरियाणा के गठन के समय राज्य में केवल एक विश्वविद्यालय था – कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र। इस के अलावा 40 कला और विज्ञान कॉलेज, 5 शिक्षक-प्रशिक्षण कॉलेज, कुरुक्षेत्र में एक क्षेत्रीय एंजिनियरिंग कॉलेज, और हिसार में एक कृषि विश्वविद्यालय थे। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय 1956 में संस्कृत विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित किया गया था और 1961 में इसे एकात्मक, बहु-संकाय आवासीय विश्वविद्यालय (unitary, multi-facility, residential university) के रूप में विकसित किया गया था।
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की शुरुआत काफ़ी अच्छी रही। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त विद्वानों को विभन्न शिक्षण विभागों को स्थापित करने के लिए विशेष रूप से आमंत्रित किया गया। उन्हें प्रोफ़ेसर तथा विभागों के प्रमुखों के रूप में नियुक्त किया गया।विभिन्न स्तरों पर प्राध्यापकों की नियुक्ति में उन की शैक्षणिक योग्यता को ही एकमात्र आधार बनाया गया। उस समय यह दबाव बहुत कम रहता था कि धरती-पुत्रों (sonsof the soil) को ही अध्यापक के रूप में नौकरी पर लगाया जाए। समाज में भी यह आदर्शवाद था कि यदि अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देनी है तो एक योग्य व्यक्ति ही शिक्षक होना चाहिए। बच्चों को शिक्षा देना शुभ और धर्म का काम माना जाता था। किसी क़िस्म की बेइमानी करने को लोग नैतिक़ रूप से बुरा मानते थे। विश्वविद्यालय में नए शैक्षणिक विभागाध्यक्षों को पूर्ण स्वततंत्रता दी गई – इसी के चलते वे युवा प्राध्यापकों को केवल योग्यता के आधार पर नियुक्त कर पाते थे और उन्हें अच्छे अध्यापक एवं शोधकर्ता के रूप में विकसित भी कर पाते थे। राजनैतिक हस्तक्षेप नगण्य था। देहली विश्वविद्यालय की तर्ज़ पर बी.ए./बी.एस.सी. ऑनर्ज़ पाठ्यक्रम शुरू किए गए और योग्य विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए छात्रवृत्ति का प्रबन्ध भी किया गया। विद्यार्थियों का चयन सम्पूर्ण देश से योग्यता के आधार पर किया जाता था। लड़कों और लड़कियों के लिए विशेष छात्रावासों का प्रबन्ध भी था। जल्दी ही, 1960 के दशक का अन्त आते तक, कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय ने देश में उच्च शिक्षा के प्रमुख केन्द्र के रूप में अपनी एक वशिष्ट पहचान बना ली और देश-विदेश के विद्वानों और विद्यार्थियों को आकर्षित करना शुरू कर दिया था।
हरियाणा में उच्च शिक्षा का फैलाव और कुछ उभरते प्रश्नचिह्न
कहा जा सकता है कि हरियाणा में – और विशेषकर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में – उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को पहला झटका तब लगा जब हरियाणा सरकार के आदेश पर, बिना किसी तैयारी के, अप्रैल 1974 में हरियाणा के उच्च शिक्षण संस्थानो (कॉलेजों) का नाता पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से तोड़ कर इन्हें कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कर दिया गया। माना जाता है कि यह फ़ैसला उस समय के मुख्यमंत्री के अहं को लगी चोट का बदला लेने भर से प्रेरित था। उन दिनों यह सुनने में आता था कि मुख्यमंत्री बंसी लाल पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के दीक्षांत समारोह के लिए आमंत्रित थे लेकिन उन्हें मंच की बजाय नीचे बैठाया गया जिस से वे आहत हो गए और इसी का बदला लेने के उद्देश्य से उन्होंने उसी दिन हरियाणा के उच्च शिक्षा संस्थानों की अनुबद्धता पंजाब विश्वविद्यालय से तोड़ कर, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से कर देने का आदेश दे दिया। यह एक राजा द्वारा दिए गए शाही फ़रमान जैसा था। किसी ने प्रश्न नहीं किया कि फ़ौरी रूप से इस का कॉलेज (उच्च) शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पास कॉलजों के लाखों विद्यार्थियों के लिए शिक्षा व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने और परीक्षा की व्यवस्था करने की क्षमता है भी या नहीं? उस समय कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में केवल 3000 विद्यार्थी थे और इतनी बड़ी व्यवस्था को चलाने की क्षमता उस के पास नहीं थी। तब हरियाणा की सम्पूर्ण उच्च शिक्षा की चूलें एक बार तो हिल गई थीं।
