सिनेमा और संगीत का संबंध आम जनता से होता है. अमीर और गरीब सभी इसका आनंद समान रूप से ले सकते हैं. प्रकृति ने आंख, कान और जिह्वा सबको समान रूप से प्रदान दिया है. अमीरों की आंख में ज्यादा ज्योति हो, उनकी कानों में आवाज अधिक सुनाई देती हो या उनकी जिह्वा ज्यादा स्पष्टता से बोलने में मदद करती हो- ऐसा नहीं है. मनुष्य सिनेमा आंखों से देखता है, कानों से सुनता है और संगीत गुनगुनाने में जिह्वा मदद करती है. मनुष्य, प्रकृति की इस देन को अभी तक अमीरों और गरीबों के बीच स्तर भेद के अनुसार बांट पाने में सक्षम नहीं हो सका है. सिनेमा और संगीत का व्यापार करने वालों के सामने भी आम जनता रहती है क्योंकि इसका संबंध आम जनता के मनोरंजन से होता है. इसीलिए सिनेमा और संगीत का स्तर भेद के अनुसार बंटवारा अभी तक ज्यादा नहीं हो पाया है. इतना ही नहीं, हमारे राजनेताओं की तमाम साजिशों और कोशिशों के बावजूद हिन्दी सिनेमा और संगीत को अभी तक मजहब के अनुसार बांटा नहीं जा सका है. हम कहते तो हैं ‘हिन्दी सिनेमा’, किन्तु उसकी आधी से अधिक पांडुलिपियां उर्दू लिपि में रहती हैं. हिन्दी फिल्मों में गाए जाने वाले गीतों में से लगभग तीन चौथाई गीत मुसलमान और तथाकथित उर्दू कवियों द्वारा रचे गए होते हैं. गुलशन बावरा, कैफी आजमी, अली सरदार जाफरी, मजरूह सुल्तानपुरी, कमाल अमरोही, शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, गुलजार, जावेद अख्तर और निदा फाजली तक अधिंकांश बड़े गीतकार उर्दू के हैं किन्तु न तो उनके गीतों को ‘उर्दू गीत’ कहा जाता है और न तो उनकी फिल्मों को हम ‘उर्दू फिल्में’ कहते हैं .
भारत दुनिया का सबसे अधिक फिल्में बनाने वाला देश है. बहुभाषी होने के कारण यहाँ सिनेमा का विकास क्षेत्रीय आधार पर हुआ है. बांग्ला, मलयालम, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, ओड़िया, मराठी, असमिया, मणिपुरी आदि विभिन्न भाषाओं में फिल्मों का विकास काफी हद तक क्षेत्रीय विशिष्टताओं के साथ हुआ है. लेकिन ठीक यही बात हिन्दी के बारे में उतने ही विश्वास के साथ नहीं कही जा सकती. दरअसल जिसे हिन्दी सिनेमा कहा जाता है वह अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के सिनेमा की तरह सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दी क्षेत्र की नुमाइन्दगी नहीं करता.
फिल्म निर्माण के प्रांरभिक चरण में मुंबई (बम्बई), कलकत्ता तथा मद्रास के अलावा लाहौर भी एक फिल्म निर्माण के केन्द्र के रूप में विकसित हुआ था. लाहौर एक प्रकार से हिन्दी क्षेत्र में पड़ता है. लाहौर का बंटवारे में पाकिस्तान का हिस्सा बन जाने के बाद कहीं भी हिन्दी क्षेत्र में कोई भी फिल्म निर्माण का केन्द्र नही विकसित हो सका. जहां बांग्ला, तमिल, तेलुगु में कला सिनेमा की एक मजबूत धारा बन चुकी है वहां हिन्दी में ऐसा नहीं हो सका. इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि हिन्दी सिनेमा में हिन्दी क्षेत्र से गंभीर कलाकार या निर्माता निर्देशक बहुत ही कम जुड़ पाए. इसकी परिणति इस रूप में हुई कि न सिर्फ व्यावसायिक बल्कि कला फिल्में बनाने वाले भी हिन्दी में फिल्में बनाने के लिए क्लासिक्स और लोक संस्कृति का अध्ययन करना जरूरी नहीं समझते. हिन्दी में एक अनुवादक के सहारे ही वे अपना कार्य सम्पन्न कर लेते हैं. हिन्दी सिनेमा के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर जावेद अख्तर की स्वीकारोक्ति है कि वे कभी गाँव में नहीं रहे, कभी हिन्दी नहीं पढ़ी और हिन्दी लिख भी नहीं सकते ( आई हैव नेवर लीव्ड इन ए विलेज एण्ड इन फैक्ट आई हैव नेवर स्टडीड हिन्दी. आई कैन नाट राइट इट.). इन्दुमिरानी, जावेद ए साफ्ट टच, द पायनियर दैनिक में प्रकाशित लेख, दिनांक 13 दिसंबर, 1997. पृष्ठ-16)
