आम तौर पर रसायनिक खेती के दुष्प्रभावों को काफी हद तक स्वीकार करने के बावज़ूद, इसे विकल्पहीन माना जाता है. दूसरी ओर जैविक खेती के लाभों को स्वीकार करने के बावज़ूद इसे पहले से ही कम रसायनों के प्रयोग वाले इलाकों, जैसे आदिवासी इलाकों या असिंचित इलाकों के लिए ही सुझाया जाता है. स्वामीनाथन कमीशन से ले कर आईसीएआर के भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान, मोदीपुरम की हालिया सिफारशों में हरियाणा-पंजाब जैसे गहन कृषि के क्षेत्रों को जैविक खेती से दूर ही रखा जाता है. इस का सब से बड़ा कारण यह मान्यता रही है कि भले ही जैविक खेती टिकाऊ हो, जैविक उत्पादों की गुणवत्ता बेहतर हो एवं ये पर्यावरण के लिए सुरक्षित हों, पर जैविक खेती की उत्पादकता कम होती है. इसलिए जब तक हरियाणा-पंजाब जैसे गहन कृषि के क्षेत्रों में जैविक खेती को बढ़ावा नहीं दिया जाता, जैविक खेती हाशिये का प्रकल्प बनी रहेगी न कि खेती की मूल धारा; और जब तक जैविक खेती में उच्च पैदावार नहीं मिलती तब तक जैविक उत्पाद अमीरों तक सीमित रहेंगे एवं आमजन इन से वंचित रहेंगे.
‘जैविक खेती जन संवाद’
12 सितम्बर 2021 को रोहतक (हरियाणा) में आयोजित ‘जैविक खेती जन संवाद’ का उद्देश्य इस गलतफहमी को दूर करना था कि जैविक खेती में रासायनिक खेती से कम पैदावार ही मिलती है. कुदरती खेती अभियान, हरियाणा द्वारा आयोजित इस जन-संवाद में लगभग 300 लोगों ने भाग लिया. बेमौसमी वर्षा की वजह से हाज़री अपेक्षा से कुछ कम रही लेकिन पहली बार कुदरती खेती अभियान, जो एक अपंजीकृत एवं अवित्पोषित स्वयंसेवी प्रयास है, द्वारा आयोजित कार्यक्रम में कृषि से जुड़ी सरकारी संस्थाओं जैसे हिसार कृषि विश्वविद्यालय, हरियाणा बागवानी विभाग इत्यादि के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया. किसान संगठनों के प्रतिनिधि भी थे पर कम थे.
आंकडें:
कोरोना काल में फ़ोन पर किये गए सर्वे में पाया गया कि रबी 2020 में हरियाणा के आत्मनिर्भर जैविक खेती करने वाले किसानों में से 45% को राज्य की सब से महत्वपूर्ण फ़सल, गेहूँ में रसायनिक खेती की राज्य औसत से ज़्यादा पैदावार मिल रही है जब कि इस फ़सल में ही जैविक खेती में सबसे ज़्यादा अड़चन आती है. इस लिए सर्वे के लिए गेहूं को ही चुना गया. अन्य फसलों विशेष तौर पर धान, जो हरियाणा की खरीफ की मुख्य फसल है, में आम तौर पर पैदावार में कोई कमी नहीं होती. इस जन संवाद में सार्वजानिक की गई किसानों की सूची अनुसार गेहूं में औसत से ज्यादा पैदावार एक-दो किसान नहीं अपितु 100 के करीब किसान ले रहे हैं. हालाँकि 2019 के मुकाबले में (60%) से 2020 में यह अनुपात कम हुआ है परन्तु औसत से ज्यादा पैदावार लेने वाले किसानों की संख्या एक ही वर्ष में दोगुनी हो गई है.
