आजादी के बहत्तर साल बीत गए. आज भी हमारे देश के पास न तो कोई राष्ट्रभाषा है और न कोई भाषा नीति. दर्जनों समृद्ध भाषाओं वाले इस देश में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक और न्याय व्यवस्था से लेकर प्रशासनिक व्यवस्था तक सबकुछ पराई भाषा में होता है फिर भी उम्मीद की जाती है कि वह विश्व- गुरु बन जाएगा.
भाषा समस्या का समाधान क्यों नहीं हुआ ? क्या यह आज भी विचारणीय मुद्दा नहीं है ? सरकार की ओर से तो किसी तरह की कोई पहल नहीं हो रही है. क्या इसके पीछे कोई ऐतिहासिक कारण भी है ? इस मुद्दे पर गाँधी जी का क्या दृष्टिकोण था और संविधान सभा में उसपर कितना अमल हुआ ? इन सवालों पर पुनर्विचार करना आज समय की माँग है. 12 से 14 सितंबर 1949 तक लगातार चलने वाली संविधान सभा की बहस के परिणाम स्वरूप धारा 343 वजूद में आया और भारत संघ की राजभाषा ‘देवनागरी लिपि’ में लिखी जाने वाली ‘हिन्दी’ तय की गई. यह बहस इस दृष्टि से भी अभूतपूर्व थी कि सदस्यों की इतनी बड़ी उपस्थिति अन्य किसी मुद्दे पर होने वाली बहसों में पहले कभी नहीं हुई थी और इस बहस में सबसे अहम मुद्दा था हिन्दुस्तानी और हिन्दी में से किसी एक को राजभाषा बनाने का मुद्दा.
हम सभी जानते हैं कि गाँधी जी हिन्दुस्तानी के समर्थक थे. हिन्दी के हित में लगातार काम करते हुए गाँधी जी ने अपनी अवधारणा को अपने अनुभवो से और अधिक पुष्ट किया और निर्णय लिया कि देश की राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी होनी चाहिए जिसे हिन्दी और उर्दू ( फारसी) दोनो लिपियों में लिखा जा सकता है. गाँधी जी को इस तथ्य की भली भाँति पहचान हो गई थी कि जिस भाषा को उत्तरी भारत में आम लोग बोलते हैं, उसे चाहे उर्दू कहें चाहे हिन्दी, दोनो एक ही भाषा है. यदि उसे फारसी लिपि में लिखें तो वह उर्दू भाषा के नाम से पहचानी जाएगी और नागरी में लिखें तो वह हिन्दी कहलाएगी. इसीलिए उन्होंने ‘हिन्दुस्तानी’ कहकर इन दोनो के समन्वय का उपयुक्त मार्ग ढूंढ लिया था.
इस हिन्दुस्तानी के इतिहास को भी थोड़ा देखें. हिन्दी का पहला व्याकरण हालैंड निवासी जॉन जोशुआ केटलर ( john Joshua Ketler ) ने औरंगजेब के शासन काल में अर्थात 1698 ई. में डच भाषा में की थी. इस व्याकरण ग्रंथ का नाम है, हिन्दुस्तानी ग्रामर. यह पुस्तक फिलहाल उपलब्ध नहीं है किन्तु डेविड मिल द्वारा लैटिन में अनूदित इसके अनुवाद का विस्तृत विश्लेषण डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने अपने एक लेख में की है. यह पुस्तक उन्हें लंदन में मिली थी. ( द्रष्टब्य, द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, 1928 ई, ‘हिन्दुस्तानी का सबसे प्राचीन ब्याकरण’ शीर्षक लेख, पृष्ठ-197). ‘राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द का हिन्दी ब्याकरण’ शीर्षक पुस्तक का संपादन करते