हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने आजाद भारत का जो सपना देखा था और उस सपने को साकार करने के लिए जो मार्ग सुझाया था हम उस मार्ग से भटकते –भटकते विपरीत दिशा की ओर मुड़ गए और धीरे –धीरे चलते हुए इतनी दूर पहुँच चुके हैं कि अब तो उधर लौटना एक सपना देखना भर रह गया है. आज हम गाँधी जी की उस शैतानी सभ्यता की ओर बेतहासा भाग रहे हैं जिससे दूर रहने के लिए उन्होंने हमें बार-बार आगाह किया था.
गांधी जी ने हिन्दी के आन्दोलन को आजादी के आन्दोलन से जोड़ दिया था. उनका ख्याल था कि देश जब आजाद होगा तो उसकी एक राष्ट्रभाषा होगी और वह राष्ट्रभाषा हिन्दी ही होगी क्योंकि वह इस देश की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा है. वह अत्यंत सरल है और उसमें भारतीय विरासत को वहन करने की क्षमता है. उसके पास देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि भी है. जो फारसी लिपि जानते हैं वे इस भाषा को फारसी लिपि में लिखते हैं. इसे हिन्दी कहें या हिन्दुस्तानी.
आरंभ से ही गांधीजी के आन्दोलन का यह एक मुख्य मुद्दा था. अपने पत्रों ‘नवजीवन’ और ‘यंग इंडिया’ में वे बराबर इस विषय पर लिखते रहे. हिन्दी-हिन्दुस्तानी का प्रचार करते रहे. जहां भी मौका मिला खुद हिन्दी में भाषण दिया. गांधी जी के प्रयास से 1925 ई. के कानपुर अधिवेशन में कांग्रेस का काम काज हिन्दुस्तानी में करने का प्रस्ताव पारित हुआ. इस प्रस्ताव के पास होने के बाद गाँधी जी ने इसकी रिपोर्ट अपने पत्रों ‘यंग इंडिया’ और ‘नवजीवन’ दोनो में दी थी. उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था, “हिन्दुस्तानी के उपयोग के बारे में जो प्रस्ताव पास हुआ है, वह लोकमत को बहुत आगे ले जाने वाला है. हमें अबतक अपना काम काज ज्यादातर अंग्रेजी में करना पड़ता है, यह निस्संदेह प्रतिनिधियों और कांग्रेस की महा समिति के ज्यादातर सदस्यों पर होने वाला एक अत्याचार ही है. इस बारे में किसी न किसी दिन हमें आखिरी फैसला करना ही होगा. जब ऐसा होगा तब कुछ वक्त के लिए थोड़ी दिक्कतें पैदा होंगी, थोड़ा असंतोष भी रहेगा. लेकिन राष्ट्र के विकास के लिए यह अच्छा ही होगा कि जितनी जल्दी हो सके, हम अपना काम हिन्दुस्तानी में करने लगें.”( यंग इंडिया 7.1.1926 ) इसी तरह उन्होंने ‘नवजीवन’ में लिखा, “जहां तक हो सके, कांग्रेस में हिन्दी –उर्दू ही इस्तेमाल किया जाय, यह एक महत्व का प्रस्ताव माना जाएगा. अगर कांग्रेस के सभी सदस्य इस प्रस्ताव को मानकर चलें, उसपर अमल करें तो कांग्रेस के काम में गरीबों की दिलचस्पी बढ़ जाय.” ( नवजीवन, 3.1.1928 )
भाषा के बारे में अपनी साम्राज्यवाद विरोधी एवं सामासिक दृष्टि का परिचय देते हुए गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा, ‘प्रत्येक पढ़े लिखे भारतीय को अपनी भाषा का, हिन्दू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फारसी का और हिन्दी का ज्ञान सबको होना चाहिए. …. सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होगी. उसे उर्दू या देवनागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए. हिन्दू और मुसलमानों में सद्भाव रहे, इसलिए बहुत से भारतीयों को ये दोनों लिपियां जान लेनी चाहिए.” ( सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खण्ड- 10, पृष्ठ-56 ) यहाँ उल्लेखनीय है कि गाँधी जी ने हिन्दी को किसी धर्म विशेष की भाषा न मानकर सभी भारतीयों की भाषा के रूप में उसे पहचाना. यह प्रकारान्तर से हिन्दी के धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रीय चरित्र की स्वीकृति थी. गाँधी जी का उक्त कथन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उस भाषाई षड्यंत्र का जवाब भी था जिसके तहत उन्नीसवीं सदी में फोर्ट विलियम कालेज के द्वारा हिन्दी को हिन्दुओं और उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रचारित करके हिन्दू- मुस्लिम अलगाववाद की नींव तैयार की गयी थी.