क्योंकि कुदरती खेती अभियान का किसानों से कोई व्यवसायिक सम्बन्ध नहीं हैं इस लिए किसान आम तौर पर अभियान को सही जानकारी देते हैं; अगर प्रशिक्षण के बाद भी जैविक खेती शुरू नहीं करते या किसी रसायन का प्रयोग करते हैं, तो आम तौर पर यह स्पष्ट तौर पर अभियान को बता देते हैं. ऐसा करने से किसानों को कोई नुकसान नहीं होता. इस के बावज़ूद, बहुत अच्छी पैदावार के दावे होने पर दोबारा पड़ताल भी की गई. आस पड़ोस में और कोई किसान पुष्टि के लिए उपलब्ध नहीं होने पर 15-20 दिन बाद दोबारा फोन कर जानकारी प्राप्त की गई. 2019 में प्राप्त आंकड़ों को जैविक किसानों के दो दिवसीय सम्मलेन में पुष्टि हेतु रखा गया. इस के विपरीत 2020 में प्राप्त आंकड़ों को केवल जैविक किसानों के सम्मुख प्रस्तुत न कर के, सार्वजानिक जनसुनवाई की गई जिस में कृषि वैज्ञानिकों, संस्थाओं और किसान संगठनों को विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया.
नवीनतम उपलब्ध सरकारी आंकड़ों के अनुसार हरियाणा में पिछले तीन साल में गेहूं की औसत पैदावार 46 मन (1 मन= 40 किलोग्राम) प्रति एकड़ रही और सी 306 किस्म की औसत पैदावार 26 मन है. ज़्यादातर जैविक किसान यही कम पैदावार वाली सी 306 किस्म ही बोते हैं क्योंकि यह हरियाणा की परम्परागत किस्म है एवं रासायनिक खेती में भी इस के उच्च दाम मिलते हैं. इस लिए इस सर्वेक्षण में देसी किस्म की पैदावार 26 मन और उच्च पैदावार की क्षमता वाली किस्मों में 46 मन से ज्यादा प्रति एकड़ पैदावार लेने वाले जैविक किसानों की गणना की गई (क्योंकि अनुभवी जैविक किसान मिश्रित खेती करते हैं इस लिए गेहूं की सहयोगी फसलों की पैदावार को घोषित एमएसपी भाव के आधार पर सममूल्य की गेहूं में बदल दिया गया). केवल गेहूं की एचवाईवी (उच्च पैदावार की क्षमता) किस्मों की अलग से गणना करने पर 2019 में 30% और 2020 में 18% किसानों की पैदावार औसत से ज्यादा थी. आम तौर पर नए जैविक किसान जिन का अपना बाज़ार विकसित नहीं होता वही गैर-देसी किस्मों की बिजाई करते हैं जब कि अनुभवी जैविक किसान देसी किस्म बोते हैं. यह एक कारण हो सकता है जिस के चलते एचवाईवी गेहूं में औसत से ज़्यादा पैदावार लेने वाले किसानों का अनुपात देसी गेहूं में औसत से ज़्यादा पैदावार लेने वालों के मुकाबले कम है.
जैविक खेती की उत्पादकता बाबत सर्वे परिणाम और आम धारणा में इतना अंतर क्यों है?
यह अंतर इस लिए है क्योंकि जैविक खेती के तौर तरीकों में फर्क होता है. जैविक खेती की न्यूनतम शर्त है रासायनिक उर्वरकों, कीट नाशकों इत्यादि का एवं जीएम बीजों का उपयोग न करना परन्तु इस न्यूनतम शर्त को ही जैविक खेती की परिभाषा मान लेना गलत है. आम तौर पर किसान भी जैविक खेती की शुरुआत रसायनों का प्रयोग बंद करने से करते हैं परन्तु खेती के अन्य तौर तरीकों में कोई बदलाव नहीं करते. वही एक फसली खेती जारी रहती है, न कम्पोस्टिंग में सुधार होता है और न सिंचाई के तौर तरीकों में कोई बदलाव. जिन जैविक किसानों को अच्छा बाज़ार भाव मिल जाता है, उनके लिए पैदावार में सुधार करने की अनिवार्यता भी नहीं रहती. आय बढ़ाने के लिए प्रसंस्करण इत्यादि पर जोर दिया जाता है न कि उत्पादकता बढ़ाने पर.
