हम कवियों-लेखकों के बारे में मैं अक्सर एक स्थिति की कल्पना करता हूँ और फिर सोच में पड़ जाता हूँ। स्थिति यह है कि हम चाय का कप हाथ में ले कर चाय के घूँट भरते हुए, किसी अजनबी को यथासंभव विनम्र लहजे में यह बताएं कि “मैं कविता लिखता हूँ” या “मैं ग़ज़ल कहता हूं” और जवाब में वह व्यक्ति एकदम पूछ बैठे, “क्यों? किसलिए?” अब कवि या शायर चूंकि शब्दों के इस्तेमाल में सिद्धहस्त होता है, इस सवाल के सैंकड़ों प्रभावशाली जवाब उसे सूझ सकते हैं। पर अगर सही और सच्चा जवाब ढूँढना हो, तो वह अजनबी को नहीं, ख़ुद को संबोधित होगा और निहायत छोटा-सा और सीधा-सादा होगा। जैसे—
“लिखता हूँ, क्योंकि मैं सिर्फ़ उतना नहीँ हूँ, जितना आपको दिखता हूँ।”
इस सन्दर्भ में मुझे वाल्ट व्हिटमन की वह बात याद आती है कि I am not contained between my hat and boots.
या फिर,
Do I contradict myself? Very well, then, I contradict myself. (I am large; I contain multitudes.)
कवि या शायर सचमुच अगर बड़ा है, तो उसके व्यक्तित्व का विस्तार multitudes को अपने भीतर समेटने के कारण ही है।
आज़ादी के बाद जब देश के पुनर्निर्माण का दौर शुरू हुआ, तो निर्माण के उत्साह और विकास की सरगर्मियों के बीच एक नयी पीढ़ी के संघर्षों की भी शुरुआत हुई। इस नयी पीढ़ी को आज़ादी से पहले के सांस्कृतिक-सामाजिक नवजागरण वाले दौर के ऊंचे आदर्श और जीवन-मूल्य विरासत में मिले थे। यही आदर्श और जीवन-मूल्य आने वाले संघर्षों में इस पीढ़ी का संबल बनने वाले थे। मिसाल के तौर पर, शहीद राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की ग़ज़ल “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है” आज तक हम सबके दिलों पर स्थायी रूप से अंकित है और निश्चित रूप से आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी। वस्तुत: संस्कृति और सभ्यता की सुदीर्घ यात्रा में जीवन मूल्य और आदर्श पीढ़ी दर पीढ़ी ‘रिले रेस’ के ‘बैटन’ की तरह आगे पहुंचाए जाते हैं। कविता शुरू से ही इस प्रक्रिया का बेहद ज़रूरी हिस्सा रही है। पाकिस्तानी शाइर इब्ने इंशा ने कहा भी है:
"सीधे मन को आन दबोचे, मीठी बातें सुंदर बोल, मीर, नज़ीर, कबीर और 'इंशा' सारा एक घराना हो!"
बहरहाल, मैं ख़ुद को इसी पीढ़ी के प्रतिनिधि के रूप में देखता हूँ। मेरे लिए कविता-कर्म दरअस्ल सांस्कृतिक नवजागरण के उन जीवन-मूल्यों की रक्षा करते हुए विपरीत हालात में भी अपने इन्सान होने की गरिमा बनाये रखने का गंभीर और महत्त्वपूर्ण और सार्थक कर्म है। इसी सन्दर्भ में पारम्परिकता, सामाजिक मूल्यों और स्थापित आदर्शों के लिए केवल सम्मान नहीं, बल्कि उन्हें अपने संस्कारों के रूप में assimilate करके और सहेज कर ग़ज़ल कहना या कविता रचना मुझे ज़रूरी लगता है। साथ ही, ग़ज़ल की रिवायात (conventions) या कविता के स्थापित प्रतिमानों को भी जहां तक हो सके, अपनाना मेरे लिए केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि सहज और सुखद संस्कार है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमने अपने तौर पर कोई प्रयोग नहीं किये या पुरानी लीक से deviation नहीं किया।
अस्तु, रचनाकारों की हमारे बाद वाली जो पीढ़ी नयी सदी में काव्य रचना कर रही है, जिसके प्रतिनिधि मनजीत भोला हैं, उसके लिए हमारी पीढ़ी के भी बने-बनाये रास्ते से deviate करके नए आयाम तलाश करना, नए कोण से यथार्थ को देखना, नए प्रयोग करना ये सब सृजनशीलता की बुनियादी ज़रूरतें हैं।
