क्या दुनिया में तुलसी जैसा कोई दूसरा कवि है जो अनपढ़ गंवारों के बीच भी उसी तरह लोकप्रिय हो जिस तरह पंडितों और विद्वानों के बीच? उत्तर भारत का एक अनपढ़ किसान भी तुलसी की दो चार चौपाई जानता है और अवसर के अनुकूल उसे कोट भी करता है. दूसरी ओर हिन्दी में पहला शोध 1911 ई. में तुलसी पर ही हुआ. एल. पी. तेस्सीतोरी ने ‘रामचरितमानस और रामायण का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर शोध करके हिन्दी में पहला शोध प्रबंध जमा किया और फ्लोरेंस विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. इतना ही नही, हिन्दी में दूसरा शोध भी 1918 ई. में लंदन विश्वविद्यालय से जे.एन. कारपेन्टर ने तुलसी के धर्म दर्शन पर किया. ‘अकबर : द ग्रेट मुगल’ के लेखक विन्सेंट स्मिथ ने कहा है कि अकबर महान था. उसका साम्राज्य दुनिया में सबसे विशाल था. वह दुनिया का सबसे धनी बादशाह भी था, किन्तु अकबर से भी महान तुलसीदास थे क्योंकि अकबर ने तो जनता पर शासन किया मगर तुलसी ने जनता के दिलों पर शासन किया. ‘रामचरितमानस’ का रूसी भाषा में अनुवाद जिन कठिन परिस्थितियों में वारान्निकोव ने किया, दुनिया में शायद ही कोई दूसरा ग्रंथ हो, जिसका अनुवाद ऐसी कठिन परिस्थितियों मे हुआ हो. उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और सोवियत संघ में स्तालिन का शासन था. स्तालिन जैसे कम्युनिस्ट ने वारान्निकोव के काम का महत्व समझा और उन्हें उनके पुस्तकालय सहित किसी सुरक्षित जगह भिजवा दिया ताकि निर्बाध गति से अनुवाद का काम पूरा हो सके. अवधी जैसी एक बोली में लिखा जाने वाला ‘रामचरितमानस’ जैसा ग्रंथ आज एक धर्मग्रंथ की हैसियत पा चुका है और वेद, बाइबिल, कुरान अथवा गीता की तरह लोक के द्वारा पूजा जाता है. लोग इसका पारायण करके पुण्यलाभ लेते हैं. आज की इक्कीसवीं सदी में भी इस ग्रंथ की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आयी है. आखिर इस लोकप्रियता का राज क्या है?
मानस के प्रत्येक काण्ड में जो श्लोक हैं उन्हें देखने से लगता है कि तुलसी का संस्कृत भाषा पर अच्छा अधिकार था. वे चाहते तो संस्कृत में मानस रच सकते थे किन्तु उन्होंने अवधी जैसी एक क्षेत्रीय बोली को चुना. जनता के बीच जनता की भाषा में ही पहुंचा जा सकता है इसे तुलसी अच्छी तरह समझते थे. हजारो साल पहले गौतम बुद्ध ने भी पाली को अपनाकर इसका प्रमाण दे दिया था और लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच चुके थे. आज भी चीन, जापान, श्रीलंका, थाईलैंड, तिब्बत आदि अनेक मुल्कों का मुख्य धर्म बौद्ध है जबकि आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले लुम्बिनी में जन्म लेने वाले बुद्ध बोध गया में ज्ञान प्राप्त करते हैं, सारनाथ में पहली बार जनता को उपदेश देते हैं और कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त करते हैं. उनकी सारी यात्रा लगभग आठ सौ किलोमीटर परिधि के भीतर ही है. वे कभी विदेश नहीं गए. उस समय कम्प्यूटर, इंटरनेट, हवाई जहाज, मोटर कुछ भी नहीं था. किन्तु –जिस तरह दुनिया भर में बौद्ध धर्म फैला वह यथार्थ नहीं होता तो क्या हम यकीन कर पाते? प्रख्यात पाश्चात्य विद्वान सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने तुलसी को ‘बुद्ध के बाद का सबसे बड़ा लोकनायक’ कहा है. आखिर क्या है तुलसी की इस लोकप्रियता का रहस्य ?
