हिन्दी जाति और उसका साहित्य- अमरनाथ

अमरनाथ

रामविलास शर्मा ने जातीय गठन के जिन चार प्रमुख तत्वों का उल्लेख किया है वे हैं- सामान्य भाषा, सामान्य संस्कृति, सामान्य क्षेत्र और सामान्य आर्थिक जीवन. इस तरह एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले, आपस में संपर्क के लिए औपचारिक रूप से एक सामान्य भाषा का व्यवहार करने वाले, एक सामान्य संस्कृति वाले और सामान्य आर्थिक संबंधों से जुड़े हुए एक वृहत्तर मानव समुदाय को जाति कहते हैं. उदाहरणार्थ भारत में बंगाली, उड़िया, मराठी, तमिल, गुजराती आदि तथा भारत से बाहर अंग्रेज, आयरिश, जर्मन, रूसी, फ्रेंच आदि जातियां हैं. रामविलास शर्मा के अनुसार जाति के निर्माण में आर्थिक संबंध मुख्य है, लेकिन एक बार जाति का निर्माण हो जाने के बाद भाषा और संस्कृति लोगों को जोड़े रखती है. यहां तक कि राजनीतिक दृष्टि से अलग हो जाने के बावजूद उनकी जातीयता टूट नहीं पाती. भारत का पश्चिम बंगाल और बंगला देश का उदाहरण इसका प्रमाण है. ये दो देश जुदा-जुदा हैं मगर इन दोनो देशों में एक ही जाति – बंगाली जाति बसती है और उसका एक ही साहित्य हैं- बंगला साहित्य. रवीन्द्रनाथ जितना पश्चिम बंगाल में सम्मानित हैं उतना ही बंगला देश में भी. देश और धर्म की भिन्नता के बावजूद बंगाली जाति एक है और उसका साहित्य भी एक है. ठीक इसी तरह इस देश में हिन्दी जाति नाम की भी एक जाति बसती है. इसमें जातीय चेतना का अभाव पाया जाता है जिसके ऐतिहासिक कारण हैं. यहाँ हमारा मकसद उन ऐतिहासिक कारणों का विश्लेषण करना नहीं है किन्तु जातीय चेतना के इसी अभाव के कारण उसे भारत की अन्य जातियों की तरह राष्ट्रीय स्वीकृति नहीं मिल पायी है.

बहरहाल, हिन्दी जाति इस देश की सबसे बड़ी जाति है. आज वह दस राज्यों बांट दी गयी है. आजादी के बाद अलग अलग राज्यों में बँट जाने के कारण उसका संतुलित विकास बाधित हुआ. क्षेत्र की व्यापकता के कारण उसमें संस्कृतिक और आर्थिक असमानता भी बढ़ी. जातीय चेतना का स्वस्थ विकास न हो पाने के कारण यह क्षेत्र आज भी जाति-पांति जैसे सामंती मूल्यों तथा सांप्रदायिकता का सबके बड़ा गढ़ बना हुआ है. अपनी विशालता, प्राकृतिक वैभव और अत्यंत समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के बावजूद यह देश की सबसे पिछड़ी हुई जाति है.

यहाँ हमारा उद्देश्य न तो इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का वर्णन करना है और न तो इसके पिछड़ेपन के कारणो का. हमारा उद्देश्य इस जाति की सिर्फ समृद्ध साहित्यिक परंपरा का आकलन करना है और बताना है कि किस तरह सत्ताधारी वर्ग ने क्षेत्र, भाषा, संस्कृति आदि की तरह इसकी समृद्ध साहित्यिक परंपरा को भी टुकड़े -टुकड़े किया और उसे अपनी ही साहित्यिक परंपरा से वंचित किया, उसे गोबर पट्टी (काऊ बेल्ट) कहा और इस तरह उसमें हीनता का भाव बढ़ाया.