स्नातकोत्तर क्षेत्रीय केन्द्र (पोस्ट ग्रैजूएट रीजनल सेन्टर), रोहतक को भी 1974 में पंजाब विश्वविद्यालय से निकाल कर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के साथ सम्बद्ध कर दिया गया और इसी विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम वहाँ लागू कर दिया गया। अभी नयी व्यवस्था पूर्ण रूप से स्थिर भी नहीं हुई थी कि हरियाणा सरकार ने 1976 में इस केन्द्र को विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया और इस का नाम रोहतक विश्वविद्यालय, रोहतक रखा गया, जिसे बाद में महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय (एम.डी.यू.), रोहतक का नाम दिया गया। दो ही साल बाद,1978 में, कई महाविद्यालयों को इस के साथ सम्बद्ध कर दिया गया – उसी तरह जैसे कि कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के साथ पहले कई महाविद्यालयों को सम्बद्ध किया गया था।
रोहतक राजनैतिक दृष्टि से हरियाणा में सब से अधिक संवेदनशील क्षेत्र है। रोहतक स्थित महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय में भी किसी न किसी कारण से अस्थिरता बनी ही रही। समय बीतने के साथ शिक्षकों की नियुक्तियो में धरती-पुत्रों को नौकरी दिए जाने के लिए भी दबाव बने, जिस से नियुक्तियों से सम्बद्ध गुणवत्ता प्रभावित हुई।
हरियाणा में तीसरा विश्वविद्यालय 1995 में गुरु जम्बेश्वर विश्वविद्यालय के नाम से हिसार में स्थापित किया गया।
उदारवादी आर्थिक नीतियों एवं निजीकरण के साए में जारी फैलाव और उस के नकारात्मक प्रभाव
वैश्वीकरण के दबाब में 1991 से देश में उदारवादी एवं निजीकरण से जुड़ी आर्थिक नीतियाँ लागू हुईं। शिक्षा में भी निजीकरण के लिए दरवाज़े खोल दिए गए। 1991 से देश की आर्थिक विकास दर औसतन 3.5% से बढ़ कर 8-9% हो गई। इसी के चलते तकनीकी व्यवसायों में बहुत वृद्धि हुई जिस से एंजिनियरिंग, एम.बी.ए., एम.बी.बी.एस, नर्सिंग, बी.एड/एम.एड जैसे पाठ्यक्रमों की माँग बहुत बढ़ गयी। इन कारणों से देश में शिक्षा के निजीकरण के लिए दबाब बढ़ गया और शिक्षा का व्यावसायीकरण तेज़ी से हुआ। सम्बद्ध व्यावसायिक शिक्षा संस्थानो की माँग बहुत बढ़ गयी और हरियाणा में व्यावसायिक संस्थानो की बाढ़ आ गयी। निजी संस्थानों में शिक्षकों, कक्षा-कक्षों, प्रयोगशालाओं एवं सुविधाओं के अभाव के बावजूद नियमों को नज़रंदाज़ किया गया और राजनैतिक दबाब तथा अन्य भ्रष्टाचार के चलते इन संस्थानो को स्थापित करने की अनुमति प्रदान कर दी गयी। हरियाणा सरकार और राज्य के विश्वविद्यालय सम्बद्ध व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में गुणवत्ता बनाए रखने में बुरी तरह असफल रहे। इतना ही नहीं, 2005 में हरियाणा सरकार ने निजी विश्वविद्यालय स्थापित करने से सम्बद्ध क़ानून बना दिया, जिस से निजी विश्वविद्यालयों की भी बाढ़ आ गयी। 2017-18 तक हरियाणा में 46 विश्वविद्यालय (19 राज्य विश्वविद्यालय, 19 निजी विश्वविद्यालय, 7 डीम्ड विश्वविद्यालय और एक केंद्रीय विश्वविद्यालय) और 953 मान्यता-प्राप्त कॉलेज थे जिन में से 314 कला और विज्ञान कॉलेज, 491 शिक्षक-प्रशिक्षण कॉलेज तथा 148 तकनीकी एवं एंजिनियरिंग कॉलेज थे। 1966 में उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों की कुल संख्या लगभग 30,000 थी, जो 2017-18 तक बढ़ कर लगभग 4,00,000 तक पहुँच गई (हरियाणा का सांख्यिकीय सार, 2018)। ये आंकड़े स्पष्ट रूप से इस तथ्य को उजागर करते हैं कि हरियाणा में उच्च शिक्षा का विस्तार संख्या के आधार पर तो बहुत प्रभावशाली रहा है लेकिन गुणवत्ता बहुत गिर गयी।
अब हम हरियाणा में उच्च शिक्षा से सम्बद्ध, कुछ ढाँचागत चिंताजनक पहलुओं से रूबरू हो लेते हैं।