अनुपम ओझा लिखते हैं, “ मैने कई कला फिल्मों की पटकथाएं देखीं. वे भी कामर्शियल फिल्मों की तरह ही रोमन में लिखी गई थीं. हिन्दी दोनों के लिए मुख्यत: बाजार की भाषा है. मुश्किल यह है कि उत्तर भारत में आज तक रंगमंच या सिनेमा के लिए सहायक माहौल नहीं बन सका.” ( भारतीय सिने सिद्धांत, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2002, पृष्ठ.- 83) हिन्दी भाषी क्षेत्रों में यदि आप सिनेमा को गंभीरता से लेते हैं और उसे अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना चाहते हैं तो आप को कोई माहौल नहीं मिलेगा. प्रकाश झा जैसे एकाध अपवाद जरूर हैं. अभी तक हिन्दी सिनेमा के नाम पर जो फिल्में बनी हैं उनमें हिन्दी का परिवेश बहुत कम हैं. श्याम बेनेगल की फिल्मों में चित्रित परिवेश आमतौर से गुजरात, महाराष्ट्र या आन्ध्र प्रदेश का है. मृणाल सेन की फिल्मों में भी अधिकांशत: बंगाल का परिवेश मिलेगा. इन फिल्मकारों ने बड़ा दर्शक वर्ग प्राप्त करने के लिए ही हिन्दी का सहारा लिया है, इन्होंने परिवेश हिन्दी का नहीं लिया. ये हिन्दी क्षेत्र के यथार्थ से परिचित नहीं हैं. यही कारण है कि इनके द्वारा निर्मित हिन्दी फिल्में सही अर्थों में हिन्दी क्षेत्र की नुमाइन्दगी नहीं करती.
जिसे हम हिन्दी सिनेमा कहते हैं, भाषा की दृष्टि से उसने जो परंपरा अपनायी उसकी नींव पारसी थियेटर ने रखी थी और जिसके बारे में पारसी रंगमंच के नाटककार और आरंभिक फिल्मों के पटकथा लेखक नारायण प्रसाद ‘बेताब’ ने कहा था,
“न ठेठ हिन्दी न खालिस उर्दू, जबान गोया मिली जुली हो.
अलग रहे न दूध से मिश्री, डली डली दूध में मिली हो.”
दरअसल बेताब जी ने जिस मिली जुली भाषा का जिक्र किया है वही हिन्दी भाषी क्षेत्र की आम जनता की जबान थी जिसे सबसे पहले रगमंच की हस्तियों ने पहचाना. यही कारण है कि हिन्दी सिनेमा की पटकथा लिखने के लिए हिन्दी और उर्दू दोनो शैलियों के लेखकों का सहयोग मिलता रहा है. यह अकारण नहीं है कि मशहूर फिल्म ‘मुगले आजम’ के निर्माता निर्देशक ने सेंसर बोर्ड से अपनी फिल्म के लिए हिन्दी नाम का सर्टिफिकेट हासिल करना उचित समझा. उल्लेखनीय है कि अमीर खुशरो से लेकर मीर और गालिब तक सबने अपनी भाषा को हिन्दी ही कहा है. हिन्दी उर्दू का भेद बीसवीं सदी के दूसरे तीसरे दशकों में, पढ़े लिखे हिन्दुस्तानियों ने सचेत रूप से पैदा किया और अंग्रेजों की भी इसमें खास भूमिका थी. जैसा कि मैने पहले भी कहा है, आम जनता इस भेद को आज भी नहीं मानती. ‘एनसाइक्लोपीडिया आफ इंडियन सिनेमा’ के अनुसार में 1994 तक सिर्फ 5 फिल्में उर्दू की कोटि में आ सकीं थीं. ( एनसाइक्लोपीडिया आफ इंडियन सिनेमा, बी.एफ.आई, लंदन 1994 )
डॉ. कुंवरपाल सिंह ने राही मासूम रजा द्वारा प्रख्यात धारावाहिक महाभारत की पटकथा लिखने की घटना का रोचक तथ्य प्रस्तुत किया है. उन्होंने लिखा है, “राही से बी.आर.चोपड़ा ने महाभारत लिखने का प्रस्ताव किया तो उन्होंने व्यस्तता के कारण इसे स्वीकार नही किया. लेकिन गजब के पारखी हैं बी.आर. चोपड़ा भी. उन्होंने पटकथा और संवाद के लिए राही का नाम प्रेस कांफ्रेंस में ले लिया और यह बात समाचार पत्रों में छप गई. भारतीय संस्कृति के तथाकथित रक्षकों ने बी.आर.