इतिहास और पूर्वाग्रह – गणेश देवी

अज्ञेयवादी हूँ, लिहाज़ा न तो पूरी तरह आस्तिक हूँ, न धुर नास्तिक। फिर भी, बाज़ दफ़ा ऐसा होता है कि आस्था का प्रश्न अहम हो उठता है।

क्रिसमस के दिन मैंने किताब एक तरफ़ रखकर समाचार देखने के लिए टीवी ऑन किया। उत्तराखंड में हुई ‘धर्म संसद’ के बारे में बहस चल रही थी। एक भागीदार, जो हिन्दू राष्ट्र का ज़बरदस्त पक्षधर था, ऐंकर पर चिल्ला रहा था: “शिवाजी महाराज तक ने ‘हिन्दू राष्ट्र’ शब्द का इस्तेमाल किया था, मैं कर रहा हूँ तो क्या गलत है?”

मैं जो किताब पढ़ रहा था, वह गोविंद पानसरे की ‘हू वाज़ शिवाजी’ थी और मैंने अभी-अभी औरंगज़ेब के नाम लिखा शिवाजी का 1657 का खत पढ़ा था। खत का मुख्य उद्देश्य कुख्यात जज़िया कर को चुनौती देना था और शिवाजी का गुस्सा बादशाह के धर्म के खिलाफ़ नहीं, उसकी कर-नीति के खिलाफ़ था। उन्होंने लिखा: “साम्राज्य की सरकार रोज़मर्रा का प्रशासन हिंदुओं से जज़िया लेकर चला रही है। पहले बादशाह अकबर ने वस्तुतः अत्यंत समभाव के साथ शासन किया। इसीलिए, दाउदियों और मुहम्मदियों के अलावा हिंदुओं, जैसे ब्राह्मणों और शैवों, के धार्मिक रिवाजों को भी संरक्षण दिया जाता था। बादशाह इन धर्मों की मदद करते थे। इसीलिए वे जगतगुरु कहलाये।” चिट्ठी में आगे लिखा गया है कि जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी सभी धर्मों को बिना किसी बाधा के अपने रीति-रिवाजों का पालन करने दिया: “उन बादशाहों की निगाह हमेशा जनकल्याण पर होती थी।” शिवाजी इन तीनों बादशाहों के साथ औरंगज़ेब का फ़र्क़ बताते हुए उन्हें चेताते हैं: “अपने शासन में आपने अनेक क़िले और सूबे गँवा दिए हैं। बचे हुए भी गँवाने वाले हैं। इसकी वजह यह है कि बुनियाद का काम करनेवाली चीजों के लिए आपके पास फुर्सत ही नहीं है।” मुझे पता है कि अभी का निज़ाम शिवाजी महाराज के इस विश्लेषण को पसंद नहीं करेगा कि अकबर को ‘जगतगुरु’ कहा जाता था क्योंकि वह सभी लोगों को हिफ़ाज़त देते थे, बिना उनका धर्म देखे। जिन्होंने 2015 में पानसरे को मारा, वे शिवाजी को उनके द्वारा ऐसे शासक के रूप में दिखाया जाना पसंद नहीं करते थे जिसकी दिलचस्पी धर्म के सवाल से परे सबके कल्याण में हो।


छायाचित्र- औरंगजेब से शिवाजी जी की आगरा में मुलाकात

शिवाजी तो कुरान के बारे में औरंगज़ेब की समझ पर भी सवाल खड़े करते हैं। अपने खत में वे लिखते हैं: “कुरान एक आसमानी किताब है। यह अल्लाह की कही हुई बात है। यह बताती है कि अल्लाह सभी मुसलमानों का, और दरअसल पूरी दुनिया का है।” आगे: “मस्जिदों में वही है जिसके लिए नमाज़ पढ़ी जाती है। मंदिरों में वही है जिसके लिए घंटियाँ बजायी जाती हैं।” मैंने ये पंक्तियाँ अभी कुछ ही मिनट पहले पढ़ी थीं, इसलिए मुझे समझ नहीं आ रहा था कि टीवी पर दिखने वाले सज्जन के अज्ञान पर हँसना चाहिए या हिन्दू संस्कृति संबंधी शिवाजी के विचार के इस विकृतीकरण पर उदास होना चाहिए।

