प्रजामंडल आन्दोलन क्या और क्यों ?
भारतीय रियासतों की शासन व्यवस्था ब्रिटिश नियन्त्रण वाले भारतीय क्षेत्र से भिन्न थी तथा अनेक रियासतों के राजा अग्रेंजों के मोहरों की तरह व्यवहार करते थे। जैसे-2 राष्ट्रीय आन्दोलन जोर पकड़ता गया तो रियासतों की जनता में भी राजनैतिक जागरूकता बढ़ने लगी और फलस्वरूप वहाँ प्रजामण्डल बनने लगे। प्रजामण्डलों की मुख्य मांग उत्तरदायी सरकार और नागरिक अधिकारों से जुड़ी थी और इस प्रक्रिया में राजाओं की ऐशपरस्ती और जनता पर बेगार व टैक्सों के बोझ के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद होने लगी थी।
हरियाणा क्षेत्र में रियासतें:
विभाजन के बाद पाकिस्तान में गए इलाकों को छोड़कर यदि ब्रिटिश राज में तत्कालीन पंजाब की रूपरेखा पर नज़र डाली जाए तो पंजाब तीन डिवीजनों में बंटा हुआ था- जालन्धर, लाहौर और दिल्ली। जालन्धर डिवीजन में फिरोज़पुर, जालन्धर, होशियारपुर, कांगड़ा और लुधियाना जिले थे तथा दिल्ली डिवीजन में अम्बाला, हिसार, रोहतक, गुड़गांव, करनाल, दिल्ली और शिमला को मिलाकर सात जिले थे। इनके अलावा अमृतसर और गुरदासपुर जिले लाहौर डिवीजन में शामिल थे। बाद में दिल्ली को पंजाब से अलग करके बदले में अम्बाला डिवीजन बना दिया गया था।
प्रत्यक्ष ब्रिटिश रुल वाले उपरोक्त जिलों के अलावा वर्तमान हरियाणा के इलाके में अनेक रियासतें थी जिनमें जींद रियासत के अलावा कुछ छोटी बड़ी जागीरे थी जैसे कि दुजाना, पटौदी, झज्जर, लोहारू, कैथल, रानियां-फतेहाबाद, बल्लभगढ़, लाडवा, कुंजपुरा, बुड़िया, कलसिया, जगाधरी, शहजादपुर, रामगढ़, नारायणगढ़, बादशाहपुर, फरुखनगर, कोटला – घासेड़ा, फिरोजपुर झिरका आदि-आदि। सन 1803 में लॉर्ड लेक के नेतृत्व में अंग्रेज फौज ने दौलतराव सिन्धिया की अगुवाई में मराठा फौज को हराकर जब दिल्ली पर कब्जा किया तो वर्तमान हरियाणा के करीब-2 पूरे इलाके पर ब्रिटिश शासन स्थापित हो गया था। अग्रेजों ने तत्कालीन हरियाणा की तमाम जागीरों को अपने हिसाब से ना केवल काबू किया बल्कि अपने वफादारों को जागीरदार के तौर पर स्थापित भी किया। लेकिन सन् 1857 के विद्रोह ने उन जागीरदारों/नवाबों का भविष्य समाप्त कर दिया जिन्होने बगावत को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दिया था। झज्जर, बल्लभगढ, फारूखनगर, रानियां-फतेहाबाद के नवाबों/जागीरदारों को मौत की सजा दी गयी और दूसरी तरफ अंग्रेजो का साथ देने वाले अधिकतर राजाओं को किसी न किसी रूप मे ईनाम दिए गए। उदाहरण के तौर पर झज्जर रियासत का कनौड़ (वर्तमान महेन्द्रगढ़) का इलाका पटियाला रियासत को तथा दादरी का इलाका जींद रियासत को इनाम स्वरूप दे दिया गया। इसी प्रकार अनेक जागीरों और परगनों का प्रशासन अंग्रेजों ने प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथों में ले लिया। बहादुरगढ़, सांपला-असोंधा, झज्जर, फारुखनगर, बल्लभगढ़, झाड़सा, सोहना, नूह, हथीन, पलवल, फिरोजपुर झिरका, बोहड़ा, रिवाड़ी, होडल, हथीन, शाहजहांपुर आदि इनके उदाहरण हैं। कैथल और अंबाला को सन 1857 की बगावत से पहले ही अंग्रेजों ने अपने हाथ में ले लिया था।
