
छुट्टियों में जब गाँव गया, एक ही तरह का सवाल बहुतों ने पूछा कि भैया, कब तक पढ़ोगे? क्या पढ़ते-पढ़ते बूढ़े हो जाओगे? सारी उमर पढ़ने में ही बीत जाएगी तो सुख कब करोगे? लेकिन इन सवालों का जवाब सिवा सीधी-सादी टालनेवाली हँसी के आज तक मुझे दूसरा न सूझा। पंडितों की ओर देखता हूँ तो संकोच होता है कि अभी पढ़ा ही क्या और गाँववालों के धैर्य को देखता हूँ तो हिम्मत छूट जाती है। सोचता हूँ कि क्या यह विद्यार्थी जीवन कोई बीमारी का काल है जिसकी थोड़ी-सी भी अवधि पुरजनों और परिजनों के लिए अनन्त-सी जान पड़ने लगती है?
निबन्धकारों के राजकुमार लैम्ब ने बीमारी के समय को राजकीय सुख और सम्मान का काल कहा है, विशेषत: बीमारी के बाद स्वास्थ्य-सुधारवाले काल को। सचमुच ही उस समय रोगी अपने मित्रों और परिवारवालों का सम्राट होता है। उसकी थोड़ी सी भी सुविधा और असुविधा का बड़ा खयाल किया जाता है। अनेक लोग उसकी सेवा में प्रस्तुत रहते हैं। तय है कि यह सुख-सुविधा विभिन्न श्रेणियों के अनुसार घटती भी रहती है, परन्तु अपनी ही श्रेणी के सामान्य जन से अधिक ध्यान उस रोगी का रखा जाता है।
जब मैं विद्यार्थी की ओर देखता हूँ तो वह भी एक रोगी की ही तरह सुख सुविधा का उपभोग करता है। माँ-बाप से पूछिए तो वह यही उत्तर देंगे कि ‘जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ ।’
कमठ के मन में जिस तरह अपने अंडों का सोच बना रहता है, उसी तरह बाप के मन में विद्यार्थी बेटे का। बाप की न जाने कितनी आशाएँ उस पर टँगी रहती हैं। इधर साहबजादे का दिमाग है कि हवाबाज, हर समय सातवें आसमान पर रहता है। वे स्वप्न में भी नहीं सोचते कि एम.ए. करने के बाद कहीं क्लर्क अथवा बेचारे अध्यापक होंगे। वे काफी रोब लेते हैं। घरवालों की ओर से जरा-सी असावधानी होने पर आप साहब धमकी दे बैठते हैं कि इसी तरह पढ़ाना हो तो कहिए कॉलेज छोड़कर घर बैठ जाऊँ। पाँच दिन भी मनीऑर्डर रुकने पर धमकी का कार्ड घर का दरवाजा खटखटाने लगता है। गोया माँ-बाप ने कर्ज खाया है और साहबजादे का रुक्का दाखिल। जिस तरह शरीर का कोई पीड़ित अंग रह-रहकर डभकता रहता है और सारी इन्द्रियों को अपनी ओर केन्द्रित रखता है उसी तरह परिवार का यह रोगी और नाजक अंग हर समय चिन्ता का विषय बना रहता है। विद्यार्थी जीवन में भी और अगर कहीं उसके बाद बेकार बैठा (जैसा कि अकसर होता है) तो और अधिक पीडा देता है।
मैं भी जब एक ऐसे ही मध्यवर्ग का अंग हूँ तो अपने को तीन लोक से न्यारा कैसे कहूँ? लगता है कि मैं भी दुर्घटना की तरह अपने परिवार के ऊपर घट गया। कई लोग ऐसे होते हैं घटनाएँ जिनके ऊपर नहीं घटतीं बल्कि वह घटनाओं के ऊपर घट जाते हैं। घटनाओं-दुर्घटनाओं से भरे परिवार के ऊपर यदि मैं भी जा घटा तो इसके लिए किसको दोष दूं?
यह जीवन परिस्थितियों की उस असिधारा पर लड़खड़ा रहा है जहाँ से पीछे लौटना असम्भव है, खड़ा होना खतरनाक है और गिर पड़ना मौत है।
लेकिन जब की बात मैं कर रहा हूँ वह है अभी इसी छुट्टी की। इस बार एक नया सवाल पूछा अलगू दादा ने। अलगू दादा हमारे ही गाँव के हैं और पुराने लोगों का जैसा सीधा स्वभाव होता है, वैसा ही उनका भी है। शरीर टेढ़ा हो गया है लेकिन मन सीधा ही है। दाँत गिर गए हैं लेकिन उनके बीच से गाली के शब्द कभी नहीं गिरे। लाठी पर झुक लेते हैं लेकिन किसी आदमी पर भार आज भी न बने। मैं बैठा कुछ पढ़ रहा था कि आकर बैठ गए। कुशल मंगल के बाद उन्होंने पूछा-“क बेटा, थनेदारी भर पढ़ लेहल?” कैसे बताता कि कुछ ज्यादे ही; लेकिन मैं जानता हूँ कि मेरे कहने पर शायद अलगू दादा को विश्वास न होता और इसके बाद वे जरूर पूछते कि तब थानेदार ही क्यों नहीं हो जाते? अब इस बात का उत्तर अगर यह कहकर देता कि मैं नहीं चाहता तो दो बातें सम्भव थीं। या तो वे मन में समझते कि बन रहा है नहीं तो कौन है जो इतनी बड़ी चीज मिलने पर छोड़ देता और या तो मेरी मूर्खता पर तरस खाकर वे कुछ उपदेश दे जाते। इधर न तो नया बाछा पल्ला के नीचे कंधा देता है, न नया बछेड़ा लगाम के लिए मुंह खोलता है और न नया पढ़ा-लिखा युवक उपदेश के लिए कान। भले ही गरज पड़ने पर अन्त में तीनों झुकें लेकिन शुरू-शुरू में कोई नहीं। मैं भी उपदेश के लिए तैयार कैसे होता?
