एक कुत्ता और एक मैना- हजारी प्रसाद द्विवेदी

हजारी प्रसाद द्विवेदी

आज से कई वर्ष पहले गुरुदेव के मन में आया कि शांतिनिकेतन को छोड़कर कहीं अन्यत्र जाएं। स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था शायद इसीलिए या पता नहीं क्यों, तब पाया कि वे श्रीनिकेतन के पुराने तिमंजिले मकान में कुछ दिन रहें। शायद मौज में आकर ही उन्होंने यह निर्णय किया हो। वह सबसे ऊपर के तल्ले में रहने लगे। उन दिनों ऊपर तक पहुँचने के लिए लोहे की चक्करदार सीढ़ियाँ थीं और वृद्ध और क्षीणवपु रवीन्द्रनाथ के लिए उस पर चढ़ सकना असंभव था। फिर भी बड़ी कठिनाई से वहाँ ले जाया जा सका। 

उन दिनों छुट्टियाँ थीं। आश्रम के अधिकांश लोग बाहर चले गए थे। एक दिन हमने सपरिवार उनके ‘दर्शन’ की ठानी। ‘दर्शन’ को मैं जो यहाँ विशेषरूप से दर्शनीय बनाकर लिख रहा हूँ, उसका कारण यह कि गुरुदेव के पास जब कभी मैं जाता था, प्रायः यह कहकर मुस्कुरा देते थे कि ‘दर्शनार्थी हैं क्या?’ शुरू-शुरू में मैं उनसे ऐसी बँगला में बात करता था, जो वस्तुतः हिन्दी-मुहावरों का अनुवाद हुआ करती थीं। किसी बाहर के अतिथि को जब मैं उनके पास ले जाता था तो कहा करता था, एक भद्र लोक आपनार दर्शनेर जन्य ऐसे छेन।’ यह बात हिन्दी में जितनी प्रचलित है, उतनी बँगला में नहीं। इसलिए गुरुदेव जरा मुस्कुरा देते थे। बाद में मुझे मालूम हुआ कि मेरी यह भाषा बहुत अधिक पुस्तकीय है और गुरुदेव ने उस ‘दर्शन’ शब्द को पकड़ लिया था। इसलिए जब कभी मैं असमय में पहुँच जाता था तो वह हँसकर पूछते थे-‘दर्शनार्थी लेकर आए हो क्या?’ यहाँ यह दु:ख के साथ कह देना चाहता हूँ कि अपने देश के दर्शनार्थियों में कितने ही ऐसे प्रगल्भ होते थे कि समय-असमय, स्थान-अस्थान, अवस्था अनवस्था की एकदम परवाह नहीं करते थे और रोकते रहने पर भी आ ही जाते थे। ऐसे ‘दर्शनार्थियों से गुरुदेव कुछ भीत-भीत से रहते थे। अस्तु, मैं मय बाल-बच्चों के एक दिन श्रीनिकेतन जा पहुँचा। कई दिनों से उन्हें देखा नहीं था! 

गुरुदेव यहाँ बड़े आनंद में थे। अकेले रहते थे। भीड़-भाड़ उतनी नहीं होती थी, जितनी शांतिनिकेतन में। जब हम लोग ऊपर गए तो गुरुदेव बाहर एक कुर्सी पर चुपचाप बैठे अस्तगामी सूर्य की ओर ध्यान-स्तिमित नयनों से देख रहे थे। हम लोगों को देखकर मुस्कुराए, बच्चों से जरा छेड़छाड़ की, कुशल-प्रश्न पूछे और फिर चुप हो रहे । ठीक उसी समय उनका कुत्ता धीरे-धीरे ऊपर आया और उनके पैरों के पास खड़े होकर पूँछ हिलाने लगा। गुरुदेव ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा। वह आँखें मूंदकर अपने रोम रोम से उस स्नेह-रस का अनुभव करने लगा। गुरुदेव ने हम लोगों की ओर देखकर कहा, “देखा तुमने, यह आ गए। इन्हें कैसे मालूम हुआ कि मैं यहाँ हूँ, आश्चर्य है ! और देखो, कितनी परितृप्ति इनके चेहरे पर दिखाई दे रही है!” 