(क) हरियाणा के विश्वविद्यालयों की संस्थागत संरचना से जुड़े कुछ मसले
नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा संस्थानो में मूल परिवर्तन की परिकल्पना की गयी है। इस सन्दर्भ में हरियाणा की मौजूदा संस्थागत व्यवस्था और पठन-पाठन प्रक्रिया की ताकत और कमज़ोरियों को चिह्नित करते हुए आलोचनात्मक जांच करना शिक्षाप्रद होगा, ताकि उस की रौशनी में नयी शिक्षा नीति को प्रभावशाली ढंग से लागू किया जा सके।
(1) विश्वविद्यालय के मुख्य कार्यकारी के रूप में कुलपति की नियुक्ति:
शायद ही कोई इस बात से असहमत होगा कि विश्वविद्यालय के निर्माण और विकास में कुलपति की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विशेषकर शुरुआती चरणों में यह भूमिका और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि इसी दौरान नयी और स्वच्छ परम्पराओं का निर्माण होता है और उन्हें पोषित भी किया जाना होता है। कुलपति से अपेक्षा की जाती है कि विश्वविद्यालय के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में वह शिक्षकों और विद्यार्थियों को प्रशासनिक तथा शैक्षणिक नेतृत्व प्रदान करेगा। आशा की जाती है कि ऐसा करते हुए वह शिक्षण एवं अनुसंधान से सम्बद्ध विकास को केन्द्र में रखेगा। इसलिए कुलपति को उच्च शैक्षणिक उपलब्धियों से लैस एक अच्छा अकादमिक प्रशासक और सिद्ध क्षमता वाला व्यक्ति होना चाहिए। शिक्षण संस्थानों में स्वस्थ शैक्षणिक परम्पराओं के निर्माण के प्रति उस में उच्च स्तर की सत्यनिष्ठा और प्रतिबद्धता होनी चाहिए।
दुर्भाग्यवश, हरियाणा में आम तौर पर यह देखने में आया है कि कुलपतियों की नियुक्ति शैक्षणिक नेतृत्व के गुणों के आधार पर न हो कर ज़्यादातर ग़ैर-शैक्षणिक मानकों के आधार पर की जाती रही है।‘सर्च कमेटी’ का प्रावधान होने के बावजूद, कुलपति की नियुक्ति में अंतिम अधिकार राजनीतिक नेतृत्व का हो गया है और इस में उसे नौकरशाही की मदद प्राप्त रहती है। कानूनी प्रावधानों को बिना किसी चुनौती के आसानी से दरकिनार कर दिया जाता है। इस के अलावा, विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के कामकाज में भी राजनीतिक और नौकरशाही हस्तक्षेप बहुत अधिक रहता है। कुल मिला कर देखें तो ऐसी स्थिति में कुलपति विश्वविद्यालयों को आवश्यक शैक्षणिक नेतृत्व प्रदान करने में विफल रहते हैं। इसलिए सुधारों के लिए सब से पहला और अहम कदम यह है कि कुलपति एक सक्षम व्यक्ति हो न कि सभी नियमो को ताक पर रख कर सिफ़ारिश के आधार पर नियुक्त हुआ, राजनैतिक आकाओं के स्वार्थ का पोषण करने वाला व्यक्ति।
(2) विश्वविद्यालय प्रशासन की स्थिति
विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के पद स्थायी और वैधानिक पद होते हैं। इन में रजिस्ट्रार, डीन कॉलेज डिवलप्मेंट काउंसिल, परीक्षा नियंत्रक, निदेशक दूरस्थ शिक्षा, वित्त अधिकारी, डीन छात्र कल्याण तथा खेल अधिकारी आदि जैसे उच्च प्रशासनिक पद शामिल हैं। स्थायी और वैधानिक पदों पर होने के साथ-साथ इन अधिकारियों की ज़िम्मेदारियाँ और अधिकार भी बाकायदा परिभाषित हैं। इसी लिए आशा की जाती है कि इन पदों का उत्तरदायित्व निभाने वाले व्यक्ति लम्बे पेशेवर अनुभव से लैस विशेषज्ञता-सम्पन्न व्यक्ति होंगे। लेकिन पिछले अनुभव से ज्ञात यह होता है कि इन में से अधिकतर पद स्थायी आधार पर कभी नहीं भरे जाते। प्रशासन चलाने और दिन-प्रतिदिन के कामकाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुलपति द्वारा इन पदों पर अपने चहेते अनुभवहीन शिक्षकों को अध्यापन के काम के साथ-साथ ‘अतिरिक्त प्रभार‘ देते हुए नियुक्त कर दिया जाता है। इन नवनियुक्त अधिकारियों के पास आम तौर पर इन पदों के लिए आवश्यक योग्यता और अनुभव नहीं होता और चूंकि इन पदों में बहुत सारी शक्तियाँ और सुविधाएँ निहित होती हैं, इस लिए अस्थायी नियुक्तियों में इन पदों पर निजी स्वार्थ विकसित हो जाते हैं।