क़ुदरती खेती अभियान का नजरिया भिन्न था. अभियान के पास किसानों को बाज़ार उपलब्ध कराने के संसाधन नहीं थे. किसी प्रोजेक्ट की तरह अभियान किसी सीमित क्षेत्र में सक्रिय न हो कर पूरे हरियाणा में काम करने का इच्छुक था. पूरे हरियाणा में फैले किसानों को बिक्री में सहायता करना संभव नहीं था. बिना बिक्री या आर्थिक सहायता के कोई किसान कम पैदावार के साथ खुद खाने के लिए तो जैविक खेती अपना सकता है पर आम किसान बिक्री के लिए जैविक खेती तभी करेगा, जब पैदावार में गिरावट या तो न हो या बहुत कम हो जिस की भरपाई लागत में हुई कमी से हो जाए. इस लिए अभियान का शुरू से जोर बराबर की पैदावार लेने पर था.
शुरू में, विशेष तौर पर गेहूं में बराबर की पैदावार नहीं मिली. समीक्षा करने पर पाया गया कि कृषि अवशेष को आग लगाना बंद करने और रसायन छोड़ने के अलावा जैविक खेती और रासायनिक खेती के तौर तरीकों में कोई विशेष अंतर नहीं आया था. मिश्रित खेती इत्यादि सरीखे उपायों को जैविक किसान न तो अनिवार्य मानते थे और न संभव. पर 2016 में आयोजित महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के जैविक कृषि भ्रमण ने इन दोनों मान्यताओं को तोड़ दिया. इन उपायों को ज़मीन पर लागू होता देख और उस के परिणामों को देख कर कुछ जैविक किसानों ने अपने तरीकों में बदलाव किया. शीघ्र ही उन्हें अच्छे परिणाम मिलने लगे. अब अभियान हरियाणा के अन्दर ही जैविक भ्रमण कार्यक्रम आयोजित करने लगा. धीरे धीरे एक किसान से दूसरे किसान तक जैविक खेती के व्यापक स्वरूप का फैलाव होने लगा. जैविक किसानों को यह बात समझ आ गई कि केवल रसायन मुक्त जैविक खेती तो कम पैदावार की खेती है और उच्च पैदावार लेने के लिए न केवल रसायन मुक्त होना पड़ेगा अपितु खेती के तौर तरीकों में बहुत से सहज बदलाव करने पड़ेंगे.
जिन कारणों से कुदरती खेती अभियान बिक्री सहयोग न कर के केवल तकनीकी जानकारी उपलब्ध कराने तक सीमित रहा, उन्हीं कारणों से अभियान ने आत्मनिर्भर जैविक खेती या कुदरती खेती को अपनाने का निर्णय लिया. क्योंकि अभियान का कार्यक्षेत्र किसी एक सीमित इलाके तक महदूद नहीं था, इसलिए यह आवश्यक था कि अभियान उन जैविक तौर तरीकों को बढ़ावा दे जो एक अलग थलग पड़ा किसान भी अपना सके. अगर जैविक किसान को बाज़ार में उपलब्ध जैविक उर्वरकों या अन्य उत्पादों पर निर्भर रहना आवश्यक हो तो दूर दराज़ का अकेला किसान जैविक खेती नहीं कर सकता क्योंकि बाज़ार इक्का-दुक्का किसानों की ज़रूरतों की पूर्ती नहीं करता. प्रारम्भ से अभियान की रणनीति जैविक खेती के ऐसे उपाय अपनाने की थी जो एक आम किसान दवारा अपनाए जा सकें, जो दोहराए जा सकें. अगर कोई जैविक उपाय ऐसा था जिस के लिए ज़्यादा पूंजी निवेश की ज़रूरत पड़ती हो, तो उस को प्रोत्साहित नहीं किया गया क्योंकि ऐसा उपाय आम किसान नहीं अपना सकता. वही उपाय सुझाए गए जो आम किसान भी अपना सकता था.