हुए उसकी प्रस्तावना में डॉ. रामनिरंजन परिमलेन्दु ने लिखा है, “ केटेलर के कालखण्ड ( 1698 ई. के पूर्व) में हिन्दी भाषा के लिए ‘हिन्दुस्तानी’ शब्द का ही व्यवहार किया जाता था.” ( प्रस्तावना, पृष्ठ-4, प्रकाशक नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ). किन्तु सच यह है कि उसके बाद भी लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक हिन्दी- व्याकरण के नाम पर जो व्याकरण – ग्रंथ उपलब्ध हैं वे सब के सब हिन्दुस्तानी के ही हैं. बेंजामिन शुल्जे ( Benjamin Schulz) द्वारा लैटिन भाषा में लिखित और 1745 ई. मे प्रकाशित व्याकरण ग्रंथ का नाम है, ‘ग्रामेटिका हिन्दोस्तानिका’ ( Grammatica Hindostanica ). जॉन फार्गुसन ( John Fergusan ) ने ‘ए डिक्शनरी आफ द हिन्दुस्तानी लैंग्वेज’ के नाम से हिन्दुस्तानी भाषा का शब्दकोश बनाया जो 1773 ई. में लंदन से प्रकाशित हुआ. इसी पुस्तक में हिन्दुस्तानी भाषा का व्याकरण भी समाविष्ट है. शब्दकोश की भूमिका में फार्गुसन ने कहा था कि हिन्दुस्तानी ही देश अर्थात भारत की सर्वमान्य भाषा है जिसे देश की सभी श्रेणियों और पेशे के लोग, शिक्षित-अशिक्षित, दरबारी और किसान, हिन्दू- मुसलमान समान रूप से समझते हैं. ( द्रष्टव्य, राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द का हिन्दी व्याकरण , संपादक. रामनिरंजन परिमलेन्दु, प्रस्तावना, पृष्ठ- 6) और जिसे हम हिन्दी साहित्य का पहला इतिहास कहते हैं वह फ्रेंच इतिहासकार गार्सां द तासी ( Garsan de tassy) का ‘इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई ऐंदुस्तानी’ नाम से दो खण्डों में प्रकाशित हुआ था. एक खण्ड 1839 में और दूसरा खण्ड 1846 में प्रकाशित हुआ था. इसे हिन्दी साहित्य का पहला इतिहास कहा जाता है किन्तु है यह वास्तव में हिन्दुई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास. इसमें हिन्दी और उर्दू ( आज के अर्थ में ) का अलग अलग भाषा के अर्थ में भेद नहीं किया गया है.
इससे भी पहले सन् 1800 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज बना. हमारे देश में वास्तव में आधुनिक काल में खुलने वाला यह पहला शिक्षण संस्थान था. इसके पहले कोई विश्वविद्यालय हमारे देश मे नहीं खुला था. कलकत्ता विश्विद्यालय इस देश का पहला आधुनिक विश्वविद्यालय है जिसकी नींव 1857 में पड़ी थी. फोर्ट विलियम कॉलेज में जिस हिन्दी विभाग के खुलने की चर्चा की जाती है, वह वास्तव में हिन्दुस्तानी विभाग था. जॉन गिलक्रिस्ट ( John Worthwick Gilchrist ) की नियुक्ति 1801 ई. में वास्तव में वहाँ हिन्दुस्तानी के प्रोफेसर के रूप में हुई थी. उनकी व्याकरण की पुस्तक का नाम है, ‘ए ग्रामर आप द हिन्दुस्तानी लैंग्वेज’, जो 1790 ई. में प्रकाशित ही थी. उनकी एक और पुस्तक का नाम हैं, ‘द स्ट्रेंजर्स ईस्ट इंडिया गाईड टु