यह कुलपतियों के लिए सुविधाजनक भी होता है क्योंकि वे अपने पसंदीदा लोगों को अपना कृतज्ञ बना सकते हैं – केवल कुलपति के आदेशानुसार काम करने वाले इन व्यक्तियों की नियुक्ति कुलपति के सौहार्द और सद्भावना पर निर्भर करती है और उन्हें कभी भी उस पद से हटाया जा सकता है। जल्द ही, ये अधिकारी खुशामदी बन जाते हैं और कुलपति दूरगामी तथा परिपक्व सलाह के लाभ से वंचित रह जाते हैं। इस प्रकार, निर्णय लेने की प्रक्रिया में बहुत अधिक तदर्थवाद है – फ़ैसले नियमित और नियोजित न हो कर ज़रूरत के हिसाब से, आरिज़ी तौर पर लिए जाते हैं। नतीजा यह कि कुलपति जब तीन साल का अपना कार्यकाल पूरा होने पर पद छोड़ता है तो पूरा प्रशासनिक ढांचा चरमरा जाता है। नया कुलपति नए सिरे से अपने चहेतों को पदों पर नियुक्त करता है, प्रशासन में कभी स्थिरता नहीं आ पाती और तदर्थवाद पोषित होता रहता है। राज्य सरकार को भी इस तदर्थ व्यवस्था पर आपत्ति नहीं होती क्योंकि इस से उस की वित्तीय देनदारी कम रहती है। काम चलता तो रहता है लेकिन काम की गुणवत्ता घट जाती है। शायद विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं होती।
(3) राज्य विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता
यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि विश्वविद्यालय अपनी शिक्षण प्रकिया में और प्रशासन सम्बन्धी सभी निर्णय लेने में पूर्ण रूप से स्वायत्त होने चाहिएँ। सरकार की इस में दख़लंदाज़ी नहीं होनी चाहिए। इसी वातावरण में नए ज्ञान का प्रसार और सृजन प्रभावशाली ढंग से हो सकता है। दुर्भाग्यवश, हरियाणा में विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता समय के साथ क्षीण होती चली गयी है। सभी अहम फ़ैसले लेने की शक्तियाँ विश्वविद्यालयों के पास होनी चाहिएँ लेकिन हरियाणा की सरकार और नौकरशाही ने इन शक्तियों को किसी न किसी बहाने अपने अधिकार-क्षेत्र में ले लिया है। विभिन्न विश्वविद्यालयों के क़ानूनों एवं अधिनियमों (Statutes, Ordinances and Regulations) में धीरे-धीरे सिलसिलेवार संशोधनों के माध्यम से इन शक्तियों को कुछ इस तरह से समाप्त कर दिया गया है कि अन्य हितधारकों में कोई प्रतिक्रिया भी न हो और क़ानून बदला भी जाए। कहने को तो विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद (EC) तथा अकादमिक परिषद (AC) सभी निर्णय लेने में सर्वोच्च संस्थाएँ हैं परन्तु वास्तविकता में ये केवल चर्चा के क्लब बन कर ही रह गए हैं। अब राज्य सरकार को किसी न किसी बहाने विश्वविद्यालय के हर मामले पर वीटो का अधिकार है। विश्वविद्यालय के अधिनियम और विधियों में बार-बार संशोधन के साथ ही विश्वविद्यालय की स्वायत्तता वास्तव में पूरी तरह से समाप्त हो गयी है। इसे पुनर्जीवित करने के लिए एक बड़े प्रयास की आवश्यकता होगी। किसी नए संस्थान में एक नयी एवं स्वच्छ कार्य-संस्कृति निर्मित करना तो शायद आसान होता है लेकिन बिगड़ी हुई व्यवस्था को सुधारना बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि समय के साथ कुछ लोगों का अपना स्वार्थ इस में निहित हो जाता है। नई शिक्षा नीति-2020 ने संकायों और विश्वविद्यालय संस्थानों की स्वायत्तता को बहाल करने के लिए इन संस्थानो के व्यापक पुनर्गठन का प्रस्ताव दिया तो है लेकिन इसे प्रभावशाली ढंग से लागू कर पाना बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य होगा।
(4) विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षकों की नियुक्तियाँ
देश के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए वैधानिक न्यूनतम योग्यता विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) द्वारा निर्धारित की जाती है। शिक्षकों की नियुक्ति भी यू.जी.सी. के दिशा-निर्देशों के अनुसार एक वैधानिक चयन समिति के माध्यम से की जाती है। शिक्षकों की नियुक्ति से सम्बद्ध योग्यता और चयन-प्रक्रिया के मापदण्ड यू.जी.सी. द्वारा अच्छे से परिभाषित एवं निर्धारित किए गए हैं। लेकिन इस के बावजूद, शिक्षकों की नियुक्तियों से सम्बद्ध गुणवत्ता में कमी आई है और नियुक्तियाँ ग़ैर-शैक्षणिक कारणों से भी होती हैं। जब कुलपतियों तक की नियुक्ति योग्यता के आधार पर नहीं होती और राजनैतिक दख़लंदाज़ी पर रोक नहीं लगती तो यह आशा कैसे की जा सकती है कि केवल नियम बनाने या बदलने से समस्या का समाधान हो जाएगा? शिक्षकों की नियुक्ति से सम्बद्ध प्रणाली की व्यापक समीक्षा की ज़रूरत है।