हिन्दी भाषा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए गाँधी जी ने कहा है, “हिन्दी भाषा मैं उसे कहता हूँ, जिसे उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फारसी (उर्दू) लिपि में लिखते हैं. ऐसी दलील दी जाती है कि हिन्दी और उर्दू दो अलग -अलग भाषाएं हैं. यह दलील सही नहीं है. उत्तर भारत में मुसलमान और हिन्दू एक ही भाषा बोलते हैं. भेद पढ़े लिखे लोगों ने डाला है. इसका अर्थ यह है कि हिन्दू शिक्षित वर्ग ने हिन्दी को केवल संस्कृमय बना दिया है. इस कारण कितने ही मुसलमान उसे समझ नहीं सकते है. लखनऊ के मुसलमान भाइयों ने उस उर्दू में फारसी भर दी है और उसे हिन्दुओं के समझने के अयोग्य बना दिया है. ये दोनो केवल पंडिताऊ भाषाएं हैं और इनको जनसाधारण में कोई स्थान प्राप्त नहीं है. मैं उत्तर में रहा हूँ, हिन्दू मुसलमानों के साथ खूब मिला जुला हूँ और मेरा हिन्दी भाषा का ज्ञान बहुत कम होने पर भी मुझे उन लोगों के साथ व्यवहार रखने में जरा भी कठिनाई नहीं हुई है. जिस भाषा को उत्तरी भारत में आम लोग बोलते हैं, उसे चाहे उर्दू कहें चाहे हिन्दी, दोनो एक ही भाषा की सूचक है. यदि उसे फारसी लिपि में लिखें तो वह उर्दू भाषा के नाम से पहचानी जाएगी और नागरी में लिखें तो वह हिन्दी कहलाएगी.” ( सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खण्ड- 10, पृष्ठ-29 )
गाँधी जी चाहते थे कि बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सब कुछ मातृभाषा के माध्यम से हो. दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान ही उन्होंने समझ लिया था कि अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा हमारे भीतर औपनिवेशिक मानसिकता बढ़ाने की मुख्य जड़ है. ‘हिन्द स्वराज’ में भी उन्होंने लिखा कि, “करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है. मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी. उसने इसी इरादे से वह योजना बनाई, यह मैं नहीं कहना चाहता, किन्तु उसके कार्य का परिणाम यही हुआ है. हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं, यह कैसी बड़ी दरिद्रता है? ….यह भी जानने लायक है कि जिस पद्धति को अंग्रजों ने उतार फेंका है, वही हमारा श्रृंगार बनी हुई है. वहां शिक्षा की पद्धतियाँ बदलती रही हैं. जिसे उन्होंने भुला दिया है, उसे हम मूर्खतावश चिपटाए रहते हैं. वे अपनी मातृभाषा की उन्नति करने का प्रयत्न कर रहे हैं. वेल्स, इंग्लैण्ड का एक छोटा सा परगना है. उसकी भाषा धूल के समान नगण्य है. अब उसका जीर्णोद्धार किया जा रहा है……. अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है. अंग्रेजी शिक्षण से दंभ द्वेष अत्याचार आदि बढ़े हैं. अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी. भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं. जनता की हाय अंग्रेजों को नहीं हमको लगेगी.”( संपूर्ण गांधी वांग्मय, खण्ड-10, पृष्ठ-55 ) अपने अनुभवों से गाँधी जी ने निष्कर्ष निकाला था कि, “अंग्रेजी शिक्षा के कारण शिक्षितों और अशिक्षितों के बीच कोई सहानुभूति, कोई संवाद नहीं है. शिक्षित समुदाय, अशिक्षित समुदाय के दिल की धड़कन को महसूस करने में असमर्थ है.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-164)