डॉ.धीरेन्द्र वर्मा ने हिन्दी साहित्य का संपादन करते हुए उसकी भूमिका में लिखा है, “यद्यपि हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास गत एक हजार वर्ष से अधिक पुराना नहीं है, परन्तु उसकी परंपराएं अत्यंत प्राचीन हैं। हिन्दी भाषा का क्षेत्र वर्तमान राजस्थान से बिहार तथा हिमांचल प्रदेश और पूर्वी पंजाब से मध्य प्रदेश का विस्तृत भू-भाग है। प्रशासनिक आधार पर इसमें पंजाब ( पूर्वी भाग), हिमांचल प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार- आठ अलग-अलग इकाइयाँ हैं, परन्तु भाषा की दृष्टि से यह संपूर्ण क्षेत्र एक अविभाज्य इकाई है, जिसकी जनसंख्या लगभग बाईस करोड़ है। भाषा की इस इकाई को यदि ‘हिन्दी प्रदेश’ कहा जाय तो अनुचित न होगा। विस्तार और जनसंख्या में ही नहीं, सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस हिन्दी प्रदेश का विशेष महत्व रहा है। प्राचीन काल के वृहत्तर ‘मध्यदेश’ का ही यह आधुनिक भाषा क्षेत्र है, जिसे उत्तर भारत और अनेक अंशों में संपूर्ण भारत की संस्कृति का केन्द्र कहा जा सकता है। हिन्दी भाषा आर्यों की उस भाषा की अन्यतम प्रतिनिधि है जिसमें उसका प्राचीनतम साहित्य और सांस्कृतिक इतिहास उपलब्ध हुआ है।“( हिन्दी साहित्य, प्रथम खण्ड, प्रस्तावना से)

 इसी पुस्तक में भाषा का इतिहास लिखते हुए प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक डॉ. हरदेव बाहरी का कहना है, “हिन्दी भाषा का इतिहास वैदिक काल से उपलब्ध होता है। उससे पहले इस आर्यभाषा का स्वरूप क्या था, यह सब कल्पना का विषय बन गया है। आर्य चाहे कहीं बाहर से भारत मे आये हों अथवा यहीं सप्तसिन्धु प्रदेश के मूल निवासी हों, यह निश्चित और निर्विवाद सत्य है कि वर्तमान हिन्दी प्रदेश में आने से पहले उनकी भाषा वही थी जिसका साहित्यिक रूप ऋग्वेद में प्राप्त होता है। एक तरह से यह कहना ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही प्राचीनतम हिन्दी है। इस भाषा के इतिहास का यह दुर्भाग्य है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। सन् ईसवी पूर्व की तमिल और आज की तमिल में नाम भेद नहीं किया जाता, भले ही आधुनिक तमिल के पंडित के लिए प्राचीन तमिल वैसी ही कठिन और दुर्बोध हो जैसी हिन्दी जानने वाले के लिए संस्कृत। समूल परिवर्तन हो जाने पर भी अंग्रेजी, अंग्रेजी ही है और जर्मन, जर्मन। काल-भेद से हम उनके विभिन्न रूपों को प्राचीन अंग्रेजी, प्राचीन जर्मन, मध्यकालीन अंग्रेजी, मध्यकालीन जर्मन, आधुनिक अंग्रेजी और आधुनिक जर्मन कह देते हैं, किन्तु हिन्दी के अति प्राचीन रूप को वैदिक, प्राचीन रूप को संस्कृत, पूर्व मध्यकालीन को पालि, मध्यकालीन को प्राकृत, उत्तर मध्यकालीन को अपभ्रंश एवं आधुनिक रूप को हिन्दी कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस भाषा का साहित्यिक रूप वेद में सुरक्षित है, उसी की उत्तराधिकारिणी हिन्दी है। हिन्दी भाषा के मूल तत्व वैदिक भाषा में विद्यमान हैं।“( वही, पृष्ठ 135)

जाहिर है डॉ. हरदेव बाहरी हिन्दी भाषा को वैदिक संस्कृत की उत्तराधिकारिणी मानते हैं। इसीलिए मैं भी वेदों और उपनिषदों सहित रामायण, महाभारत आदि हिन्दी प्रदेश में रचित संस्कृत के असंख्य महान ग्रंथों को हिन्दी जाति की विरासत मानता हूं। मैं मानता हूँ कि वैदिक और लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश की रचनाएं हिन्दी जाति की रचनाएं नहीं हैं । मगर है वह हिन्दी जाति की ही विरासत। उससे हमारा भारत गौरवान्वित है, दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा है। वह हमारे समृद्ध भारतीय साहित्य का हिस्सा है।