क्रिसमस के ठीक पिछले दिन कर्नाटक असेंबली ने धर्मांतरण विरोधी बिल लाया था जिसे सुंदर शब्दों में ‘प्रोटेक्शन ऑफ़ राईट टू फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन बिल’ कहा गया, और 25 दिसम्बर की रात को अम्बाला में उपद्रवियों ने जीसस की प्रतिमा को गन्दला किया। हिंदुत्व की प्रोपोगैंडा मशीन लागातर ईसाइयों की बढ़ती आबादी के बारे में फ़ेक न्यूज प्रसारित करती रही है। जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार कर्नाटक में 2001 में ईसाई कुल आबादी का 1.91 प्रतिशत थे। एक दशक बाद 2011 में वे 1.87 प्रतिशत हो गए। लेकिन आप कर्नाटक में ईसाइयों की जनगणना के आँकड़े ढूँढने चलें तो एक और वेबसाईट से सामना होगा। यह उनकी संख्या 3.1 प्रतिशत बताती है। इस वेबसाईट के बारे में इंटरनेट पर खोजबीन करने से पता चलता है कि यह 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार का काम देखने वाली डिजिटल मीडिया सेट-अप के संस्थापक द्वारा चलाई जानेवाली वेबसाईट है। मानो ईसाइयों पर हमले और हाल की धर्म संसदों में मुसलमानों के क़त्लेआम की धमकियाँ ही काफ़ी नहीं थीं, नवंबर में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल का यह भयानक सूत्रीकरण भी सामने आ गया था कि फोर्थ जेनरेशन युद्ध सिविल सोसाइटी की ओर से छेड़े जाएँगे।

हालिया घटनाओं ने अभी के हिंदुत्व की सारभूत प्रकृति के बारे में, जिसे विचार और क्रिया के स्तर पर बढ़ावा दिया जा रहा है, संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रहने दी है। यह विचारधारा इस बात को स्थापित करने के लिए पूरा ज़ोर लगा रही है कि हिन्दू धर्म आस्थाओं का वैसा सहिष्णु सह-अस्तित्व नहीं है जैसा शिवाजी ने इसे व्याख्यायित किया था, या ऐसी जीवन-पद्धति जो ईश्वर और अल्लाह को सारतः एक मानती हो। धर्म संसदों से हिंसा का खुला आह्वान और सिविल सोसाइटी को दुश्मन के हथियार के रूप में दिखाने वाला सेमि-ऑफिशियल सैद्धांतीकरण देखें, तो नरेंद्र मोदी की विश्वगुरु फंटासी शिवाजी के उस जगतगुरु-शासक के आइडिया से बिल्कुल दूसरे छोर पर है जो राज धर्म के अलावा किसी और धर्म का पालन नहीं करता।

सैन्य मिज़ाज का होने के अलावा आरएसएस की हिंदुत्व विचारधारा में ऐसे पक्षपातपूर्ण इतिहास-लेखन को लेकर एक सनक है जो अतीत का अध्ययन करने के सभी वैज्ञानिक तौर-तरीक़ों को दरकिनार कर देता है और अपुष्ट तथा बेबुनियाद घोषणाओं को ऐतिहासिक तथ्य के रूप में पेश करता है। ऐसा इतिहास-लेखन अभी 18 दिसम्बर को आईआईटी खड़गपुर की ओर से जारी 2022 के कैलंडर में प्रकट हुआ। यह ‘भारतीय ज्ञान पद्धति के मूलाधारों की खोज’ का लक्ष्य सामने रखता है। पहली नज़र में बात दुरुस्त लगती है। लेकिन देखने पर पता चलेगा कि यह भारत के प्राक्-इतिहास का एक अवैज्ञानिक आख्यान पेश करता है। यह पूरी तरह से असंबद्ध दो आधार-तत्त्वों को आपस में नत्थी कर देता है। एक संस्कृत के उद्भव और प्रसार के सवाल से जुड़ा है और दूसरा सिंधु घाटी सभ्यता से। सभी उपलब्ध भाषावैज्ञानिक और पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि भारत में वेदों से पहले संस्कृत नहीं थी और हमारे सैन्धव सभ्यता के पुरखों का संस्कृत से कोई संबंध नहीं था। उनकी आधी सहस्राब्दी के बाद भारत में संस्कृत के पहले-पहल दर्शन होते हैं। यह कैलंडर अडोल्फ़ हिटलर को भी दिखाता है, इस बात का उल्लेख करना न भूलते हुए कि वह ‘चुनकर सत्ता में आया’ था। यह इस बात पर बल देता है कि वैदिक सभ्यता भारतीय सभ्यता का सार है। यह गढ़ंत ऐतिहासिक आख्यान और धर्म की मिलिटेन्ट दृष्टि हिंदुत्व के इस वाचाल ब्रांड को विचार और अध्यात्म की उस भारतीय परंपरा के खिलाफ़ ले जाती है जो बुद्ध और बसवेश्वर में, कबीर और गांधी में, चार्वाक और आंबेडकर में फूली-फली। इसके अलावा, अगर मुसलमानों के क़त्लेआम और ईसाइयों के उत्पीड़न के विचार इस हिंदुत्व के हिस्से हैं, तो यह संविधान और देश के क़ानून के भी खिलाफ़ है।

गणेश देवी

प्रसिद्ध साहित्यिक आलोचक एवं भाषा अनुसन्धान एवं प्रकाशन केन्द्र के संस्थापक निदेशक

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