हिन्दुस्तानी’, जो 1802 में प्रकाशित हुई थी. रोएबक ( Roabuck ) द्वारा लिखित ‘एन इंग्लिश ऐण्ड हिन्दुस्तानी डिक्शनरी टू ह्विच इज प्रिफिक्स्ड ए शार्ट ग्रामर आफ हिन्दुस्तानी लैंग्वेज’ का प्रकाशन भी कलकत्ता से ही 1801 ई. में हुआ था. इतना ही नहीं, जॉन शेक्सपियर ( Joan Shakespear) का ‘ए ग्रामर आफ द हिन्दुस्तानी लैंग्वेज’ का प्रथम संस्करण भी 1813 ई. में लंदन से प्रकाशित हुआ था. उनकी एक और पुस्तक ‘एन इंट्रोडक्शन टु द हिन्दुस्तानी लैंग्वेज’ भी 1845 ई. में प्रकाशित हुई थी. विलियम येट्स ( W.B.Yeats ) द्वारा लिखित ‘इंट्रोडक्शन टु द हिन्दुस्तानी लैंग्वेज’, का प्रकाशन कलकत्ता से 1824 ई. में हुआ था. डंकन फोर्ब्स ( D.Forbes ) कृत ‘हिन्दुस्तानी मैनुअल’ 1845 ई. में लंदन से छपा. ई.बी.इस्टविक ( E.B.Eastwick) लिखित ‘ए कन्साइज ग्रामर आफ द हिन्दुस्तानी लैंग्वेज’ 1847 ई. में लंदन से प्रकाशित हुआ और मोनियर विलियम्स ( Monier Williams ) जैसे प्रसिद्ध विद्वान का भी ‘रूडिमेंट्स आफ हिन्दुस्तानी ग्रामर’ नामक व्याकरण ग्रंथ 1858 ई. में इंग्लैण्ड से छपा. इसके अलावा इनका ‘ए प्रेक्टिकल हिन्दुस्तानी ग्रामर’ शीर्षक व्याकरण ग्रंथ भी लंदन से 1862 ई. में प्रकाशित हुआ.
क्या इतने व्याकरण – ग्रंथों, शब्द-कोशों आदि का उल्लेख करने के बाद भी इस बात में कोई संदेह रह जाता है कि उस काल खण्ड में हिन्दुस्तान की आम बोलचाल की भाषा हिन्दुस्तानी ही थी ?
फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग के पहले प्रोफेसर जॉन गिलक्रिस्ट के अनुसार उस समय हिन्दुस्तानी की तीन शैलियाँ प्रचलित थीं- 1. फारसी या दरबारी शैली 2. हिन्दुस्तानी शैली और 3. हिन्दवी शैली. गिलक्रिस्ट दरबारी या फारसी शैली को आभिजात्य वर्ग में प्रचलित और दुरूह मानते थे और हिन्दवी शैली को ‘वल्गर’. उनकी दृष्टि में हिन्दुस्तानी ही “द ग्रेंड पापुलर स्पीच ऑफ हिन्दुस्तान” थी.
आगे चलकर इसी हिन्दुस्तानी की लड़ाई राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द ( 1823-1895 ) ने भी लड़ी. वे अत्यंत सूझ-बूझ वाले व्यक्ति थे. कचहरियों में उस समय फारसी लिपि प्रचलित थी. वे कचहरियों के लिए एक सर्वमान्य भाषा के प्रयोग के पक्षधर थे जिसे उन्होंने “आमफहम और खास पसंद” भाषा कहा है. वे हिन्दी और उर्दू में कोई भेद नहीं मानते थे और उन्होंने एक हिन्दी व्याकरण भी लिखा जिसमें हिन्दी –उर्दू को एक ही भाषा के रूप में स्थापित का गया है. यह ग्रंथ बनारस से 1875 ई. में प्रसाशित हुआ था. किन्तु इतिहास में उन्हें खलनायक की तरह चित्रित किया गया है. भारतेन्दु मंडल के लेखकों ने आरोप लगाया कि वे “देवनागरी में खालिस उर्दू” लिखते हैं. सितारेहिंद का खिताब मिलने पर उन्हें अंग्रेजों का चापलूस कहा गया जबकि भारतेन्दु ने स्वयं लार्ड रिपन की प्रशंसा में ‘रिपनाष्टक’ लिखा.
