
सहारा अलगनी
मेरी माँ डाला करती थी गुदड़ी-खतल्या और चद्दर रोज सुबह समेट कर घर की अलगनी पर एक जोड़ी गुदड़ी-खतल्या पिता की दुकान में भी एक ओर बंधी अलगनी पर डला था जिसे थके-मांदे पिता देर रात उतार लिया करते थे अपने बिस्तरे के लिये कभी-कभी जब देना होती तैयार कर चप्पल की अर्जेण्ट डिलिवरी उसके ग्राहक को अलसुबह पिता ग्राहक से मिले रूपयों में से कुछ अलगनी पर डली गुदड़ी की तहत में रख बचा लेते भविष्य के लिये जब हाथ में काम नहीं होता उस समय अलगनी ही आसरा थी खद रस्सी के सहारे बंधी सहारा थी बुरे वक्त का हमारे लिये।
हल्लाड़ी
एक हल्लाडी घर में थी जिस पर पीसा करती थी माँ प्रतिदिन काँदा, लहसन, खड़ी मिर्च पोस्त के साथ पानी मिला ज्वार की रोटी खाने, चटनी चटनी जिसमें हम पाते थे स्वाद लज़ीज़ दाल सब्जी का एक साथ सुबह-शाम, दोपहर। भरी दोपडी में जब सूरज आसमान में ठीक सिर के ऊपर टंगा होता फसल काटती माँ दोपहरी की छुट्टी में उसी चटनी से खाती ज्वार की एक रोटी पानी पी फिर काम में लग जाती शाम को मजदूरी में मिलते ज्वार के गिने-चुने फुकड़े जिन्हें घर ला माँ झाड़ती डण्डे से निकालती थी ज्वार रात में हम दिखाते दिन भर धूप माँ कभी रात में कभी अलसुबह अलगनी के नीचे रखी घट्टी में पीसती थी ज्वार बनाती थी रोटी हम सबके लिये कभी-कभी ले आती थी दो-एक अलूरे फुकड़े जो सेंके जाते चूल्हे की आग में और हम एक-एक दाना निकाल खाते थे अब हम पोस्त नहीं खरीद सकते ज्वार भी मंहगी है मां से मजूरी भी नहीं होती मेरा बचपन भी चला गया हल्लाड़ी घर के पीछे बेकार पड़ी है।
धर्म! तुम्हें तिलांजलि देता हूँ
धर्म! तुम भी एक हो मेरे पैदा होने के बाद जाति के साथ चिपकने वाले। कमब्खत जाति को मैं नहीं त्याग सकता यह सदियों पूर्व से मेरे पुरखों के साथ थोपी गई हैं यदि मैं जातिबोधक शब्द न लगाऊँ तो तुम्हारा घाघ पुरोधा जासूसी कर मेरी जाति खोज लाता है लेकिन मैं तुम्हें तो त्याग ही सकता हूँ भले ही तुम्हारा बाप बामन घडियाली आँसू बहाये लाख कहे हमारा दोष क्या है हम बामन के घर पैदा हुए, पर वह पीठ पीछे वार करना नहीं भूलता तुम्हारा ठेकेदार जो है फिर मैं तुम्हें क्यों न छोड़ें लो मैं तम्हें तिलांजलि देता हूँ।
छप्पर फाड़ कर देना
दो जोड़ी बेबस आँखें कभी आसमान को निहारतीं कभी झोपड़ी के छप्पर को जो था कल तक छन्नी सा कभी चाँद को दिखाता चाँदनी बिखेरता सूरज के प्रकाश को बाँटता आज कड़कड़ाती बिजली की चमक में माँ का बेटी को छाती से लगा कर फटे आँचल से ढंपना फिर काले आसमान की ओर देख कर सोचती है क्यों मेहरबान बादल उमड़ता हुआ आज ही सारा पानी उड़ेल रहा है इतने में झोपड़ी के पीछे वाली दीवाल का भरभरा कर गिरना छप्पर से टपकते पानी का टूटी दीवार से आती बौछारों से मिलकर एकाकार हो फर्श पर फैल जाना पास ही कहीं बादलों का फट पड़ना नदी, नालों व मैदानों का सीमा तोड़ जलप्लावित होना तेज हवा के संग ठण्डक कर लहरा कर बारिश से ताल मिलाना ठण्डक ठिठुराती असमय जाड़ों को ले आना भूखी बच्ची की भोली आँखें जो नहीं चेहरे पर घिर आई चिन्ता गीली लकड़ी बुझा चूल्हा कैसे चढ़ती हांडी माँ के चेहरे पर बार-बार आ टिक जाती जहाँ आते-आते कई प्रश्न दिखाई देते क्यों मच जाता है ऐसा विप्लव? क्यों ईश्वर कहर भी छप्पर फाड़ कर देता है?
मुझेही……!
जाति खेतो में पैदा नहीं हुई घर के अन्दर-बाहर रखे गमलों में नहीं खिली कभी किसी पेड़ के फल से भी पल्लवित नहीं हुई ना ही किसी कारखाने में निर्मित हुई यह बनी है तुम्हारे ही बोये बबूल के काँटों की नोंक पर बामन! तुम्हारे ही स्वार्थ पूर्ति के लिये यह हरदम मुझे दंश मारती है तुम नहीं काटोगे अपने बोये बबूल मुझे ही डालना होगा मट्ठा तुम्हारी और इसकी जडों में।
आखिर क्यों?
एक दिया मिट्टी का जलता था कभी-कभी भगवान के आगे उजियारा बिखेरता चमकते थे अपनी रहस्यमयी मुस्कान के साथ हाथों में नाना प्रकार के शस्त्रधारित भगवान मनुवाद को स्थापित करने युद्ध के लिये सदा तैयार दिखते, पर किसी भी रोशनी में कभी भी दिखाई नहीं दिये शिखाधारियों के षडयंत्रों को रोकते दलितों पर होते दमन को थामते शस्त्रधारी पत्थरदिल भगवान।
जब चाँद गिर पड़ेगा।
चाँद जब कभी गिर पड़ेगा आसमान से धरती पर हम निहारना बंद कर देंगे धरती से चाँद को बूढ़ी नानी का चरखा थम जाएगा रुंध जायेगा लोरी गाती माँ का गला नहीं रहेगा बच्चों का चन्दामामा यह सृष्टि भी नहीं रहेगी चलो, ऐसे ही सही जातियों की झंझटों से पिण्ड तो छूट जायेगा।
अंधा-बहरा भगवान
वे छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे सितोलिया कपड़े की गेंद बना पुराने खण्डरनुमा मंदिर के पास एक पर एक सात पत्थर जमा फोड़ते सितोलिया मारते गेंद एक दूसरे पर तान बार-बार जमाते और फोड़ते सब भूलकर अपनी जात मंदिर के इर्द-गिर्द दौड़ रहे थे चिल्लाते एक का निशाना चूका गेंद गई जीर्ण-शीर्ण मंदिर में वह भी पीछे-पीछे गया खोजने वहाँ बैठा था मोटी तौंद चोटीवाला एक पुजारी उससे रहा नहीं गया एक अछूत का अनायास मंदिर में घुस आना जहाँ था वह और उसका भगवान पंडित ने उस बालक को मारा डण्डे से किया लहुलूहान उस रोते अबोध बालक को बचाने वहाँ क्यों प्रकट नहीं हुआ भगवान अंधा-बहरा
साभार- दलित निर्वाचित कविताएँ, इतिहासबोध प्रकाशन