जींद रियासत:
मुगल बादशाह शाहजहां ने चौधरी फूल को पंजाब के एक बड़े हिस्से का हाकिम नियुक्त किया था। सन 1652 मे चौधरी फूल की मृत्यु के बाद उसके बड़े पुत्र तिलोखा ने जींद और नाभा रियासतें स्थापित की और दूसरे पुत्र आला ने पटियाला (पट्टी आला- आला की पट्टी) रियासत की नींव रखी। तिलोखा के बेटे सुखचैन और उसकी पीढ़ियों ने देश की आजादी तक राज्य किया। जींद रियासत का हेड क्वार्टर मुख्यतः संगरूर ही रहा, हालांकि जींद में भी किला बनवाया गया था और कुछ प्रशासनिक व्यवस्थाएं भी रही हैं।
सन 1846 से 1849 तक महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद हुए तीन एंग्लो- सिक्ख युद्धों में हरियाणा के तत्कालीन अधिकतम जागीरदार अग्रेंजों के पक्ष में लड़े बावजूद इसके कि वे स्वयं भी सिक्ख मिसलों से जुड़े हुए थे। इसके मुख्य उदाहरण शाहबाद, नारायणगढ़, मनी माजरा, तंगोर, घनौड़ा आदि छोटी बड़ी रियासतें हैं। इसके बाद सन 1857 की ऐतिहासिक बगावत के दौर में उपरोक्त जागीरदारों के अलावा करनाल, कुंजपुरा, कलसिया आदि रियासतों ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों का भरपूर सहयोग दिया। लेकिन, यहाँ दो बड़ी ताकतों का ज़िक्र जरूरी है- ये थीं, पटियाला और जींद की रियासतें जो एंग्लो-सिक्ख युद्धों के अलावा 1857 की बगावत को निर्ममतापूर्वक दबा देने में अग्रेंजों की सबसे बड़ी सहयोगी थी।
ईनाम के तौर पर जींद (संगरूर ) रियासत को झज्जर रियासत का दादरी का इलाका और पटियाला रियासत को कन्नौड़ (वर्तमान महेंद्रगढ़) सौंप दिया गया। इसी तरह नाभा रियासत को वफ़ादारी के ईनामस्वरूप बावल का इलाका दे दिया गया था। इस प्रकार से वर्तमान हरियाणा की तत्कालीन रियासतों में जींद स्टेट का रुतबा सबसे अधिक था।
राष्ट्रीय आंदोलन और प्रजामंडल आंदोलन की लहर:
अंग्रेजी शासन के खिलाफ ज्यों ज्यों आजादी का आंदोलन फैलता गया त्यों त्यों देसी रियासतों के खिलाफ भी नवाबों और राजाओं के विरुद्ध उत्तेजना बढ़ने लगी। सन 1936 में हंसराज रहबर ने संगरूर में पब्लिक यूनियन की स्थापना की थी जो बाद में प्रजामंडल आंदोलन का हिस्सा बन गई। उनके मुख्य सहयोगी मोतीराम मघान, डॉ. मातूराम और हरनारायण जैन आदि थे। सन 1939 में जींद में प्रजामंडल की स्थापना करने वालों में मुख्य भूमिका पं. देवी दयाल की थी। उसी दौर में दादरी में भी चौ. निहाल सिंह तक्षक, चौ. हीरा सिंह चिनारिया, चौ. महताब सिंह, ला. राजेंद्र कुमार जैन, मा. बनारसीदास गुप्ता और नम्बरदार मंगलाराम डालावास आदि नेताओं ने प्रजामंडल की स्थापना की।