पता नहीं, गाँधी जी को हिन्दुस्तानी के इस इतिहास की जानकारी थी या नहीं, किन्तु अपने अनुभवों से वे भली- भाँति समझ चुके थे कि इस देश की एकता को कायम रखने में हिन्दुस्तानी बड़ी भूमिका अदा कर सकती है और इसी में निर्विवाद रूप से इस देश की राष्ट्रभाषा बनने की क्षमता है.
उनके प्रयास से 1925 में संपन्न हुए कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में प्रस्ताव पास हुआ कि उस तिथि से कांग्रेस की सारी कार्यवाहियाँ हिन्दुस्तानी में होंगी. गाँधीजी ने हिन्दुस्तान के नेताओं को हिन्दी बोलना सिखाया. हिन्दी भाषा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है, “हिन्दी भाषा मैं उसे कहता हूँ, जिसे उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फारसी (उर्दू) लिपि में लिखते हैं. ऐसी दलील दी जाती है कि हिन्दी और उर्दू दो अलग -अलग भाषाएं हैं. यह दलील सही नहीं है. उत्तर भारत में मुसलमान और हिन्दू एक ही भाषा बोलते हैं. भेद पढ़े लिखे लोगों ने डाला है……. मैं उत्तर में रहा हूँ, हिन्दू मुसलमानों के साथ खूब मिला जुला हूँ और मेरा हिन्दी भाषा का ज्ञान बहुत कम होने पर भी मुझे उन लोगों के साथ व्यवहार रखने में जरा भी कठिनाई नहीं हुई है. जिस भाषा को उत्तरी भारत में आम लोग बोलते हैं, उसे चाहे उर्दू कहें चाहे हिन्दी, दोनो एक ही भाषा की सूचक है. यदि उसे फारसी लिपि में लिखें तो वह उर्दू भाषा के नाम से पहचानी जाएगी और नागरी में लिखें तो वह हिन्दी कहलाएगी.”
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन से इसी मुद्दे को लेकर उनका विवाद चला और लम्बे पत्राचार के बाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद से उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा. इन सारे विवादों के पीछे की राजनीति का विश्लेषण करते हुए काका साहब कालेलकर ने लिखा है, “ हिन्दी का प्रचार करते हम इतना देख सके कि, हिन्दी साहित्य सम्मेलन को उर्दू से लड़कर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना है और गाँधी जी को तो उर्दू से जरूरी समझौता करके हिन्दू-मुस्लिमों की सम्मिलित शक्ति के द्वारा अंग्रेजी को हटाकर उस स्थान पर हिन्दी को बिठाना था. इन दो दृष्टियों के बीच जो खींचातानी चली, वही है गाँधीयुग के राष्ट्रभाषा प्रचार के इतिहास का सार.”
खेद है कि संविधान सभा में होने वाली बहस के पहले ही गाँधी जी की हत्या हो गई. देश का विभाजन भी हो गया था और पाकिस्तान ने अपने देश की राष्ट्रभाषा उर्दू को घोषित कर दिया था. इन परिस्थितियों का गंभीर प्रभाव संविधान सभा की बहसों और होने वाले निर्णयों पर पड़ा. हिन्दुस्तानी और हिन्दी को लेकर सदन दो हिस्सों मे बंट गया. गाँधी जी के निष्ठावान अनुयायी जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद सहित दक्षिण के डॉ. पी. सुब्बारायन, टी.टी. कृष्णामाचारी, टी.ए. रामलिंगम चेट्टियार, एन. जी. रंगा, एन. गोपालस्वामी आयंगर, एस. बी. कृष्णमूर्ति राव, काजी सैयद करीमुद्दीन, जी. दुर्गाबाई आदि ने हिन्दुस्तानी का समर्थन किया तो दूसरी ओर राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, सेठ गोबिन्द दास, रविशंकर शुक्ल, अलगूराय शास्त्री, सम्पूर्णानंद, के. एम. मुँशी आदि ने हिन्दी का. बहुमत हिन्दी के पक्ष में था और संविधान सभा ने प्रचंड विरोध के बावजूद देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को संघ की राजभाषा तय कर दिया.