गाँधी जी नें इंग्लैण्ड में रहकर कानून की पढ़ाई की थी और बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की थी. अपने देश के संदर्भ में अंग्रेजी शिक्षा की अनिष्टकारी भूमिका को पहचानने में उनकी अनुभवी दृष्टि धोखा नहीं खा सकती थी. दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए ही वे अच्छी तरह समझ चुके थे कि भारत का कल्याण उसकी अपनी भाषाओं में दी जाने वाली शिक्षा से ही संभव है. भारत आने के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक उद्घाटन समारोह में जब लगभग सभी गणमान्य महापुरुषों नें अपने अपने भाषण अंग्रेजी में दिए, एक मात्र गाँधी जी ने अपना भाषण हिन्दी में देकर अपना इरादा स्पष्ट कर दिया था. संभवत: किसी सार्वजनिक समारोह में यह उनका पहला हिन्दी भाषण था. उन्होंने कहा, ‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यंत अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है . …. मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा. हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिंब है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है. क्या कोई व्यक्ति स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है? फिर राष्ट्र के पावों में यह बेड़ी किसलिए ? यदि हमें पिछले पचास वर्षों में देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गयी होती, तो आज हम किस स्थिति में होते ! हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-765 )
संभव है यहां कुछ लोग मातृभाषा से तात्पर्य अवधी, ब्रजी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका आदि लें क्योंकि आजकल चन्द स्वार्थी लोगों द्वारा अपनी-अपनी बोलियों को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए उन्हें मातृभाषा के रूप में प्रचारित किया जा रहा हैं और इस तरह हिन्दी को टुकड़े टुकड़े में बांटने की कोशिश की जा रही है. ऐसे लोग न तो अपने हित को समझते हैं और न इतिहास की गति को. वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाते हैं खुद हिन्दी की रोटी खाते हैं और भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी तथा राजस्थानी आदि को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि इन क्षेत्रों की आम जनता को जाहिल और गँवार बनाये रख सके और भविष्य में भी उनपर अपना आधिपत्य कायम रख सके. ऐसे लोगों को गाँधी जी का निम्नलिखित कथन शायद सद्बुद्धि दे. गाँधी जी ने 1917 ई. में हिन्दी क्षेत्र के एक शहर भागलपुर में भाषण देते हुए कहा था, ”आज मुझे अध्यक्ष का पद देकर और हिन्दी में व्याख्यान देने और सम्मेलन का काम हिन्दी में चलाने की अनुमति देकर आप विद्यार्थियों ने मेरे प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया है……इस सम्मेलन का काम इस प्रान्त की भाषा में ही— और वही राष्ट्रभाषा भी है — करने का निश्चय करके आप ने दूरन्देशी से काम लिया है. इसके लिए मैं आप को बधाई देता हूँ. मुझे आशा है कि आप लोग यह प्रथा जारी रखेगे.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-5 )
स्पष्ट है कि सम्मेलन का काम इस प्रान्त की भाषा में ही –और वही राष्ट्र भाषा भी है –कहकर गाँधी जी ने यह अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया था कि बिहार प्रान्त की भाषा और मातृभाषा भी राष्ट्रभाषा हिन्दी ही है, न कि कोई अन्य बोली या भाषा. गाँधी जी का विचार था कि मां के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है. हम ऐसी शिक्षा के वशीभूत होकर मातृद्रोह करते है.
विदेशी भाषा में शिक्षा देने के जो नुकसान गाँधी जी ने बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में बताए उनसे आज भी असहमत होना असंभव है.