(5) विश्वविद्यालयों के साथ कॉलेजों की सम्बद्धता और इसके प्रभाव
इस मुद्दे पर लेख में पहले भी कुछ बात रखी गई है। लेकिन क्योंकि इस का शिक्षा की गुणवत्ता से महत्वपूर्ण सम्बन्ध है, इस लिए इस पर विस्तृत चर्चा की ज़रूरत है।
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र जब तक एक आवासीय विश्वविद्यालय रहा, शिक्षण और अनुसंधान की गुणवत्ता के मामले में इस की गिनती देश के कुछ बेहतरीन विश्वविद्यालयों में होती थी। लेकिन 1974 में विश्वविद्यालय के स्वरूप और प्रकृति में बदलाव किए गए। अब यह केवल आवासीय विश्वविद्यालय न रह कर एक ऐसा विश्वविद्यालय हो गया जिस के साथ कॉलेजों को सम्बद्ध कर दिया गया। इस के बाद सेकुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शिक्षा एवं अनुसंधान की गुणवत्ता का स्तर गिरना शुरू हो गया। महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक और गुरु जंबेशवर विश्वविद्यालय, हिसार को भी उन की स्थापना के कुछ ही समय बाद जल्दी में यही रूप दे दिया गया, यानी कॉलेजों को इन के साथ भी सम्बद्ध कर दिया गया। विश्वविद्यालयों पर सम्बद्ध कॉलेजों के शैक्षणिक प्रशासन, परीक्षा आयोजित करने तथा डिग्रियाँ प्रदान करने का बोझ आन पड़ा। ऐसा केवल उन्हें ‘वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर’ बनाने के लिए किया गया था। नतीजा यह, कि वे उच्च शिक्षा संस्थानो के रूप में विकसित नहीं हो पाए।
विश्वविद्यालयों की प्रकृति में इस तरह का बदलाव एक नीतिगत बदलाव था लेकिन यह क़दम उठाए जाने के सम्भावित प्रभावों के बारे में शायद गहराई से नहीं सोचा गया। जब यह क़दम उठाया गया, तब विश्वविद्यालयों के शिक्षण-विभागों के शिक्षण एवं अनुसंधान कार्यक्रमों को समेकित करना अभी बाकी था, संकाय भी अपेक्षाकृत नए थे तथा अधिकांश समय तक प्राध्यापकों की संख्या भी अपर्याप्त रही थी।इन सब कमज़ोरियों के बीच विश्वविद्यालय अपने सम्बद्ध कॉलेजों के अकादमिक प्रशासन की जिम्मेदारियों के बोझ तले दब गए,जिस से शिक्षण और अनुसंधान की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। प्रारम्भिक चरण में वरिष्ठ संकाय-पदों पर पदोन्नत होने वाले कुछ युवा शिक्षकों को अपने शैक्षणिक कार्यों में परिपक्व होने और अनुसंधान के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला क्योंकि उन पर प्रशासनिक कार्यों का बोझ आ गया। इस प्रक्रिया में सम्बद्ध कॉलेजों और संस्थानों को शैक्षणिक नेतृत्व प्रदान करने में विश्वविद्यालय लगभग विफल रहे।
सम्बद्धता की इस प्रणाली के दुष्परिणामों को स्वीकार करते हुए अबराष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने सम्बद्ध महाविद्यालयों की प्रणाली को समाप्त करने का प्रस्ताव रखा है और सभी महाविद्यालयों को विश्वविद्यालयों के संघटक महाविद्यालय या डिग्री प्रदान करने वाले स्वायत्त महाविद्यालयों के रूप में बदलने और विकसित करने की सिफ़ारिश की है। उम्मीद यह है कि इस से सम्बद्धता की प्रणाली के दुष्परिणामों से छुटकारा पाने में मदद मिलेगी तथा संस्थानों को और अधिक ज़िम्मेदार बनाया जा सकेगा। आशा यह भी है कि इस से इन उच्च शिक्षा संस्थानो में गुणवत्ता बढ़ाने की परस्पर प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और शिक्षा की गुणवत्ता में भी सुधार होगा। परन्तु यह भी तय है कि इन्हें आत्मनिर्भर, स्वायत्तता-सम्पन्न महाविद्यालयों के रूप में विकसित करने के लिए कई प्रभावशाली कदम उठाने होंगे।
(ख) शिक्षण संस्थानो में पठन-पाठन प्रक्रिया सम्बन्धी कुछ अकादमिक मुद्दे और कमज़ोरियाँ
(1) पढ़ने-पढ़ाने का माध्यम और भाषा की चुनौतियाँ:
आदर्श रूप से, शिक्षा के सभी स्तरों पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए। भले ही आप के पास एक बहुत रचनात्मक और उपजाऊ दिमाग़ हो लेकिन विचारों का वाहक (भाषा) कमज़ोर होने पर दिमाग़ में उपजे मूल विचार भी शुरुआत में ही मर जाएँगे। विचार के लिए भाषा एक जीवनवर्धक तत्व का काम करती है और उसे पूर्ण रूप से विकसित होने का अवसर देती है। हरियाणा में अधिकांश विद्यार्थी भाषा-कौशल के मामले में अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिन्दी में भी कमज़ोर हैं। प्रदेश में अपनाई गई त्रिभाषा नीति तो बिल्कुल सही है लेकिन यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सभी विद्यार्थी इन दो-तीन भाषाओं में पर्याप्त रूप से कुशल हों। अंग्रेज़ी भाषा कम से कम सात या आठ साल सभी विद्यार्थियों को पढ़ाई जाती है लेकिन फिर भी हरियाणा के विद्यार्थियों का अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान काफ़ी कमजोर रहता है। दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और ब्रिटिश काउंसिल आदि में विदेशी भाषाओं के शिक्षण ने स्पष्ट रूप से स्थापित किया है कि यदि किसी भाषा को वैज्ञानिक तरीके से पढ़ाया जाता है, तो एक छात्र तीन साल में पढ़ने, लिखने, बोलने और अनुवाद के लिए किसी भी भाषा में पर्याप्त कौशल हासिल कर सकता है। यदि हरियाणा के विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा में राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा के योग्य बनना है तो हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में प्रवीण होना ज़रूरी है। हरियाणा में भाषाओं का पठन-पाठन का तरीक़ा बहुत पुराना है। भाषा सीखने की प्रयोगशाला-आधारित तकनीकों को अपनाया जाना चाहिए। भाषा-ज्ञान सम्बन्धी इस कमी को दूर करने के लिए अक़्लमंदी के साथ उत्साहपूर्वक काम करने की ज़रूरत है।
2) परीक्षा उन्मुख शिक्षा
देश के कई अन्य हिस्सों की ही तरह हरियाणा में भी पठन-पाठन प्रक्रिया केवल परीक्षा प्रणाली की ज़रूरतों को पूरा करने के अनुरूप है। एकमात्र लक्ष्य ‘अच्छे अंकों के साथ परीक्षा मे उत्तीर्ण होना’ रहता है। रटने, तथ्यों को याद रखने और परीक्षाओं में उन्हें पुन: प्रस्तुत करने की कला पर ही ज़ोर दिया जाता है। विद्यार्थी की योग्यता को मापने का पैमाना केवल अंक बन गए हैं न कि उस की समझ और ज्ञान को उपयोग में लाने की क्षमता का विकास। इस लिए विद्यार्थियों की विश्लेषणात्मक समझ के विकास पर बहुत कम ज़ोर दिया जाता है। कक्षा में दिए जाने वाले लेक्चर भी कच्चे-पक्के व्याख्यानों/प्रवचनों तक ही सीमित हो गए हैं। इस प्रकार, विद्यार्थियों द्वारा प्राप्त की गई जानकारी उपयोग करने योग्य ज्ञान में परिवर्तित नहीं होती। यही कारण है कि हमारे अधिकांश विद्यार्थी रोज़गार के योग्य नहीं बन पाते ।
चूंकि शिक्षा और शिक्षण प्रक्रिया केवल परीक्षा पास करने-कराने की प्रक्रिया तक ही सीमित हो कर रह गयी है, इस लिए विद्यार्थियों की कक्षा में सक्रिय हिस्सेदारी घट गयी है और कक्षा में नए ज्ञान को ग्रहण करने और सीखने में उन की रुचि भी कम हो गई है। परीक्षा में पास होने के लिए अधिकांश विद्यार्थी मूल और मानक पुस्तकों के स्थान पर सहायता-पुस्तकों पर ही निर्भर हो गए हैं। इस लिए उन के लिए कक्षा की उपयोगिता घट गयी है। इस सब के चलते परीक्षा में नक़ल करने की प्रवृत्ति भी बहुत बढ़ गयी है, यहाँ तक कि नक़ल करना तो अब जैसे कॉलेजों में संस्थागत हो गया है और इसे अब नैतिक रूप से बुरा भी नहीं माना जाता। इस स्थिति को तुरन्त बदलने की ज़रूरत है। नई शिक्षा नीति-2020 के तहत पठन-पाठन और विद्यार्थी के परीक्षा-मूल्यांकन की प्रक्रिया में शिक्षक की भूमिका में मूलभूत परिवर्तन की परिकल्पना की गई है – इस परिकल्पना के तहत शिक्षक की भूमिका भारत में आई॰आई॰एम॰, आई॰आई॰टी॰ और विकसित देशों के अच्छे शिक्षा संस्थानो में प्रचलित भूमिका की तर्ज़ पर होनी चाहिए।
(3) सेमेस्टर सिस्टम
