रोटी सेंकती पत्नी से हँसकर कहा मैंने
अगला फुलका बिलकुल चन्द्रमा की तरह बेदाग हो तो जानूँ
उसने याद दिलाया बेदाग नहीं होता कभी चन्द्रमा
तो शब्दों की पवित्रता के बारे में सोचने लगा मैं
क्या शब्द रह सकते हैं प्रसन्न या उदास केवल अपने से
वह बोली चकोटी पर पड़ी कच्ची रोटी को दिखाते
यह है चन्द्रमा जैसी, दे दूँ इसे क्या बिन आँच दिखाए ही
अवकाश में रहते हैं शब्द शब्दकोश में टँगे नंगे अस्थिपंजर
शायद यही है पवित्रता शब्दों की
अपने अनुभव से हम नष्ट करते हैं कौमार्य शब्दों का
तब वे दहकते हैं और साबित होते हैं प्यार और आक्रमण
करने लायक
मैंने कहा सेंक दो रोटी तुम बढ़िया कड़क चुन्दड़ीवाली
नहीं चाहिए मुझको चन्द्रमा जैसी !
मुझे ठोकर लगी
मैंने भाषा के साथ कपट किया
यानी अपने से झूठ बोलने की कोशिश की
एक तारा टूटा मुझे तुरन्त ठोकर लगी
और हिचकी आई
मेरी माँ दूर बुदबुदाई होंगी 'कोई डूब रहा है'
शायद मेरा अपना ही कोई डूब रहा है।
प्रायश्चित के लिए
मैंने पत्थर माथे से छुआया
और ढूँढ़ने लगा कोई कविता
सच और रोशनी के लिए जीवन ही ढकेलता है
एकाएक टूटी तभी नींद शब्दों की
और उनके भीतर से दुख फट पड़ा बादल की तरह
बचता है धरती पर कोई -न- कोई एक
डूबने से बचाने वाला
वह मेरे व्यक्तिगत अँधेरे में आई
थपथपाया आहिस्ता-आहिस्ता मुझे
और मेरे चेहरे को आँसुओं से भिगोकर चली गई
अच्छा होता जो उसी के सामने
भाप के फव्वारे की तरह निकलते आँसू मेरी आँखों से
और मैं नहीं देख पाता उसका चेहरा ।
कुबूलनामा
कुबूल यह भी
कि असमर्थ मेरी भाषा
कुछ नया रोशन कर पाने में
पर श्रीमन्त !
जब बेरहमी से बाज़ार में
कारगर हो रहे
नेक शब्दों-इरादों के हिंसक औज़ारों जैसे अर्थ
चारों ओर विनाश के शिलान्यास का महापर्व
युद्धोन्मत घोड़ों की हिनहिनाहट की तरह
गूंज रही प्रार्थनाएँ
ऐसे अन्धाधुन्ध उजाले में
अब आप ही बता दें -
जो चाँदी के वर्क में लिपटे फरेब को चींथती
अदा कर रही कर्ज अपने खून का
कौन और क्यों कर रहा व्यभिचार
उस भाषा के साथ ।
मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा
मैं मरने से न तो डरता हूँ
न बेवजह मरने की चाहत सँजोए रखता हूँ
एक जासूस अपनी तहकीकात बखूबी करे
यही उसकी नियामत है
किराए की दुनिया और उधार के समय की
कैंची से आज़ाद हूँ पूरी तरह
मुग्ध नहीं करना चाहता किसी को
मेरे आड़े नहीं आ सकतीं सस्ती और सतही मुस्कराहटें
मैं वेश्याओं की इज्ज़त कर सकता हूँ
पर सम्मानितों की वेश्याओं जैसी हरकतें देख
भड़क उठता हूँ पिकासो के साँड़ की तरह
मैं बीस बार विस्थापित हुआ हूँ
और ज़ख्मों, भाषा और उनके गूँगेपन को
अच्छी तरह समझता हूँ
उन फीतों को मैं कूड़ेदान में फेंक चुका हूँ
जिनसे भद्र लोग ज़िन्दगी और कविता की नाप-जोख करते हैं
मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा
कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा
और मैंने उन लोगों पर यकीन कभी नहीं किया
जो घृणित युद्ध में शामिल हैं
और सुभाषितों से रौंद रहे हैं
अजन्मी और नन्हीं खुशियों को
मेरी यही कोशिश रही
पत्थरों की तरह हवा में टकराएँ मेरे शब्द
और बीमार की डूबती नब्ज़ को थामकर
ताज़ा पत्तियों की साँस बन जाए
मैं अच्छी तरह जानता हूँ
तीन बाँस, चार आदमी और मुट्ठी-भर आग
बहुत होगी अन्तिम अभिषेक के लिए
इसीलिए न तो मैं मरने से डरता हूँ
न बेवजह शहीद होने का सपना देखता हूँ
ऐसे ज़िन्दा रहने से नफरत है मुझे
जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे
मैं हर किसी की तारीफ़ करते भटकता रहूँ
मेरे दुश्मन न हों
और इसे मैं अपने हक में बड़ी बात मानूँ ।
नागझिरी
[ 1 ]
मैं नागझिरी क्यों आया था, क्या ढूँढ़ने
मैं उस गायब को छू नहीं सकता था
जो कभी सत्य था यहाँ सूरज की रोशनी में
मैं देख रहा हूँ
भूख और प्यास की गहरी छायाएँ
पर उनमें भी धँसा नहीं सकता अपने पंजे
मेहमानों जैसी फूस की छतें
घायल कबूतरों की गरदनों जैसे लटक रहे
बौने घरों के दरवाज़े
हिचकी ले रही है एक बूढ़ी औरत
और खटाखट दचीक रही है हैंडपम्प का हत्था
जो बिगड़ा हुआ है
पता नहीं उसे याद कर रहा है कौन-सा समुद्र
अभी तो नहीं टपक रही टॉटी से, पानी की एक भी बूँद
[ 2 ]
इसी नागझिरी ने देखा होगा प्रलय
तीन हजार साल पहले
और तब पहाड़ियाँ बन गई होंगी द्वीप
अब अदृश्य हैं भूगर्भ में झुर्रियाँ
पसरा है थका हुआ और आतंकित भूखंड
बस हैं टीले बिन कहानियों के
जिनके नीचे बन गए ओटले एक ओटले
पर पत्थर ही पत्थर जितने पत्थर
उतने ही सिन्दूर पुते देवता
कुत्ते सोए हैं जिनकी बगल में
गोचड़ी चूसती है खून तो फड़फड़ाते हैं पूँछ
कभी काटने लपकते खुद की ही देह
सिन्दूरपुते देवता कुछ नहीं करते, देखते रहते हैं
और छोटे बच्चे धूल-मिट्टी डालते हैं
पोस्ट बॉक्स के सुराख में
जो ढूँठ की छाती पर
किसी देवता की ही तरह लटका रहता है
[ 3 ]
नंग-धड़ंग बच्चे दौड़ते हुए खेल रहे हैं जहाँ
वहीं सघन झाड़ियाँ थीं एक दिन
औरतें जिस कुएँ से उलीच रही हैं पानी
वहीं कहीं होगी क्या नागझिरी
कमर तक घास में से उठते सुनहरे सर्प -युग्म मिथुन को
देखा होगा जिनने उनमें से कोई नहीं बचा है
सावन-भादों की दुपहर में हवा और पानी को परस्पर मथते देख
कैसे काँटे उमचते होंगे उनकी देहों पर
अब कौन बताए
अभी तो पत्थर के साँप को
गेंदे के फूलों से ढकती गुमसुम लगती हैं बच्चियाँ
और औरतें चमकाती पीतल के घड़ों को
फुसफुसाती हैं आपस में पाप की बातें
मेरी आँखें प्रवेश करती हैं
हवाओं के प्राचीन दालानों से गुजरते हुए
जलाशयों के गुप्त मंत्रणा प्रकोष्ठों में