हम लोग उस कुत्ते के आनंद को देखने लगे! किसी ने उसे राह नहीं दिखाई थी, न उसे यह बताया था कि उसके स्नेहदाता यहाँ से दो मील दूर हैं और फिर भी वह पहुँच गया। इसी कुत्ते को लक्ष्य करके उन्होंने ‘आयोग्य’ में इस भाव की एक कविता लिखी थी–प्रतिदिन प्रात:काल यह भक्त कुत्ता स्तब्ध होकर आसन के पास तब तक बैठा रहता है, जब तक अपने हाथों के स्पर्श से मैं इसका संग नहीं स्वीकार करता। इतनी-सी स्वीकृति पाकर ही उसके अंग-अग में आनंद का प्रवाह बह उठता है। इस वाक्यहीन प्राणिलोक में सिर्फ यही एक जीव अच्छा-बुरा सबको भेदकर संपूर्ण मनुष्य को देख सका है; उस आनंद को देख सका है, जिसे प्राण दिया जा सकता है, जिसमें अहैतुक प्रेम ढाल दिया जा सकता है, जिसकी चेतना असीम लोक में राह दिखा सकती है। जब मैं इस मूक हृदय का प्राणपण आत्मनिवेदन देखता हूँ, जिसमें वह अपनी दीनता बताता रहता है, तब मैं यह सोच ही नहीं पाता कि उसने अपने सहज बोध से मानव-स्वरूप में कौन-सा अमूल्य आविष्कार किया है। इसकी भाषाहीन दृष्टि की करुण व्याकुलता जो कुछ समझती है, उसे समझा नहीं पाती और मुझे इस दृष्टि से मनुष्य का सच्चा परिचय समझा देती है!’ इस प्रकार कवि की मर्मभेदी दृष्टि से इस भाषाहीन प्राणी की करुण दृष्टि के भीतर उस विशाल मानव सत्य को देखा है, जो मनुष्य के अन्दर भी नहीं देख पाता। 

मैं जब यह कविता पढ़ता हूँ तब मेरे सामने श्रीनिकेतन के तितल्ले पर की वह घटना प्रत्यक्ष-सी हो जाती है। वह आँख मूंदकर अपरिसीम आनंद वह ‘मूक हृदय का प्राणपण आत्मनिवेदन’ मूर्तिमान हो जाता है। उस दिन मेरे लिए वह एक छोटी-सी घटना थी, आज वह विश्व की अनेक महिमाशाली घटनाओं की श्रेणी में बैठ गई है।

एक आश्चर्य की बात इस प्रसंग में और उल्लेख की जा सकती है। जब गुरुदेव का चिताभस्म कलकत्ते से आश्रम में लाया गया, उस समय भी न जाने किस सहज बोध के बल पर वह कुत्ता आश्रम के द्वार तक आया और चिताभस्म के साथ अन्यान्य आश्रमवासियों के साथ शांत-गम्भीर भाव से उत्तरायण तक गया! आचार्य क्षितिमोहन सेन सबके आगे थे। उन्होंने मुझे बताया कि वह चिताभस्म के कलश के पास थोड़ी देर चुपचाप बैठा भी रहा। 