चोपड़ा को विरोध पत्र लिखे जिनका मूल स्वर था कि सारे हिन्दू मर गए हैं जो एक मुसलमान से महाभारत लिखवा रहे हैं? चोपड़ा ने ये पत्र राही साहब के पास भेज दिए. राही की यह एक कमजोर नस थी. वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति के बहुत बड़े अध्येता थे और अपनी जड़ें भी पहचानते थे. भारतीय सभ्यता और संस्कृति के शोध कार्य में उन्होंने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा लगाया था और उर्दू में इस विषय पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक भी लिखी है. अगले दिन उन्होंने चोपड़ा साहब को फोन किया – ‘चोपड़ा साहब, महाभारत अब मैं लिखूंगा. मैं गंगा का बेटा हूं. मुझसे ज्यादा हिन्दुस्तान की सभ्यता और संस्कृति को कौन जानता है.’ इस तरह राही महाभारत लेखन के मिशन में जुड़ गए.”( सिनेमा और संस्कृति, राही मासूम रजा, संपादक, कुंवरपाल सिंह, भूमिका भाग )
सिनेमा के अध्येता प्रह्लाद अग्रवाल के शब्दों में, “ सिनेमा नजर से नजर का खेल है. यह जिसे हम हिन्दी सिनेमा कहते हैं, वस्तुत: हिन्दुस्तानी सिनेमा है जो समूचे हिन्दुस्तान में और जहाँ जहाँ भी हिन्दुस्तानी मूल के लोग निवास करते हैं, उनको भावनात्मक रूप से एक सूत्र में जोड़ने का काम करता है. हिन्दी भाषा जितनी सुगमता से फिल्मों के गानों के माध्यम से विभिन्न भाषा -भाषियों के बीच पहचानी गई, उतनी अन्य किसी माध्यम से नहीं. इसकी निर्मिति में भी हिन्दी- भाषी लोगों की जगह पंजाबी, मुस्लिम, बंगाली, गुजराती, मराठी और यहाँ तक कि दक्षिण भारतीय भाषा -भाषी लोगों का कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण योगदान है. इसी तरह इसकी भाषा और सांस्कृतिक संरचना भी पंचमेल है. इसमें हिन्दुस्तान भर में बोले जाने वाले शब्द और तमाम जातीय- प्रजातीय शब्द और आचार व्यवहारों का समन्वय भी देखने को मिलता है. यह नि:सकोच कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा ने भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र अनेकता में एकता को सही अर्थों में प्रस्तुत किया है.” ( हिन्दी सिनेमा : बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक. (सं.) प्रह्लाद अग्रवाल, संपादकीय, पृष्ठ—23)
हिन्दी फिल्मों का इतिहास लगभग एक सौ वर्ष पुराना है. सन् 1895 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में सिनेमा का जन्म हुआ. 28 दिसंबर 1895 को पेरिस के एक रेस्तरां ‘ग्रैंड कैफे’ में सर्व प्रथम फिल्म प्रदर्शित हुई. दुनिया की इस पहली फिल्म को देखने के लिए सिर्फ 30 व्यक्ति ही आए. दृश्यों का आपस में कोई ताल मेल न था. कहानी, गीत -संगीत, संवाद आदि कुछ भी नहीं था. इस फिल्म में एक शरारती बालक द्वारा पाइप का मुंह दबाकर पाइप द्वारा बाग में माली पर फव्वारा छोड़ना, प्लेटफार्म की भीड़ में ट्रेन का आगमन आदि के दृष्य थे. इस फिल्म को बनाने बाले दो व्यक्ति आगस्ट और लुई लुमियर सगे भाई थे जो फोटोग्राफी का सामान बेचते थे. 1901 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से गणित की परीक्षा में सर्वाधिक अंक पानेवाले भारतीय छात्र आर. पी. परांजपे भारत लौटे तो उनके स्वदेश आगमन के दृश्य को फिल्माया गया जिसे भारत की पहली डाक्युमेंट्री फिल्म माना जाता है. 1902 में कलकत्ता के क्लासिकल थियेटर में के. शशि ने ग्रामोफोन डिस्क पर गीत रिकार्ड कराया. 1905 में जे.एफ. मदन ने फिल्म निर्देशन का काम शुरू किया. उन्होंने 1907 में कलकत्ता में देश का पहला सिनेमा हाल ‘एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस’ बनवाया और 1913 में अपने देश की पहली भारतीय फिल्म का निर्माण प्रारंभ हुआ जिसके जनक थे मराठी भाषी घुंडीराव गोविंद फाल्के ( दादा साहब फाल्के ) और फिल्म थी ‘राजा हरिश्चंद्र’. यह एक गूंगी फिल्म थी जिसका प्रदर्शन 3 मई 1913 को बंबई के ‘कोरेनेशन थियेटर’ में हुआ. विदेश ( लंदन) मे सन् 1914 में प्रदर्शित होने वाली प्रथम भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ ही थी.