जहाँ पिघलता हुआ दिखाई पड़ता है लम्बा
और पंच धातु का शिरस्त्राण आग में कपूर-सा जलने लगता है
[ 4 ]
कुत्ते भाँकते हैं सारी रात अब यहाँ
और शोहदे दारू की खाली बोतलें जाते वक़्त फोड़ देते हैं
मैं ढूँढ़ता हूँ अपनी आत्मा का आदिम टुकड़ा
जो टूटकर बिखर गया है काँसे की झंकार में
जला हुआ अन्न धरती को कोख में गंधाता है
और काँसे का बजता हुआ वह घंटा
पता नहीं कितनी नदियों की गहराई में समाकर सुन्न पड़ गया है
सुन्न पड़ गई है नागझिरी भी
उजाड़ अपने वैभव से
गड़े हुए पत्थरों के भीतर ही शेष हो शायद
सर्प-गन्ध और संझा का संगीत
बाहर तो ठंडी हवाओं के झोंके
गिनती के बचे महुवे के पेड़ों को गुनगुना देते हैं
जो खड़े हैं देशी शराब की दुकान के ठीक पीछे
[ 5 ]
मैं अकेला, कोई नहीं साथ यहाँ
जहाँ आदमी रहते हैं, घर नहीं रहता
वहाँ नहीं, अभी रिश्ता वैसा जेब और बाज़ार का
न अदृश्य सीढ़ियाँ वे तरक्की की
जिनने खोखला कर दिया है तंत्र, लोक का
यहाँ नहीं, आसपास के मशीनघरों में आते हैं
सैकड़ों दाड़की की जुगाड़ में
दीया-बत्ती के बखत जो पस्त लौटते हैं
उन्हीं के लिए अलस्सुबह से
'चलो नागझिरी, नागझिरी चलो'
टैम्पों वाले आवाज़ लगाते हैं
पाइप फैक्टरी, पंचायती प्रेस के कर्मचारी
गोदामों के चौकीदार उचककर चढ़ते हैं
'चलो नागझिरी पचास पैसे में'
फ्रीगंज की सड़कों को रौंदते
दहशत में कँपाते टैम्पो दौड़ते जाते हैं
[ 6 ]
ठाकुर भरत सिंह की चाय की मढ़िया
अब पक्की बन जाएगी
नागझिरी में खुलने वाला है पहला बीयर बार
टूटी सन्दूकची और चिकनी बेंचों के सहारे
खूब चले 'बजरंग टी हाउस' और 'कैलाश पान भंडार'
मक्खियों के हमले से बच-बच मीठी गाढ़ी चाय के घूँट
और कचोरी चबाते हँसते-बतियाते थे खुश ग्राहक जहाँ
वहीं एक दिन अब बेयरे झुक झुक के सलाम ठोकेंगे
टिप पाएँगे और फटी की फटी रह जाएँगी गाँव की आँखें
फिर गुजर गई गुजरान, क्या झोंपड़ी क्या मैदान
इससे आगे नागझिरी, तुम्हारा ढूँढ़ा जाएगा नया नाम
किसी भी स्थानीय गांधी या नेहरू के नाम को पकड़कर
ठोक देंगे तुम्हारी छाती पर नए नामकरण का पत्थर
पुराने लोग कहते हैं दूसरी ही कथा
सुनहरे साँपों की छोटी-सी दुनिया थी नागझिरी
लम्बी चमकती मूँछों वाले काली मिट्टी पर सोने की लहरें दौड़ने वाले
नागों का लोक
जो बन गया है अभिशप्त एक खेड़ा
अब वर्तमान के परे देखने को मजबूर है समृद्धि का सपना
कहते हैं ईश्वर स्वर्ग में रहते हैं
पर कोई नहीं बताता स्वर्ग कहाँ ?
[ 7 ]
ज़हर डसा जो भी आता था नागझिरी
नगाड़े बजते और नारियल फूटते
नीम के गुच्छों से होतीं फिर अमृत बौछारे
नाचते-उठते-गिरते-पटकनी खाते
कँपकँपी में दन्तकड़ी बँध जाती थी
और फिर हँसती निरोग काया के साथ लौट जाता था जनसमूह
उचारता जय नाग महाराज! जय नागझिरी!