बात बदलते हुए मैंने पूछा-“काहे के दादा? कुछ काम हौ ?” दादा बोले-“नाहीं बेटा, इहै थानेदार बहत तंग करत हँउवै।”
इसके बाद दादा ने पूरा बयान दिया कि थानेदार के रोब के नीचे लोग किस तरह नाक रगड़ रहे हैं। क्या बताऊँ आज अफसोस हो रहा है कि हिटलर बेचारा नहीं रहा और जब वह था तो मुझे होश नहीं रहा, नहीं तो मैं उसे चिट्ठी लिखता कि अच्छा हो यदि तुम्हें तानाशाही का ही स्वाद लेना है तो भारत में आकर थानेदार बनो!
फिर मैं सोचता रहा कि आखिर दादा मुझे असेम्बली में जाने के लिए क्यों नहीं कह रहे हैं क्योंकि शासन की सारी कुंजी तो वहीं बन्द रहती है, लेकिन कुछ सोचकर मैं रह गया। सोचता रहा कि क्या थानेदार बनकर ही दादा की यातना दूर की जा सकती है अथवा असेम्बली में जाकर ही? समझ में नहीं आता था कि आखिर पहले कहाँ से लड़ाई शुरू हो ? सारा देश तो जैसे केले का खम्भा हो रहा है। एक छिलका निकाला नहीं कि उसी में दूसरा निकल पड़ा। एक समस्या दूर की नहीं कि उसी में से दूसरी निकल आई। दादा कह रहे हैं कि मैं थानेदार बनूँ। सारी मशीन का एक अदना-सा पुर्जा बनूँ? क्या सारी पढ़ाई इसीलिए है?
इस चुप्पी से दादा भी ऊब-से रहे थे। बात का मुँह दूसरी ओर मोड़ते हुए बोले “अच्छा बेटा, छोड़ा एके। दुख सुख त लगलै रही। इ बतावा कि का पढ़े ला? कै कलम पढ़ चुकला?”
इस बार तो दादा ने कुछ और मुश्किल में डाल दिया। उनके सामने किन-किन किताबों का नाम लेता! जब बड़ी-बड़ी किताबों के नाम लेने से विद्वान परीक्षक विद्यार्थी का रोब मान जाते हैं तो दादा किस खेत के? सहज था। लेकिन इसका उलटा असर भी पड़ सकता था। दादा इसे अभिमान में गिन सकते थे। कुछ न बताने पर समझते कि क्या वे इन बातों को समझने के काबिल नहीं हैं ? मैंने कुछ इतिहास, कुछ संस्कृत साहित्य और कुछ हिन्दी साहित्य की पोथियों का नाम बताया, क्योंकि अकेले हिन्दी का नाम बताना कुछ कम होता। दादा का मन भरा नहीं। बोले, “किताब नाहीं, कुछ ज्ञान क बात बतावा-देश-काल क बात।”
मैंने अपने को सर्वथा असमर्थ पाया। ‘बरखा को गोबर भयो को चहै को करै प्रीति’! कोई बात ही न सूझी। दादा असन्तुष्ट-से ही चले गए। आज बैठकर जब उन बातों पर विचार करता हूँ तो लगता है कि आज तक जो कुछ पढा सब बेकार, जब वह न तो अपने काम का और न उनके काम का जिन्होंने अपना खून सुखा-सुखाकर मुझे पढ़ाया! क्या मूल्य है इन पोथियों का?
इन पोथियों का मूल्य उन पर लिखी कीमत में नहीं, दुकानदार की आँखों में नहीं, मेरी डिग्रियों में नहीं, अध्यापक के वेतन में नहीं। उस कोटि-कोटि जनता के हृदय में है, उसकी आँखों में है, उसके हाथों में है। अगर वह इन सबको नहीं देख रही है तो ये नहीं हैं, अगर वह इन सबको नहीं गा रही है तो ये नहीं हैं, अगर वह इन सबको नहीं छू रही है तो ये नहीं हैं, ये नहीं हैं अगर वह इन सबसे प्रकाश नहीं पा रही है, शक्ति नहीं पा रही है, सुख नहीं पा रही है! अगर इन सबसे वह थानेदार पा रही है, डिप्टी कलक्टर पा रही है, गवर्नर पा रही है, पशु पा रही है, चोर-बाजारी पा रही है, झाँसा मंत्री पा रही है, एटम बम पा रही है, तो ये सब नहीं हैं-नहीं हैं! जब आँखें नहीं तो वह संसार क्या! जब आदमी नहीं तो पोथी क्या!