अभियान दवारा उच्च पैदावार और आत्मनिर्भर जैविक खेती को बढावा देने का एक और बुनियादी कारण भी था. उच्च गुणवता और उच्च दाम की पर कम पैदावार की जैविक खेती किसान के लिए तो लाभकारी/मुफ़ीद हो सकती है पर कम पैदावार की कृषि पद्धति नीति निर्धारकों को आकर्षित नहीं करेगी क्योंकि उन के लिए देश की अन्न सुरक्षा का मुद्दा महत्वपूर्ण है. इस लिए अभियान ने शुरू से उच्च उत्पादकता पर ध्यान केन्द्रित किया. दूसरी ओर, खेती की आत्मनिर्भरता, स्वावलंबी ग्रामीण विकास की अनिवार्य सीढ़ी है. इस लिए कुदरती खेती अभियान ने उच्च उत्पादकता के साथ साथ आत्मनिर्भर जैविक खेती को अपना लक्ष्य रखा.
क़ुदरती खेती मार्गदर्शिका का तीसरा संस्करण
जन सुनवाई में एक ओर पैदावार के आंकड़े रखे गए तो दूसरी ओर इन अनुभवों से निकली क़ुदरती खेती मार्गदर्शिका का तीसरा संस्करण भी जारी किया गया. यह संस्करण हरियाणा मूल व हैदराबाद कर्मभूमि के दिवंगत कृषि-विज्ञानी डॉक्टर ओम प्रकाश रुपेला एवं देश-विदेश के उन अग्रणी जैविक किसानों को समर्पित है जिन के अनुभव तथा मार्गदर्शन से सीख कर कुदरती खेती अभियान को यह सफलता मिली है. डॉ. रुपेला के ही मार्गदर्शन में हरियाणा में क़ुदरती खेती की इस पुस्तिका का पहला संस्करण तैयार हुआ था. उन के मार्गदर्शन ने विज्ञानं एवं जैविक अनुभव के समन्वय का आधार तैयार किया जिस पर चल कर कुदरती खेती अभियान को यह सफलता मिली है. कुदरती खेती पुस्तिका के नए संस्करण को हरियाणा के लगभग 30 अनुभवी किसानों के मार्गदर्शन में तैयार किया गया है. इस में सुझाए सभी उपाय हरियाणा में लागू किये जा चुके हैं. ‘सिद्धांतों एवं कामों’ में बंटी यह पुस्तिका रासायनिक खेती करने वाले किसान को जैविक खेती शुरू करने के लिए पर्याप्त जानकारी उपलब्ध कराती है (हालाँकि खेती की बुनियादी जानकारी न रखने वाले के लिए यह पर्याप्त नहीं है; ऐसे लोगों को या तो अतिरिक्त प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा या खेती के जानकार का नियमित सहयोग लेना होगा). इस पुस्तिका का पीडीफ मुफ्त उपलब्ध है और छपी हुई प्रति नाममात्र की सहयोग राशी पर उपलब्ध है. कुदरती खेती अभियान ने कोरोना काल में बंद हुए हर महीने के पहले इतवार को लगने वाले प्रशिक्षण शिविर को भी दोबारा शुरू कर दिया है. इस मासिक प्रशिक्षण का स्थान बदलता रहता है पर दिन एवं समय (10 बजे से 4 बजे तक) निश्चित है.