हमें उसे हिन्दी जाति का साहित्य कहने में इसलिए भी अड़चन है, क्योंकि उस समय हिन्दी जाति गठित नहीं हुई थी और पूरा क्षेत्र विभिन्न जनपदों में बँटा हुआ था. वस्तुत: हिन्दी भाषा में रचा गया साहित्य ही हिन्दी जाति का साहित्य कहा जा सकता है।

इस संबंध में जितने भी हिन्दी साहित्य के इतिहास लिखे गए है उनमें सबसे पहले हमारा ध्यान आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास पर जाता है क्योंकि वह पहला विचार श्रृंखला बद्ध इतिहास है, जिसके पास एक इतिहास दृष्टि है और एक सुसंगत काल-विभाजन है।  साहित्य के पाठकों में भी सबसे ज्यादा प्रचलित यही शुक्ल जी का इतिहास है।  

मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि अपने इतिहास के प्रथम संस्करण की भूमिका लिखते समय शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास के रूप में ख्यात गार्सां द तासी के इतिहास ‘इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई ऐंदुस्तानी’ का जिक्र तक नहीं किया है। वे शुरू करते हैं शिवसिह सेंगर से। उन्होंने लिखा है,’’हिन्दी कवियों का एक वृत्त संग्रह ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने सन् 1883 ई. में प्रस्तुत किया था। उसके पीछे सन् 1889 मे डॉक्टर ( अब सर) ग्रियर्सन ने ‘माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर आव नार्दर्न हिन्दुस्तान’ के नाम से एक वैसा ही बड़ा कविवृत्त संग्रह निकाला।‘’ ( हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रथम संस्करण का वक्तव्य )

गार्सां द तासी के इतिहास का पहला भाग 1839 ई. में छप चुका था और दूसरा भाग 1847 ई. में। उल्लेखनीय है कि तासी का इतिहास हिन्दवी और हिन्दुस्तानी का इतिहास है। इसमें उर्दू- हिन्दी दोनो के कवियों का उल्लेख है। यद्यपि उस समय तक फोर्ट विलियम कालेज के मंच से जॉन बोर्थविक गिल क्राइस्ट के निर्देशन में विलियम प्राइस, कैप्टन टेलर आदि के द्वारा हिन्दी –उर्दू का विभाजन किया जा चुका था और इन्हें मजहब से जोड़ा जा चुका था। इसके बावजूद तासी का दृष्टिकोण अधिक व्यावहारिक और वैज्ञानिक था। उसकी दृष्टि में यह एक ही भाषा का साहित्य था और इसीलिए एक ही जाति का साहित्य था।

शुक्ल जी ने जिस ग्रियर्सन का जिक्र आदर के साथ किया है  उसने अपने इतिहास ( प्रकाशित, प्रथम संस्करण 1889 ई.) की भूमिका में लिखा है, ‘’मैं न तो अरबी फारसी के भारतीय लेखकों का उल्लेख कर रहा हूँ और न ही विदेश से लाई गई साहित्यिक उर्दू के लेखकों का ही –मैंने इन अन्तिम को, उर्दू वालों को, अपने इस विचार से जानबूझकर बहिष्कृत कर दिया है क्योंकि इनपर पहले ही गार्सां द तासी ने पूर्ण रूप से विचार कर लिया है।‘’

खेद है कि ग्रियर्सन की यह निराधार भेद दृष्टि शुक्ल जी सहित परवर्ती सभी इतिहास लेखकों ने यथावत स्वीकार कर ली।

हिन्दी जाति के साहित्य की कोई भी अवधारणा क्या मीर, सौदा, गालिब, जॉक, जफर, आतिश, फैज  और इकबाल को छोड़कर बन सकती है? ‘’मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ और हिन्दवी में जवाब देता हूँ।‘’ -का उद्घोष करने वाले अमीर खुसरो क्या हिन्दी जाति के साहित्यकार नहीं हैं? होली, दीवाली, महादेव जी के व्याह और कन्हैया जी के जन्म पर कविताएं लिखने वाले नजीर अकबराबादी क्या हिन्दी के जातीय कवि नहीं हैं? फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, फैज अहमद फैज, अली सरदार जाफरी, साहिर लुधियानवी, अहसान दानिश, कैफी आजमी, निदा फाजली और जावेद अख्तर जैसे प्रगतिशील और हिन्दी जाति की सामासिक संस्कृति को पुख्ता करने में अपनी समूची जिन्दगी समर्पित कर देने वाले साहित्यकारों को हिन्दी के जातीय साहित्यकारों के भीतर जगह न देने वाले बुद्धिजीवियों की बुद्धि पर तरस आती है। ‘’हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।’’ का तराना छेड़ने वाले डॉ. इकबाल की जगह यदि हिन्दी के जातीय साहित्य में नहीं है  तो कहाँ है?