कुछ और पहले की घटना याद आ रही है। उन दिनों शांतिनिकेतन में मैं नया ही आया था। गुरुदेव से अभी उतना धृष्ट नहीं हो पाया था। गुरुदेव उन दिनों सुबह अपने बगीचे में टहलने के लिए निकला करते थे। मैं एक दिन उनके साथ हो गया था। मेरे साथ एक और पुराने अध्यापक थे और सही बात तो यह है कि उन्होंने ही मुझे अपने साथ ले लिया था। गुरुदेव एक एक फूल-पत्ते को ध्यान से देखते हुए अपने बगीचे में टहल रहे थे और उक्त अध्यापक महाशय से बातें करते जा रहे थे। मैं चुपचाप सुनता जा रहा था। गुरुदेव ने बातचीत के सिलसिले में एक बार कहा, “अच्छा साहब, आश्रम के कौए क्या हो गए? उनकी आवाज सुनाई ही नहीं देती!” न तो मेरे साथी उन अध्यापक महाशय को यह खबर थी और न मुझे ही। बाद में मैंने लक्ष्य किया कि सचमुच कई दिनों से आश्रम में कौए नहीं दीख रहे हैं। मैंने तब तक कौओं को सर्वव्यापक पक्षी ही समझ रखा था। अचानक उस दिन मालूम हुआ कि ये भले आदमी भी कभी-कभी प्रवास चले जाते हैं या चले जाने को बाध्य होते हैं। एक लेखक ने कौओं की आधुनिक साहित्यिकों से उपमा दी है, क्योंकि इनका मोटो है-‘मिस् चीफ फार मिस् चीफ्स सेक’ (शरारत के लिए ही शरारत), तो क्या कौओं का प्रवास किसी शरारत के उद्देश्य से ही था? प्रायः एक सप्ताह के बाद बहुत कौए दिखाई दिए। 

एक दूसरी बार मैं सवेरे गुरुदेव के पास उपस्थित था। उस समय एक लँगड़ी मैना फुदक रही थी। गुरुदेव ने कहा, “देखते हो, यह यूथभ्रष्ट है। रोज फुदकती है, ठीक यहीं आकर। मुझे इसकी चाल में एक करुण भाव दिखाई देता है।” गुरुदेव ने अगर कह न दिया होता तो मुझे उसका करुण भाव एकदम नहीं दीखता। मेरा अनुभव था कि मैना करुण भाव दिखानेवाला पक्षी है ही नहीं। वह दूसरों पर अनुकंपा ही दिखाया करती है। तीन-चार वर्ष से मैं एक नये मकान में रहते लगा हूँ। मकान के निर्माताओं ने दीवारों में चारों ओर एक सुराख छोड़ रखा है। यह कोई आधुनिक वैज्ञानिक खतरे का समाधान होगा। सो एक-एक मैना दंपति नियमित भाव से प्रतिवर्ष यहाँ गृहस्थी जमाया करते हैं। तिनके और चिथड़ों का अंबार लगा देते हैं। भले मानव गोबर के टुकड़े तक ले आना नहीं भूलते। हैरान होकर हम सूराखों में ईंटें भर देते हैं; परन्तु वे खाली बची जगह का भी उपयोग कर लेते हैं। पति-पत्नी जब कोई एक तिनका लेकर सूराख में रखते हैं तो उनके भाव देखने लायक होते हैं। पत्नीदेवी का तो क्या कहना? एक तिनका ले आईं तो फिर एक पैर पर खड़ी होकर जरा पंखों को फटकार दिया, चोंच को अपने ही पैरों से साफ कर लिया और नाना प्रकार की मधुर और विजयोद्घोषी वाणी में गाना शुरू कर दिया! हम लोगों की तो उन्हें कोई परवाह ही नहीं रहती। अचानक इस समय अगर पतिदेवता भी कोई कागज या गोबर का टुकड़ा लेकर उपस्थित हुए, तब तो क्या कहना? दोनों के नाच-गान और आनन्द-नृत्य से सारा घर मुखरित हो उठता है। इसके बाद ही पत्नीदेवी जरा हम लोगों की ओर मुखातिब होकर लापरवाही भरी अदा से कुछ बोल देती हैं। पतिदेवता भी मानो मुस्कुराकर हमारी ओर देखते, कुछ रिमार्क करते और मुँह फेर लेते हैं। पक्षियों की भाषा तो मैं नहीं जानता; पर मेरा विश्वास है कि उनमें कुछ इस तरह की बातें हो जाया करती हैं। 

पत्नी-ये लोग यहाँ कैसे आ गए, जी? पति-ऊँह, बेचारे आ गए हैं, तो रह जाने दो। क्या कर लेंगे? 