उक्त फिल्म में दादा साहब फाल्के ने सब टाईटल्स अंग्रेजी के साथ -साथ हिन्दी में रखे थे तथा जब उन्होंने पहली बार फिल्म में आवाज भी शामिल किया तो हिन्दी का ही प्रयोग किया. इतना ही नहीं, मूक फिल्मों में पर्दे के पीछे बैठ कर संगीत देने की शुरुआत एक गुजराती भाषी द्वारकादास संपत ने की थी. इतना ही नहीं, फिल्मों की अपार व्यावसायिक संभावनाओं को देखते हुए हिन्दी के विशाल दर्शक समुदाय तक पहुंचने के लिए पहली सवाक फिल्म ‘आलम आरा’ के लिए भी हिन्दी- उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी का प्रयोग किया गया. यही हिन्दुस्तान की आम बोलचाल की भाषा है जिसे प्रारंभ से ही फिल्मकारों ने पहचान लिया था. इसी संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि 1931 में बनी कुल 27 फिल्मों में से 22 फिल्में हिन्दी में बनी थी जबकि फिल्म निर्माण के तत्कालीन केन्द्र तब भी अहिन्दी भाषी क्षेत्र में थे तथा इससे जुड़े अधिकांश व्यक्ति भी गैर हिन्दी भाषी ही थे. ह्वी. शांताराम, पी.सी.बरुआ, बिमल राय, सत्यजित रे, श्याम बेनेगल, भूपेन हजारिका जैसे सिनेमा जगत की अधिकांश दिग्गज अहिन्दी क्षेत्र के थे.
हिन्दी सिनेमा और संगीत का रिश्ता ‘आलम आरा’ से जुड़ा. ‘आलम आरा’ 14 मार्च 1931 को बंबई के ‘मैजेस्टिक’ सिनेमा में प्रदर्शित हुई थी. यह संगीत प्रधान फिल्म थी. इसे अर्देशिर ईरानी नामक एक पारसी ने बनाया था. हिन्दी सिनेमा के प्रथम संगीतकार फिरोज शाह मिस्त्री और ईरानी माने जाते हैं. पहला गायक डब्ल्यु. एम. खाँ थे. उन्होंने ‘आलम आरा’ में गीत गाया था. ‘आलम आरा’ के गीतों से ही फिल्मकारों को समझ में आ गया कि संगीत, दर्शको को आमंत्रित करता है. इसके बाद बनी ‘इंद्र सभा’ में 71 गाने थे. वह पूरी फिल्म पद्य में थी. ‘आलम आरा’ की नायिका जुबैदा से भारतीय फिल्मों में नायिका –अभिनेत्री का दौर शुरू हुआ. संवादों के साथ-साथ पार्श्व संगीत देने की शुरुआत ‘अमृत मंथन’ ( 1934) से हुई. प्रभात फिल्म्स के बैनर तले निर्मित इस फिल्म के निर्देशक शांताराम और संगीत निर्देशक के. भोंसले थे.
साहित्य और सिनेमाके संबंध का जिक्र करते हुए प्रेमचंद ने लिखा है, “उनका (सिनेमा) उद्देश्य सिर्फ पैसा कमाना है. सुरुचि या सुन्दरता से उनका कोई प्रयोजन नहीं. वह तो जनता को वही चीज देंगे जो वह माँगती है. व्यापार व्यापार है. वहाँ अपने नफे के सिवा और किसी बात का ध्यान करना ही वर्जित है……. जिस शौक से लोग शराब और ताड़ी पीते हैं उसके आधे शौक से दूध नहीं पीते. साहित्य दूध होने का दावेदार है. सिनेमा ताड़ी या शराब की भूख को शांत करता है. जबतक साहित्य अपने स्थान से उतरकर और अपना चोला बदलकर शराब न बन जाय, उसका वहाँ निर्वाह नहीं. साहित्य के सामने आदर्श है, संयम है, मर्यादा है. सिनेमा के लिए इनमें से किसी वस्तु की जरूरत नहीं. सेंसरबोर्ड के नियंत्रण के सिवा उसपर कोई नियंत्रण नहीं.” ( उद्धृत, सिनेमा और जीवन, हिन्दी सिनेमा का सच, समकालीन सृजन, (सं.) मृत्युंजय, पृ. 12)