वार्षिक परीक्षा प्रणाली की जगह राज्य सरकार के एक तात्कालिक प्रशासनिक आदेश के माध्यम से 2007-08 में हरियाणा के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में बिना किसी तैयारी के सेमेस्टर प्रणाली शुरू कर दी गई थी। विश्वविद्यालयों के वैधानिक शैक्षणिक निकायों में भी बहुत कम तैयारी या गम्भीर विचार-विमर्श हुआ था। सेमेस्टर सिस्टम की सफलता के लिए अनिवार्य संस्थागत परिवर्तन भी नहीं किए गए और इस प्रणाली को विश्वविद्यालियों में लागू कर दिया गया। विद्यार्थी और शिक्षक दोनों को मानसिक रूप से तैयार किए बिना नयी व्यवस्था लागू करने से इस के भयंकर परिणाम निकले। कुल मिला कर निष्कर्ष यह निकला कि इस से शिक्षण संस्थान वार्षिक परीक्षा प्रणाली के लाभों से तो वंचित हुए ही, सेमेस्टर सिस्टम के लाभ भी उन्हें नहीं मिल पाए। सेमेस्टर प्रणाली की सफलता के लिए कुछ शर्तों की पूर्ति न्यूनतम रूप से आवश्यक है। मिसाल के तौर पर, सेमेस्टर सिस्टम और बाहरी परीक्षा प्रणाली (यानी परीक्षा-पत्रों की बाहरी जाँच करवाना) परस्पर संगति में नहीं हैं। दुनिया के सभी अच्छे शिक्षा संस्थानो में हर विषय की पाठ्य सामग्री, पठन-पाठन विधि, और विद्यार्थियों के मूल्यांकन की विधि के चुनाव में कक्षा में पढ़ाने वाले शिक्षक को पूर्ण आज़ादी होती है।
होना यह चाहिए कि मूल्यांकन की प्रक्रिया समेस्टर में निरन्तर चले और पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले शिक्षक को अपने विद्यार्थियों के मूल्यांकन के लिए पूर्ण रूप से ज़िम्मेदार बनाया जाए। बाहरी परीक्षा प्रणाली को बदले बिना सुधार नहीं हो सकता। भारत में आई.आई.टी. और आई.आई.एम. सहित दुनिया भर के सभी बेहतरीन संस्थानों में इस प्रथा का पालन किया जाता है। ये ज़रूर है कि प्राध्यापकों को और अधिक ज़िम्मेदारी के साथ मूल्यांकन का काम करने की संस्कृति का विकास करना पड़े गा। चूंकि वार्षिक आधार पर मौजूदा परीक्षा प्रणाली सम्बद्ध विश्वविद्यालय द्वारा संचालित की जाती थी, इस लिए जब सेमेस्टर प्रणाली शुरू की गईतो विश्वविद्यालय समय पर परिणाम घोषित करने में भी विफल रहे। इस से शैक्षणिक सत्र आम तौर पर बाधित होते रहे। परीक्षा के दिनों की संख्या बढ़ गयी और पढ़ने-पढ़ाने के दिन कम हो गए, जिस से कक्षा-शिक्षण की गुणवत्ता पर भी बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। हरियाणा में सेमेस्टर सिस्टम की अखण्डता स्थापित करने के लिए अनेक संस्थागत परिवर्तन करना अनिवार्य हो गया है।
(4) विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली/ च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम (सी.बी.सी.एस.)
हरियाणा में उच्च शिक्षा संस्थानों में राष्ट्रीय मूल्यांकन तथा प्रत्यायन परिषद (एन.ए.ए.सी. – नैक) और यू.जी.सी. के निर्देशों पर विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली (सी.बी.सी.एस.) शुरू की गयी है। सरकार के आदेशों से इस व्यवस्था को लागू तो कर दिया गया लेकिन विभिन्न हितधारकों में सी.बी.सी.एस. के पीछे की भावना की ठीक समझ अभी तक भी नहीं बन पाई है और न ही इस के लिए पर्याप्त प्रयास किए गए हैं।
सी.बी.सी.एस. प्रणाली इस प्रतिमान पर आधारित है कि मानव ज्ञान सम्पूर्ण रूप से अविभाज्य है। विभिन्न विषयों में इस का विभाजन तो बस सुविधा के लिए किया जाता है। विधार्थियो को अपनी रुचि के अनुसार विषयों के चुनाव की स्वतंत्रता होनी चाहिए। लेकिन न हमारे शिक्षक और न ही हमारे विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम सी.बी.सी.एस. की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सुसज्जित है। पाठ्यक्रम और पठन-विधि विद्यार्थियों की पृष्ठभूमि को ध्यान में रख कर तैयार किए जाने चाहिएँ। अभी तक सी.बी.सी.एस. प्रणाली का कार्यान्वयन नाम भर की औपचारिकता ही साबित हुआ है। इस पर पुनर्विचार कर के, हितधारकों में इस की सही समझ बनाते हुए इस की कमियों को दूर किए जाने की ज़रूरत है। इसे प्रभावशाली ढंग से दोबारा लागू किया जाए, तब ही इस का लाभ मिल सकता है।
