हिंदी भाषा में कुछ भी वैचारिक लिखने की कोशिश खतरनाक हो सकती है। देहात के विद्यार्थियों के लिए कुंजी लिखना ही इस भाषा का सर्वोत्तम उपयोग है। साहित्येतर तो हिंदी में अब पाठ्य-पुस्तकों में भी उपलब्ध नहीं होता। अगर गुणवत्तापूर्ण वैचारिक लेखन हिंदी में करना ही है तो ऐसी भाषा में करिए जो देखते ही अनुवाद लगे या नागरी लिपि में करें जिसमें वाक्य रचना और सहायक क्रिया तो हिंदी में हो लेकिन पारिभाषिक शब्द नागरी में हों। इन सभी हिदायतों का उल्लंघन करने से वही होगा जो प्रसन्न कुमार चौधरी की किताब ‘अतिक्रमण की अंतर्यात्रा’ के साथ हो रहा है। विकासशील समाज अध्ययन पीठ के भारतीय भाषा कार्यक्रम के तहत वाणी प्रकाशन से सामयिक विमर्श के बतौर प्रकाशित इस किताब पर अब तक मेरे देखने में कोई समीक्षा नहीं आई है। किताब का उपशीर्षक ‘ज्ञान की समीक्षा का एक प्रयास’ है।
शीर्षक के अनुरूप ही किताब दार्शनिक गहराई लिए हुए है। हिंदी जगत की खामोशी से अचरज इसलिए भी होता है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल, राहुल सांकृत्यायन, मुक्तिबोध और रामविलास शर्मा की भाषा में साहित्येतर के प्रति ऐसी उपेक्षा अनुचित है। या शायद उन्हें भी ऐसी ही उपेक्षा मिलती रही होगी। उस जमाने में शायद प्रगतिशील आंदोलन के चलते पाठकों और लेखकों का मानसिक क्षितिज इतना संकीर्ण न रहा होगा। जो भी हो हिंदी के स्वास्थ्य के लिए यही ठीक होगा कि उसमें वैचारिक गद्य अधिक से अधिक लिखा जाए। आखिर विचार के लायक बनकर ही तो वह समय के बदलाव को झेल सकेगी। भाषा का बुनियादी काम भी मनुष्यों के बीच विचारों का आदान प्रदान है।
समय का यह बदलाव ही लेखक की निगाह में उनकी किताब का औचित्य है। उनके अनुसार पिछली तीन सदियों से जिस वैचारिक माहौल में हम रह रहे थे वह बदल गया है। इस दावे की परीक्षा भी जरूरी है क्योंकि प्रत्येक नए समय को अपनी नवीनता का कुछ अतिरिक्त विश्वास हुआ करता है। इस विश्वास के बिना तमाम वैचारिक कोशिशों का महत्व ही साबित होना मुश्किल हो जाएगा। बदलाव मानव मस्तिष्क की कार्यपद्धति पर खोजबीन केंद्रित होने में निहित है। लेखक के मुताबिक जब भी कोई युगांतरकारी बदलाव आता है तो फिर से अतीत की छानबीन शुरू होती है। अतीत की इस छानबीन के क्रम में उन्होंने संक्षेप में मानव प्रजाति की उत्पत्ति और विकास की कथा कही है। इस वृत्तांत की खूबी यह है कि किसी भी मान्यता को असंदिग्ध सच्चाई की तरह प्रस्तुत करने के मुकाबले एक मान्यता की तरह ही प्रस्तुत किया गया है।
किताब को पढ़ना शुरू करने से पहले एक भ्रम का निवारण जरूरी है। आम तौर पर शरीर को भौतिक से तो चिंतन को अभौतिक की तरह देखा समझा जाता है। लेकिन चिंतन मनुष्य के शरीर के ही एक अंग यानी मस्तिष्क में घटित होता है और मस्तिष्क भौतिक पदार्थ है। किताब को भौतिक और अभौतिक के बीच की खाई को सही तरीके से पाटे बिना समझने में कठिनाई होगी।