हिन्दी सिनेमा को लेकर प्रेमचंद की उक्त अवधारणा उनके अपने अनुभवों का परिणाम थी. मेरा अपना अनुभव है कि बांग्ला फिल्मों के बारे में प्रेमचंद ठीक यहीं बातें नहीं कह सकते थे. बंगला के प्रभाव से ही सही, हिन्दी क्षेत्र में भी नवजागरण हुआ था जिसके अग्रदूत भारतेन्दु थे. इतना ही नहीं, हिन्दी क्षेत्र में भक्ति आन्दोलन जैसा बड़ा सुधारवादी आन्दोलन हो चुका था जिसका व्यापक असर रवीन्द्रनाथ जैसे विश्वकवि पर भी पड़ा था ( उल्लेखनीय है कि रवीन्द्रनाथ ने कबीर के एक सौ पदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया था. उन्होंने सूर और तुलसी पर कविताएं लिखी थीं ) रामविलास शर्मा ने इस भक्ति आन्दोलन को लोक जागरण का काव्य कहा है. किन्तु अपनी इस विरासत से हिन्दी सिनेमा ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया. इसका मुख्य कारण यही है कि हिन्दी फिल्मों के निर्माता, हिन्दी की जातीय संस्कृति से गहराई से परिचित नहीं थे. इतना ही नहीं, वे परिचित होने की कोशिश भी नहीं करते हैं. प्रकाश झा को छोड़ दें तो हिन्दी सिनेमा का एक भी बड़ा निर्माता हिन्दी क्षेत्र का नहीं दिखाई देता. हिन्दी के जायादातर दर्शक भी सुसंस्कृत नहीं हैं. हिन्दी की आर्ट फिल्में आमतौर पर असफल साबित होती रही हैं. हिन्दी फिल्मों का अधिकांश दर्शक या तो मारधाड़ और सेक्स देखने सिनेमा हालों में जाता है या हँसने के लिए. किसी तरह का संदेश देने वाली कलात्मक और गंभीर फिल्में हिन्दी दर्शकों को बोर करती है. इस तरह के संस्कार उनमें विकसित नहीं हो सके हैं. इसीलिए हिन्दी कला फिल्मों के निर्माण के बारे में निर्माता हजार बार सोचता है. बांग्ला में स्थिति इससे बिलकुल अलग है. वहाँ कला फिल्में इस तरह फ्लाप नहीं होतीं. वहाँ कला और व्यावसायिक फिल्मों के अनुपात के आधार पर अंतर आसानी से समझा जा सकता है. इससे पता चलता है कि हिन्दी की तुलना में बांग्ला फिल्मों के दर्शक अधिक सुसंस्कृत और संपन्न अभिरुचि के हैं.
सत्यजीत रे अपनी फिल्मों में जिस विरासत को लेकर चल रहे थे वह बंगाल का पुनर्जागरण था. राजा राम मोहन राय, केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद विद्यासागर और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जिस संस्कृति और दर्शन को प्रतिष्ठित किया था सत्यजीत रे ने उसी विचारधारा को आत्मसात किया और उसे ही अपने सिनेमा में अभिव्यक्त किया. उनकी क्लासिक कृति ‘पाथेर पांचाली’ में आलोचकों को भारतीय जन नाट्य संघ की परंपरा के साथ साम्य दिखायी देता है क्योंकि इसमें ग्रामीण बंगाल में व्याप्त निर्धनता की परिस्थितियों का चित्रण है लेकिन वह परिवार जिसके जीवन को उन्होंने कथ्य बनाया है पहले के संपन्न वर्ग से संबंधित था. इतना ही नहीं, 1981 में सत्यजीत रे द्वारा बनाई गई फिल्म ‘सद्गति’, जो प्रेमचंद की इसी नाम से प्रकाशित कहानी पर आधारित है, यह प्रदर्शित करती है कि हिन्दू समाज में सबसे निचले तबके का एक जाति च्युत व्यक्ति भी हिन्दू धर्म के सामाजिक नियमों से कितनी मजबूती से जकड़ा हुआ है.