देश में प्रजामंडल की हलचल:
सन 1927 में बम्बई में पहली बार ऑल इंडिया स्टेट्स पीपल कॉन्फ्रेंस का आयोजन बलवंत राय मेहता, मणिकलाल कोठारी, जी. आर. अभयंकर आदि नेताओं की रहनुमाई में हुआ था जिसमें मुख्य मुद्दे रियासतों में जिम्मेवार सरकार और नागरिक अधिकारों की स्थापना थे।
इन प्रस्तावों को इसी वर्ष मद्रास में काँग्रेस अधिवेशन ने भी स्वीकार कर लिया था।
सन 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट में प्रावधान रखा गया था की काउन्सिल ऑफ स्टेट्स (ऊपरी सदन) में रियासतों के शासक अपने प्रतिनिधियों को नामित करेंगे। प्रजामंडलो ने इस प्रावधान का इस आधार पर विरोध किया कि नामित सदस्य राजाओं के प्रति वफ़ादार हैं ना कि जनता के प्रति। काँग्रेस अधिवेशनों में भी लगातार रियासतों में उत्तरदायी सरकार और कानूनी सुधारों की मांग उठती गई और आखिरकार सन 1938 में काँग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में रियासतों समेत पूरे देश में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास किया गया।
सन 1939 में लुधियाना में ऑल इंडिया स्टेट्स पीपल कॉन्फ्रेंस में जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष निर्वाचित किया गया।
जींद में प्रजामंडल आंदोलन :
सन 1939 में पंडित देवी दयाल के प्रयासों से जींद में प्रजामंडल की स्थापना की गई थी और उसी दौरान लोहारू और दादरी में भी चौधरी निहाल सिंह तक्षक, नंबरदार मंगलाराम डालवास, चौधरी मेहताब सिंह पंचगांव आदि के सहयोग से दादरी में प्रजामंडल की स्थापना की गई जिसके प्रधान चौधरी हीरा सिंह चिनारिया और महामंत्री लाला राजेंद्र कुमार जैन चुने गए थे।
प्रजा मंडल द्वारा प्रस्तुत 11 प्रमुख मांगों में राजा की देखरेख में एक उत्तरदायी सरकार की मांग प्रमुख थी। राष्ट्रीय आंदोलन के उभार और अन्य रियासतों में प्रजामंडल की बढ़ती हुई गतिविधियों का दबाव इतना बढ़ गया था कि जींद के महाराजा को 65 सदस्यों की एक विधानसभा की घोषणा करनी पड़ी। विधानसभा में महाराजा के वफादारों को नामित किए जाने के बावजूद प्रजामंडल के नेता के रूप में नंबरदार मंगलाराम डालावास, ला. नत्थूराम सफीदों, वैद्य चिरंजीलाल संगरूर, चौ. हीरासिंह चिनारिया और चौ. निहाल सिंह तक्षक विधानसभा सदस्य के रूप में चुने गए।
प्रजामण्डल द्वारा उत्तरदायी सरकार की मांग जोर पकड़ती गई। इसी सिलसिले में 23-24 नवंबर 1940 को प्रजामंडल के दादरी में आयोजित दूसरे सम्मेलन में संगरूर, जींद, दादरी, नाभा आदि इलाकों से भारी भीड़ जुटी। अगले ही दिन महाराजा रणवीर सिंह ने चौ. हीरा सिंह चिनारिया को गिरफ्तार कर लिया और कुछ दिनों बाद चौ. मनसाराम त्यागी, चौ. महताब सिंह, ला. राजेंद्र कुमार जैन, मा. बनारसी दास गुप्ता, नंबरदार मंगलाराम को गिरफ्तार कर के संगरूर के किले में बंद करवा दिया। नतीज़न जनता का प्रोटेस्ट तेज़ हो गया। जेल में सजा काट कर या नजरबंदी से रिहा होकर ये तमाम नेता फिर से सक्रिय हो गए।