तुलसी एक भक्त थे किन्तु उनकी भक्ति ऐकान्तिक नहीं है बल्कि तुलसी का भक्ति-पथ एक ऐसा राजमार्ग है जिसपर हर कोई चल सकता है चाहे वह राजा हो या रंक. तुलसी ने जो भक्ति मार्ग दिखाया उसमें गृहस्थ रहते हुए अपने परिवार का पालन करते हुए भी चला जा सकता है. यह भक्ति सबके लिए सुलभ है और कल्याणकारी भी.
दूसरे मतावलम्बियों के यहां साधना और आराधना इसलिए की जाती है कि असीमित दुख और नाना बंधनों से भरे हुए इस संसार से मुक्ति हो, मोक्ष मिले अथवा जन्नत या स्वर्ग नसीब हो. जबकि तुलसी अकेले ऐसे कवि हैं जिन्हें संसार से मुक्ति की आकांक्षा नहीं है. वे बार बार इसी संसार में आना चाहते हैं मगर संसार के ऐश्वर्य का उन्हें कोई लोभ नहीं है. वे संसार में जन्म लेकर अपने आराध्य राम की भक्ति और उनके चरणों की सेवा का आनंद लेना चाहते हैं,
तुलसी लिखते हैं,
“अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहौं निरबान / जनम जनम रति राम पद यह बरदान न आन.”
राम कथा अपने विविध रूपों में देश की लगभग सभी भाषाओं में उपलब्ध है किन्तु समूचा उत्तरभारत राम कथा के उसी रूप से परिचित है जिसे तुलसी ने हमें बताया है. हम उसी राम को जानते हैं जिससे तुलसी ने हमारा परिचय कराया. तुलसी के राम, राज- परिवार के होने के बावजूद हम सबकी तरह जिन्दगी भर संघर्ष करने वाले, हमारे बीच के और हमारे अपने लगते है. सारा उत्तर भारत राम के जीवन से संस्कार की शिक्षा लेता है, अधर्म के विनाश और धर्म की प्रतिष्ठा के लिए ही उनका जन्म हुआ है. उनका पूरा जीवन ही अन्याय के लिए संघर्ष करने वाले अप्रतिम योद्धा का जीवन है. शरणागत के रक्षक की जीवन है, दीन- दुखियों पर असीमित करुणा बरसाने वाले का जीवन है, सुख- दुख को समान भाव से ग्रहण करने वाले योगी का जीवन है. इसीलिए तुलसी के राम, आपत्ति- विपत्ति में अपने भक्तों की रक्षा करने वाले हैं, वे उनके सबसे करीब लगते हैं, अपने लगते हैं.
तुलसी का सारा लेखन लोक कल्याण के लिए है. उनका सिद्धान्त ही था कि कीर्ति, वाणी और ऐश्वर्य वही सार्थक है जो गंगा की तरह सबका कल्याण करे.
“कीरति भणिति भूति भलि सोई / सुरसरि सम सब कहँ हित होई.”