आलोचक आम तौर पर पारम्परिकता और प्रयोगधर्मिता को अलग-अलग खांचों में रख कर देखते हैं। बल्कि ज़्यादातर तो उन्हें एक-दूसरे के ख़िलाफ़ समझ कर किसी शायर के ऊपर दोनों में से कोई एक लेबल लगाने की जल्दबाजी में रहते हैं। वे सोचते हैं कि ये दोनों एक साथ हो ही नहीं सकतीं।
वास्तव में, मनजीत के व्यक्तित्व की जड़ें जिस संस्कृति और परंपरा की मिट्टी में गहरे तक फैली हुई हैं, वह कविता और शायरी के लिए बड़ी ज़रखे़ज़ है। इस पूरे भू-भाग में ही उर्दू ज़ुबान पैदा हुई, पनपी और विकसित हुई है। इसके अलावा लोक-जीवन की सृजनात्मकता की कभी फीकी या बासी न पड़ने वाली जीवन-रस की धारा इस शाइर की जड़ों को सिंचित करती है। ऐसे में इसके पत्ते और शाख़ाएं अनुकूल हवा, पानी, धूप से लहलहा उठते हैं और माहौल को महकाने वाली शाइरी फूलों की मानिंद खिल जाती है।
पहली नज़र में पुस्तक का शीर्षक आशा का एक उथला सा संदेश देता हुआ प्रतीत होता है। लेकिन जिस शे’र से यह शीर्षक लिया गया है, उसका पूरा संदर्भ इस तरह के दिवास्वप्न की पोल खोलता हुआ दिखाई देता है:
"किया वादा वफ़ा उसने उजाले हर तरफ़ होंगे हवा को दे दिया ठेका चराग़ों की हिफ़ाज़त का।"
शाइर यहीं पर बात ख़त्म नहीं करता, बल्कि आने वाले उस वक़्त की भी बात करता है, जो उस दिवास्वप्न का स्थान लेगा:
"बेचने जितने हैं जुमले बेच लो ठप ये कारोबार होंगे, देखना।"
दौरे-हाज़िर में जो पेचीदगियां, जो समस्याएँ हमारे रू-ब-रू हैं, बल्कि जिन से हम घिरे हुए हैं, कोई भी चिंतनशील इन्सान उनके बारे में शिद्दत से महसूस करेगा— इस में कोई संदेह नहीं. लेकिन आम तौर पर इन्हें ले कर बुद्धिजीवी वर्ग कोई खास breakthrough नहीं कर पा रहा है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के शब्दों में,
“और इधर चिंतकों का यह हाल है कि वे पुराने प्रश्नों को नए ढंग से सजाते हैं और उन्हें ही उत्तर समझ कर भीतर से फूल जाते हैं। परन्तु यह उत्तर नहीं, प्रश्नों के भीतर का हाहाकार है...” ।
बुद्धिजीवियों से, ख़ास तौर पर शाइरों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे यथार्थ के अनछुए पहलुओं को सामने लाएं और एक नए कोण से चीज़ों को देखें। उनके सोचने में कुछ मौलिकता होगी, उनकी अभिव्यक्ति में कुछ ताज़गी होगी, तभी यह कहा जा सकेगा कि वे अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभा रहे हैं।
योगेश शर्मा ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि मनजीत की शाइरी में एक “ख़ास क़िस्म की तल्ख़ी” है। उसकी वजह यही है कि मनजीत के भीतर का रचनाकार समकालीन यथार्थ पर संवेदनशील इंसान के रूप में शिद्दत के साथ प्रतिक्रिया करता है। समाज के पीड़ित वर्ग के प्रति अपने जुड़ाव और प्रतिबद्धता के चलते उसके स्वर में तल्ख़ी आ जाती है।
रक्त-दान के प्रचार के लिए अक्सर बताया जाता है कि रक्त का उत्पादन या निर्माण करने की कोई विधि वैज्ञानिक अब तक विकसित नहीं कर पाए हैं और यह हमारे शरीर में ख़ुद-ब-ख़ुद बनता है। ऐसा नहीं कि इसके बनने की प्रक्रिया हमें मालूम नहीं। ठीक यही बात हम ग़ज़ल के बारे में कह सकते हैं। इसके बनने की प्रक्रिया का विस्तार से विश्लेषण करने के बाद भी आख़िरकार उस जानकारी के आधार पर इसका उत्पादन या निर्माण करना मुमकिन नहीं होता। बनती तो यह भीतर ही है। यह बात सीधी-सी लगती है, पर इसे हम अक्सर भूल जाते हैं।