हमें स्मरण रखनी चाहिए कि पिछले दिनों एक लाख करोड़ की लागत वाली जापान की तकनीक और कर्ज के बलपर जिस बुलेट ट्रेन की नींव रखी गई है उस जापान की कुल आबादी सिर्फ 12 करोड़ है. वह छोटे छोटे द्वीपों का समूह है. वहां का तीन चौथाई से अधिक भाग पहाड़ है और सिर्फ 13 प्रतिशत हिस्से में ही खेती हो सकती है. फिर भी वहां सिर्फ भौतिकी में 13 नोबेल पुरस्कार पाने वाले वैज्ञानिक हैं. ऐसा इसलिए है कि वहां 99 प्रतिशत जनता अपनी भाषा ‘जापानी’ में ही शिक्षा ग्रहण करती है. इसी तरह कुछ दिन पहले हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने जिस इजराइल की यात्रा की थी और उसके विकास पर गद्गद थे उस इजराइल की कुल आबादी मात्र 83 लाख है और वहां 11 नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक हैं क्योंकि वहां भी उनकी अपनी भाषा ‘हिब्रू’ में शिक्षा दी जाती है. हमारा पड़ोसी चीन भी हमारी ही तरह का बहुभाषी विशाल देश है किन्तु उसने भी अपनी एक भाषा चीनी ( मंदारिन) को प्रतिष्ठित किया और उसे वहां पढ़ाई का माध्यम बनाया. चीनी बहुत कठिन भाषा है. चीनी लिपि दुनिया की संभवत: सबसे कठिन लिपियों में से एक है. वह चित्र-लिपि से विकसित हुई है. आज चीन जिस ऊंचाई पर पहुंचा है उसका सबसे प्रमुख कारण यही है कि उसने अपने देश में शिक्षा का माध्यम अपनी चीनी भाषा को बनाया. इसी तरह अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, रूस आदि दुनिया के सभी विकसित देशों में वहां की अपनी भाषाओं क्रमश: अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, रूसी आदि में ही शिक्षा दी जाती है. इसीलिए वहां मौलिक चिन्तन संभव हो पाता है. मौलिक चिन्तन सिर्फ अपनी भाषा में ही हो सकता है. व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएं सीख ले किन्तु सोचता अपनी भाषा में ही है. हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं फिर उसे अपनी भाषा में ट्रांसलेट करके सोचते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में ट्रांसलेट करना पड़ता है. इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का एक बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है. अंग्रेजी माध्यम अपनाने के बाद से हम सिर्फ नकलची पैदा कर रहे हैं. अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा सिर्फ नकलची ही पैदा कर सकती है.
हमें अपनी विरासत की ओर भी एक बार झाँकनी चाहिए. जब अंग्रेज नहीं आए थे और हम अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करते थे तब हमने दुनिया को बुद्ध और महावीर दिए, वेद और उपनिषद दिए, दुनिया का सबसे पहला गणतंत्र दिए, चरक जैसे शरीर विज्ञानी और शूश्रुत जैसे शल्य-चिकित्सक दिए, पाणिनि जैसा वैयाकरण और आर्य भट्ट जैसे खगोलविज्ञानी दिए, पतंजलि जैसा योगाचार्य और कौटिल्य जैसा अर्थशास्त्री दिए. हमारे देश में तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय थे जहां दुनिया भर के विद्यार्थी अध्ययन करने आते थे. इस देश को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था जिसके आकर्षण में ही दुनिया भर के लुटेरे यहां आते रहे. प्रख्यात आलोचक रामविलास शर्मा ने कहा है कि दुनिया के किसी भी देश की संस्कृति से मुकाबला करने के लिए अपने यहां के सिर्फ तीन नाम ले लेना ही काफी है- तानसेन, तुलसीदास और ताजमहल.
इस समय हमारे देश में 8 करोड़ ऐसे बच्चे हैं जो स्कूल नहीं जाते. सबसे पहले उन्हें स्कूल भेजने की व्यवस्था होनी चाहिए, सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अपेक्षित शिक्षकों की भर्ती होनी चाहिए, उनको जरूरी संसाधन उपलब्ध करानी चाहिए. शिक्षा का क्षेत्र आज भारी मुनाफे का क्षेत्र हो गया है. सबसे ज्यादा निवेश यहीं हो रहे हैं. प्राइवेट स्कूलों में शिक्षक बंधुआ मजदूर की तरह काम करता है. वह मालिकों की चापलूसी में लगा रहता है, शिक्षा क्या देगा ? इसपर अंकुश लगनी चाहिए और शिक्षा को पूरी तरह न हो सके तो अधिक से अधिक सरकारी नियंत्रण में लेनी आइए. यहीं भावी नागरिक तैय़ार होते हैं. इससे पल्ला झाड़ना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ है
अंग्रेजी ही ज्ञान की भाषा है- यह बहुत बड़ा झूठ है. यह गलत अफवाह फैलाया जाता है कि उच्च शिक्षा (ज्ञान-विज्ञान-तकनीक) की पढ़ाई हिंदी में नहीं हो सकती. जब चीन की मंदारिन (चीनी) जैसी कठिन भाषा में ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीक की पढ़ाई हो सकती है तो हिंदी में क्यों नहीं हो सकती? हिंदी विश्व की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरे स्थान पर है. इसके पास देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि है जिसमें जो बोला जाता है वही लिखा जाता है. यह अत्यंत सहज और सरल भाषा है, किन्तु इसको माध्यम के रूप में न अपनाने के कारण देश की प्रतिभाओं का गला घोंटा जाता है.