आज सत्तर वर्ष बाद जब हम संविधान सभा के उक्त निर्णय के प्रभाव का मूल्यांकन करते हैं तो हमें लगता है कि हिन्दी को इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. दक्षिण के हिन्दी विरोध का मुख्य कारण यही है. जो लोग पहले गाँधी जी के प्रभाव में आकर हिन्दी का प्रचार कर रहे थे वे ही बाद में हिन्दी के विरोधी हो गए और हिन्दी विरोध का नेतृत्व करने लगे. इतना ही नहीं, हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा न देकर उसे राजभाषा तक सीमित करने के पीछे भी अहिन्दी भाषी सदस्यों की यही नाराजगी काम कर रही थी. संविधान सभा में होने वाली बहसों को पलटकर देखने पर तो यही लगता है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि गाँधी जी के प्रभाव और प्रयास का ही फल था कि दक्षिण में ब्यापक रूप से हिन्दी का प्रचार हुआ. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने मद्रास प्रेसीडेंसी का मुख्यमंत्री रहते हुए 1937 में ही दक्षिण में हिन्दी अनिवार्य कर दिया था. विरोध होने पर विरोधियों के लिए क्रिमिनल लॉ लागू करने में भी संकोच नहीं किया और हजारों विरोधियों को जेल में डाल दिया था. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी गाँधी जी के समधी थे. गाँधी जी के सुपुत्र देवदास गाँधी की शादी सी. राजगोपालाचारी की बेटी से उसी दौर में हुई थी जब देवदास गाँधी हिन्दी का प्रचार करने दक्षिण गए थे.
ऐसी दशा में गाँधीजी के प्रस्ताव के विपरीत यदि कोई प्रस्ताव आता है तो दक्षिण भारत के गाँधी जी के अनुयायियों से भला समर्थन की उम्मीद कैसे की जा सकती है ?
गाँधी जी की प्रख्यात अनुयायी श्रीमती जी. दुर्गाबाई, जिनकी कानून की शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हुई थी, मद्रास हाई कोर्ट की वकील थीं, आन्ध्र महिला सभा की सचिव थीं और जिन्होंने कोकानाड़ा में महिला हिन्दी विद्यालय की स्थापना किया था, ने तो सदन में इस ओर स्पष्ट संकेत किया था. “श्री मान्, भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी के अतिरिक्त, जो हिन्दी तथा उर्दू का योग है, कुछ और नहीं होनी चाहिए और कुछ हो भी नहीं सकती. ……. कदाचित टंडन जी, सेठ गोविन्द दास जी आदि नहीं जानते और उन्हें पता नहीं है कि दक्षिण में हिन्दी भाषा का कितना प्रबल विरोध हुआ है. विरोधी यह समझते हैं, शायद ठीक ही समझते है कि यह हिन्दी के पक्ष का आन्दोलन प्रान्तीय भाषाओं की जड़ खोदता है और यह प्रान्तीय भाषाओं और प्रान्तीय संस्कृति के विकास के लिए गंभीर बाधा है. ………अब इसका परिणाम क्या है ? अब मुझे आश्चर्य है कि हमने इस शताब्दी के आरंभ में जिस जोश के साथ हिन्दी अपनायी थी, उसके विरुद्ध इतना आन्दोलन हो रहा है. श्रीमान्, अहिन्दी भाषी लोगों की भावनाओं में कटुता