ग़ज़ल की तकनीक की जानकारी के रूप में अगर रवायात शाइरी की परंपरा का हिस्सा बन कर शाइर के व्यक्तित्व में समाहित हो जाएँ, तो जो अश’आर स्वतःस्फूर्त ढंग से ज़ुबान पर आते हैं, वे किसी-न-किसी बह्र में होंगे। गुरुजनों की इस्लाह के हम कायल हैं, पर अच्छी शाइरी की समझ और उसे सराहने का सलीक़ा हो—यह बात भी ज़रूरी है. सिर्फ़ तकनीक से शे’र हो तो जाते हैं, पर ग़ज़ल की आत्मा ज़्यादा यांत्रिकता के नीचे दब भी जाती है। कई बार तो बनावटीपन उसे बुरी तरह कुचल भी देता है।
अमेरिकी लेखक और चिंतक थॉमस जेफ़रसन का कथन है: “अगर बात स्टाइल की है तो पानी के बहाव की तरह बहते जाएं। बात सिद्धांतों की है तो चट्टान की तरह खड़े रहिए।” इस नज़रिए से, स्टाइल में प्रवाह और सिद्धांत में दृढ़ता इन दोनों का समन्वय मनजीत भोला की ग़ज़लों की विशेषता है।
हां, यह ज़रूर कहा जा सकता है कि दूसरा तत्त्व तो निश्चित रूप से मौजूद है, जबकि पहले तत्त्व के लिए और अभ्यास की गुंजाइश अभी है। भोला की ग़ज़लें कहीं कहीं पारंपरिक बिम्ब-विधान आदि का अतिक्रमण करते हुए प्रस्तुति में ताज़गी का अहसास करवाने में कामयाब होती हैं। जहां पुराने बिंब प्रयोग हुए हैं वहां भी संदर्भ समकालीन यथार्थ से जुड़े हुए हैं।
एक ख़ास बात, जिस पर किसी भी सजग पाठक का ध्यान आकर्षित होता है, वह है मनजीत की ग़ज़लों के मत्ले। ग़ज़ल के अशआर तो अपेक्षतया सहजता से हो जाते हैं, परंतु सशक्त मत्ला कहना प्रायः दुष्कर होता है। यह बात सचमुच क़ाबिले-तारीफ़ है कि मनजीत की बहुत सी ग़ज़लों के मत्ले पाठक को सिर्फ़ चौंकाते ही नहीं, बल्कि उसे अपनी बनी बनाई पूर्वधारणाओं पर भी पुनर्विचार करने के लिए विवश कर देते हैं।
मक़्ते में, ज़ाहिर है, पूरी स्थिति का गहन अवलोकन करने के बाद निकाले गये निष्कर्ष की सशक्त प्रस्तुति होती है। उदाहरण देखिए:
"क्या सियासत का यही दस्तूर 'भोला' ठीक है? आदमी समझा गया ना आज तक इन्सान को।"
एक ग़ज़ल में तो शाइर यह स्पष्ट करता है कि किस वजह से उसे ग़ज़ल में मक़्ता रखने से परहेज़ होता है:
"गवारा ही नहीं उनको हमारा नाम सुनना भी ग़ज़ल में इसलिए ही हम कभी मक़्ता नहीं रखते।"
उर्दू शायरी के लिए जो परंपरागत लवाज़मात अक्सर तय किये जाते हैं, उनमें से कुछ एक पर नज़र डालें, तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि व्यवस्था के ख़िलाफ़ तंज़ मनजीत का पसंदीदा हथियार है। कुछ उदाहरण मुलाहिज़ा फ़रमाएं:
"भुलाए से न भूला जा सके लहजा वो ज़ालिम का, ज़बां पे धर के आया था कोई गुड़ की डली यारो!" "एक टूटी सी है थाली ख़ाली है, जब कहोगे हम बजा देंगे मियां!" "मंदिर में गया होगा, गिरजे में गया होगा साहिब न मदरसे के रस्ते में गया होगा।"
इन ग़ज़लों में कहीं तख़य्युल की बारीकी, तसव्वुर की स्पष्टता, तमसील की उपयुक्तता और कहीं मंज़रकशी के उदाहरण मिल जाते हैं। “मुफ़लिसों की बस्तियों में ये नज़ारा आम है” (पेज 15) ग़ज़ल के अशआर में ‘मंज़रकशी’ की रिवायत को शोषित वर्ग के चित्रण का ज़रिया ही बना दिया गया है।
एक शे’र आहंग (diction) की बारीकी के नुक़्त-ए-नज़र से ख़ास तौर पर क़ाबिले-ग़ौर है:
"दिखाई वो दिया जैसा उसे वैसा कहा मैंने यही गर है बग़ावत तो सुनो बाग़ी रहा हूं मैं!"