आज अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों की जगह अंग्रेजी माध्यम वाले प्राइवेट स्कूलों मे प्रवेश दिलाना पसंद कर रहे हैं. इस तरह सरकारी स्कूलों में छात्र-संख्या घट रही है. प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है?
इसका कारण यह है कि जब चपरासी तक की नौकरियों में भी अंग्रेजी अनिवार्य होगी तो अंग्रेजी की मांग बढ़ेगी ही. भारत एक ऐसा मुल्क बन चुका है जहां का नागरिक चाहे देश की सभी भाषाओं में निष्णात हो किन्तु एक विदेशी भाषा अंग्रेजी न जानता हो तो उसे इस देश में कोई नौकरी नहीं मिल सकती और चाहे वह इस देश की कोई भी भाषा न जानता हो और सिर्फ एक विदेशी भाषा अंग्रेजी जानता हो तो उसे इस देश की छोटी से लेकर बड़ी तक सभी नौकरियाँ मिल जाएंगी. छोटे से छोटे पदों से लेकर यू.पी.एस.सी. तक की सभी भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी का दबदबा है. उच्चतम न्यायालय से लेकर सभी उच्च न्यायालयों में सारी बहसें और फैसले सिर्फ अंग्रेजी में होने का प्रावधान है. यह ऐसा तथाकथित आजाद मुल्क है जहां के नागरिक को अपने बारे में मिले फैसले को समझने के लिए भी वकील के पास जाना पड़ता है और उसके लिए भी वकील को पैसे देने पड़ते हैं. मुकदमों के दौरान उसे पता ही नही होता कि वकील और जज उसके बारे में क्या सवाल-जबाब कर रहे हैं. ऐसे माहौल में कोई अपने बच्चे को अंग्रेजी न पढ़ाने की मूर्खता कैसे कर सकता है ?
जिस अमेरिका और इंग्लैंड की अंग्रेजी को हमारे बच्चों पर लादा जा रहा है उसी अमेरिका और इंग्लैण्ड में पढ़ाई के लिए जाने वाले हर सख्स को आइइएलटीएस ( इंटरनेशनल इंग्लिश लैंग्वेज टेस्टिंग सिस्टम ) अथवा टॉफेल ( टेस्ट आफ इंग्लिश एज फॉरेन लैंग्वेज) जैसी परीक्षाएं पास करनी अनिवार्य हैं. दूसरी ओर, हमारे देश के अधिकाँश अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में बच्चों को अपने देश की राजभाषा हिन्दी या मातृभाषा बोलने पर दंडित किया जाता है और हमारी सरकारें कुछ नहीं बोलतीं. यह गुलामी नहीं तो क्या है? बेशक गोरों की नहीं, काले अंग्रेजों की गुलामी. गुलाम व्यक्ति ही सोचता है कि मालिक भाषा बोलेंगे तो फायदे में रहेंगे.
सबसे पहले सरकारी नौकरियों से अंग्रेजी की अनिवार्यता हटनी चाहिए, न्यायपालिका और कार्यपालिका में भी भारतीय भाषाओं का प्रयोग अनिवार्य होना चाहिए. यदि ऐसा हुआ तो रातो रात अंग्रेजी की जगह मातृभाषाओं के माध्यम से पढ़ने वालों की मांग बढ़ जाएगी. फिर सरकार को प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक समूची शिक्षा व्यवस्था मातृभाषाओं के माध्यम से लागू करनी पड़ेगी और तब इस देश की प्रतिभाएं फिर से दुनिया में अपनी कीर्ति- पताका फहराएंगी.
फिलहाल, हम गाँधी जी के दिखाए गए रास्ते की उल्टी दिशा में चलते –चलते बहुत दूर जा चुके हैं. गाँधी जी ने जिस आजादी का सपना देखा था वह आज भी अधूरी ही है. मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में कुर्सी पर ‘जॉन’ की जगह ‘गोविन्द’ बैठ गए हैं. हमें सच्ची आजादी के लिए फिर से एक दूसरी लड़ाई लड़नी होगी. आज हमारी अपनी भाषाओं को जिस सीमा तक सम्मान और अधिकार मिला हुआ है उसी सीमा तक हम आजाद हैं.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष है.)