पत्नी-लेकिन फिर भी इनको इतना खयाल होना चाहिए कि यह हमारा प्राइवेट घर है। 

पति-आदमी जो हैं, इतनी अकल कहाँ? पत्नी-जाने भी दो। पति-और क्या! 

सो इस प्रकार की मैना कभी करुण हो सकती है, यह मेरा विश्वास नहीं था। गुरुदेव की बात पर मैंने ध्यान से देखा तो मालूम हुआ कि सचमुच ही उसके मुख पर एक करुण भाव है। शायद वह विधुर पति था, जो पिछली स्वयंवर-सभा के युद्ध में आहत और परास्त हो गया था; या विधवा पत्नी है, जो पिछले विडाल के आक्रमण के समय पति को खोकर, युद्ध में ईषत् चोट खाकर एकांत विहार कर रही है। हाय, क्यों इसकी ऐसी दशा है? शायद इसी मैना को लक्ष्य करके गुरुदेव ने बाद में एक कविता लिखी थी, जिसके कुछ अंश का सार इस प्रकार है: 

‘उस मैना को क्या हो गया है, यही सोचता हूँ। क्यों वह दल से अलग होकर अकेली रहती है? पहले दिन देखा था सेमर के पेड़ के नीचे मेरे बगीचे में। जान पड़ा, जैसे एक पैर से लँगड़ा रही हो। इसके बाद उसे रोज सवेरे देखता हूँ-संगीहीन होकर कीड़ों का शिकार करती फिरती है ! चढ आती है बरामदे में। नाच-नाचकर चहलकदमी किया करती है, मुझसे जरा भी नहीं डरती। क्यों है ऐसी दशा इसकी? समाज के किस दंड पर उसे निर्वासन मिला है? दल के किस अविचार पर उसने मान किया है? कुछ ही दूर पर और मैनाएँ बकझक कर रही हैं, घास पर उछल-कूद रही हैं; उड़ती-फिरती हैं, शिरीष वृक्ष की शाखाओं पर। इस बेचारी को ऐसा कुछ भी शौक नहीं है। इसके जीवन में कहाँ गाँठ पड़ी है, यही सोच रहा हूँ। सवेरे की धूप में मानो सहज मन से आहार चुगती हुई झड़े हुए पत्तों पर कूदती-फिरती है सारा दिन। किसी के ऊपर इसका कुछ अभियोग है, यह बात बिलकुल नहीं जान पड़ती। इसकी चाल में वैराग्य का गर्व भी तो नहीं है, दो आग-सी जलती आँखें भी तो नहीं दिखतीं।’ इत्यादि। 

जब मैं इस कविता को पढ़ता हूँ तो उस मैना की करुण मूर्ति अत्यन्त साफ होकर सामने आ जाती है। कैसे मैंने उसे देखकर भी नहीं देखा और किस प्रकार कवि की आँखें इस बेचारी के मर्मस्थल पर पहुँच गईं, सोचता हूँ तो हैरान हो रहता हूँ। एक दिन वह मैना उड़ गई। सायंकाल कवि ने उसे नहीं देखा। जब वह अकेले आया करती है उस डाल के कोने में; जब झींगुर अन्धकार में झनकारता रहता है, जब हवा में बाँस के पत्ते झरझराते रहते हैं, पेड़ों की फाँक से पुकारा करता है नींद तोड़नेवाला सन्ध्यातारा! कितना करुण है, उसका गायब हो जाना! 

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