यह सही है कि हिन्दी सिनेमा के निर्माता अहिन्दी भाषी ही अधिक हैं और जैसा कि प्रेमचंद ने लिखा है कि पैसा कमाना ही उनका मुख्य उद्देश्य रहता है किन्तु हिन्दी सिनेमा के इस दमघोंटू वातावरण में भी श्याम बेनेगल, विमल राय, गोविंद निहलानी, मृणाल सेन, के.ए. अब्बास, गौतम घोष, केतन मेहता, कुमार शाहनी, एम.एस. सथ्यू,, जाह्नु बरुआ, बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, मणि कौल, सागर सरहदी तथा अपर्णा सेन जैसे निर्माताओं की उपस्थिति से हिन्दी सिनेमा समृद्ध हुआ है. हिन्दी दर्शकों के हिस्से में ऐसी फिल्में भी आईं जिनसे उनकी सामाजिकता समृद्ध हुई. श्याम बेनेगल की ‘मंडी’ और अपर्णा सेन की ‘परमा’ जैसी फिल्में स्त्री शोषण, उत्पीड़न और विद्रोह पर आधारित हैं. इन फिल्मकारों की ‘आक्रोश’, ‘भुवन सोम’, ‘अर्धसत्य’, ‘आघात’, ‘दामुल’, ‘परिणति’, ‘गर्म हवा’, ‘सूखा’, ‘पार’, ‘मंथन’, ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘सारा आकाश’, ‘रजनी गंधा’, ‘दुविधा’, ‘माया दर्पण’, ‘अनुभव’ आदि फिल्मों ने समाज को बेहतर संदेश देने का जोखिम उठाया और सिनेमा के प्रति एक उम्मीद जगायी. किन्तु यह उम्मीद अधिक समय तक कायम नहीं रह सकी और लोकप्रिय सिनेमा के पैरोकारों के सामने कला फिल्मों की यह दुनिया सिकुड़ती चली गई. लोकप्रिय फिल्मकारों के अपने तर्क हैं. उनके अनुसार फिल्मों में प्रदर्शित हिंसा, सेक्स, बलात्कार, नग्नता, अश्लीलता, व्यभिचार, चरित्रहीनता आदि हमारे समाज के यथार्थ हैं. किन्तु सचाई यह है कि सिनेमा में प्रदर्शित होने वाली ये विद्रूपताएं समाज में अधिक बिकती हैं, उसमें मुनाफा ज्यादा है. और जाहिर है, सिनेमा एक उद्योग है जिसका मुख्य उद्देश्य मुनाफा कमाना ही है.
नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन और अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के विशवव्यापी प्रसार से हिन्दी फिल्में बुरी तरह प्रभावित हुई हैं. इन दिनों निर्मित हिन्दी फिल्में एक ओर यदि अभिजातवर्ग की परिवार केन्द्रित भावनात्मक समस्याओं को लोकप्रिय मुद्दा बना रही हैं तथा उदारीकरण तथा निजीकरण से उत्पन्न समाज के एक हिस्से की समृद्धि को महिमा- मंडित कर रही हैं तो दूसरी ओर समाज के अपराधीकरण को भी महिमा मंडित कर रही हैं. वैश्वीकरण के बाद माफिया गिरोहों की कारस्तानियों को कई तरह से और बार- बार फिल्माया गया है.
विगत दो दशकों में हिन्दी सिनेमा ने अपनी बची – खुची जातीय और लोक परंपराओं को भी काफी हद तक भुला दिया है. अब हिन्दी फिल्मों का संबंध ग्रामीण यथार्थ से लगभग खत्म हो चुका है. मल्टीप्लेक्स के आगमन ने हिन्दी सिनेमा की पूरी संस्कृति को ही बदल कर रख दिया है. पहले बड़े- बड़े सिनेमा हालों में समाज के सभी तबकों के लोग एक साथ बैठकर फिल्में देखते थे. यद्यपि वहाँ भी दर्शकों में स्तर -भेद था और टिकटों के दाम अलग -अलग थे किन्तु आज की तरह नहीं. आज मल्टिप्लेक्स में एक साथ तीन- तीन चार -चार फिल्में दिखायी जाती हैं. अंग्रेजी बोलने वाला उच्च और उच्च मध्य वर्ग अपने समकक्ष दर्शकों के साथ बैठकर छोटे- छोटे हालों में फिल्में देखता है. इन्हीं दर्शकों को ध्यान में ऱखकर आज फिल्मों का उत्पादन भी हो रहा है.
इस सदी के पहले दशक और उसके आस- पास बनने वाली हिन्दी फिल्मों के शीर्षकों पर यदि नजर दौड़ाएं तो इस परिवर्तन की कुछ बानगी देखी जा सकती है. पहले जहाँ शीर्षक शुद्ध हिन्दी या हिन्दुस्तानी में हुआ करते थे, वहाँ अब ‘वैलडन अब्बा’ ( 2010), ‘मेरे ब्रोदर की दुल्हन’ ( 2011), ‘डबल धमाल’ ( 2011), ‘आलवेज कभी कभी (2011), ‘एक था टाईगर’ ( 2012) ‘साहब, बीबी और गैंगस्टर्स रिटर्न’ ( 2013), ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ ( 2013) जैसे शीर्षकों वाली फिल्मों की बाढ़ आ गई. हिन्दी जाति के पिछड़ेपन का यह एक खास नमूना है. पिछले दिनों तो हिन्दी फिल्मों के पूरे के पूरे शीर्षक ही अंग्रेजी के देखे गए. जैसे ‘बाडीगार्ड’ ( 2011), ‘दी डर्टी पिक्चर’ ( 2011), ‘वन्स अपोन ए टाईम इन मुम्बई’ ( 2010), ‘सन आफ सरदार’ ( 2012), ‘शूट आउट ऐट वडाला’ ( 2013), ‘स्पेशल -26’ ( 2013),‘पीके’ ( 2014) आदि.