सन 1946 में उदयपुर में प. जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में ऑल इंडिया स्टेट्स पीपल कांफ्रेंस में दादरी हल्के से चौ. हीरा सिंह चिनारिया, नंबरदार मंगलाराम, ला. राजेंद्र कुमार जैन और मास्टर नानक चंद शामिल हुए। इसी वर्ष सन् 1946 में जींद की रियासती विधानसभा चुनावों में प्रजामंडल की ओर से चौ. हीरा सिंह चिनारिया और मा. बनारसी दास गुप्ता निर्विरोध चुने गए।
इसी दौरान ला. रामकिशन गुप्ता `भारत छोड़ो आंदोलन` में भाग लेने के कारण दो साल की सजा काटकर लाहौर से दादरी आ गए थे और सन् 1945 के अन्त तक आजाद हिंद फौज के जवानों को भी जेल से रिहा कर दिया गया था। इन सब ने मिलकर गांव-गांव में प्रजामण्डल की इकाइयां स्थापित करना शुरू कर दी थी।
सन् 1946 में जींद में रियासत के स्तर का प्रजामण्डल का चुनाव करवाया गया जिसमें चौ. हीरा सिंह चिनारिया को अध्यक्ष और ला. रामकिशन गुप्ता को महामंत्री चुना गया। इसके बाद दादरी में स्टेट प्रजामंडल का पहला अधिवेशन हुआ जिसमें हजारों लोगों ने हिस्सा लिया, राजा के खिलाफ आंदोलन का ऐलान हुआ, करो या मरो का नारा दिया गया, डायरेक्ट एक्शन दिवस मनाया गया और इस आंदोलन में धारा 144 को तोड़ दिया गया। महाराजा ने समझौते के रूप में मंत्रिपरिषद का गठन किया और प्रजामण्डल के दो प्रतिनिधियों को मंत्रीपद की शपथ दिलाई ।
आज़ादी के बाद पेप्सू का गठन :
फरवरी 1948 में प्रजामंडल ने दादरी को जींद रियासत से अलग करके हिसार जिले में मिला देने की मांग रखी। इस मांग के पक्ष में जलसे और जुलूस निकाले गए। अनेक नेताओं की गिरफ्तारी हुई जिसके प्रोटेस्ट में हजारों लोग सड़कों पर उतर पड़े और चौ. महताब सिंह को समानांतर राजा घोषित कर दिया गया। इस गहमागहमी में सरदार पटेल ने डॉ. पट्टाभी सीतारमैया को दादरी भेजा जिन्होंने जनता को सरदार पटेल की तरफ से आश्वस्त किया कि जल्द ही तमाम रियासतें खत्म कर दी जाएगी और इस प्रकार से सत्याग्रह समाप्त करने की घोषणा के साथ नेताओं को जेल से रिहा कर दिया गया।
आखिरकार, 5 मार्च 1948 को भारत सरकार द्वारा आठ रियासतों (पटियाला, नाभा, जींद, मलेरकोटला, कपूरथला, नालागढ़, फरीदकोट, कलसिया) को मिलाकर पेप्सू (पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन) का गठन कर दिया गया जिसका राजप्रमुख महाराजा पटियाला यादवेंद्र सिंह को बनाया गया था। पेप्सू को आठ जिलों में बांटा गया था: पटियाला, बरनाला, भटिंडा, कपूरथला, फतेहगढ़ साहिब, संगरूर, महेंद्रगढ़ और कोहिस्तान (कंडाघाट)। सन 1953 में आठ जिलों को मिलाकर पांच जिले बना दिए गए थे और इस प्रकार संगरूर जिले में बरनाला, मलेरकोटला, संगरूर, नरवाना और जींद तहसीलें थी और अंत में 1 नवंबर 1956 को राज्य पुनर्गठन एक्ट के अंतर्गत पेप्सू का पंजाब राज्य में विलय हो गया।