वे इतने स्वाधीन और स्वभिमानी हैं कि अपने जीवन काल में उन्होंने राम और उनके भक्तों, परिजनों के अलावा अन्य किसी के विषय में कुछ नहीं लिखा जबकि वह युग राजाओं महाराजाओं तथा अपने आश्रयदाताओं के जीवन चरित के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन और बखान का था. किन्तु तुलसी को लगता था कि,
“ कीन्हें प्राकृत जन गुण गाना / सिर धुनि गिरा लागि पछिताना. “
प्राकृत जनों का गुण गान करने से उनकी सरस्वती सिर पीटने और पछताने लगती है. समूचे भक्ति काल में एक मात्र तुलसी ही भूख पर कविता लिख सकते थे. उन्होंने जो गरीबी देखी और झेली वैसा और किसी ने नहीं. जन्म देने के बाद ही उनकी मां चल बसीं. मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण अपशकुन मानकर पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया. उन्हें दासी ले गई. कुछ दिन बाद सांप के काटने से दासी भी मर गई और तुलसी पूरी तरह अनाथ होकर सड़क पर आ गए. उनका बचपन भीख मांगते हुए बीता. उन्होंने लिखा है “द्वार-द्वार दीनता कही काढ़ि रद परि पाहूँ.” तथा “चारि फल जानत हौं चारिहू चनक कौ.” अर्थात दरवाजे दरवाजे पर मुझे अपना भूखा पेट दिखाना पड़ा, लोगों के पैर पकड़ने पड़े. यदि कोई चार चना दे देता तो लगता जैसे चारो फल अर्थात अर्थ, धर्म, काम मोक्ष मिल गया. इसीलिए तुलसी ने पेट की आग को बड़वाग्नि से भी बढ़कर माना है. “तुलसी बुझैहें एक राम घनश्याम ही तें, आगि बड़वागि ते वड़ो है आगि पेट की.” तुलसी की दृष्टि में पेट की आग बुझाने की सामर्थ्य राम रूपी घनश्याम में ही है. यह दृष्टि तुलसी की नहीं उस युग की है. कोई गरीब क्यों होता है और कोई अमीर क्यों – इस विषय पर उस युग में कोई वैज्ञानिक दृष्टि विकसित नहीं हो पायी थी. उस युग में अमीरी -गरीबी, सुख- दुख, सबकुछ अपने पूर्व जन्म का फल ही माना जाता था. ईश्वर की कृपा से ही इनसे मुक्ति संभव मानी जाती थी. हमें तो लगता है कि आज के वैज्ञानिक युग में भी राधे मां, आशाराम, राम रहीम जैसे स्वयंभू भगवानों और ढोंगी देवियों के आगे मत्था टेकने वालों की तुलना में तुलसी के जमाने का मनुष्य अधिक सचेतन और वैज्ञानिक बोध से युक्त था क्योंकि वह राम और कृष्ण से नीचे के देवी -देवताओं के सामने सर नहीं झुकाता था. तुलसी तो कत्तई नहीं. समस्त उत्तर भारत को तुलसी ने अपने साहित्य के माध्यम से अकेले जितना सुसंस्कृत और प्रभावित किया उतना बड़े- बड़े राजनीतिक दल भी नहीं कर सके. तुलसी ने शैव और वैष्णव, लोक और शास्त्र, सगुण और निर्गुण, राजा और प्रजा आदि के बीच समन्वय स्थापित किया, करुणा और प्रेम जैसे उदात्त भावों का विस्तार किया, मानवता की प्रतिष्ठा के लिए दया और शील जैसे मूल्यों की प्रतिष्ठा की. संतों के चरित्र का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है,
“ संत चरित नवनीत समाना / कहा कविन पर कहै न जाना.
निज परिताप द्रवै नवनीता / पर दुख द्रवै सो संत पुनीता.”
कवियों ने संतों का चरित नवनीत की तरह कहा है किन्तु तुलसी के अनुसार नवनीत को यदि गरम किया जाय तभी वह पिघलता है जबकि संत तो उसे कहते हैं जो दूसरे के दुख को देखकर ही द्रवित हो जाता है. रामविलास शर्मा ने तुलसी के साहित्य को ध्यान में रखकर ही भक्ति साहित्य को लोकजागरण का काव्य कहा है.
तुलसी के राम का सारा अभियान अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध है और समता और न्याय पर आधारित समाज की स्थापना के लिए है. उन्होंने एक आदर्श राज्य – रामराज की परिकल्पना की है जो हमारे युग के महानतम व्यक्ति गांधी का भी सपना बन गया. गांधी के स्वराज की संकल्पना के मूल में तुलसी के रामराज की अवधारणा है. जब तक हमारे समाज में अन्याय और अत्याचार रहेगा तुलसी प्रासंगिक बने रहेंगे. तुलसी के साहित्य में जो गेयता है, भाषा मे जो माधुर्य है वह हर पाठक और श्रोता को बाँध लेताहै. तुलसी की लोकप्रियता का यह भी एक बड़ा कारण है.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)