12 सितम्बर के ‘जैविक खेती जन-संवाद’ में न केवल हरियाणा अपितु राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं गुजरात के किसानों ने भी भाग लिया. हालाँकि अपने अनुभव रखने का मौका केवल हरियाणा के किसानों को मिला परन्तु समस्या निवारण सत्र में सभी किसानों, कृषि वैज्ञानिकों एवं किसान संगठनों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया. अभियान की ओर से स्पष्ट किया गया कि उन का उद्देश्य गहन खेती और ‘हरित क्रांति’ के क्षेत्र हरियाणा में सफल जैविक खेती के उदहारण खड़ा करना था. ताकि इच्छुक किसान, किसान संगठन और कृषि वैज्ञानिक उच्च पैदावार की जैविक खेती को अपने आस-पास ही देख सकें. अब जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए हरियाणा के उपभोक्ताओं, किसान संगठनों और कृषि विभाग को आगे आना होगा. अभियान ने जहाँ एक ओर किसान संगठनों से जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए लगातार कार्य करने की अपील की तो दूसरी ओर सरकार से आह्वान किया कि वह पूरे देश/राज्य को सुरक्षित एवं पौष्टिक भोजन हेतु जैविक बनाने के लिए योजना अविलम्ब बनाए. उपभोक्ताओं से भी किसी स्थानीय जैविक किसान या किसान-समूह के साथ स्थाई सम्बन्ध विकसित करने की अपील की गई.
जैविक खेती जन-संवाद का समापन करते हुए गुजरात से जैविक किसानों के बड़े दल के साथ पधारे, श्री कपिल शाह, जो राष्ट्रीय स्तर पर जैविक खेती के लिए कार्यरत ‘आशा’ एवं ओएफ़एआई जैसी संस्थाओं के साथ करीब से जुड़े हैं, ने तथाकथित ‘हरित क्रांति’ के केंद्र में स्थित हरियाणा में जैविक खेती को मिली सफलता को बड़ी उपलब्धि बताते हुए आशा जताई कि अब उत्तर भारत में भी जैविक खेती गति पकड़ेगी. जैविक खेती कुछ विशेष इलाकों, फ़सलों या उपभोक्ताओं के लिए नहीं बल्कि पूरे देश के लिए है.
क्या कृषि वैज्ञानिक/संस्था स्वीकार करेंगे कि जैविक खेती उच्च उत्पादकता की खेती भी हो सकती है?
जनसुनवाई में कुदरती खेती अभियान द्वारा प्राप्त आंकड़ों की सत्यता के समर्थन में आज़ादी के तुरंत बाद के भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत कृषि पंडितों की पैदावार के सरकारी आंकडें रखे गए. 1949-1955 के दौर के ये आंकडें ‘हरित क्रांति’ एवं एचवाईवी बीजों के आने से पहले के हैं. मौके पर मौजूद कृषि वैज्ञानिकों को ये सरकारी आंकड़े आज इतने अविश्वसनीय लगे कि मंच पर पहुँच कर उन्होंने निसंकोच कहा कि ‘ये पैदावार प्रति एकड़ न हो कर संभवत प्रति हेक्टेयर है’! बिना रसायनों एवं बिना एचवाईवी बीजों के इतनी अच्छी पैदावार मिल सकती है कि वह अविश्वसनीय लगे. इसलिए पूर्वाग्रह को छोड़ कर खुले मन से विकल्पों की पड़ताल करने की आवश्यकता है. अगर कुदरती खेती अभियान द्वारा प्रस्तुत आंकड़े ‘वैज्ञानिकता’ के आधार पर पूरी तरह खरे नहीं उतरते, तो इन को सिरे से नकारने के स्थान पर कृषि वैज्ञानिकों को चाहिए कि वो जैविक किसानों के खेतों पर जा कर ‘वैज्ञानिक’ तौर तरीकों से पड़ताल करें. जैविक किसानों के पास ‘वैज्ञानिक’ तौर तरीकों से आंकडें एकत्रित करने की फुर्सत और सामर्थ्य नहीं है. उन्होंने वैकल्पिक राह दिखा दी है, अब बाकी सब देश-समाज के दरबार में है.
(राजेन्द्र चौधरी, भूतपूर्व प्रोफ़ेसर अर्थ शास्त्र विभाग, महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक. यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि लेखक कुदरती खेती अभियान एवं इस आलेख में वर्णित जन संवाद से सक्रिय रूप से सम्बन्ध है. इस आलेख का एक छोटा अंश सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की पत्रिका डाउन टू अर्थ पत्रिका के वेब संस्करण में सितम्बर 2021 में प्रकाशित हुआ था.)