इस तरह आज हिन्दी सिनेमा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादों के लिए उपभोक्ता तैयार करने का माध्यम बन गया है. यह उपभोक्ता वर्ग तभी तैयार हो सकता है जब दर्शकों को उनकी अपनी देशज संस्कृति से च्युत किया जा सके, और यह काम भाषा को विकृत करके सबसे आसानी से किया जा सकता है. आज बाजारवाद यह कुचेष्टा कर रहा है कि हिन्दी भाषी संस्कृति की जड़ों को ही सुखा दिया जाय. बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने इस उद्देश्य में सफल होती जा रही हैं. हिन्दी फिल्मों की भाषा हिन्दी या हिन्दुस्तानी की जगह हिंग्लिश होती जा रही है और इस तरह हिन्दी सिनेमा अपनी जातीय छबि को ध्वस्त और विकृत करता जा रहा है.
कला-फिल्मों पर थोड़ी अलग से चर्चा जरूरी है. सातवें दशक के आरंभ से सिनेमा का मूल्यांकन कलात्मक आधार पर उसे दो वर्गों में बांटकर किया जाने लगा.- कला सिनेमा (आर्ट फिल्म) और लोकप्रिय सिनेमा (पापुलर फिल्म). लोकप्रिय सिनेमा की प्रतिक्रिया में साठ के दशक से ही फिल्मकारों का अलग वर्ग उभरना शुरू हो गया था जिसे ‘समान्तर सिनेमा’, ‘कला सिनेमा’ और ‘नया सिनेमा’ जैसे नामों से पुकारा जाने लगा. इस तरह की फिल्मों की विशेषताओं में छोटा बजट, यथार्थ पर केन्द्रित विषय वस्तु और भारतीय दृश्य महत्वपूर्ण है. भारत में कला सिनेमा की आन्तरिक प्रेरणा के स्रोत सत्यजित रे माने जाते हैं जिन्होंने 1955 में ‘पाथेर पांचाली’ बनाकर विश्व सिनेमा में भारतीय सिनेमा को जगह दिलायी. हिन्दी को छोड़कर बाकी भाषाओं में कला फिल्मों नें अपने स्थाई दर्शक बना लिए तथा उनकी निर्माण गति तुलनात्मक रूप से ज्यादा है. व्यावसायिक सिनेमा के माफियओं ने भी कला फिल्मों के प्रदर्शन और वितरण को बुरी तरह प्रभावित किया है. प्रख्यात अभिनेता उत्पल दत्त के शब्दों में, “ ये (माफिया ) लोग सत्यजित रे की किसी फिल्म को अनिश्चित काल तक रोके रख सकते हैं, मृणाल सेन को बांग्ला से खदेड़कर तेलुगू में फिल्म बनाने पर मजबूर कर सकते हैं, सथ्यू ‘गर्म हवा’ के धमाके के बाद कोई दूसरी हिन्दी फिल्म नहीं बना सके.” ( उत्पल दत्त का लेख, भारतीय सिनेमा : गुस्सा करने का समय, इतिहास बोध, सिनेमा अंक-19, पृष्ठ-8)
हिन्दी जाति के संगीत को ‘हिन्दुस्तानी संगीत’ कहा जाता है. संगीत की इस दुनिया में उर्दू – हिन्दी का बँटवारा नही किया जा सका है. हम आज भी हिन्दी के जातीय संगीत को ‘हिन्दुस्तानी संगीत’ ही कहते हैं. इस संगीत का इतिहास वैदिक काल से शुरू होता है. इसकी परंपरा को हिन्दी जाति के जिन दिग्गजों ने समृद्ध किया है उनमें हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी. तानसेन इस परंपरा के सिरमौर हैं. आधुनिक काल में इसे उस्ताद बिस्मिल्ला खां, अमजद अली खां जैसे मुसलमानों से लेकर पंडित रविशंकर तक और उधर सुरैया, मोहम्मद रफी से लेकर मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, किशोर कुमार और लता मंगेस्कर तक सबने मिलकर समृद्ध किया है. हिन्दी के भक्ति साहित्य का संगीत से घनिष्ठ संबंध का विशलेषण करते हुए रामविलास शर्मा ने संगीत के इतिहास पर एक पूरी पुस्तक लिखी है. उनकी मान्यता है कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत दोनो को भक्ति साहित्य की महत्वपूर्ण देन है. उनके अनुसार ध्रुपद और धमार गायकी ब्रज की थी और वहीं से वह ग्वालियर – आगरा और फिर दिल्ली के दरबारों में पहुंची थी. यही ब्रज भाषा काव्य की भी भाषा