वस्तुत: हिन्दी साहित्य के इतिहास में जिसे हम अबतक रीतिकाल कहते आये हैं वह रीतिकालीन ब्रजभाषा का साहित्य हमारे जातीय साहित्य की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं है, क्योंकि यह साहित्य तत्कालीन बहुसंख्यक जनता की चित्तवृत्तियों को प्रतिबिम्बित नहीं करता। अपवादों को छोड़ दें तो दो सौ वर्षों से भी अधिक समय तक के इस कालखण्ड के अधिकाँश हिन्दी कवि दरबारी रहे और अपने पतनशील आश्रयदाता सामंतों की विकृत रुचियों को तुष्ट करने के लिए श्रृंगारिक कविता या नायिकाभेद लिखते रहे। इस कालखण्ड की बहुसंख्यक जनता की चेतना वस्तुत; उस कविता में व्यक्त हुई है जिसे हमने उर्दू कविता के नाम पर अपने जातीय साहित्य की परिधि से बाहर कर दिया है। जिसे हम उर्दू कह रहे हैं उसे अमीर खुसरो से लेकर मिर्जा गालिब और मीर तकी मीर तक सबने ‘हिन्दी’ कहा है. मीर ने ही कहा था कि, “क्या जानूँ लोग कहते हैं किसको सरूरे कल्ब/आया नहीं है लफ्ज ये हिन्दी जबां के बीच.

सचाई यह है कि एक जाति एक साथ कभी दो भाषाएं नहीं बोल सकती. मुझे आज तक कोई भाषावैज्ञानिक नहीं मिला जो हिन्दी और उर्दू को दो अलग-अलग भाषाएं मानता हो. व्याकरण और क्षेत्र एक होने के कारण इन्हें अलग भाषा कह पाना किसी भी भाषावैज्ञानिक के लिए संभव नहीं है. ऐसी दशा में यदि हम तथाकथित उर्दू साहित्य को भी हिन्दी के जातीय साहित्य के भीतर सम्मिलित करने का नेक और जायज निर्णय लेते हैं तो हमें रीति काल की अब तक की समूची अवधारणा बदलनी होगी। इसी कालखण्ड के ब्रजभाषा के कवि जब “काजर के कोरवारे भारे अनियारे नैन” के तीरों से बिद्ध हो रहे थे तो ‘सौदा’ ( 1706-1781) और ‘मीर’ (1725-1810) जहानाबाद ( दिल्ली ) की बर्बादी ( नादिरशाह के लूटने से ) का कारुणिक चित्र खींच रहे थे और घुट-घुट कर रो रहे थे।–

“गुलों के साथ जहाँ बुलबुलें करी थी किलोल,
जहानाबाद तो कब इस सितम के काबिल था।
मगर कभी किसी आशिक का यह नगर दिल था,
कि यों मिटा दिया गोया कि नक्शे बातिल था।“ ( मिर्जा मुहम्मद रफी ‘सौदा’ )
“दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिखाब,
रहते थे मुंतसिब ही जहाँ रोज यार के, 
उसको फलक ने लूट के वीरान कर दिय
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दराज के।“ (मीर तकी ‘मीर’ )

महाकवि मिर्जा गालिब (1796-1869) दुख के भीतर से जीने की राह खोज रहे थे।–

“रंज से खूँगर हुआ इंशाँ तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझपर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं।“

आतिश  ( मृत्यु 1846) मजहबी कट्टरता के खिलाफ जंग लड़ रहे थे और दिलों को जोड़ने की बात कर रहे थे।–

“बुतखाना खोद डालिए मस्जिद को ढाइए,
दिल को न तोड़िए ये खुदा का मुकाम है।“ (ख्वाजा हैदर अली ‘आतिश’ )

इसी कालखण्ड में अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह ‘जफर’ ( 1735-1830)  थे जो एक ओर अंग्रेजों को ललकार रहे थे तो दूसरी ओर जनता को आगाह भी कर रहे थे।–

