पोस्टर और आदमी- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
मैं अपने को नन्हा-सा, दबा हुआ
विशालकाय बड़े-बड़े पोस्टरों
के अनुपात में खड़ा देख रहा हूँ,
जिनकी ओर
एक भीड़
देखती हुई
गुज़र रही है,
हँसती, गाती, उछलती, कूदती, 
एक तेजी, एक भाग-दौड़
एक धक्कम-धूक्का, एक होड़
जिनके चारों ओर है।
मगर वे चुप हैं ।
उन सबके मुख पर एक ही भाव है,
उनकी सबकी एक ही मुद्राएँ हैं
रंगों से भरे-पुरे, चटकीले, भड़कीले
सबके आकर्षणों के केन्द्र
वे सब एक ही जगह पर खड़े हैं 
पोस्टर-विशालकाय पोस्टर
लोग उन्हें देखकर हँसते हैं,
मुंह बनाते हैं, 
उदास हो जाते हैं, 
औरतें उन्हें देखकर मुस्कराती हैं।
होंठ दबाती हैं 
आँखों-आँखों में बात करती हैं
बच्चे टो-टो करते हैं,
खुश होकर चिल्लाते हैं,
तोतली बोली में बुलाते हैं, 
और मैं उनके सामने
नन्हा-सा दवा हुआ खड़ा हूँ,
बे जाना, बे पहचाना
इस प्रतीक्षा में कि शायद
कभी कोई भूली हुई दृष्टि
मुझ पर टिक जाय,
शायद कोई मुझे आवाज़ दे,
शायद किसी की सूनी निगाह
मुझे देखकर शोख हो जाय,
शायद कोई, शायद कोई,
मुझे पहिचाने, मुझे बुलाए...
लेकिन मैं देखता हूँ
कि आज के ज़माने में 
आदमी से ज्यादा लोग
पोस्टरों को पहचानते हैं
वे आदमी से बड़े सत्य हैं। 
जो दूसरे की बात कहते हैं,
जिनमें आकर्षण है लेकिन जान नहीं, 
जो चौराहों पर खड़े रहते हैं,
सबकी राह रोकते हैं, सबको टोकते हैं,
लेकिन किसी से कोई मतलब नहीं रखते, 
जिनमें दिल, दिमाग, आत्मा कुछ भी नहीं है,
महज रंग, गहरा भड़कीला रंग है,
जिनके हृदय नहीं है पर प्यार का संदेश देते हैं, 
जो एक आकार हैं, महज़ प्राकार,
जिसकी कोई सीमा नहीं है,
जिनके भाव दूसरे के हैं,
जिनकी मुद्राएँ
जिनके हाथ, पैर, नाक, कान 
आँख, मुंह, दिल, दिमाग
सब दूसरों के हैं,
जो पोस्टर हैं
महज़ पोस्टर हैं
वे आज के युग में 
आदमी से अधिक बड़े सत्य हैं
उन्हें सब पहिचानते हैं
वे ही महान हैं। 
छीनने आये हैं वे 
और अब
छीनने आये हैं वे
हमसे हमारी भाषा। 
अब, जब हम
हर तरह से टूट चुके हैं,
अपना ही प्रतिबिम्ब
हमें दिखाई नहीं देता, 
अपनी ही चीख
गैर की मालूम पड़ती है,
एक आखिरी बयान
जीने और मरने का
हम दर्ज कराना चाहते हैं,
वे छीनने आये हैं,
हमसे हमारी भाषा। 
बहुत बड़ा जंगल था यह
जिससे हम होकर आये हैं, 
जहाँ शेर चूहे की 
और चूहे शेर की बोली बोलते थे
खरगोश हाथियों की तरह चिंघाड़ते थे 
और हाथी झींगुरों की तरह 
अँधेरे में सिर मारते थे,
चिड़ियाँ चहकतीं नहीं
गीदड़ों की तरह रोती थीं
मुर्गे बाँग नहीं देते थे ।
भेड़ियों की तरह गुर्राते थे,
सब अपनी-अपनी भाषा भूल चुके थे।
केवल हम उसके
बने रहने के बोध के साथ ज़िन्दा थे 
और रात-दिन
भूखे-प्यासे फटेहाल चलते जाते थे। 
और अब
जब हम अपनी यातना
दर्ज कराना चाहते हैं
हमसे छीनने आये हैं वे
हमारी भाषा
उल्लुओं की ज़बान में
कोयल गा सकती है तो गाये
जिसे सिखाना हो उसे सिखाये।
हमारे पास बहुत कम वक्त शेष है
एक ग़लत भाषा में
ग़लत बयान देने से
मर जाना बेहतर है,
यही हमारी टेक है। 
और अब छीनने आये हैं वे 
हमसे हमारी भाषा
यानी हमसे हमारा रूप
जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है 
और जो इस जंगल में
इतना विकृत हो चुका है
कि जल्दी पहचान में नहीं आता। 

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