थी और संगीत की भी. यही हिन्दुस्तानी संगीत और हिन्दी साहित्य के वैभव का युग भी है. आचार्य बृहस्पति का उद्धरण देते हुए रामविलास शर्मा ने हिन्दी भाषा, ब्रज और हिन्दुस्तानी संगीत में अमीर खुसरो की देन को बड़े आदर के साथ याद किया है. वे ब्रज में जन्मे थे. उसके बाद अवध और फिर दिल्ली पहुंचे थे. अमीर खुसरो की रुझान शास्त्रीय संगीत की तुलना में लोक संगीत पर अधिक थी. रामविलास शर्मा के अनुसार संतों की संस्कृति जनवादी थी. उनके पद, लोकगीतों की ही एक उठी हुई लहर थी. इसीलिए आज भी शास्त्रीय गायक सूर –मीरा के पद गाते या साज पर कोई लोकधुन बजाते हैं या फिर गायिकाएं कजरी इत्यादि से समापन करती हैं और इस तरह संगीत के मूल स्रोत को प्रणाम करती हैं. तानसेन की संगीत की इस परंपरा को परवर्ती काल में मल्लिकार्जुन मंसूर, पलुस्कर, उस्ताद फैयाज खाँ, बड़े गुलाम अली खाँ, भीमसेन जोशी, सिद्धेश्वरी देवी, किशोरी मोनकर, पंडित रविशंकर, बिस्मिल्ला खां, अलाउद्दीन खां जैसे संगीतकारों ने समृद्ध किया है. हिन्दी प्रदेश से ही हिन्दी भाषियों का यह जातीय संगीत पश्चिम में महाराष्ट्र और पूर्व में बंगाल तक फैला है.
लोकभाषाओं में संचित आंचलिक साहित्य और शासक वर्ग की भाषा में रचित शिष्ट साहित्य के बीच का चरित्रगत भेद उसके साहित्य में साफ दिखायी देता है भले ही उसपर अभी पंडितों की पैनी और वैज्ञानिक दृष्टि न पड़ी हो. आंचलिक साहित्य, जिसे मैं लोक साहित्य कहना अधिक उपयुक्त समझता हूं बहती नदी के समान होता है, फलत: बहने के क्रम में धारा बहुत कुछ छोड़ देती है और इसी तरह नए तत्वों को अपने साथ बहाकर ले भी जाती है. लोक अपने आनंद में उसी तरह उत्फुल्ल होता है जैसे प्रकृति होती है. इसीलिए लोक का रचनात्मक आनंद कहीं भी व्यक्तिगत नहीं है. इस आनंद पर सबका अधिकार है. लोक गायकी में व्यक्तिगत गायकी है ही नही. औरत और पुरुष सामूहिक रूप से सोहर, फाग, कजरी, चैता आदि गाते हैं. अनेक सुरों की एकतानता से न किसी का अहंकार व्यक्त होता है न किसी की हीनता. लोक की समस्त जीवन पद्धति और उसकी समस्त कला संरचनाओं का मूल लक्ष्य सत्य के करीब पहुँचने के साथ आत्म-मुक्ति के आनंद को प्राप्त करना होता है. अपनी भावनाओं के विस्तार के लिए उसने प्राकृतिक उद्दीपनों को अपनी काव्य चेष्टाओं में अभिव्यक्त किया है. वसंत, वर्षा, शरद्, ग्रीष्म आदि के अनुभवों ने उसके भीतर जो संवेदनाएं जागृत कीं उन्हीं संवेदनाओं के परिणाम स्वरूप उसने लोक कलाओं के स्फुरणों को समेटा है. चांचर, फाग, धमार, कजरी जैसी लोक गायकी में ऋतु उद्दीपनों के साथ जैविक अनुभूतियों की अनुगूंज भी लय संरचना के रूप में रही होगी. उसके विषय वृत्त में क्रमश: फैलाव आता गया.
लोक और शिष्ट समुदाय के वाद्य भी अलग-अलग हैं. हुड़का, करताल, झांझ, मृदंग, ढोलक, नगारा, मजीरा, झाल, खंजड़ी, सिंघा आदि हिन्दी क्षेत्र के प्रचलित लोक वाद्य हैं.
इस तरह सारी दुनिया में हिन्दी फिल्मों ने अपने गीतों के माध्यम से हिन्दी भाषा और हिन्दी की जातीय संस्कृति को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है फिर भी हिन्दी की जातीय संस्कृति के प्रति हमारे देश के आम नागरिकों में सम्मान का भाव नहीं जाग सका है और न तो हिन्दी समाज ही अपनी विरासत को ठीक से पहचान सका है. खेद है, दुनिया के सामने आज भी हिन्दी जाति की अपेक्षित सम्मान जनक छबि निर्मित नहीं हो सकी है.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)