कोई भी रिवायतपसंद शाइर पहले मिस्रे में ‘वो’ के स्थान पर ‘जो’ कह कर इसे सामान्य कथन बना देता। मनजीत ने जान-बूझ कर यहां ‘वो’ कह कर एक ख़ास वर्ग के प्रतिनिधि की ओर उंगली उठा दी है।
एक शे’र में कितना गहरा विचार अपनी पूरी ताक़त के साथ समेटा जा सकता है, इसके दो चुनिंदा उदाहरण द्रष्टव्य हैं:
"ऐ हवा किस बात का तुझको गुमां है ये बता सामने सौ दीप तुझसे एक भी जलता नहीं।"
"हवा आ ही गई है तो भला मायूस क्यों करना? धरो तुम चाक पर माटी कोई दीपक बनाते हैं।"
यहां इशारियत (symbolism) का ख़ूबसूरत इस्तेमाल करते हुए संघर्ष की ज़रूरत को सशक्त ढंग से रेखांकित किया गया है।
आज के सामाजिक सरोकारों की अभिव्यक्ति भोला की ग़ज़लों में आम तौर पर विडंबनाओं और विद्रूपताओं को irony के माध्यम से उद्घाटित करके भी हुई है:
"रोटियां भर पेट उनको भी यहां मिलतीं नहीं ठंड में जो रोड पर किशमिश छुआरे बेचते।"
एक और शे’र देखिए, जिसमें irony का इस्तेमाल दूसरी तरह से हुआ है:
"आइनों को तोड़ डाला आपने, टूट कर शीशे नुकीले हो गये।"
एक ख़ास बात यह भी है कि मनजीत की ग़ज़लों में आम तौर पर शे’र के पहले मिस्रे के आख़िर में अनुमानित बात दूसरे मिस्रे में नहीं आती, बल्कि पाठक या श्रोता को झकझोर देने वाली (मात्र चौंकाने वाली नहीं) कोई बात सामने आती है। शे’र पढ़ या सुन कर हम सोचने के लिए विवश हो जाते हैं।
साहित्यिक पत्रिकाओं में, विचार-गोष्ठियों में और अदब से जुड़े मंचों पर कई बार सम्प्रेषण का सवाल उठाया जाता है। प्रकाशक भी कविता की पुस्तक के लिए पाठकों की कमी की शिकायत करते हैं। सचाई यह है कि कविता हो या ग़ज़ल या कोई अन्य विधा — वह कागज़ पर छप जाने से सम्पूर्ण नहीं होती, बल्कि वह रचनाकार और पाठक के सांझे भाव-मंथन और विचार-मंथन के बीच घटित होती है।
अगर कमियों का ज़िक्र करें, तो मुख्य रूप से दो ही बातें कहना पर्याप्त होगा। एक तो, उर्दू अल्फ़ाज़ में नुक़्ते की समस्या है, जो हिन्दी में प्रकाशित ग़ज़ल संग्रहों में अक्सर महसूस की जाती है। दूसरे बह्र में कहीं कहीं वज़्न का स्खलन भी दिखाई देता है, जो कई बार हिन्दी और उर्दू जानने वालों के बीच उच्चारण के अंतर और भिन्नता की वजह से होता है।
‘उजाले हर तरफ़ होंगे’ की ग़ज़लें समकालीन स्थिति में किसी भी अच्छी रचना की तरह पाठक की तटस्थता को तोड़ती हैं। मनजीत भोला ऐसा इसलिए कर पाए हैं, क्योंकि उनकी जीवन-दृष्टि, संवेदना और शिल्प तीनों यह ज़ाहिर कर देते हैं कि अतीत से अपना रिश्ता कायम रखते हुए वर्तमान की चुनौतियों के बावजूद भविष्य की संभावनाओं की आहट को ले कर वे आस्था और विश्वास के साथ प्रतिबद्ध हैं। इसके पीछे यह दृष्टि कार्य करती है कि सामाजिक सोद्देश्यता के साथ जुड़ कर ही व्यक्तिगत अनुभूतियाँ सार्थक होती हैं।
ऐसी समीक्षाएँ किसी भी सृजनशील को निश्चित ही प्रेरित करती हैं।
हार्दिक आभार सर।
Manjeet Bhola is really a good shayar and his ghazals are excellent as well. No doubt Dr. Dinesh Dhadhichi ji has written critical appreciation for his poetry very well and honestly.