“हिन्दियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की। 

और

“दुनिया है यह रैन बसेरा बीत गई रही थोड़ी सी,
उनसे कह दो सो ना जावें नींद में जो कि निंदासे हैं।“

 इसी जमाने में जनसाधारण के असाधारण कवि नजीर ‘अकबराबादी’ (1735-1830) सही अर्थों में हिन्दी जाति की सामासिक संस्कृति की नींव पुख्ता कर रहे थे और जमाने का यथार्थ रच रहे थे। नजीर ने सिर्फ होली पर 26 कविताएं रची हैं। कन्हैया जी की लीलाओं का उन्होंने  इन शब्दों मे चित्रण किया है-

“तारीफ करूँ अब मैं क्या-क्या उस मुरली अधर बजैया की,
नित सेवा कुँज फिरैया की और बन-बन गऊ चरैय्या की।
गोपाल बिहारी बनवारी दुखहरन नेह करैया की,
गिरधारी सुन्दर स्यामबरन और हलधर जू के भैया की,
यह लीला है उस उस नंद ललन मनमोहन जसुमति छैया की
रख ध्यान सुनौ दंडौत करौ जै बोलो किशन कन्हैया की।“
उनकी एक मशहूर कविता की कुछ पंक्तियां हैं-

“क्या थाल कटोरी चाँदी की, क्या पीतल की डिबिया ढंकनी
क्या बर्तन सोने चांदी के क्या मिट्टी की हंड़िया चपनी,
सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा।“

प्रो. एहतेशाम हुसेन के शब्दों में, “नजीर से पूर्व अधिकतर कवि साधारण  विषयों पर लिखने और जनता के जीवन का चित्रण करने में संकोच करते थे, परन्तु नजीर ने उच्च वर्ग के विचारों में एक ऐसा चोर दरवाजा बना दिया, जिसमें से होकर जनता का जुलूस साहित्य भवन में घुस आया। कविता की इस महान परंपरा के साथ नजीर अकबराबादी का नाम सदैव जीवित रहेगा। वास्तव में तो यह वही परंपरा थी, जिसे अमीर खुसरो ने जन्म दिया था, परन्तु बीच में जीवन से उसका वह पहला सा घनिष्ठ संबंध नहीं रह गया था। नजीर ने उसे प्रबल, व्यापक और लोकप्रिय बनाया। अमीर खुसरो के पश्चात भक्त कवियों ने, गोलकुण्डा के कुली कुतुबशाह ने, दिल्ली के फाइज ने उसे विनाश से बचाया था, नजीर ने उसे आकाश तक ऊंचा उठा दिया।“ ( उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, संस्करण 2002, पृष्ठ- 98)

उर्दू के नाम पर हिन्दी वालों के लिए अछूत करार दे दिया गया यह साहित्य वस्तुत: हिन्दी के जातीय साहित्य का अभिन्न हिस्सा है।

विश्वविद्यालयों में हमने हिन्दी और उर्दू के नाम पर जो अलग-अलग खाँचे गढ़ लिए हैं, ऐसा लगता है कि उनका मुख्य काम अपने जातीय साहित्य का बँटवारा करना है। हम हिन्दी साहित्य के अंतर्गत चंद बरदाई को पढ़ते हैं जो राजस्थानी के हैं, विद्यापति को पढ़ते हैं जो मैथिली के हैं, तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और ये सब हमें कठिन नहीं लगते लेकिन मिर्जा गालिब और मीर तकी ‘मीर’ हमें कठिन लगते हैं और उन्हें हिन्दी वाले नहीं पढ़ते जो खड़ी बोली के हैं और जिन्होंने खुद अपनी जबान को ‘हिन्दी’ कहा है।