(5) प्राध्यापकों की कमी और अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) पर नियुक्तियाँ
हरियाणा के अधिकांश सरकारी/सार्वजनिक विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में स्थाई प्राध्यापकों की संख्या नियमित कक्षाओं को पढ़ाने के लिए भी पर्याप्त नहीं है। अधिकांश संस्थानों में 40 से 50 प्रतिशत शिक्षक-पद रिक्त हैं और केवल शिक्षण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शिक्षकों की नियुक्तियाँ अनुबंध पर, अमूमन एक सत्र के लिए की जाती हैं। ऐसे में शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में नवाचार की गुंजाइश और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की आशा एक मृगतृष्णा से अधिक कुछ नहीं है। उच्च शिक्षा संस्थानो में पक्के (न कि अनुबंधित) आधार पर तुरन्त नयी नियुक्तियाँ की जानी चाहिएँ। ख़ाली पद न भरना शिक्षा के साथ बहुत बड़ी बेइन्साफ़ी है और शिक्षा के विकास में एक विशाल बाधा है। नई शिक्षा नीति-2020 ने भी संस्थानों से सभी स्थायी पदों को भरने और अनुबंध पर नियुक्तियों को समाप्त करने का आह्वान किया है।
(6) उच्च शिक्षा का व्यावसायीकरण
इस मुद्दे पर इस लेख में पहले भी कुछ चर्चा की गई है। शिक्षण संस्थाओं के व्यावसायीकरण की प्रबल प्रवृत्ति ने उच्च शिक्षा को अपनी चपेट में ले रखा है। अतीत में शिक्षा को सार्वजनिक-सेवा और इस के सरकारी प्रावधान को सामाजिक उत्तरदायित्व माना जाता था। सामाजिक प्रतिबद्धता रखने वाले परोपकारी संगठनों द्वारा भी शिक्षण संस्थान स्थापित करना पवित्र और धर्म का काम समझा जाता था। लेकिन मौजूदा समाज में शिक्षा का ही व्यावसायीकरण नहीं हुआ है, भौतिक संस्कृति की प्रगति के साथ-साथ प्रत्येक सामाजिक-आर्थिक गतिविधि भी एक व्यावसायिक गतिविधि में परिवर्तित हो गई है। सामाजिक और नैतिक मूल्यों का त्रास हुआ है। यह समाज और देश के लिए घातक सिद्ध होगा। पिछले तीन दशकों में, निजी क्षेत्र में बड़ी संख्या में तकनीकी, प्रबंधन और शिक्षक-शिक्षा महाविद्यालयों की स्थापना की गई है, जो केवल निजी लाभ कमाने के उद्देश्य से प्रेरित हैं। राजनैतिक नेता और पूँजीपति/व्यापारी शिक्षा को बाज़ारी व्यवसाय बना कर ग़रीब लोगों को लूट रहे हैं। सरकार के साथ-साथ सार्वजनिक, सम्बद्ध-विश्वविद्यालय भी शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने में बुरी तरह विफल रहे हैं। इन संस्थानों में बहुत अधिक राजनैतिक संरक्षण और भ्रष्टाचार व्याप्त है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 शिक्षा को बाज़ारी वस्तु बनाए जाने से रोकने का आह्वान करती है। देखना होगा कि क्या हमारी राज्य सरकार इस आह्वान को गम्भीरता से ले कर शिक्षा को व्यापार बना छोड़ने वाली शिक्षा संस्थाओं पर नकेल कसने को तैयार होगी? इस समाजव्यापी भीषण बीमारी से निजात पानें के लिए एक बहुत बड़े यत्न की आवश्यकता है और इस के लिए सरकार के साथ-साथ समाज के संजीदा वर्गों को आगे आना होगा। केवल थोथी हमदर्दी से काम नहीं चलेगा। नागरिक समाज को इस सन्दर्भ में गम्भीरता से उठाए जाने वाले क़दमों के बारे में सोचना ही नहीं होगा, उन्हें ज़मीनी स्तर पर अमली जामा पहनाना होगा – और सरकार पर सही दिशा पकड़ने के लिए अभूतपूर्व दबाव बनाना होगा।
नई शिक्षा नीति-2020 में प्रस्तावित दिशा के आलोक में इस लेख में चिह्नित मुद्दों पर गम्भीर बहस और व्यावहारिक क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है। ये मसले दशकों से हमारे राज्य की शिक्षा व्यवस्था को कमज़ोर करते चले आ रहे हैं। अब भी सचेत न हुए तो इक्कीसवीं सदी के देश-प्रदेश के लिए संजोए गए सपने साकार होने से रहे।
लेखक महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर तथा डीन, समाज विज्ञान एवं अकादमिक मामले एवं पूर्व निदेशक, गिरि विकास अध्ययन संस्थान, लखनऊ रहे हैं
(लेखक, प्रोफ़ेसर रमणीक मोहन जी के हिंदी में अनुवाद करने और मूल वैचारिक स्थापनाओं को और अधिक स्पष्टता प्रधान करने में सहयोग के लिए तह मन से अपना आभार व्यक्त करता है)