[ 8 ]
नागझिरी के पटेल बा के घर आया है टी.वी.
और गाँव के लोग-लगाई और बच्चे सब
समा नहीं सकते बैठक में तो रोज शाम
नीम नीचे सजा दिया जाता है बक्सा
और सब चकित देखते हैं नागझिरी के बाल-वृन्द , लोग लुगाई
बीसवीं सदी की दुनिया के करिश्मे
फोटुओं में ढूंढ़ते स्वर्ग भूल जाते हैं बैठे जहाँ
वह कभी थी नागवंश की जागीर एक
सुनहरे साँपों की चमकती दुनिया
[ 9 ]
क्षिप्रा और महाकाल के इलाके में सुनहरे नागों का लोक है
नागचम्पा, महुवे के पेड़ों और नागफनी लदे
टीलों के बीच तो सोने के लालची
हथियारबन्द दौड़े आए सोने की खोज में,
और हुआ वही जो होता है
सोने के लुटेरे जो करते हैं सोने की चिड़िया के साथ
नाग-बेलियों और भक्तों की कातर पुकारों के बावजूद
दफन हो गई एक झटके में पवित्रता पानी की
नागमंत्रों का जादू सब मिट्टी हो गया
तहस-नहस संस्कृति सोने के दाने-से गेहूँ की
यहाँ रह गए मिट्टी के टूटे बर्तन और हाँफते घर
मिला था जो एक ताम्रपत्र शोभा बढ़ाता है म्यूजियम की
[ 10 ]
अब तो खड़ा होगा एशिया का सबसे बड़ा कारखाना सोयाबीन का
पानी के मोल की धरती बदल गई है टंच सोने के भाव में
आँखों में है सबके दस साल बाद का सपना
जब थिएटर और बड़े-बड़े होटल होंगे
फिर शुरू होगा विस्मृत को और विस्मृत करने का सिलसिला
सेंध लग जाएगी किंवदन्तियों के बचे-खुचे जखीरे में
तेजाजी का चबूतरा बच जाए कैसे भी भइया
बड़बड़ाती है बूढ़ी माँ और मैं सुनता हूँ किस्से
धरती हड़पने कुएँ के पास से
मोची-महारों को खदेड़े जाने के
तभी किसी अज्ञात पशु-शव की दुर्गन्ध से परेशान
सरपंच एक गाली देने लगता है
देशभक्तों और लोकसेवकों की खट्टी डकारों को
और कच्चे घरों के बीच तंग गलियों में
जीप एक भोंपू से फेंकती है संकट और उपाय
एक साथ जनतंत्र की रक्षा के
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता हूँ अपने पीले स्कूटर की तरफ
अधनंगे बच्चे दौड़ते हैं जीप के पीछे, उड़ती धूल में
गायब होने के लिए
[ 11 ]
शहीद पार्क के पास
टेंपो वाले शायद कुछ दिन बाद नहीं कहेंगे
चलो नागझिरी! चलो नागझिरी! पचास पैसे में,
नागझिरी लेने आते थे
दुखी लोग सुनहरे साँपों की केंचुल के अंश
कुँवारी कन्याएँ बाँझ औरतें मिरगी दमे के शिकार लोग
रखेंगे सहेजकर पास अपने
होंगी मनोकामनाएँ पूरी सब, कहते हैं पुरखे
[ 12 ]
एस्को कम्पनी से अब बनकर निकलते हैं बड़े-बड़े पाइप
पंचायती प्रेस से छपती हैं ज्ञान की किताबें
अवंतिका हो चुका है कब से नेताओं, पत्रकारों, डॉक्टरों, अफसरों
प्रोफेसरों और तिकड़मबाजों का शहर उज्जैन
और नागझिरी, एक टूटे हुए साज की तरह
पड़ा है दूर अवंतिका की जाजम से
एक खंडित सपना