उर्दू के रचनाकारों का जो साहित्य देवनागरी में उपलब्ध है उसमें सिर्फ अरबी-फारसी के कुछ कठिन शब्द होते है और आम तौर पर उनके हिन्दी अर्थ दिए होते हैं। मात्र इतने से ही उनकी कविताएं आसानी से समझ में आ जाती हैं। मुझे बराबर लगता है कि गालिब, इकबाल, फैज और फिराक की तुलना में कबीर, जायसी, केशव और घनानंद अधिक कठिन हैं। अगर हिन्दी –उर्दू एक ही भाषा की दो शैलियाँ हैं और दोनो शैलियों में रची गयी रचनाएं एक ही क्षेत्र की साहित्यिक उपलब्धियाँ हैं तो हमारे साहित्य के विद्यार्थियों को अपनी दोनो ही परंपराओं से समान रूप से परिचय का अवसर मिलना चाहिए। उर्दू का सारा श्रेष्ठ साहित्य दिल्ली, आगरा और लखनऊ में रचा गया। हिन्दी का क्षेत्र भी यही है। जो लोग इस साहित्य को हिन्दी जाति का साहित्य मानने के पक्ष में नहीं हैं वे बताएं कि यह किस जाति का साहित्य है? क्या उर्दू नाम की भी कोई जाति बसती है? यदि ऐसा है तो उसका भौगोलिक क्षेत्र कौन सा है? क्या एक ही क्षेत्र में एक साथ दो जातियाँ बसती हैं? क्या दुनिया में कहीं ऐसा भी संभव है?

उर्दू का अलग साहित्य मानने के पीछे यदि यह तर्क है कि उसकी लिपि उर्दू है देवनागरी नहीं तो यह तर्क बिलकुल बेबुनियाद है। आज हम अपनी हिन्दी को रोमन तक में लिखते हैं। आज की नयी पीढ़ी हिन्दी का  एसएमएस रोमन में भेजने की अभ्यस्त हो चुकी है जबकि यह रोमन लिपि हिन्दी भाषा के लिए अत्यंत अवैज्ञानिक है। लिपि बदलने से भाषा नही बदल जाती। इतना ही नही, लिपि लिखने के काम आती है न कि बोलने के। हमारे देश मे आज भी एक तिहाई से ज्यादा लोग ऐसे हैं जो लिखना पढ़ना नहीं जानते। उनके बारे में हम कैसे तय करेंगे? हम उर्दू के सारे साहित्यकारों को उर्दू लिपि में भी पढ़ सकते हैं और देवनागरी में भी। जो उर्दू नहीं जानते वे देवनागरी में पढ़ेंगे । इसमे क्या बुराई है? एक भाषा दो लिपियों में पढ़ी जाय तो इसमें हर्ज क्या है? कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत भाषा बंगला लिपि में पढ़ायी जाती है और मैं देखता हूँ कि उससे कोई असुविधा नहीं पैदा होती।

आज तो देखने में यह आता है कि उर्दू के सभी बड़े साहित्यकार उर्दू  के साथ-साथ देवनागरी मे भी छप जाते हैं। निदा फाजली, कैफी आजमी और जावेद अख्तर का श्रेष्ठ साहित्य पूरा का पूरा देवनागरी में भी उपलब्ध है। हिन्दी फिल्मों में इनके गीत हम गाते नही अघाते और दूसरी ओर इन्हें हिन्दी का नहीं मानते। यह दोहरा मापदंड क्यों?

बहरहाल, भले ही हमारे नेताओं ने उर्दू और हिन्दी दोनो को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करके अलग-अलग भाषा का दर्जा दे दिया है, वोट के लिए उर्दू को अघोषित रूप से इस्लाम से जोड़ दिया है, किन्तु अभी तक किसी भाषावैज्ञानिक ने हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग भाषा नहीं माना है। भाषा वैज्ञानिकों की राय ही हमारे लिए सर्वोपरि है, इसलिए हम कह सकते हैं कि हिन्दी और उर्दू एक ही जाति की एक ही भाषा की दो शैलियाँ है और इसीलिए दोनो शैलियों में रचा गया हमारा साहित्य इस देश की सबसे बड़ी जाति – हिन्दी जाति का साहित्य है।

उदाहरणार्थ हिन्दी का नवजागरणकालीन साहित्य हमारी जातीय परंपरा का साहित्य है। इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं- सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी चेतना, रूढ़िवाद का विरोध, इतिहास और परंपरा का नया मूल्यांकन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष, खड़ीबोली हिन्दी का जातीय भाषा के रूप में प्रसार, वैज्ञानिक चेतना और बुद्धिवादी दृष्टिकोण का विकास आदि ।

       इसी तरह मध्यकालीन भक्ति साहित्य भी हमारे जातीय साहित्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। 

          ( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं. )

Leave a reply

Loading Next Post...
Sign In/Sign Up Sidebar Search Add a link / post
Popular Now
Loading

Signing-in 3 seconds...

Signing-up 3 seconds...