शिक्षा और अन्य सामाजिक आन्दोलन :
सन 1931 की जनगणना के अनुसार राजपूताना में 13 में से 12 पुरुष अनपढ़ थे और 167 स्त्रियों में से केवल एक स्त्री अपना नाम लिख सकती थी। निरक्षरता की ऐसी निराशाजनक स्थिति को खत्म करने के लिए बिरला एजुकेशन ट्रस्ट ने शेखावाटी के कुछ गांवों में पाठशाला चालू करने के लिए सन 1932 में तीन चौथाई खर्चे की सहायता देना आरंभ किया। इस प्रकार से ग्राम्य पाठशालाओं की शुरुआत हुई। सन 1936 में बिरला ट्रस्ट ने जयपुर राज्य रियासत से बाहर पड़ोसी रियासतों यथा जोधपुर, बीकानेर, जींद और पटियाला रियासतों में भी ग्राम पाठशाला खोलने का निश्चय किया और सन 1940 तक 133 ग्राम पाठशाला खुल गई थी जिनमें से जींद रियासत के हिस्से में 32 थी। ग्रामीणों में पाठशाला स्थापित करने के
उत्साह की अनेक रिपोर्ट के बीच ऐसी भी स्थिति थी की लोहारू के पास पीपली गांव में पाठशाला मंदिर में होने की वजह से दलित परिवारों के छात्र वहां नहीं पढ़ सकते थे। इस प्रकार से चनाना गांव में हरिजन सेवक संघ की तरफ से खोली गई हरिजन पाठशाला में दलित छात्रों को पढ़ाए जाने का जबरदस्त विरोध हुआ।
जब युवा निहाल सिंह तक्षक ने बिरला कॉलेज पिलानी में प्रवेश किया तो पाया कि राजपूत, ब्राह्मण और बनिया परिवारों के विद्यार्थियों के लिए रेखा खींच कर अलग भोजन परोसा जाता था और शेष जातियों के लिए जिनमें जाट भी शामिल थे अलग स्थान निर्धारित था। पानी पीने की व्यवस्था भी अलग अलग थी। इसी प्रकार से राजपूत बहुल क्षेत्र में बसने वाले जाट अपने नाम के आगे सिंह शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते थे। उनके साथ चारपाई आदि पर बैठना तो दूर की बात थी।
यह दौर आर्यसमाज आंदोलन के प्रचार-प्रसार का भी था। प्रजामण्डल के अनेक नेता आर्यसमाजी थे जो रियासतदारों के ख़िलाफ़ आन्दोलन में सक्रिय रहे। लोहारू रियासत में उनकी भूमिका उल्लेखनीय रूप से सरगर्म रही थी। कांग्रेसी कार्यकर्ता तो लगातार अग्रणी भूमिका निभाते ही रहे थे। संगरुर और पटियाला में कांग्रेसियों के अलावा अकाली नेताओं की विशेष भूमिका और कुर्बानी रही। सेवासिंह ठीकरीवाल ने तो पटियाला में जेल की सलाखों के पीछे दम तोड़ा। इनके अलावा कम्युनिस्ट नेताओं और कार्यकर्ताओं ने भी अगुवाई की।
संदर्भ:
1. चौधरी निहाल सिंह तक्षक: डॉक्टर प्रकाशवीर विद्यालंकर।
2. History and culture, Sangrur- NRI affairs Department, Government of Punjab.
3. Jind District Gazetteer.
4. हरियाणा का रियासती इतिहास- यशपाल गुलिया।
(लेखक लोकविद्, सामाजिक चिंतक और इतिहास के जानकार हैं।)