चकाचौंध वाले दूसरे विराट् सपने के दरवाज़े को खटखटाता है
[ 13 ]
सफ़ेद नाग है अभी भी एक, दूध के रंग का, बड़ी-बड़ी मूँछें
दिखता है जब-तब और फिर गायब हो जाता है
बूढ़े दादा कहते हैं दिखें जब सफ़ेद नाग महाराज
बदन पर पहना कपड़ा उढ़ा दो उन पर
फिर उसे उठा पहनकर घर आ जाओ
पूरे होंगे सकल मनोरथ, पत्थर की लकीर यह
अभी भी कोई-कोई ढूँढ़ते फिरते हैं सफ़ेद नाग महाराज
पर कहते हैं रणछोड़ ने फेंका था कुरता
और पहन आया भी, पर उसी रात हुआ कत्ल उसका
मामला था इश्क-आशनाई जैसा कुछ
[ 14 ]
ईंट के भट्टे धधक रहे हैं , खड़ी होनी है सबसे बड़ी फैक्टरी
सड़क को पक्का करते दौड़ते हैं इंजिन
गैस के गोदाम से फैलती है अटपटी गन्ध हवा में
दिन-भर धरती को उपसते दौड़ते हैं ट्रेक्टर
अब नहीं होगा वंश सुनहरे साँपों का
नहीं बचा नागचम्पा का पेड़ एक भी
सिर्फ़ दो खड़े हैं महुवे के नशे में धुत, कहते हैं दोनों ही हत्यारे
दोनों पर लटकी मिलीं कई बार युवा लाशें
[ 15 ]
पूनम के दिन दिख सकते हैं सफ़ेद नागराज भैया
कहते हैं दादा फिर रुक जाते हैं उसी दम
रणछोड़ की हत्या को याद कर
हत्याएँ, आगजनी, खुदकुशी
चोरी और लूटपाट के किस्सों का धुआँ घेरने लगता है
खाँसते-खाँसते कहते हैं दादाजी
खत्म हुआ सब कुछ बची हैं बातें
फिर तेजाजी के चबूतरे को तकने लगती हैं
उनकी पानी में तैरती आँखें
[ 16 ]
हवा को घायल करते विराट अस्थिपंजर
घर के उजाले को रोकते, ख़तरनाक पंजे
मस्तिष्क के भीतर टूटते आवाज़ों के दरख्त
रौंदते धरती का गर्भ, मशीनों के दाँतेदार पाँव
और नींद में भी कर देते छेद, समर्थ पीठासीनों के भेड़िया दाँत
और दूसरी तरफ़ उतने ही आदिम उजाले में
तैरते जीवन के सपने
दीवारों पर संझा के माँडने, आँगन में हल्दी की गन्ध
गर्भवती साँसों की उष्मा से पिघलता चन्द्रमा
दाना-पानी करते गाय-बैलों को सहलाते हाथ
धरती-आकाश को तकती उम्मीदभरी जवान आँखें
भूख के अँधेरे में भी चमकती रोशनी की प्यास
[ 17 ]
नागझिरी! मैं हूँ तुम्हारा भाट। तुम्हारी धड़कनों से स्पन्दित
दौड़ता मेरा रक्त
तुम्हारी पसलियों में धँसी किंवदन्तियों और पीड़ा के लिए
मैं नहीं सिर्फ़ शब्द, मैं उस कपट के विरुद्ध
किए जो टुकड़ों में बाँट रहा है चेहरा
जो जुटा नहीं पाया अब तक कीचड़ के टापू में, साफ-सुथरे घर
मैं चुप्पी की गुहा में शंख की तरह
मैं आग की तरह जमे हुए दुख की बर्फीली चट्टानों में
नागझिरी, एक छोटा-सा भाट, मैं आवाज़ , एक दहकती भट्टी
अपने लोगों की आत्मा में बरमे की तरह छेद करते
भय के अँधेरे से ले जाना चाहता हूँ सबको, धूप के पठार पर
झूठ की फहराती पताकाओं को चींथता
महाकाल की तीसरी आँख जैसा
तमतमाता विद्रोही चेहरा सामूहिक देखना-दिखाना चाहता हूँ