लाने का कारण आप का यह दृष्टिकोण है कि आप शुद्धत: एक प्रान्तीय भाषा को राष्ट्रीय रूप देना चाहते हैं. मुझे भय है कि इससे निश्चय ही उनके भावों और भावनाओं पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, जिन्होंने पहले ही देवनागरी लिपि में हिन्दी को स्वीकार कर लिया है. संक्षेप में उनके इस अत्यधिक और कुप्रयुक्त प्रचार के कारण मेरे समान लोगों का समर्थन भी अब प्राप्त नहीं रहा जो हिन्दी जानते हैं और हिन्दी के समर्थक हैं. मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि राष्ट्रीय एकता के हितार्थ हिन्दुस्तानी ही भारत की राष्ट्रभाषा बन सकती है. “
इसी तरह संविधान सभा में बहस करते हुए काजी सैयद करीमुद्दीन ने कहा, “ सन् 1947 में इंडियन नेशनल काँग्रेस ने यह कबूल किया था कि हिन्दुस्तान की जबान हिन्दुस्तानी होगी जिसके दोनो उर्दू और देवनागरी रसमुलखत होंगे लेकिन आज यह फरमाया जाता है कि सिर्फ देवनागरी रसमुलखत होगा. उसकी वजह यह है जैसे कि मैं बता चुका हूं सन् 47 के पार्टीशन के बाद पाकिस्तान ने अपनी नेशनल ज़बान उर्दू होने का ऐलान किया और उसी के रिएक्शन की वजह से आज यहाँ हिन्दुस्तान में हिन्दी और देवनागरी रसमुलखत मुकर्रर किया जा रहा है. “ और अगले दिन अर्थात 14 सितंबर को मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा, “ आज से तकरीबन पच्चीस वर्ष पहले जब यह सवाल आल इंडिया काँग्रेस कमेटी के सामने आया था तो मेरी ही तजबीज से उसने हिन्दुस्तानी का नाम इख्तयार किया था. मकसद् यह था कि ज़बान के बारे में तंगख्याली से काम न लें. ज्यादा से ज्यादा वसीह मैदान पैदा कर दें. हिन्दुस्तानी का लफ्ज इख्तयार करके हमने हिन्दी और उर्दू के इख्तेलाफ को भी दूर कर दिया था. क्योंकि जब आसान उर्दू और आसान हिन्दी बोलने और लिखने की कोशिश की जाती है तो दोनो मिलकर एक जबान हो जाती हैं. तब उर्दू और हिन्दी का फर्क बाकी नहीं रहता. “ मोहम्मद इस्माईल ने गाँधी जी को उद्धृत करते हुए कहा कि “ भारत के करोड़ो ग्रामीणों को पुस्तकों से कोई मतलब नहीं है. वे हिन्दुस्तानी बोलते हैं जिसे मुस्लिम उर्दू लिपि में लिखते हैं तथा हिन्दू उर्दू लिपि या नागरी लिपि में लिखते हैं. अतएव मेरे और आप जैसे लोगों का कर्तव्य है कि दोनो लिपियों को सीखें.”
कथा सम्राट मुँशी प्रेमचंद ने ‘साहित्य का उद्देश्य’ नामक अपने मशहूर निबंध मे लिखा है., “ उर्दू वह हिन्दुस्तानी जबान है जिसमें फारसी- अरबी के लब्ज ज्यादा हों, उसी तरह हिन्दी वह हिन्दुस्तानी है जिसमें संस्कृत के शब्द ज्यादा हों, लेकिन जिस तरह अंग्रेजी में चाहे लैटिन या ग्रीक शब्द अधिक हों या ऐंग्लोसेक्सन, दोनो ही अंग्रेजी है, उसी भाँति हिन्दुस्तानी भी अन्य भाषाओं के शब्दों के मिल जाने से कोई भिन्न भाषा नहीं हो जाती.”
हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर गाँधी जी और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन के बीच लम्बा पत्र व्यवहार हुआ था जिसमें गाँधी जी ने राजर्षि टण्डन को अपना हिन्दी का जिद् छोड़ने का बार बार आग्रह किया था. किन्तु राजर्षि टण्डन अपने हिन्दी के एजेन्डे से चिपके रहे और अंतत: गाँधी जी को इसी मुद्दे को लेकर हिन्दी साहित्य सम्मेलन से बहुत ही दुखी मन से त्याग पत्र देना पड़ा. लम्बे पत्राचार के बाद अन्तत: सेवाग्राम से 25 जुलाई 1945 को गाँधी जी ने टण्डन जी को लिखा, “आप का ता. 11.7.45 का पत्र मिला. मैने दो बार पढ़ा. बाद में भाई किशोरीलाल को दिया. वे संवतंत्र विचारक हैं., आप जानते होंगे. उन्होंने जो लिखा है सो भी भेजता हूँ. मैं तो इतना ही कहूंगा, जहां तक हो सका मैं आप के प्रेम के अधीन रहा हूँ. अब समय गया है कि वही प्रेम मुझे आप से वियोग कराएगा. मैं अपनी बात नहीं समझा सका हूँ. यही पत्र आप सम्मेलन की स्थाई समिति के पास रखें. मेरा ख्याल है कि सम्मेलन ने मेरी हिन्दी की व्याख्या अपनायी नहीं है. अब तो मेरे विचार इसी दिशा में आगे बढ़े हैं. राष्ट्रभाषा की मेरी व्याख्या में हिन्दी और उर्दू लिपि और दोनो शैलियों का ज्ञान आता है. ऐसा होने से ही दोनो का समन्वय होने का है तो हो जाएगा. मुझे डर है कि मेरी यह बात सम्मेलन को चुभेगी. इसलिए मेरा स्तीफा कबूल किया जाय. हिन्दुस्तानी प्रचार सभा का कठिन काम करते हुए मैं हिन्दी की सेवा करूँगा और उर्दू की भी. “
वैसे भी हिन्दुस्तानी कहने से जिस तरह व्यापक राष्ट्रीयता और सामाजिक समरता का बोध होता है उस तरह हिन्दी कहने से नहीं. जैसे पंजाबियों की पंजाबी, मराठियों की मराठी, बंगालियों की बंगाली, तमिलों की तमिल, गुजरातियों की गुजराती का बोध होता है उसी तरह हिन्दुस्तानी कहने से हिन्दुस्तानियों की हिन्दुस्तानी का बोध होता है. इस शब्द में न तो क्षेत्रीयता की गंध है और न जाति-धर्म की संकीर्णता की. यदि हिन्दुस्तानी को राजभाषा के रूप में स्वीकृति मिल गई होती तो उर्दू का क्षगड़ा सदा सदा के लिए खत्म हो गया होता. निश्चित रूप से हिन्दुस्तानी की जगह हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया जाना एक बड़ी ऐतिहासिक भूल थी और इतिहास की इस भूल का भयंकर दुष्परिणाम आज भी हम झेल रहे है. किसी ने कहा है,
“ ये जब्र भी देखे हैं तारीख की नजरों ने, / लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई.”
इस ऐतिहासिक भूल का परिणाम हम आज भी भुगत रहे हैं. हिन्दी आज भी दक्षिण का ही नही, भारत के दूसरे हिस्से के लोगों का भी विरोध झेल रही है. बल्कि आज तो हिन्दी वाले ही हिन्दी का सबसे बड़े दुश्मन बन बैठे हैं. वे हिन्दी की कई महत्वपूर्ण बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करके हिन्दी परिवार को ही बाँटने पर आमादा हैं.
बहरहाल, अब तो संविधान ने देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली ‘हिन्दी’ को संघ की राजभाषा बनाकर हिन्दी और हिन्दुस्तानी के विवाद पर विराम लगा दिया है किन्तु यदि हिन्दी को उसका वाजिब स्थान दिलाना है तो हमें आज भी गाँधी के दिखाए मार्ग पर ही चलना होगा और ‘हिन्दी’ शब्द में ‘हिन्दुस्तानी’ का अर्थ भरना होगा.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)